स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएँ
आज की
कविता में लोक तत्त्व लगातार गायब होता जा
रहा है। हो भी क्यों न? जब लोक से
जुड़ाव ही न हो तो यह आएगा कहाँ से। इसे
जबरन नहीं लाया जा सकता। लोक कथाएँ, लोक
कविताएँ, लोक गीत यह पीढ़ी दर पीढ़ी
चलने वाली परम्परा है। दुर्भाग्यवश अब इस लोक परम्परा के अन्त की शुरुआत हो चुकी है। ऐसे में कुछ कवि हैं जिनके यहाँ यह लोक आज भी अधिक पुष्ट दिखायी पड़ता है। ऐसा इसलिए है कि इस तरह के कवि की जमीन उस लोक पर ही आधारित है जो उन्होंने देखा, सुना और
जिया है और जो उनकी कविता में स्वाभाविक
रूप से आता है। स्वप्निल श्रीवास्तव ऐसे ही कवि हैं जिनके यहाँ यह लोक करीने से सुरक्षित और संरक्षित है। जिनके यहाँ यह लोक सांस की तरह बार-बार आता है। यह कवि की काव्य प्रतिबद्धता है कि वह लोक उनके यहाँ आज की जरूरत या आज के प्रश्न के रूप में ढल जाता है। यही तो लोक की ताकत होती है। स्वप्निल जी एक सहज सरल इंसान हैं। यह सरलता सहजता उनकी कविताओं में स्पष्ट दिखायी पड़ती है।
पहली बार के लिए आज की पोस्ट इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह उसके लिए एक हजारवीं पोस्ट है। लगभग नौ साल पहले प्रायोगिक तौर पर हमने जो सफ़र शुरू किया था उसने आज किस तरह यह मुकाम पूरा कर लिया, कहना
मुश्किल है। पहली बार इस पड़ाव
के लिए उन सभी रचनाकार साथियों का आभारी है जिन्होंने एक आग्रह मात्र पर बिना ना नुकुर किए अपनी रचनाएँ हमें प्रदान कीं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है कवि स्वप्निल श्रीवास्तव की कुछ नई कविताएँ।
स्वप्निल
श्रीवास्तव की कविताएँ
यह एक ऐसा समय था
अजीब सा समय था
कोई किसी से बोलता नहीं था
न इशारे से बात करता था
उन्हें डर था कि उन्हें देखा जा रहा है
जगह–जगह जासूसी कैमरे छिपा
दिये गये थे
हवाओं की तरह आसपास
मुखविर थे
जो बोलने के लिये विख्यात थे
उन्होंने मुखौटे पहन लिये थे
लिखने वालों ने कलमदान को अपनी
कलम सौंप दी थी
स्याही बनाने वालों ने किसी दूसरे पेशे
का चुनाव कर लिया था
आदेश न मानने वालों को एकांतवास
में भेज दिया गया था
यह एक ऐसा समय था जब हमें
अपने सांसो से भय लगने
लगा था
राक्षस
बहुत प्रबल है उसकी भूख
वह खा लेना चाहता है
हमारी जमीन, सडकें और पुल
वह
हमारी नदियों का पानी
पी
लेना चाहता है
इस
मामले में वह अगस्त्य मुनि है
उसकी
राक्षसी भूख लगातार
बढ़ती
जा रही है
उसे
रोज खाने को कुछ न कुछ
चाहिए
वह
कई जन्मों का भूखा हुआ
आदमी
है
मां
ऐसे राक्षसो की कथा सुनाते
हुए
कहती थी कि ऐसे राक्षस
तब
तक नहीं मरते, जब तक यह
पता
न चले कि उनकी जान
कहां
छिपी हुई है
एक आदमी के बारे में
मैं
एक ऐसे आदमी को जानता हूं
जो
पिछले कई सालों से अपने गांव
नहीं
गया है
उसने
पेरिस, न्यूयार्क,
टोकियो की
अनेक
बार यात्राएं की हैं
देश
के सुदूर जगहों पर इस तरह
जाता
है, जैसे हम शहर के एक मुहल्ले
से
दूसरे
मुहल्लों में आते जाते हैं
उसका
गांव उसके वर्तमान पते से
पांच
सौ कि. मी. से ज्यादा दूर
नहीं
है
लेकिन
उसके लिये यह दूरी पहाड़
बन
चुकी है
गांव
में उसके पिता अपने अंतिम
दिनों
में हैं
मां
को मुश्किल से दिखाई देता है
लेकिन
अपने बेटे को देखने के लिए
रोशनी
बचा कर रखी हुई है
जिन
लोगो ने उसे जन्म दिया है
जहां
रह कर उसने बोलना और चलना
सीखा
है – वह उससे बहुत दूर आ गया है
वह
विश्वविख्यात समाजशास्त्री है
जो
अपने व्याख्यानों में बताता रहता है
कि
यह दुनिया वैश्विक गांव मे बदल
चुकी
है
लेकिन
उसे अपने मातृभूमि जाने की
फुरसत
नहीं मिलती।
भवसागर
जिस
नांव को तुम मझधार में
छोड़
कर चली गयी थी
उसे
किनारे तक लाने में काफी
समय
लगा
कभी
नदी में आ जाती थी बाढ़
कभी
तूफान का सामना करना
पड़ता
था
कभी
नदी में इतना कम पानी
हो
जाता था कि ठहर जाती थी नांव
मुझे
बारिश का इंतजार करना
पड़ता
था
मुझे
नांव को नहीं माल–असबाब को
बचाना
था
इन्हीं
बचे हुए सामानों से मुझे
बनाना
था घर
कई
बार मुझे पतवारों ने धोखा दिया
अनेक
बार दिशा–भ्रम का शिकार हुआ
मझधार
में कोई मुझे बचाने
नहीं
आया
लोग
मेरे डूबने की प्रतीक्षा करते रहे
मैं
ही जानता था कि कितने दारूण
थे
भवसागर के दुख
मेरे
पास अगर जीने की इच्छा न
होती
तो लहरों ने मुझे न जाने
कब
डुबा दिया होता
तस्वीर
बचपन
की कोई तस्वीर नहीं है
मेरे
पास
मां
की आंखों में थी मेरी तस्वीर
लेकिन
वह उन्हीं दिनों मुझे
छोड़
कर चली गयी थी
बहुत
दिन बाद मैं कैमरे के सामने
आया
था
गोकि
मुझे अब भी कैमरे के
सामने
खड़े होने की तमीज
नहीं
है
मुझे
मुख-मुद्रा बनाने का अभ्यास
नहीं
है, इसलिए गडबड आती है
मेरी
तस्वीर
फोटोग्राफर
के लाख ताकीद के बावजूद
मैं
स्वाभाविक मुद्रा में नहीं आ पाता हूं
कालेज
के दिनों में झटपट स्टूडियो
के
फोटोग्राफर मेरी जो तस्वीर
निकालते
थे, उसमे मेरी फोटो की जगह
एक
हारर चेहरा सामने आता था
वह
जासूसी फिल्मों के किसी अदृश्य पात्र
की
याद दिलाता था जो फिल्म की
पटकथा
में गुम हो गया था
हां
- जिन दिनों मैं प्रेम में था
उन
दिनों मेरी तस्वीर खूबसूरत
आती
थी
इस
तरह मैंने जाना कि
अच्छी
तस्वीर के लिये प्रेम
करना
जरूरी है।
रेलवे स्टेशन
इस
रेलवे स्टेशन से मैंने
जाने
मैंने कितने लोगो को
विदा
किया है
कितने
लोगो के लिये हिलाएं हैं
अपने
हाथ
कितनी
बार खाली हुआ है
मेरा
अश्रु–कोष
कितनी
बार भीगी है मेरी
रूमाल
रेल
के जाने के बाद कितनी बार
पत्थर
के बेंच पर बैठ कर
पत्थर
हो गया हूं
अपने
प्रिय लोगों को विदा
करने
के बाद कितना अकेला
हो
गया हूं
मैं
जानता हूं जिस दिन मैं
इस
शहर से जाऊंगा मुझे कोई नहीं
आएगा
विदा करने
बिल्लियां
मेरी
तरह बहुत लोगों के पास
बिल्लियों
के साथ रहने के अनुभव होंगे
याद
होगी उनकी आक्रामक मुद्राएं
अंधेरे
में चमकती हुई आंखे
सन्नाटे
में झम्म से कूद जाना
वह
बेआवाज अपने शिकार
की
तरफ बढ़ती है और उसे
लहुलुहान
कर देती है
शेर
के कुल में जन्म लेने के
कारण
उसे बिल्ली मौसी के नाम से
सम्बोधित
किया जाता है
वह
गौरैया की तरह घरेलू है
लेकिन
दोनों मे शिकारी और शिकार
का
रिश्ता है
दोनो
का एक साथ घर में
रहना
मुश्किल है
इस
कविता में जब मैं बिल्लियों
की
बात करता हूं – तो मेरे सामने
सिर्फ
बिल्लियां नहीं होती
अपनी उम्र भूल कर
चलो
हम अपनी उम्र भूल कर
बेतकल्लुफ
हो जाय
पुराने
दिनों के किस्से याद करें
आवारगी
के लिये किसी दूसरे
शहर
की खोज करे
इस
शहर में रहते–रहते हम
ऊब
गये हैं
किसी
को नये शहर की सूचना न दें
अपने
पंख खोल कर उडें
परिंदों
को उनके नाम से बुलाएं
नदियों
और फूलों के छेड़छाड़ के
जुर्म
में गिरफ्तार हो जाएं
थोड़ी
बदनामी तो होगी लेकिन हम
मशहूर
तो हो जाएंगे
कुछ
ऐसा करिश्मा करते हैं
कि
लोगो को पता चले कि
इस
तरह के जोखिम उठाने वाले
लोग
इस दुनिया में बचे हुए हैं
बेगानगी
जो
शहर अपनी आवारगी के लिये
विख्यात
था - वहां गज़ब की
बेगानगी
है
जो
लोग इस शहर को जिंदा
रखे
हुए थे, वे बूढ़े हो गये हैं
कुछ
लोगो ने स्वर्ग का रास्ता
तय
कर लिया है
उनके
वंशज पूंजी के खतरनाक
खेल
में उलझ चुके हैं
कलाएं
उनके लिये वक्त बरबाद
करने
के अलावा कुछ नहीं है
इस
शहर के लिए उनकी आत्मा
बेचैन
नहीं होती
वे
इससे बड़े किसी शहर की
कल्पना
करते हैं
जिसका
इस शहर से कोई वास्ता
नहीं
है – वह इस शहर के शासक
बने
हुए हैं
अदम्य इच्छा
जब
जूडें बांधने के लिए
उठते
हैं तुम्हारे हाथ
मैं
हतप्रभ हो उठता हूं
तृण
की तरह टूटने लगता
है
मेरा धैर्य
अदम्य
होने लगती हैं
इच्छाएं
तब
मेरे सामने आत्मसमर्पण के अलावा
कोई
दूसरा रास्ता नहीं बचता
सम्पर्क
510
– अवधपुरी कालोनी
अमानीगंज
फैज़ाबाद
– 224001
मोबाइल
– 09415332326
बढ़िया कविताएं।
जवाब देंहटाएंलाजवाब सृजन
जवाब देंहटाएंस्वप्निल जी की सभी कविताएं प्रिय लगती हैं।' रेलवे स्टेशन ' कविता बहुत प्रिय लगी।
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