मिथिलेश कुमार राय के कविता संग्रह 'ओस पसीना बारिश फूल' पर आशीष सिंह की समीक्षा ‘कविता का वसंत सबका शुभ चाहता है’।




युवा कवियों में इधर जिस कवि ने अपनी कविताओं से ध्यान आकृष्ट किया है उसमें मिथिलेश कुमार राय का नाम प्रमुख है। मिथिलेश के पास कई महत्त्वपूर्ण कविताएँ हैं जो जीवन और जमीन दोनों से जुड़ी हुई हैं। इस कवि का एक कविता संग्रह आया है : 'ओस पसीना बारिश फूल'। इस संग्रह पर एक आलोचनात्मक  आलेख लिखा है युवा आलोचक आशीष सिंह ने। आशीष की खूबी यह है कि वे रचनाओं की तह में उतर कर उसकी गहन पड़ताल करते हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है मिथिलेश कुमार राय के कविता संग्रह  'ओस पसीना बारिश फूल' पर आशीष सिंह की समीक्षा कविता का वसंत सबका शुभ चाहता है


कविता का वसंत सबका शुभ चाहता है

(मिथिलेश कुमार राय की कविताएं पढ़ते हुए)

आशीष कुमार सिंह


(1)

मैंने जब से होश संभाला


मिथिलेश कुमार राय एक युवा कवि हैं। समकालीन हिंदी जगत की कई पत्रिकाओं में उनकी कवितायें पढ़ने को मिलती रही हैं। पिछले दिनों उनका पहला कविता संकलन 'ओस पसीना बारिश फूल' नाम से प्रकाशित हुआ है। जैसा कि कविता संकलन का नाम ही अपनी कहानी खुद कहता मिलता है। यहाँ पसीने की खुशबू और बारिश में भीगते अनथक श्रमरत जनों की जैसी साधारण जिंदगियों की सामान्य सी लगती हसरतें हैं, हंसी है तो आज की चिंता से निबटने को आतुर मन है। जब  भी  मैं इस युवा कवि  की  कविताओं से बातचीत करता यहाँ मौजूद सहजता अनायास ही खींच लेती। लेकिन जटिल भावबोध व  गूढ़ काव्यनिष्पत्तियों का आदी मन भला सरल सहज जिंदगी को क्यों कर भाता! हमारी काव्यरुचियां किस कदर भोथरी और पराई हो चुकी हैं कि देशज भाव जगत तक पहुंच बनाने बनाने की  तरकीबें इजाद करते मिलते हैं। हमारा हिंदी जगत हिंदी समाज से कितना गहरे जुड़ा है इसकी परख इस बात से भी हो सकती है कि हमारा भाषाई कलेवर, पदबंध और मुहावरों में कौन सी आवाजें सुन पड़ रहीं हैं। खैर! हम मिथिलेश की इन कविताओं में ऐसी सामान्य जिंदगी की कहानी जरूर पा जाते हैं जो  आसपास घटित सी लगने  लगती है। या इस साफगोई से कही गई है   कि चाहे-अनचाहे स्मृतियों में दर्ज रह जाती है। जब कोई कविता या उसका अंश,  भाव किसी भी रूप में आपकी स्मृतियों को जगा दे या दूर तक आपकी स्मृति कोटर में दबी  रह जाए, सम्भवतः वही कविता किसी पाठक की अपनी कविता बन जाती है। शायद हाँ! मेरी तमाम एक कमजोरियों में एक कमजोरी यह भी है कि कोई कविता या कहानी पर त्वरित राय बनाते हुए भी  आशंकित रहता हूँ कि यह बात जो कह रहा हूँ क्या सचमुच ऐसा ही है। और जब किसी रचना पर मुकम्मल बात कहने का कोई प्रस्ताव मिलता है तो प्रथमतः उन रचनाओं को एक बार-दो बार पढ़ कर पुस्तकों की ढेरी में रख देता हूँ। एक लम्बे अन्तराल बाद जब उस रचना की कोई सिफत, कोई चरित्र या पक्ष हमारी स्मृति में फिर और फिर कुलबुलाता है तभी उस कृति को पुनः-पुनः और नये सिरे से पढ़ने-समझने    आत्मसात करने की कोशिश करता हूँ, उसे साझा करने की कोशिश करता हूँ। कह सकता हूँ कि यही मेरी पाठकीय प्रतिक्रिया ही होती है। मिथिलेश कुमार राय की कविताओं के साथ भी यही हुआ। खैर।



         
मिथिलेश कुमार राय की कविता का वसंत सबका शुभ चाहता है।  इसलिए भी कि मानवीय गरिमा बची रहे। तब मनुष्यों की  कारुणिक अवस्था के लिए किसे प्रश्नांकित करे? एक हिंसक मनोवृत्ति के उत्स प्रकृति के बीच में हैं क्याजब चारों तरफ फूल मुस्कुरा रहे हैं। प्रकृति का चेहरा रंग-रंग के मुस्काते पुष्पों से सुसज्जित है भला ऐसे समय में भी   कोई किसी की हत्या क्यों कर कर सकता है! एक मासूम सा सवाल है देखने में। एक कवि को उसकी  प्रकृति उसका  परिवेश ही  उसे सृजनात्मक कर्म के लिए प्रेरित करता है। यानि जो समय एक कवि को अभिव्यक्ति का अनुपम उपहार देता है ऐसे में कोई प्यार की गर्दन पर चाकू कैसे रगेद सकता है? क्या यह मानवीय है? एक मासूम चाहत लगती सी बात यह भी कि सबको अपनी चाहना दर्ज करते रहना चाहिए। सुंदर सपना देखना जरूरी है। चाहने वालों के भाव जितनी शिद्दत से जगह पाते जायेंगे यह दुनिया और सुंदर होती जायेगी। 'कि वसंत का मौसम खुशगवार रहे' शीर्षक कविता में खेत-खलिहान को किसी उपयोगी वस्तु के तौर पर दर्ज करने की बजाय एक जीवित रिश्ता बनाते हुए कहता है कि  -  
  

जब से होश संभाला है
वसंत को मैंने फूलों के बागों में डूबा हुआ देखा है
मेरे घर के बगल में एक खेत का टुकड़ा रहता है
कभी वसंत में इधर आयेंगे तो आपको दिखाउंगा
कि उसमें खिले सरसों के फूल हवा संग क्या-क्या बातें करते हैं
और उन्हें देख कर चिड़िया कैसी हरकतें करती हैं
और तितलियां और भंवरें क्या क्या करते हैं
ऐसा कौन सा रंग है जो वसंत में नहीं खिला करते"


धरती को हरियाली से पाट देने वाला यह मौसम एक युवा के होठों पर खुशबू बन कर मुस्काता है तो लोगों की नजरों में अनगिनत उम्मीदों, सपनों से भर देता है। एक कवि की निगाहों में मौजूद पाकीजगी अपने तईं नहीं सबके तईं सुंदर सपना बुनती है। जहाँ विश्वास, प्रेम, अपनापन स्वार्थपरता के चाकू से रगेदा जा रहा हो वहाँ  अपने आसपास मौजूद वसंत एक वैकल्पिक  जगत की जीवंत तस्वीरें बहुत कुछ कहती मिलती हैं। यहाँ  अस्सी के दशक के लीलाधर जगूड़ी जैसे कवियों के 'खून में सने वसंत' से अलग वसंत आ खड़ा हुआ। उम्मीद के दामन को थामे  अपनी  जमीन पर भरपूर भरोसा करती आवाज़ है यहाँ। "आँखों में सुनहरे सपने" लिए हवा में गोते लगाती चिड़ियों को पहचानने वाले कवि का सौंदर्य-बोध तथाकथित सुंदरता, महानता के पैमाने से नहीं मापा जा सकता है। यहाँ 'विश्व सुंदरियां' धरने पर बैठी नारा लगा रही हैं। अपने हक हकूक के लिए  सड़कों पर लाठियाँ खा रही हैं। सक्रिय सामाजिक हस्तक्षेप का यह स्वर आधी आबादी के प्रति अभिजात सौंदर्य-बोध को किनारे ठेलते हुए अपनी स्वाभाविक  भूमिका में आ खड़ा होता है। यहाँ सबसे सुंदर लड़कियां वो  हैं जो किसी न किसी किसिम के उत्पादक कर्म से जुड़ी हैं। यह दौर निराला के 'रानी और कानी, से हट कर  स्वयं 'शक्तिरूपेण" है। क्योंकि...  


सबसे सुंदर लड़कियां
अभी किसी गाँव में
गोबर के उपले थोप रही है
बड़ी जतन से
मिट्टी के चूल्हे बना रही हैं
सबसे सुंदर लड़कियां
अभी बकरी चरा रही हैं
हंसिया ले कर बैठी मेड़ पर
किसी गीत के मुखड़ गुनगुनाती
वे घास काट रही हैं
ताज पहनी लड़की तो कोई और है
सबसे सुंदर लड़कियां तो अभी
किसी खेत में बथुआ खोंट रही हैं
सूरज को अपनी पीठ पर बांधे
वे फसल  काट रही हैं।"



(2)


ऐसा सपना भी नहीं आया है कभी


एक रचना अपने साथ किस दुनिया को ले कर आती है, उसके किस हिस्से के सुंदर-असुंदर चेहरे से हमारा परिचय कराती है यह बात ज्यादा जरूरी है या उस रचना में क्या कुछ छूट जा रहा है यह बात ज्यादा जरूरी है। इस तरीके के सवाल हमारे सामने यदा-कदा आते रहते हैं। जबकि एक सहृदय पाठक के लिए किसी रचना में मौजूद जीवन की छवि ही प्रथमतः आकर्षित करती है। उस जीवन की मौजूदगी, प्रस्तुत  जीवन की प्रस्तुति का रंग-ढंग ही  उसे और आगे  बढ़ कर सोचने का मौका देती है। कोई रचना कितना ज्यादा अपने से इतर सोचने का मौका दे पाती हैक्या इसे एकमात्र पैमाना माना जा सकता है किसी रचना के मूल्यांकन का। या एक रचना में मौजूद जीवन ही एक दूसरे जीवन को अनायास प्रस्तावित करता मिलता है, आदि तमाम एक ऐसे सवाल हैं  जो किसी भी सामान्य पाठक के लिए हर बार प्रश्न-चिह्न बन कर सामने खड़े मिलते हैं। क्या इन सूत्र वाक्यों की ओट ले कर किसी रचना पर ठीक से बात की जा सकती है या अपनी तयशुदा राह निकाल लेने की एक सरल सी तरतीब है यह। जब भी किसी कविता-कहानी पर बात करने का मौका मिलता है हर बार यह असंतुष्टि हमारा पीछा करती मिलती है। लगता है कि यह कविता कितनी सहज कितनी मार्मिक है इस पर तो बड़े आराम से बात की जा सकती है लेकिन जब भी बात करने का आता है उसकी निपट सरलता ही हमारे लिए एक चुनौती बनकर सामने आ खड़ी होती है। क्या एक सरल-सहज सी लगने वाली रचना का जब हम समीक्षकीय हरबा-हथियारों से सीमांकन करने लगते हैं उसके सहज सौंदर्य को नष्ट तो नहीं करने लगते हैं। एक पाठकीय बोध को हूबहू कैसे सम्प्रेषित किया जाये यह असहजता सम्भवतः हर एक सुधी पाठक के सामने आती होगी! क्या-क्या छूट जा रहा है और क्या-क्या समेट पा रहे हैं हमारे शब्द? क्योंकि कोई कृति महज शब्दों में दर्ज नहीं होती बल्कि शब्दों के पीछे मौजूद जीवन की  कच्ची-पक्की आँच यानी कभी कभी धुंवाते जीवन की अकुलाहट भी झांक रही होती है और हम वहाँ मौजूद शब्दचित्र के सहारे अपनी अनुभूतियों  को उस रचना के सहारे व्याख्यायित करते होते हैं। इसीलिए किसी रचना के पाठ में कमोबेश तीन समयों की आवाजाही होती मिलती है। एक उस रचनाकार का अपना समय, दूसरा प्रस्तुत रचना में मौजूद समय व एक सहृदय पाठक का अपने समय के साथ उस रचना के समय में आवाजाही है। क्या इसीलिए कोई कृति कई पाठ की मांग करती है या हर पाठ अन्ततः अधूरा पाठ ही होता है या नहीं? इन्हीं जद्दोजहद भरे प्रश्नों के साथ हम आज के नये कवियों में से एक मिथिलेश कुमार राय की कविताओं में प्रवेश करने की अनुमति चाहते हैं।  मिथिलेश अपनी एक कविता 'कलेजा' में कहते हैं कि -
    

"नहीं, हम नापना नहीं जानते
जो आता है
वही तौलता है हमारे चेहरे पर पसरी खुशियाँ
और हथेली पर जो कुछ धर देता है
हम उसी पर  इतराते रहते हैं"


आज जब अपने कोठार भर कर भी कुछ लोग संतुष्ट नहीं हो पाते हैं उनके सामने चिड़ियों की मामूली चाहत महज भरपेट दाना, फुर्र पंख खोल कर उड़ जाने की खुशी लिए आम जन का मन वे क्यों नहीं पढ़ पाते। जो लोग मेहनत करते खेतों में अन्न उगाते हैं क्या उनने कभी ऐसा सपना देखा कि हम अन्न का एक भी दाना किसी और के लिए नहीं रखेंगे महज हम स्वयं ही उनका भोग करेंगे। ऐसा कठकलेजी एक मेहनतकश कभी हो ही नहीं सकता, सपने में भी नहीं। क्योंकि यह अप्राकृतिक है। सामाजिक संतुलन के विरुद्ध है। 'दुनिया की उदासी देख कर' खुश रह पाना एक मनुष्य के लिए असंभव है। ऐसी पँक्तियाँ लिखते हुए कवि अनायास बेहद सरल भाव से 'बिरिष' के अपना  फल  खुद न भखने व नदी के अपना नीर स्वयं न पीने की' लोक में मौजूद उदात्त भाव की स्मृति कराता मिलता है। यह मानवीय भाव खुद गर्ज व आत्मकेंद्रित समय के सामने एक वैकल्पिक दुनिया का खाका खींचती सी लगती है। कवि कहता है कि


"ऐसा सपना भी कहीं आया है कभी
कि एक दिन अन्न सारा बन्द कर देंगे बखार में
दुनिया झुकेगी तब सीना तान के टहलेंगे
किसी राजा सा कहेंगे कि
भूखे रहो मरो जाओ जहन्नुम में
कि तराजू के पलड़े पर नहीं चढ़ने देंगें एक भी दाना
कोई तौलने आएगा तो खदेड़ देंगे
खुद ही चबायेंगे रोटी
पीयेंगे पानी
दुनिया की उदासी देख कर खुश होते रहेंगे
कलेजा पत्थर कभी नहीं हो पाएगा इतना


कविता का अंतिम वाक्य इस पूरे परिदृश्य को उलट कर रख देता है। सीधे सादे वाक्यों में दर्ज व्यंजना को पढ़ते हुए हम पाते हैं कि जो लोग आज अन्न-धन पर कुंडली मार कर बैठे हैं उनके सामने मौजूद तमाम जरुरतमंद आबादी किन नारकीय स्थितियों में जी भर पा रही है। अगर हम इन वाक्यांशों को उत्पादक तबके की ओर से पढ़ें तो हम पाते हैं कि सब कुछ पैदा करने वाला न तो सब कुछ का भोग करता है और न ही उसका कलेजा इतना पथरीला है कि लोगों को उदास, भूखा और बेबस देख कर भी खुश रह सके। तो वे कौन लोग हैं जो लोगों की उदास आँखे देख कर भी द्रवित नहीं हो पा रहे हैं।  किसी भी प्रकार के सामाजिक सरोकारों व सामाजिक उत्पादन से लगे सृजनात्मक लेखन की भाषा बिना जीवंत उदाहरणों के, बिना किन्हीं संकेतक के पूरी नहीं होती। मिथिलेश कुमार राय की  कविताओं में भी खालिस बयानबाजी या मन:स्थितियों की शाब्दिक प्रक्षेपण के बरक्स जीवन-जगत में अपनी मौजूदगी के जरिए कवि का पक्ष दीखता है। कभी-कभी लगता है कि कवि अपने को ही उदाहरणार्थ प्रस्तुत कर रहा है। कविता में कवि की उपस्थिति ही उसके अपनी जगह बताती है कि आखिर वह कहाँ से देख रहा है। परदुःखकातर हो कर या तदानुभूति महसूस करते हुए। "आदमी बनने के क्रम" में कवि अपने पिता की तरह बनना चाहता है। उसे लगता है कि मेरे पिता जो काम करते हुए खेत खलिहान से इतना एकाकार हैं कि उनके चेहरे की रंगत भी गेंहूँ की रंगत लिए हुए है। एक मेहनती किसान का बेटा मेहनती किसान बन कर ही अच्छा आदमी बन सकता है जबकि उसके पिता कतई नहीं चाहते कि उसका बेटा भी किसान बने। कविता एक मासूम सवाल सा करती है कि क्या मेहनत से जीने का रास्ता आदमी बनने के क्रम में बाधक है! और कैसा आदमी! आखिर क्यों मेरे पिता, जो कि मेरे आदर्श हैं, वे चाहते हैं कि मेरा बेटा फलाने के बेटा जैसा 'उन्नति' की सीढ़ियाँ चढ़े। पिता पर मिथिलेश की कई कविताएं हैं और कई तरह पिता को एक बेबस किसान के रूप में, बाढ़-सुखाढ़ या कर्ज की मार खाते हताश किसान के रूप में, दुधारू बालियों को देख कर गेहूँ की बालियों की तरह खुशी से झूमते, आँखों में उगते सपनों के रूप में  देखते हैं। लेकिन उनका पिता  उनके व्यक्तित्व को लगातार 'मांजते' हुए जीवन की मद्धिम आँच में तपने के लिए प्रेरित करता मिलता है।


शाम घिरती थी तो
पिता मुझे अपने पास बिठा लेते थे
पिता के पास रोशनी का अभाव होता था
एक ढिबरी होती थी
लेकिन बहुत सारे किस्से होते थे
पिता ढिबरी की मद्धिम रोशनी में
किस्से के सहारे मुझे मांजा करते थे
पिता सबेरे बैल ले कर निकल जाते
मैं माँ के साथ हंसिया ले कर
शाम होती
पिता मुझे फिर मांजने बैठ जाते
उस समय माँ
चूल्हे पर देगती चढ़ा कर
कोई गीत गुनगुना रही होती


एक कर्मरत किसान परिवार के लिए लहलहाते खेत, फूली सरसों महज  आँखों में उग आई खुशबू लिए नहीं होती बल्कि उस खुशबू में भी पके अनाज का दृश्य होता है। इसे वे लोग शायद ही स्पर्श कर पायें जिनके लिए हरियाली महज अपनी सेल्फी खींचने का काम भर दे पाती है। लेकिन किसान मन के लिए धान की बाली महज झुकी हुई बालियाँ भर नहीं होती बल्कि उससे कनबतिया भी करती रहती हैं। पके धान की फसल के मनमोहक दृश्यों में से एक जीवंत दृश्य यह भी है कि –


तने हुए बिचड़े का शीश
झुका हुआ होता है
और हल्की सी हवा में भी डोलते रहते हैं
मैंने पास जा कर देखा है
उसकी गर्दन कभी नहीं-नहीं में डोलती है
कभी हाँ-हाँ में डोलने लगती है
जैसे वह बाते कर रहा हो
कि कोई भूख से मरेगा
नहीं-नहीं
कि सबको भात मिलेगा
हाँ-हाँ"



खेतों में झूमती ये फसलें बतिया रही हैं  क्योंकि   एक किसान का पसीना उस मिट्टी में मिल कर उसे ताकतवर बनाता है।  एक तरह से एक किसान अपनी सारी ममता अपनी  खेती में उड़ेल देता है। शायद इसीलिए उसकी हँसती आँखों में मुस्काती फसलें झांक जाती है। कितना सारा पसीना, कितनी गीली कमीजें निचुड़ जाती हैं एक खेत में उसकी मात्रा का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। एक शहरातू मन जब उत्सुकतावश पूछ ही बैठे कि सावन की धूप की आँच कितनी गझिन होती, सूरज मानो जेठ के ताप को भी पीछे धकियाते हुए आ धमकता है ऐसे में बदन से चू रहे पसीने नापना उनके लिए उपयोगी होगा जो महज दर्शक हैं, उनके लिये नहीं जो कर्मरत हैं। कितनी कुशलता से यह कवि एक मेहनतकश मन को ही नहीं बल्कि अपने परिवेश का प्रामाणिक जानकारी भी बयां कर देता है, वह भी बिना किसी अतिरिक्त वाक्य का इस्तेमाल किये। यहां कविता कहीं से चल कर नहीं आती, न ही  विषय की खोज में खेत खलिहान का महिमामंडन करती मिलती है। यह कवि दृष्टि ही मिथिलेश की कविता को ज्यादा प्राणवान व यथार्थवादी बनाती है जैसे इसी कविता 'धूप कोई सवाल नहीं है', में सावन की धूप की तपिश है तो  बहती बयार में थोड़ी और राहत महसूस करता किसान मन है।  इन पंक्तियों को थोड़ा ठहर कर  देखने की जरूरत है। सावन की धूप, उसका चिपचिपापन कितनी ऊबाऊ होती है और इसी बीच थोड़ी हवा कितनी राहत देती है। यह  राहत चैन से बैठे लोगों के लिए नहीं बल्कि  किसान अपने काम को और तबियत से कर पाता है। कर्म का सौंदर्य और किसे कहते हैं। उसके लिए –


“धूप कोई सवाल नहीं है
और न  ही पसीना
सवाल यह है कि अगर थोड़ी सी हवा चलती तो
काम थोड़ा  और हो जाता"


मिथिलेश कुमार राय
 

(3)

हमने बारम्बार नई दुनिया बसाई


कविता में प्रतिरोध और परिवेश का स्वरूप ही उसकी दिशा तय करती है। जबकि हम अक्सर किसी कवि की कविता में आये देशज शब्दों, आम जीवन की छवियों व चुनौतियों को देख कर वहाँ मौजूद संवेदना को तमाम वर्गों/ उपवर्गों में विभाजित करते जाते हैं। मसलन जिन कवियों में कस्बाई जीवन की या तलछट की जिंदगी से उबरने को  आतुर मन की छाप मिलती है हम वहाँ कस्बाई जीवन की संवेदना देखते-समझते मिलते हैं।  उसी तरह जिन कविताओं में ग्रामीण जीवन की जद्दोजहदप्रकृति व व्यवस्था के दुहरे दबाव में जूझते किसानों, खेतों-खलिहानों में खटते मेहनती कौम को पाते हैं वहाँ हम बेझिझक "ग्रामीण संवेदना" का वर्गीकरण कर अपनी "समीक्षकी" प्रतिभा का प्रदर्शन कर आगे बढ़ जाते हैं। इस सब से एक आसानी तो यह हो जाती है कि अपने आलोचकीय प्रतिमानों की कसौटी पर कसने के लिए हमें ज्यादा उधेड़बुन करने की जरूरत नहीं लगती, बेहद आसानी से कुछ काव्य पंक्तियों के सहारे अपने स्थापित मापदंडों को शब्दबद्ध करने  की महती भूमिका निबाहते   मिलते हैं। क्या सरोकार या संवेदना मानवीय जीवन-मूल्योंसहज मानवीय भावनाओं के तमाम रूपों के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।  साहित्य प्रथमतः मानवीय संवेदना को जगाने का करती है यह तो सही है लेकिन उससे भी पहले संवेदनशील मन की सहज अभिव्यक्ति भी होती है। ऐसी सहज अभिव्यक्ति जिनमें भावनाओं, सरोकारों की सहमति एक दूजे में इतनी घुली मिली होती है कि उसका विशेषीकृत करते ही उसकी सहज संवेदना हम शायद ही संस्पर्श कर पाते हों। इसीलिए कविता में मौजूद जीवन का वर्गीकरण तो समझ में आता है अर्थात किस तरह का जीवन, प्रकृति की छवि और सरोकारों की दिशा कैसी है? इस पर बात की जा सकती है। या नहीं? लेकिन उन्हें जब महज ग्रामीण संवेदना का कवि या लोकवादी कवि कहते हैं तो उन कविताओं के पीछे मौजूद मार्मिक जीवन व उसकी जद्दोजहद को किन्हीं मायनों में तुलनात्मक रूप में सामने लाने लगते हैं। यह एक प्रकार से उन कविताओं व जीवन में मौजूद मार्मिक अनुभूति का अवमूल्यन ही है। ऐसी बात  किन्हीं प्रस्थापनाओं  को सामने लाने की कोशिश के रूप में न देख कर कविताओं को संवेदनशील मन की मार्मिक अनुभूति के रूप में पढ़ना-समझना चाहेंगे तो जरूर समझ सकेंगे।


       
दूसरी बात क्या कोई ऐसी एक प्रविधि खोजी जा सकी है कि कोई रचना अपने परिवेश से कितने गहरे तौर पर सम्बद्ध है। क्या वहाँ मौजूद ध्वनियों से समझा सकता है? वहाँ वहाँ मौजूद जीवन के प्रकारों को देख कर दावे से कहा जा सकता है? या उन काव्य पंक्तियों में, उन रचनाओं में सरोकारों की कवि दृष्टि कैसी है? से जाना पहचानना चाहिए? या कवि दृष्टि, भाव-सृष्टि व जीवन का  एकमेक छवियों से उसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए? अनेक बार कविताओं को पढ़ कर एक प्रतिक्रिया जनमती है कि हम इसे ज्यों ही सीमाबद्ध करेंगे त्यों ही इसकी दूर तक आती-जाती जीवंतता, सुगंध सीमित हो जायेगी।  मिथिलेश कुमार राय की कविताओं में हम पाते हैं कि एक कवि की आत्म छवि व उसके परिवेश की छवि एक दूसरे में  आवाजाही करती मिलती है। तमाम कलात्मक आग्रहों को किनारे ठेलते जीवन की सहज स्वीकृति ही इस कवि को अपनी काट का कवि बनाने की अग्रसर करती है। यहाँ कविता नहीं बल्कि 'जीवन ही कविता' नामक वाक्य अपनी जगह तलाशता मिलता है। इनकी  कविताओं में जो चीज स्थानीयता को बार-बार टक्कर देती दिखती है वह है प्रकृति जनित समस्याएंखेतीबाड़ी में लगी आबादी का  अनिश्चित जीवन प्रवाह। जिस अंचल में कोशी नदी कभी अपना रौद्र रूप तो कभी अपना  हास्य प्रकट करते हुए जनजीवन को प्रभावित करती रहती है उसी कोशी के आंचल में कवि मिथिलेश जन्मे हैं। बिहार के सुपौल में जन्मे अपनी माटी की  सिफत व अपने लोगों की बेबसी को बेहद रोचक ढंग से अपनी कविता का विषय बनाते रहे हैं। कोसी की माटी की सिफत ही है कि यहाँ सूखे जैसी स्थिति कभी नहीं आयी। यहाँ का किसान कोई न कोई फसल पैदा कर ही लेता है। लेकिन इसी कोसी के अंचल में जब नदी उफान पर आती है तो अपने साथ गांव के गांव बहा ले जाती है। सन् 2008 में आयी बाढ़ में तो गांव के गांव जलमग्न हो गये थे। कवि पानी को आपदा के रूप में नहीं बल्कि अपनी पुशतैनी विरासत के रूप में देखता है। एक परिकल्पना रखता हुए कहता है कि पानी बिकेगा तो हम राजा होंगे। प्रकृति में जो चीज इस्तेमाल से अतिरिक्त होती है उसे तो बाहर जाना चाहिए जैसे सऊदी में तेल बिकता है। लेकिन यहाँ पानी से पैदा होने वाली बिजली तक  नहीं है। जबकि उसका गांव लालपुर पानी के मामले में खूब धनी है। क्या अतीत में जब धरती का टुकड़ा बांटा जा रहा था तब हमारे पूर्वजों के बसने के लिए एक नदी दी गयी। और नदी कोसी ही नहीं देश की कोई भी नदी हो सकती है। उसके तट पर बसने वाले लोग हो सकते हैं वे सब हमीं तो हैं जो बहते पानी के ऊपर रह कर भी नींद में सपने देखते हैं। यह आबादी मछली पकड़ने से ले कर धान रोपने तक खाने पीने से ले कर सोने तक नदी की गोद में ही रहती है।



"हम नदी में ही सोते हैं
कीर्तन करते हैं
हम मैथुन तक नदी में ही करते हैं
नदी में ही बच्चे का जन्म होता है
उसी में डूब कर वह मर जाता है
आप ऐसा मत समझें
कि हम विष्णु हैं
और क्षीरसागर में बसे हैं
हम आदमी भी हैं कि नही, पता नहीं,"


नदी से रोज लड़ने वाली यह आबादी नदी से प्रतियोगिता करते हुए दौड़ लगाती है और अक्सर नदी ही जीतती है। जहाँ  पानी जीवन की तमाम प्रत्याशाओं को जगाते हुए  कविता में प्रवेश करता है या इस बहाने कवि  दुनिया के सामने एक मामूली चाहतें दर्ज करता है तो वहीं आगे बढ़ते हुए वस्तुस्थिति आदमी बने रहने की तमाम रोड़े अटकाए दिखती हुए। आदमी बनने के क्रम में एक तरफ तथाकथित सभ्यता श्रमरत जन को  अपनी राह पर ढकेलती है वहीं प्रकृति का असामान्य व्यवहार उसे एक और राह पर चलने को विवश करती है। एक किसान परिवार किसी 'शुभ संवाद', की ओर टकटकी लगाए देखता मिलता है। गाय ने बछिया दिया है, बचुआ मैट्रिक पास कर गया है, कुतिया के पिल्ले (यह शब्द जाने क्यों चुभ सा रहा है आखिर एक कुतिया भी अपने शिशु को उतने ही ममत्व से निहारती होगी जैसे प्राणी जगत की कोई भी माँ क्या नहीं? खैर!) अब वे साथ साथ खेत जाने लगे हैं इतने बड़े हो गये हैं। पान खा कर पत्नी से हंसे बोले कि मन के आसमान पर ढेर सारे तारे टिमटिमाते मिलते हैं। आंधी ने मकई के पौधै तोड़ डाले, गेहूँ में दाने नहीं आये, टिकोले झड़ गये आदि चिंताएं तो हैं ही लेकिन सबसे बड़ी चिंता है महाजन का कर्ज। कैसे चुकायेगा वह अब। क्या मैट्रिक पास बचुआ पंजाब चला जाएगा या दुधारू गाय बेचना होगा। एक किसान की जिंदगी के रंजोगम को वे महज दर्ज ही नहीं करते बल्कि एक अंधी सुरंग के सामने खड़ी गरीब किसान आबादी के जद्दोजहद को रखते हुए किसी तरह के भावविभोर नहीं होते। यथार्थ को एक कटुसत्य के तौर पर व्यक्त करते हैं। वह भी उस जीवन के जिसके बारे मे कवियों की बड़ी जमात रूमानियत की गिरफ्त में धंसी मिलती है। अपने परिवेश के यथार्थ को पेश करते हुए भी पर्याप्त तटस्थता का यह भाव मिथिलेश को ग्रामीण जीवन के चितेरे के तौर पर ही नहीं बल्कि  एक दृष्टा की कौंध लिए मिलती है। यही चीज है जो मिथिलेश को एक उभरते कवि की अपनी सिफत का कवि बनाती है। संघर्षरत लोगों के लिए समय ठहराव लेकर नहीं आता न ही किसी  खोह में  अपने को छुपाने का समय ही होता है। उसका 'समय' मध्यवर्गीय जमात के समय जैसा नहीं होता। चाहे तीखी धूप जिसमें आदमी जल रहा होता है या अपने पसीने में डूब जा रहा हो। बारिश का रूप चाहे जो रूप धारण करे लेकिन जीवन हर मोड़ पर फिर मुस्कराता है, हर बार नई दुनिया बसाने की ओर आगे बढ़ता है। यही तो मानव सभ्यता का मूल चरित्र है क्योंकि


लेकिन हरेक बार आँसू थमे
ओंठ मुस्कुराए
हमने बीज बोए
दिए जलाये
फूल खिले
चिड़िया चहकीं
युगल स्वर में फिर गीत गाये
हमने बारम्बार नई दुनिया बसाई",


दोस्तों!, क्या त्रिलोचन की, 'धरती' के वे दोनों प्राणी याद आ रहे हैं या नहीं - "दे रहे खेत को पानी मिल जुल कर दोनों प्राणी",


(4)
रात ..जिसके अंदर सपने हैं


कविताओं में कितने जनों की कहानी कही जा रही है। कविताओं में किनकी कहानी कही जा रही है। यह कहानियां कौन सुना रहा है और किसको? इस फ्रेम में भी मिथिलेश की कविताओं को सुनने की जरूरत है। बेशक यह संवादधर्मी कविताएं कुछ के लिए घटनाओं का काव्यरूप हो सकती हैं और बहुतों की जिंदगी के ऐसे किस्से हैं जिसे वे घटना कह कर उनकी निरतंर गति को चाह कर भी बाधा नहीं पहुंचा सकते हैं। वैसे भी जिस रचनाकार के पास विषयों की अधिकता होगी वह बार बार अनेक ढंग से अपने सामने बैठे सहभागी को कुछ न कुछ बताता मिलेगा ही। संवादधर्मिता व प्रत्यक्षदर्शी जैसी काव्यकला किसानी परिवेश की भी एक खासियत रही है। यहां बिना उदाहरण, बिना बतकही शैली के बात पूरी होती नजर नहीं आती। कवि को उदाहरण ढ़ूंढने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। आप हर एक कविता को किसी एक दिन, एक व्यक्ति के बहाने कई एक के साथ गुजरे वाकयों के साथ ही उस जीवन की 'क्रियाशीलता' भी पढ़ सकते हैं। इसीलिए ये कविताएं एक साथ बोलती जाती हैं और बोलते हुए दिखाती जाती हैं। जैसे 'कथा में प्रेमी का विवरण' किसी भी कस्बे, किसी भी गाँव की ऐसी जानी सुनी चर्चा लग सकती है जहाँ किशोर वय में जन्मे प्रेम को हमारा समाज  एक मनचाहे "मुकाम" तक पहुंचा कर ही दम लेता है। वे एक ऋण चाहने वाले बेरोजगार ग्रामीण युवक का किस्सा सुनाते हैं। यह किस्सा या कविता आज की 'उन्नत' विवेकपूर्ण तंत्र की वास्तविक तस्वीर पेश करती मिलती है। उस युवक के पास ऋण लेने के एवज में ऐसा कुछ नहीं है जिसे वह दे सके लिहाजा मौजूदा कानून उसे ऋण पाने लायक नहीं पाता। एक लम्बे संवादधर्मी प्रस्तुति में कविता उस जीवन, उसकी भौतिक-सामाजिक वस्तुस्थिति पेश करते हुए अन्त में कहती है कि


"निकलते हुए मैंने बहुत हल्के स्वर में यह कहा
(
ताकि कोई सुन न ले)
कि ज़रूरत को आधार बना कर देते
तो ऋण पर पहला अधिकार हमारा होता।"
                               
-  (ऋण)



ये जो बहुत हल्के स्वर में कहा जा रहा है इसे ही आज कविता में सुनने की जरूरत है। ऐसे ही एक दूसरी कविता में एक राहगीर को पानी पिलाने का वाक्या दर्ज मिलता है।' भरपेट लोगों के पेट में पानी की आवाज और भूखे पेट में पानी की आवाज सुनने के लिए शब्दों से बाहर निकलना होता है। 'थकावट से पांव का पता चलता है' जैसी पंक्तियां किन्हीं सजावटी वाक्यांशों के रूप में नहीं दर्ज हो रही हैं न ही किन्हीं फैशनेबुल भाषायी खिलंदड़ेपन से चमक रही हैं बल्कि जीवन की पेशानी पर पड़ी लकीरों को पहचानने से, महसूसने से जन्मी हैं। धूप की चमक देह की रंगत में, भादो की बारिश में कीचड़ सने पाँवों, पूस में मेड़ पर बैठ अलाव तापते, और पूस की पछिया हवा का पता कटकटाते दाँतो से पूछने की जरूरत बताती ये कविताएं मौसम का हिसाब माँगने वालों के लिए एक मानक हैं। 'स्वाद ' में दो हरी मिर्च ,सरसों का तेल औ रोटी खाते हुए चेहरे पर कितनी चमक आती है, कितना आनंद मिलता है औ शरीर कब तक जूझ सकता है ऐसे सवाल भी तो हैं सामने। इन सवालों का सामना हमारे  वर्तमान समाज की बहुतायत रो ज ब रोज कर रही है। भरपेट पानी से भूख के अनुनाद को सुनने वाले लोग यहां आपसे ही नहीं खुद से भी सवाल कर रहे हैं –


"सवाल असंख्य हैं
लेकिन कुछ सवाल ख़ुद से करने पड़ते हैं
ख़ुद ही उसके जवाब भी तलाशने पड़ते हैं
उत्तर की उपेक्षा काल में यह एक सामान्य-सी बात है।"
                                      
(स्वाद)


ये कविताएं जहाँ एक तरफ अपने कलेवर में आख्यानात्मक कलेवर लिए हुए हैं वहीं दूसरी तरफ मौजूदा  मौजूदा वर्तमान में जूझते जनों की वे तस्वीरें हैं जिनमें जीवन के कटु-तिक्त अनुभूति अनेक रंगों में हमसे मुखातिब हैं।



     
मिथिलेश कुमार राय की कविताओं में आते जाते एक बात और देखने को मिली जिसे कहना जरूरी लग रहा है। तमाम कविताएं मानो अपने नये रूप में गढ़े जाने के लिए बार बार बनती संवरती रही हैं। कई बार तमाम छवियाँ दुहराव लिए मिलती हैं। यह एक कवि में मौजूद कचास भी हो सकती है औ सतत उस कहे को फिर से और फिर से कहे जाने की काव्यात्मक उत्कंठा भी। इन छोटी मोटी दुहराव भरी जद्दोजहद के बावजूद हमें इस कवि में जो चीज सबसे ज्यादा  कीमती लगती है वह है फूल के मानिंद  खिलखिलाती, देह भाषा को, मन की भाषा को महज बातों में नहीं पूरी बुनावट में पकड़ने की काव्य कुशलता। इन कविताओं का "पता" पाने के लिए भूख में भी दुख का मुजाहिरा करने की बजाए वीराने  विरहा गाते मन को तलाशने की कोशिश करनी होगी


"
बातों पर मत जाइए
बातें बन-ठन कर बाहर आती हैं
जबकि हँसी
बनाने के क्रम में बिगड़ जाती है
आप हँसी का बिगड़ना पकड़िए।" (पता)



(5)

धूप में चलते -चलते चेहरे सूख रहे हैं


मिथिलेश कुमार राय की कविताओं पर बात करते हुए एक सवाल लगातार पीछा करता रहा है वह है इन्हें किन काव्यात्मक निकषों पर रखकर देखा परखा जाए। वह इसलिए भी कि जहां एकतरफ यहां जीवन-जगत की दैनंदिन जरूरतें, आकुल मन अपने को दर्ज करते हैं वहीं  अपनी सर्वोत्कृष्ट कवि परम्परा की याद दिहानी करती कराती काव्य स्वर सुन पड़ता है। जहाँ एक शहरातू व्यक्ति के लिए बारिश अलग रंग ले कर आती है, फूलों की मुस्कान अलहदा अर्थ ले कर आती है वहीं   एक किसान के लिए  अलग अर्थ लिए आती है।  खेत में उपजती फसलों के लिए एक खेतिहर शख्स का मन ही कह सकता है कि –



"
बारिश को हम भात कहते हैं
और धूप को दाल
जिन दिनों फूल खूब खिलते हैं
और रंग बिरंगी तितलियां
जी जान से उड़ती हैं
लोग आते हैं
तो मुस्कराते हैं
और उस मुस्कराहट की तस्वीर उतरवाते हैं
वसंत के उस मौसम को हम
सरसों का तेल कहते हैं
बथुआ का साग कहते हैं"



बादल, बारिश और भात को ले कर पहले भी हिंदी के तमाम कवियों ने एक किसान की आवाज़ के रूप में दर्ज किया है यह स्वर भी उसी की अनुवर्ती कड़ी के रूप में पढ़ मिलता है। 'बादल-राग' और 'धानों का गीत' भला कौन भूल सकता है। बस मिथिलेश की ऐसी कविताएं बार-बार इस जीवन के बहुआयामी चरित्र को उद्घाटित करने से ज्यादा औरों मतलब शहरीकृत समाज से अपनी विशिष्टता को दर्ज करने के लिए ज्यादा सजग दिखती हैं। और  यह सजगता कविता की अन्तर्गठित अन्तर्विरोधों के रूप में  कम  काव्य वस्तु की सामग्री बन कर ज्यादा दिखती मिलती है। एक ग्रामीण जीवन को ज्यादा यथार्थपरक व प्रतिचित्रण का अतिरिक्त मोह तो नहीं? कभी कभी यह कवि एक तरह से  गांव की स्थिर छवि अंकित करते मिलता है। आखिर क्या वजह है? परिचित जीवन में किसी तरह की बाहरी मिलावट से बचने की कोशिश? एक खास किसिम की रागात्मकता?

मसलन 'पहचान' कविता की शुरुआत ही यहाँ से होती है कि –


"
गाँव के लोग मूँछ रखते हैं
वे बेल्ट नहीं पहनते
कभी पहन लिए तो उसे कमीज के नीचे छुपा कर रखते हैं।"


इसी प्रकार मरद के खाने बैठने पर पंखा झलती औरतों की तस्वीर या भूतों से बचने के लिए मंतर का सहारा तलाशती काव्यवस्तु अपनी समग्र पहचान में भले ही जीवन की विडम्बनाओं का एक खाका खींच रहा हो लेकिन यहाँ आधुनिक भावबोध के बरक्स कविता में यह विसंवादी स्वरों के रूप में ही पढ़ मिलता है। और विचार के तौर पर इसे शायद ही प्रश्रय दिया जाये भले ही वह आम जन की सहज आस्था का अंग ही क्यों न हो। मुझे लगता है आम मान्यताओं, परम्पराओं में जीवनधर्मी  तत्वों को प्रकाशित करने की ज्यादा जरूरत है। यह कहने के बावजूद कविता की मूल ध्वनि पढ़ने की जरूरत है। सहज, अकृत्रिम। यह एक पहलू है। इसी के साथ एक प्रश्न यह भी जनमता है कि हमने ग्रामीण जीवन की स्वाभाविक, अनआरोपित छवियों को कब कब देखा था। क्या कविता परम्पराओं को अर्थछवियों सरंक्षित रखने का काम करती है?यदि हाँ! तो मिथिलेश कुमार राय कहीं कहीं बेहद कुशलतापूर्वक जीवन के रूपवान चित्रों को कविता के जरिए सरंक्षित करते मिलते हैं। अपनी प्रकृति, अपने परिवेश का गहन पर्यालोचन भी तो कविता ही है। यहाँ सजगता की मात्रा को गौर से देखने की जरूरत है।


और जहाँ यह अतिरिक्त सजगता  के बजाय संघर्षशील जन, जीवन की तस्वीरें हैं वहाँ यह नया कवि बेहद खूबसूरती से जीवन-प्रकृति की छवियों को आँकते मिलता है। एक कविता है "यायावर" शीर्षक से। बेहद उम्दा कविता।  इस कविता को पढ़ते हुए आप अपनी कवि परम्परा के उन स्वरों को अनायास सुनते हुए आह्लादित हो सकते हैं जो आज अगली कड़ी के रूप में अपने प्रस्तुत करने के लिए प्रयासरत है। 'राजे ने अपनी रखवाली की' के विकासशील जगत में श्रमरत जन का इतिहास कैसे और किन पड़ावों से होता हुआ आज भी महज धनपशुओं के हितार्थ बलिवेदी पर चढ़ाया जा रहा है। इतिहासबोध के रूप में भी इस कविता को पढ़ा जाना चाहिए –



एक दिन ठीक ऐसे ही हमारे पूर्वज
रहते होंगे आकाश के नीचे
दूब बिछी जमीन पर
चूल्हे और सूखी टहनी तोड़ कर
पकाते होंगे छछूंदर
ठीक ऐसे ही एक दिन
हमारे पूर्वज संभोग करते होंगे
किवाड़ लगाये बिना और
पेट में नौ महीने का बच्चा ले कर
भागते होंगे बारिश और ओले से
बचने के लिए एक दिन ठीक ऐसे ही
हमारे पूर्वज धूप में चमड़ी जलाते होंगे
और पी जाते होंगे पसीना
कंठ को तर करने के लिए एक दिन
ठीक ऐसे ही हमारे पूर्वज
हम ही हैं
हम ही तोड़ते हैं सांप के विषदंत
हम ही लड़ते हैं सांड़ से
खदेड़ते हैं उसे खेत से बाहर
सूर्य के साथ हम ही चलते हैं
खेत को अगोरते हुए
निहारते हैं चांद को रात भर हम ही
हम ही बैल के साथ पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं
नंगे पैर चलते हैं हम ही अंगारों पर
हम ही रस्सी पर नाचते हैं
देवताओं को पानी पिलाते हैं हम ही
हम ही खिलाते हैं उन्हें पुष्प, अक्षत
चंदन हम ही लगाते हैं उनके ललाट पर
हम कौन हैं कि करते रहते हैं
सबकुछ सबके लिये
विजेता चाहे जो बने हो
लेकिन लड़ाई में जिन सिरों को काटा गया
तरबूजे की तरह
वे हमारे ही सिर हैं।




संदर्भ

1.
ओस पसीना बारिश फूल (कविता संग्रह) - मिथिलेश कुमार राय (लोकोदय प्रकाशन) प्रथम संस्करण, जनवरी, 2019
2. हिंदी कविता : संभावना के स्वर - संपादक : नीलकमल  ( ऋत्विज प्रकाशन कोलकाता)
3,  रेतपथ - कठिन समय में कविता अंक 3-5 जुलाई 2014, दिसम्बर 2015 ( संपादक - अमित मनोज)
4,  सदानीरा - जनवरी-मार्च 2017 (सम्पादक आग्नेय) सदानीरा ब्लॉग पर प्रकाशित कविताएं

5.
तद्भव-38 संपादक अखिलेश
6. प्रगतिशील वसुधा-89, सम्पादक - राजेंद्र शर्मा
7. 'वागर्थ',   'बया', 'ज्ञानोदय', 'पूर्वग्रह' आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताएं

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आशीष सिंह



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