अवनीश यादव की कविताएँ
कविता जीवनानुभवों से सृजित होती है।
कवि इन्हें शब्दबद्ध कर कविता का वह स्वरूप देता है जिसे पढ़ने वाले भी रु ब रु हो
कर कहीं न कहीं उस कविता से एकाकार अनुभव करते हैं। यही तो अनुभूतियों का
व्यक्तिगत से सार्वजनिक हो जाना है। गँवई गंध अवनीश की कविताओं में महसूस की जा
सकती है। यह गंध सहज रूप में इस कवि के यहाँ आता है। अवनीश यादव की कविताई को मुझे
प्रारम्भ से ही देखने का मौका मिला। उनके यहाँ एक क्रमिक विकास दिखाई पड़ता है। इस
क्रम में यह कहा जा सकता है कि इस कवि की कविताओं से अब आश्वस्त हुआ जा सकता है। इलाहाबाद
को अवनीश के रूप में ऐसा कवि मिला है जिसे दूर का सफर तय करना है।
आज पहली बार पर प्रस्तुत है अवनीश यादव की कुछ नई कविताएँ।
अवनीश यादव की कविताएँ
चिट्ठी
मोबाईल फ़ोन
के प्रचलित ज़माने में
जब उसने
लिखी पहली चिट्ठी -
सेवा में,
'प्रिये'
बगैर
पते-लिफ़ाफे के
बगैर टिकट
चिपकाए
डाल दिया था
उसकी किताबों में चुपके से
लाल लेटर
बॉक्स समझ
सुरक्षित
पहुंच गई थी
बिना डाकिया के
खिलखिलाते
हुए,
उसके धड़कते
दिल के पते पर
जवाब भी
उसकी किताबों के नरम-धवल
पन्नों के
बीच आहिस्ता दब कर
उस तक
पहुंचा-
'दिल की बात दिल से लिख लेते हैं आप
पर थोड़ा
लिखावट की
सुंदरता के
साथ
खासकर इन
शब्दों के प्रयोग के अंतर पर भी ध्यान दें,
मसलन -
थी - थीं
है - हैं
जरा-ज़रा -
बाकी ठीक है, अपना ध्यान रखना'
आपकी---
बंजर धरती
पर गिरे एक फूल को देख कर
बचपन में बाबा ने
समझाया था
ऊसर, गोयड़ और बंजर धरा का
अंतर
'ऊसर'
जहां किसान की रीढ़ बेतहाशा दुखने
पगड़ी पसीने से पसीजने
कर्ज ले कर उर्वरक से पाटने
के बाद भी
नहीं लहलहा पाती
मनमाफिक़ फ़सलें
पर हां, इसकी देह की खुरचन
'रेह' बन कर
सदियों से काम आयी
गरीब किसान-मजदूर के
तन का परदा साफ़ रखने में
'गोयड़'
यह माटी नहीं
किसान का सोना
इतनी उर्वर की
हमारे पेट के साथ-साथ
सेठ-साहूकारों के कर्ज और भूख
हमेशा से पाटती चली आ रही
बिना भेदभाव के
गिद्ध की तरह नज़र गड़ाए रहे
अपने वफ़ादार आसामियों के लिए
जमींदारी में ज़मींदारों ने,
लाला, पटवारी, सरपंच, कानूनगो के
कलम की गाढ़ी कमाई बनती रही
'चकबंदी' में
चाह कर भी
कभी हिस्से में नहीं आयी यह माटी
गरीब और दाव-पेंच से दूर किसान के
पर सच्चे किसान का क्या
जो मिला, जितना मिला, जहां मिला सब्र कर
माटी को माथे चूमा
अपनी पीढ़ियां खपा कर
हड्डियां चटका कर
पसीना बहा कर
ख़ून सुखा कर
देह गला कर
धरा को केवल और केवल उर्वर बनाता रहा
'बंजर'
यानि
धरा का ठूंठ होना,
उपज का नाम नहीं
पर यहां आज जब मैं खड़ा
अपनी नंगी आंखों से देख
रहा
इस आग उगलती माटी पर
गिरे एक फूल को –
यह जरूर किसी प्रेमी
जोड़े का असीम प्रेम होगा
जो यहीं छूट गया
नहीं-नहीं छोड़ दिया गया
होगा
इसी माटी में,
सड़ने
अंखुआने
पनपने के वास्ते
आखिरी सांस तक
जीवन से जूझता
अपनी पीढ़ियों को
निमंत्रण देता यह -
महज़ एक फूल नहीं
उम्मीद है 'सृजन' का जो
नहीं देखना चाहता
इस धरा को बंजर
मानों मेरी पीढ़ी से कह
रहा -
आओ
अपने पुरखों की भांति आओ
अपनी हड्डियों से खोद कर
पसीने से सींच कर
मुझे यहीं उगाओ
मैं उगना चाहता हूं
मैं उग गया तो अपने सौरभ
से खींचता रहूंगा
उत्कट जिजीविषा से भरे
उन सभी जीवों को
अपने पास
और
बंजर को चुनौती देती
प्रकृति पुनः सृजन की ओर
बढ़ चलेगी
रिश्ता
'रिश्ते'
प्रकृति के बनाये नहीं होते
उसे समय और सम्मान
मिल कर बनाते हैं
रिश्तों में धुंधलापन
धुंध और कुहांसे से नहीं,
उपेक्षा की घटाओं के
घिरने से होता है
रिश्तों में मधुरता
किसी मीठे कण या शक्कर
से नहीं,
स्नेह भरे शब्दों से
होता है
रिश्तों में अपनापन
किसी रासायनिक क्रिया से
नहीं
मुकम्मल ख्याल से होता
है
जब ये सब क्रियाएं ठप
हों
तो सहज ही अंदाजा लगा
लेना
समय की अंधी घुड़दौड़
में
रिश्ते काफी पीछे छूट गए
इससे पहले कि कोई दूसरा
उसे अपने पैरों तले
कुचले
आत्मसम्मान हेतु
समय की अंधी घुड़दौड़ से
बाहर निकल कर
बोझिल ढाल -तलवार को
किनारे रख
सादगी से अपनी दौड़
लगानी चाहिए
जिसमें न कुचलने डर हो
न अभिमान का दंश
प्रारंभिक
कवि
प्रारंभिक कवि
यानी सुदामा की पोटली
जो कांख के पसीने की चौहद्दी से लथपथ
बाहर तो निकलना चाहता है
पर मारे शर्मिंदगी के छुपना ही अच्छा समझता है
उसे पता है वह भेंट है
सिर्फ बालसखा कृष्ण का नहीं
बल्कि हर जरूरतमंद का
जिसमें पेट से लेकर दिमाग तक के रिश्ते हो सकते हैं
फिर भी वह सकुचाता है
शायद उसे अपनी कीमत का अंदाजा नहीं
उसे पता है वह पोटली है
जो ख़ुद बोल नहीं सकता
पर उसे पाने वाला जरूर
बोलने लगता है
एकाध बार कोशिश भी किया
था
प्रारंभिक कोशिश!
पर बड़े जरूरतमंदों ने
यह कह कर दबोच लिया
अच्छा तो अब कवि जी हैं!
फिर मुंह ऐसा घुमाते
मानो वह उनकी आंखों का
वर्जित इलाका हो
वह सुना है अपने
साहित्यिक पूर्वजों से
अक्सर साहित्यकार इसी
अखाड़े से दांव-पेंच सीखकर आते हैं
कुछ कलमवीर केवल इसी
अखाड़े में अव्वल हैं
कुछ यहीं पर पदक भी जीत
लिए हैं
और कुछ इसी अखाड़े की
कुश्ती को सिर्फ चुपचाप देखते हैं
कितने तो इसकी तान पर
झूम-झूम के लड़ते
और कुछ पटखनी के डर से उतरने का साहस नहीं करते
फिर भी न जाने क्यों -
कवि यानी उनकी आंखों का
वर्जित इलाका!
हैरान है परेशान है
आख़िर उन्हें बताये कौन?
कि कवि उनकी आंखों का
वर्जित इलाका नहीं
वह सुदामा की पोटली है
जिस पर पत्नी के हाथों
ग़रीबी में भी प्रेम की
अमिट स्नेहिल गांठ पड़ी है
झर रही है जिससे ममता
अपार
अंधेरे का
दर्द
यूं ही पड़ा था एक दीया
मुझे मंजूर नहीं
जतन कर, जला कर
चिराग़ नाम दिया
अंधेरे को भगा कर प्रकाश
कर दिया
तकलीफ़ तो मुझे तब हुई
जब एक दिन सिसक कर
अंधेरे ने मुझसे शिकायत
की
हमेशा भगा देते हो तुम
मुझे
क्यों मुझसे प्यार नहीं
करते हो?
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स
विजेंद्र जी की हैं।)
सम्प्रति –
शोधार्थी हिंदी विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
मो. - 9598677628
पहली कविता में ’बाक़ी’ तो ठीक करने वाली ने भी ग़लत लिखा है। ’क’ के नीचे बिन्दी नहीं लगाई है। "बंजर धरती पर गिरे एक फूल को देख कर" में ’देखकर’ होना चाहिए। ’देखकर’ एक ही शब्द है। इसी तरह ’खपाकर’, ’चटकाकर’, ’बहाकर’
जवाब देंहटाएं’सुखाकर’ , ’गलाकर’ , ’खोदकर’ , ’सींचकर’ और ’मिलकर’ सब एक ही शब्द के रूप में लिखे जाते हैं। ’ख्याल’ ग़लत है। शब्द है -- ’ख़याल’। ग़लतियाँ और भी हैं। भाई ! कविता लिखने के साथ-साथ वर्तनी भी ठीक लिखना सीखिए। कविताएँ ठीक ही हैं।
इस हेतु आभार सर
हटाएंअतिसुन्दर ,आपकी कविताएं पढ़कर अच्छा लगा।।।
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंबहुत सुन्दर कविताएँ
जवाब देंहटाएंजी धन्यवाद
हटाएंकविताएं अच्छी हैं
हटाएंजी धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआभार
जवाब देंहटाएं