सुधीर चंद्र की किताब ‘बुरा वक्त अच्छे लोग’ पर पुष्पेंद्र कुमार द्वारा लिखी गयी समीक्षा ‘असहमति का अधिकार’।





सुधीर चंद्र द्वारा एक किताब सम्पादित की गयी बुरा वक्त अच्छे लोग पुष्पेंद्र कुमार ने इस किताब की एक समीक्षा लिखी है आज पहली बार पर प्रस्तुत है सुधीर चंद्र की किताब बुरा वक्त अच्छे लोग पर पुष्पेंद्र कुमार द्वारा लिखी गयी समीक्षा असहमति का अधिकार   


असहमति का अधिकार


पुष्पेन्द्र कुमार



वाल्तेयर का प्रसिद्ध कथन है - ‘हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊं फिर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की रक्षा करूँगा।’ दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ‘असहमति का अधिकार’। परन्तु उसकी रक्षा का प्रश्न क्यों? असल में स्वतंत्र विचारों को सजा देने का इतिहास सदियों पुराना है। विगत कुछ वर्षों में हमारे देश में जो घटनाएँ घटी हैं, वह असहमति के अधिकार को बुरी तरह से कुचलने की कोशिश रही है। परिस्थितियाँ एक सी नहीं रहीं, न ही उसके ख़िलाफ़ प्रतिक्रिया। अभिव्यक्ति अपने सर्वाधिक बुरे दौर में है। ऐसे में हमें अपने वर्तमान की ऐतिहासिक अहमियत और उसके व्यावहारिक भविष्य को देखने और समझने की कोशिश करनी होगी। ‘बुरा वक्त, अच्छे लोग’ ऐसी ही पुस्तक है, जहाँ सुधीर चन्द्र ने ऐसी घटनाओं और स्थितियों की न सिर्फ पहचान की है, अपितु उस पर अपनी बेबाक टिप्पणी भी प्रस्तुत की है। पूर्व प्रकाशित अपनी एक अन्य संपादित पुस्तक ‘हिन्दू, हिन्दुत्व, हिन्दुस्तान’ में वह ‘लिखने की चुनौती’ और ‘खतरों’ की बात करते हैं। ‘खतरा’ गलत समझ लिए जाने का। सद्य: प्रकाशित पुस्तक ‘लिखने की चुनौती’ से ‘लिखने के भय’ तक का सफ़र है।



 ‘बुरा वक्त, अच्छे लोग’ में लेखक का समय गहरे संवेदनात्मक अर्थों में दर्ज है। पूरी पुस्तक दो हिस्सों में बंटी हुई है। लेखक का अतीत जो कमोबेश भारत की आज़ादी के आस-पास शुरू होता है और लेखक का वर्तमान जो पिछले पाँच-छ: वर्षों की घटनाओं को समेटे हुआ है। सुधीर इन वर्षों में एकसारता नहीं देखते। पुस्तक की प्रस्तावना में वे लिखते हैं - ‘आपातकाल में भी लिखना बंद नहीं हुआ। नए तरीके जरूर सोचने पड़े लिखने के।... यानी कि डर आया उस बीच। सरकार का डर। पर यह डर नहीं था कि समाज के ही लोग--सरकारी अधिकारियों से अलग तानाशाह का गुणगान करने वाले-- टूट पड़ेंगे आप पर।’ वह आगे लिखते हैं - “आज स्थिति बदल गई है। बैठे-बिठाए देशद्रोही घोषित किये जा सकते हैं, आप। या कोई और संगीन आरोप थोपा जा सकता है आपके ऊपर। कत्तई जरूरी नहीं है कि कोई सरकारी तंत्र इसमें आए। समाज का ही कोई तबका आपका जीना मुहाल कर सकता है। खत्म भी।” आप स्वयं महसूस कर सकते हैं कि आजादी के बाद से विचार कभी ऐसे व्यापक और सुनियोजित खतरे में नहीं रहा, जैसा कि आज है। वास्तव में स्थिति तब भयावह हो जाती है, जब धारणाएँ पवित्र और अपवित्र के खाके में बाँट दी जाए, विचारधाराएँ राष्ट्रवाद (देशभक्ति) बनाम देशद्रोह तक सीमित कर दी जाए और ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ समाज और व्यवस्था को ख़तरा लगने लगे। इस पुस्तक में संपादित लेख विभिन्न सामाजिक सरोकारों के मध्य उपजे उन गतिरोधों और मानवीय अंतर्विरोधों पर स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।



पुस्तक का पहला निबंध है - ‘ज़िन्दगी की रफ़्तार’। सुधीर यहाँ अपना परिवेश रचते हैं। जहाँ जीवन है, उसका संगीत है, जाने-पहचाने लोग हैं, कुछ परिस्थितियाँ हैं, जहाँ जीवन मंथर गति से बढ़ता है। परन्तु यह परिवेश उनका नहीं रह जाता। यह लेख ‘नॉस्टेल्जिया’ पैदा करता है, आप फिर से अपने बीते समय में जी उठते हैं। लेकिन ठहरिए, यह अतीतानुराग नहीं अपितु बड़ी बारीकी से वर्तमान का पुनरावलोकन है। यह अतीत, वर्तमान और भविष्य में होने का अनुमान है, जिज्ञासा है, उसकी आशा-निराशा है। इस क्रम में उन्हें गीता, कठोपनिषद और बाइबिल तक की याद आती है। ब्लैक और इलियट की भी। जहाँ भूत और वर्तमान दोनों ही भविष्य में उपस्थित हैं। परन्तु यहाँ सुधीर में स्वयं विरोधाभास है। हर सदी में दिखाई देती निरन्तरता उन्हें इक्कीसवीं सदी में ध्वस्त होती दिखाई देती है। यद्यपि मानवीय ह्रास हमारे पूर्वजों ने भी अपने समय में हो रहे परिवर्तनों में देखा था, तो क्या लेखक का डर अस्वाभाविक है? जब सब कुछ अभूतपूर्व तेजी से बदल रहा हो, ऐसे में निरन्तरता की यह खोज आशा और संतोष की एक अधेड़ स्थिति भर तो नहीं? क्या है इस विरोधाभास का कारण? संभवतः यह विरोधाभास हम सबमें है। सवाल आपके समक्ष है, विचार आपके हाथ।





सुधीर ने जीवन का एक लंबा सफ़र तय किया है। अपने एक अन्य लेख में वह ’66 साल : एक निजी लेखा-जोखा’ प्रस्तुत करते हैं। एक बात तो स्पष्ट है कि लेखक वस्तुनिष्ठता का पैरोकार नहीं। यहाँ स्पेस है। स्पेस आपके विचारों को भी सुनने का। वह लिखते हैं - “तथ्य से ज्यादा तथ्य की छवि का महत्त्व होता है। और छवि एक कभी नहीं होती। न ही स्थायी। छवि ही तथ्य बन जाती है।” यहाँ लेखक ने जो छवियाँ प्रस्तुत की हैं, वह भले ही निजी हो, परन्तु सवाल बड़े ही मार्मिक और डरावने हैं। इन छवियों के माध्यम से वह देशभक्ति, राष्ट्रवाद, अलगाववाद और सांप्रदायिकता जैसी मनःस्थितियों को समझने का प्रयास करते हैं। इन सभी स्थितियों में लाइलाज होता है वह ‘सामूहिक जुनून’ जहाँ कोई सोचने-समझने को तैयार नहीं होता। राष्ट्रवाद को ले कर वह लिखते हैं - “राष्ट्रवाद एक ही वक्त में जबरदस्त आदर्शवाद और निहायत संकीर्ण स्वार्थों को अपने में समोए रखता है। प्रेरक और आह्लादकारी होने के ही क्षण में यह बेहद घिनौना भी होता है। आश्चर्य नहीं कि राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर आधारित राज्य-- राष्ट्र-राज्य-- और उसी के नाम में लड़ कर हासिल की गई आजादी का चरित्र भी वैसा ही संश्लिष्ट और भ्रामक हो। एक साथ कल्याणकारी और खूँखार।”



आख़िर वह कौन सी मानसिकता है, जो एक विचार, एक रंग, एक धर्म, एक जाति, एक सभ्यता, एक संस्कृति को श्रेष्ठ मानती है तथा तर्क और संदेह की सभी संभावनाओं को बुरी तरह से ख़ारिज करती है। यही कारण हैं कि सुधीर सांप्रदायिक चेतना या विचारधारा को मात्र किसी व्यक्ति या पार्टी तक सीमित रख कर नहीं देख पाते। लेखक का सवाल काबिले गौर है कि आख़िर गुजरात दंगों के बाद मोदी को जिताने वाले लोग कौन थे? अर्थात् मोदी से ज्यादा व्यापक है वास्तविक आधार ‘डर’ का। क्या यही डर अलगाववाद की मनोवृत्ति में भी कार्य करता है? सामान्य मिज़ो चेतना में सारे ‘हिन्दुस्तानी’ वाई (विदेशी) हैं। आख़िर उनके (मिज़ोरम वासियों) इस संदेह का कारण क्या है? इस तथाकथित राष्ट्रवाद में उनका स्थान कहाँ है? ऐसे कई मुद्दे हैं, जिससे सुधीर भारत की स्वतंत्रता को राजनैतिक स्वतंत्रता से अधिक नहीं देख पाते और उनमें मोहभंग और संशय की स्थिति सदैव बनी रहती है। वास्तव में हर वह व्यक्ति जो इस स्वतंत्र भारत के तमाम अवसरों का उपभोग कर रहा है, तब तक संवेदनशील नहीं हो सकता, जब तक उसे वंचितों का दर्द नहीं दिखता। और जिसे दिखता है, जिसमें संशय है, मोहभंग है, उसे आप क्या कहेंगे- द्रोही?



प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने कुछ ऐसी युगांतकारी घटनाओं को दर्ज किया है, जिसके दूरगामी प्रभाव होंगे। ऐसी घटनाएँ जो भिन्न स्थितियों और प्रश्नों के साथ उपस्थित होंगी। यह चयन एक सजग इतिहास-दृष्टि ही कर सकती थी। 16 दिसम्बर (निर्भया कांड) याद है आपको? देश उस क्रूर अमानवीयता से हरियाणा के कई मज़लूमों के सामूहिक बलात्कार तक पहुँच चुका है। एक के लिए आन्दोलन करना पड़ा और दूसरा एक दूषित आन्दोलन का परिणाम था, जहाँ न्याय राजनीतिक हथकंडो की सूली चढ़ गया। पहली घटना में हिंसा पर उतारू लोग गलत दिखे और दूसरे में उनकी मांगे वाजिब लगीं। मतलब बात सही-ग़लत की नहीं राजनीतिक नफा-नुकसान की थी। ऐसे में अगर लेखक को नेतृत्व का निधन दिखाई पड़े तो उसे निराशा या पलायन मानना क़तई सही नहीं होगा। सुधीर इन घटनाओं को मात्र राजनीतिक जवाबदेही तक सीमित नहीं देख पाते। वह सीधे कहते हैं - ‘आजाद भारत में समाज और सरकार दोनों ही उत्तरोत्तर अक्षम हुए हैं। किसी बड़े सरकारी हस्तक्षेप से ज्यादा कारगर हो सकते हैं, हमारे निजी प्रयत्न अपनी बनावट को समझने और बदलने के। सारी समस्या की जड़ वह मानसिकता है जिससे जूझना है। पुरुष की कामेच्छा की स्वाभाविक अदमनीयता की घोषित-अघोषित मान्यता बनी हुई है।’ असल में औरतों की गरिमा को संविधानी पाठ से बाहर समझना होगा। सुधीर वैवाहिक जीवन के निजी अन्धकार में होने वाली आक्रामकता और हैसियत का दुरुपयोग कर विभिन्न परिस्थितियों में औरतों पर होने वाले अत्याचार को भी समझने और परिभाषित करने की मांग करते हैं। साथ ही यह कामेच्छा जिसका क्रोध और प्रतिशोध से बड़ा नजदीकी रिश्ता है, वंचितों में आ कर बड़ा विकराल रूप ले सकती है, इसे भी समझना होगा। सच तो यह है कि बलात्कार की प्रक्रिया इस अपंग दिमाग से ही शुरू होती है, अतः इस मानसिकता पर प्रहार ज़रूरी है।



पुस्तक के दो लेख इक्कीसवीं सदी की भारतीय राजनीति के सर्वाधिक परिवर्तनकारी घटना से सम्बद्ध है। 16 अगस्त 2011 का वह दिन जब अन्ना हजारे को गिरफ्तार कर लिया गया और तत्पश्चात अपनी मांगों को ले कर वह आमरण-अनशन पर बैठ गए। सुधीर ने इस अनशन की नैतिक और व्यावहारिक विसंगतियों को समझने की कोशिश की है। लेखक ने अहिंसक सत्याग्रह हेतु ‘विरोधियों का ह्रदय परिवर्तन’, ‘विनम्रता’,  ‘निष्काम सेवा’, ‘कर्तव्य पालन’, ‘ईमानदारी’, ‘निःस्वार्थता’ आदि गांधीवादी मूल्यों को ले कर कुछ ऐसे प्रश्न उठाए हैं जो अनशनों की पृष्ठभूमि में सदैव प्रासंगिक रहेंगे। लेखक जहाँ इसे अपनी साख खो बैठी भारतीय राजनीति और जवाबदेह इकाइयों के खिलाफ भारतीय जनमानस की निराशा का प्रस्फुटन मानते हैं, वहीं दूसरी ओर इस आन्दोलन को अहिंसक न मान कर एक शांतिपूर्ण प्रतिरोध मानते हैं। लोकपाल को ले कर सुधीर गंभीर प्रश्न खड़े करते हैं - हमें गंभीरता से सोचना होगा कि कानून पर क्या वाकई, या किस हद तक, निर्भर किया जा सकता है, समाज और राष्ट्र को बदलने के लिए। क्या इस बात का कोई महत्त्व है कि इस आन्दोलन को समर्थन दे रहे उस विशाल जनसमूह ने इस अनशन के दौरान कोई सामूहिक व्रत लिया कि हमें कानून के इन्तजार की जरूरत नहीं? कि हम स्वयं किसी तरह की बेईमानी नहीं करेंगे।’ वास्तव में सवाल लोकपाल का नहीं, नैतिक पतन का है। इसी नैतिकता के लोप की पैदाइश है ‘आप’। संभवतः यही कारण है कि सुधीर अन्ना की इच्छा के विपरीत ‘आप’ के गठन की ओर आशा से देखते हैं।      



‘आप’ से संबंधित विभिन्न घटनाक्रमों पर कुल तीन लेख संकलित हैं इस पुस्तक में। ‘आप’ को ले कर लेखक की सहमति आपको चिंतित कर सकती है, परन्तु भविष्य पर नजरे गड़ाए सुधीर यह चुनौती लेने को तैयार हैं। इसे आप भ्रष्ट राजनीति के विकल्प की व्यावहारिकता मान सकते हैं। परन्तु यहाँ विकल्प का अंध समर्थन नहीं अपितु उसका तटस्थ निरीक्षण भी है। मुख्यमंत्री रहते हुए केजरीवाल के धरने को वह नई प्रकार की राजनीति के अमलीकरण की दिशा में पहला कदम मानते हैं। यहाँ नया वह हर कुछ है जो रूढ़ और भ्रष्ट राजनीति के खिलाफ नैतिक प्रतिक्रिया हो। परन्तु वह इसे रेडिकल नैतिकता तक सीमित नहीं रखते अपितु इसे राजनैतिक पैतरेबाजी की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण मानते हैं। नैतिकता और राजनीति के संतुलन की दृष्टि से अगर केजरीवाल का धरना उनमें उम्मीद जगाता है तो सोमनाथ भारती वाला मामला उस संतुलन को बनाए रखने में ऊहापोह की स्थिति पैदा करता है। मसला ‘आप’ का नहीं, उस नैतिक विकल्प का है। अतः सुधीर इसे सामूहिक ज़िम्मेदारी मानते हैं। एक ऐसी ज़िम्मेदारी जिसको निभाने में हो सकता है कि ‘हमें’ आप को ‘आप’ से ही बचाना पड़े। नैतिकता की बहाली का सतत प्रयास और जनता का उसमें विश्वास ही ‘आप’ के बने रह पाने की बुनियादी शर्त होगी।




इधर हमारे समय की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चिंताओं में एक शिक्षण संस्थानों और बुद्धिजीवियों पर हो रहे लगातार हमले हैं। मल्लिकार्जुन कलबर्गी (मैसूर विश्वविद्यालय), जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफ़ेसर मुशीरुल की पिटाई तथा गुरुनानक देव विश्वविद्यालय में गुरु ग्रन्थ साहब की निर्मिति पर प्रकाशित शोध के लेखक के साथ हुआ अन्याय हो या रामानुजन के लेख को स्वयं अकादमिक परिषद् द्वारा निकाला जाना, लेखक ने इन घटनाओं पर कड़ी प्रतिक्रिया दी है। पुस्तक प्रकाशित होने तक ऐसी कई अन्य घटनाएँ हमारे सामने आई जो हमें सोचने पर मजबूर करती है। सुधीर के अनुसार एक ख़ास मानसिक प्रवृत्ति का द्योतक है यह सिलसिला। वह इसे बौद्धिक हिंसा मानते हैं। ‘संदेह और प्रश्न’ जिसकी ज्ञान-प्रणाली और शिक्षा-व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, उसे खत्म करने की साजिश है यह सिलसिला। ज्ञानार्जन की कौन सी प्रवृत्ति विकसित होगी इससे? एक अन्य लेख ‘वहीं के वहीं’ में बाबरी मस्जिद विवाद को केंद्र में रख कर लेखक द्वारा कुछ नितांत ज़रूरी सवाल उठाये गए हैं। यह लेख कानून एवं सत्ता की अकर्मण्यता, धर्म और सत्ता का संबंध और सामाजिक मानसिकता को अपने ज़द में लेती है। एक अन्य लेख जिसका ज़िक्र किया जाना ज़रूरी है ‘आधुनिकता: कबीर के बहाने’, पुरुषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक समीक्षा के बरक्स एक वैचारिक विमर्श है। ‘एम्बिवैलेंस की स्थिति’, ‘औपनिवेशिक चेतना’, ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ और खासकर ‘आधुनिकता’ तथा ‘पब्लिक स्फियर’ के संदर्भ में यह नितांत ज़रूरी लेख है। सुधीर पश्चिमी आधुनिकता से पहले ‘क्षेत्रीय अथवा देशज आधुनिकता’ की उपस्थिति घोषित करने की प्रवृत्ति पर घोर आपत्ति दर्ज करते हैं। इस मानसिकता को परिभाषित करते हुए वह लिखते हैं कि ‘यह एक ऐसा सामूहिक पुनरुत्थानवाद है, जिसकी जरूरत लगभग हर औपनिवेशिक समाज को महसूस हुई है। परन्तु इसका मानक है वहीं ‘पश्चिमी आधुनिकता’।’ 



सुधीर महात्मा गांधी के एक गंभीर आलोचक रहे हैं। उन्होंने महात्मा गांधी के साथ एक नितांत निजी और तटस्थ रिश्ता कायम कर लिया है। पुस्तक में संकलित गांधी केन्द्रित लेख ‘हिन्द स्वराज’, ‘अहिंसा’ और ‘सत्याग्रह’ की मूलभूत समझ के लिए उपयोगी हो सकते हैं। आपको आश्चर्य होगा जब सुधीर गांधी के नेतृत्व में चले स्वतंत्रता संग्राम की अहिंसा को ‘अवसरवाद की अहिंसा’ मानते हैं। वास्तव में गांधी हिन्द स्वराज के अकेले और आखिरी वारिस थे। ‘हिन्द स्वराज’ और गांधी की प्रासंगिकता का कितना भी जयगान हो, उन्हें सच्चे अर्थों में कभी माना ही नहीं गया। न उनके जीते जी, न उनकी हत्या के बाद। सुधीर ज़ोर दे कर कहते हैं कि सवाल गांधी की प्रासंगिकता का नहीं, उनकी ‘सम्भवता’ का है। ‘नाटकबाज’ लेख सांकेतिक है परन्तु ‘दलित और गांधी’ को केंद्र में रखकर पुनर्विचार के दरवाजे खोलती है।



पुस्तक का सर्वाधिक मुख्य आकर्षण इसमें संकलित संस्मरण हैं। संस्मरणों में सुधीर के कुछ नितांत आत्मीय क्षण हैं। कला और कलाकार पर लिखना आसान कार्य नहीं होता। रसिक होना भी एक साधना है। जब माध्यम कला, कलाकार और रसिक में अविभाज्य हो जाता है, तब जाकर उस पर ऐसी लेखनी चलती है। पं. भीम सेन जोशी की ऐसी अन्तरंग व्याख्या बिना इस अविभाज्यता के संभव नहीं थी। भूपेन खख्खर पर एक विस्तृत संस्मरण है। यह संस्मरण नहीं लगता, वरन् आत्मकथा का एक अंश लगता है। भूपेन को याद करते हुए जैसे वह स्वयं को याद कर रहे हों। उनके चित्रों की समझ ऐसी है मानो उन्होंने भूपेन को जीया हो। संभवतः भूपेन पर अगले अंक भी पढ़ने को मिले। तीसरा संस्मरण आफ़ताबे-ए-मौसिकी के उस्ताद फैयाज खां के बहाने उन तमाम तत्कालीन महान संगीतकारों की याद है, जिसने सुधीर चन्द्र को बड़ी ही संजीदगी से प्रभावित किया है। आश्चर्य नहीं कि भविष्य में कलाओं खासकर संगीत पर संस्मरण की एक विस्तृत और बेहतर पुस्तक पढने को मिले।



नितांत ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण लेख होने के बावजूद यह संकलन पुस्तक का रूप नहीं ले पाई है, एक बेहतर पुस्तक बनते-बनते रह गई है। कारण समकालीन संपादन नीति। विगत कुछ वर्षों में प्रकाशित आपको ऐसी कई संपादित पुस्तकें मिल जाएंगी, जो अलग-अलग समय में लिखे गए लेखों के बेतरतीब संकलन हैं और जहाँ पुस्तक का फ्लैप अथवा शीर्षक एक छलावे से अधिक कुछ नहीं होता। प्रस्तुत पुस्तक में संकलित उत्तरार्ध के कुछ लेख अत्यंत छोटे हैं, जो तत्कालीन त्वरित प्रतिक्रिया मात्र हैं, कुछेक टिप्पणीनुमा हैं और कुछ पुस्तक शीर्षक से विमुख। इन लेखों में न व्यापक दृष्टि है और न ही इनसे कोई समझ विकसित होती है। इससे पाठक का औत्सुक्य और लय टूट जाता है। एक ही पुस्तक में समीक्षा, संस्मरण और लेख का यह घालमेल आज की चलताऊ संपादन कला का नमूना है, जहाँ सारा ध्यान ‘लेखक के नाम’ पर केन्द्रित होता है। सुधीर एक बड़े लेखक हैं, उन्हें इस उतावलेपन अथवा दोष से बचना चाहिए। बावजूद इसके अधिकाँश लेख वैचारिक दृष्टि से नितांत गंभीर है, जिससे पाठक ठगा हुआ महसूस नहीं करता और वैचारिक दृष्टि से यह एक उपयोगी संकलन हो सकता है।



अपने समय की परिवर्तनकारी घटनाओं की निशानदेही और उसकी तार्किक अभिव्यक्ति आसान कार्य नहीं। सुधीर अपने लेखों के माध्यम से समकालीन इतिहास लेखन का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। यह सुखद है कि वह विभिन्न अनुभवों के बरक्स स्वयं के अनुभवों को रख कर क्रमवार देखने, समझने और सोंचने की मांग करते हैं। मंशा बस इतनी कि अपने समय की चेतना और मानसिकता को पकड़ पाए, भविष्य के लिए। सुधीर संवाद रचते हैं, बिना किसी वैचारिक आग्रह के। असहमत होने के लिए बहुत कुह है इस पुस्तक में। बहुत कुछ ज़ोरदार बहस करने को भी। लेखक भी तो यही चाहता है। एक ‘नितांत निजी असहमति’ और उस असहमति की बेबाक प्रस्तुति। बिना किसी भय के। यहाँ विचारों की रक्षा जैसा कुछ भी नहीं, तभी तो वह लिखते हैं- ‘पूरी ईमानदारी और गंभीरता से किए अध्ययन के बाद, जो सही है उसे बोलने लिखने को तैयार रहो, विचारों के निमित्त होने के नाते, विचारों को मिली सजा के भोगार्थ।’




(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं) 


पुष्पेंद्र कुमार ने गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय से इतिहास और साहित्य के अंतरसंबंध विषय पर और स्वतंत्रता पूर्व हिंदी पत्रकारिता में इतिहास, राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता विषय पर कार्य किया है। तद्भव समेत विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनके आलेख प्रकाशित हैं।

फिलहाल बिहार के मुजफ्फरपुर के एक महाविद्यालय में कार्यरत हैं।



पुष्पेंद्र कुमार




सम्पर्क 

मोबाइल नम्बर  - 7878038746


टिप्पणियाँ

  1. सुधीर जी की किताब पर बहुत तन्मयता से पुष्पेंद्र जी ने यह आलेख लिखा है। बहुत-बहुत बधाई उन्हें, साझा करने के लिए पहली बार के प्रति आभार।

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  2. पुष्पेंद्र भैया को बधाई, लेख पढ़कर अच्छा लगा साथ ही कुछ नया जानने और पढ़ने को मिला.... आगे भी ऐसे ही अच्छे लेखों की प्रतीक्षा रहेगी....

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