अमरजीत राम की कविताएँ
आज़ादी मिलने के दशकों बाद भी हमारे समाज का एक बड़ा
वर्ग ऐसा है जो आधारभूत सुविधाओं तक से वंचित है। हमारी सामाजिक व्यवस्था की उन
असंगतियों ने ही इस व्यवस्था को गढ़ा जिससे ये असमानताएँ आगे चल कर और वीभत्स रूप
लेती गयीं। अमरजीत राम अपनी कविताओं में इन विसंगतियों को उभारने का काम करते हैं।
यह काम वे अपने तरीके से बिना किसी तल्खी के करते हैं। इस सन्दर्भ में मुझे तुलसी
राम और उनकी रचना 'मुर्दहिया' की याद आयी जिसमें वे अपने अंदाज़ में बिना तल्खी के
शोषण की सारी तस्वीर को खोल कर रख देते हैं। अमरजीत के यहाँ दलित बस्ती के उजडने के साथ साथ ‘टूटी नाव’, गुब्बारों वाली लडकी, सन्नाटे की चीख जैसी कविताएँ हैं। पहली बार पर आज प्रस्तुत है अमरजीत
राम की कविताएँ।
अमरजीत राम
की कविताएँ
दिल्ली दूर है
लोग कहते
हैं
दिल्ली दूर
है
माँ भी कहती
थी
साफ़-साफ़
मुहावरे की
भाषा में
मैं समझा
लेकिन देर
से।
जब पथरा गईं
उनकी आँखें
पैदल चलते -
चलते
जब सूख गए
उनके
कपकपाते होंठ बिन पानी के
जब ऐंठ गईं
उनकी आँतें
भूख की आग से
जब सो गए
दूधमुँहें
बच्चे कन्धों से चिपक कर
जब दिखने
लगा
उनके चेहरों
पर
महामारी का
दहशत
और हो गए
किसी कार
दुर्घटना का शिकार
चलते-चलते
मैं समझा
लेकिन देर
से।
2
लोग कहते
हैं
वे इस्पाती
हैं
लोहे के बने
हैं
जानते हैं
ढ़लना समय से
लोहे की तरह
वे पत्थर से
पानी निकालते हैं
वे
नाप देंगे
समुद्र
आकाश
पृथ्वी
एक ही बार
में
मैं कहता
हूँ
ओ इंसान हैं
बिल्कुल
मेरी तरह।
3
वे जानते
हैं
प्रेम, अर्थ और
प्रेम की
परिभाषा
पैदा हुए
हैं
इंसानियत की
कोख से
विपदाएं
उन्हें विरासत में मिली हैं
वे उदास
जरूर हैं
लेकिन हारे
नहीं।
चैत्र पूर्णिमा का चाँद
हम सन्नाटे
में निहारते रहे
चैत्र
पूर्णिमा का कपासी चाँद
कि देश संकट
से गुज़र रहा
मैंने देखा
बहसें
लगातार रही जारी
विज्ञान की
बहसों में
धर्म मौन
था!
कभी
गुर्राहट में
निकली उसकी
आवाज़
किसी बच्चे
की तोतली और
अस्पष्ट
भाषा से ज्यादा कुछ भी नहीं
अन्धविश्वास
रेंग रहा था
दर - ब - दर
बिलबिलाते
कीड़े की तरह
पाखण्ड पिघल
कर
पानी-पानी
हो रहा था
इसी ज़मीं पर
भूखा-प्यासा
लोकतंत्र
सिसकियों
में डूब रहा था और
चाँद मेरे
भीतर उतर रहा था
मैं घास हूँ
यह
उत्साहहीनता का वक़्त है
छूआछूत का
उत्तरकाल
नदी उलीच
रही है रेत और सागर लहरें
शहर सन्नाटा
बुन रहा है
चौराहें सब
हैं ख़ाली
यहाँ से
देखो
ताला लटक
चुका है
मंदिरों और
मस्जिदों में
अमलतास सूख
रहा है
आओ बैठो
मेरे पास
मैं विदग्ध, प्रतिकृष्ट
सदियों का
संताप संजोए
बिछी हूँ
तुम्हारे लिए
दबी, कुचली, तितिक्षु
नवजात की
हथेलियों की तरह
बिल्कुल
नर्म और मुलायम घास
तरह-तरह की
घास
तहक़ीक़ तो यह
है मेरे जीवन की
अक़्सर वक़्त
के धुंधले बदसूरत सन्नाटे में
उड़ेला गया
तेज़ाब
बैठाया गया
अग्नि पुंजों के बीच बांध के
चलाया गया
बुल्डोजर मेरे सीने पर
काटा गया
मुझे वैसे ही जैसे
काटा गया
एकलव्य का अंगूठा
और शम्बूक
का गर्दन
जोता गया
आधुनिक रोटाबेटर से
दबाया गया
भीमकाय
शिलाओं से
मेरा
आत्माभिमान
न जाने
कितने टुकड़े - टुकड़े कर
डाल दिया
गया किसी बदबूदार गटर में
दफ़न कर दिया
गया
मुझे गांव
से दूर
दक्षिण दिशा
वाले कब्रिस्तान में
तानाशाहों
के घोड़ों के एक - एक टॉप से
कुचलवा कर
छोड़ दिया गया
सूखने के
लिए
तब भी मैं
विप्रलम्भ नहीं
यह मेरी
तहज़ीब है
अँखुआना
मेरी नियति है और
नष्ट करना
तुम्हारा काम
हमारे
अँखुआने और
तुम्हारे
नष्ट करने में
ढल जाता है
सूरज
ढल जाता है
चाँद और
तुम्हारा
संपूर्ण जीवन
फिर भी खिल
उठती हूँ मैं
नई रोशनी के
साथ शैलों के शीर्ष पर
बिन पानी, बिन खाद
क्योंकि मैं
घास हूँ
बिल्कुल
नर्म और मुलायम
तुमने कहा
ओ मेरे
गूंगे, बहरे, भूखे, नंगे दलित देश
मेरे अनाम
पुरखों के हड्डियों को कंपा देने वाले शोषकों
कहाँ मर गए
तुम?
किस कुत्ते, सूअर के शरीर में
प्रवेश कर गयी तुम्हारी आत्मा
अब क्यों
नहीं सुनते
मेरी आत्मा
की आवाज़
शब्द
तुम्हारे थे
भाषा भी
तुम्हारी
मतलब मैं
गूंगा नहीं था
तुम्हारी
व्यस्था में
अपनी थी
लाचारी
तुमने कहा
कि झाडू बाँधो
बाँधा मैंने
तुमने कहा
कि मटकी टांगो
टांगा मैंने
तुमने कहा
कि गोबर फेको
फेका मैंने
तुमने कहा
कि लकड़ी फाड़ो
फाड़ा मैंने
तुमने कहा
कि डांगर फेको
फेका मैंने
तुमने कहा
कि पत्तल चाटो
चाटा मैंने
तुमने कहा
कि छूना मत कुछ
मैंने कहा
कि हाँ जी, हाँ जी
तुमने कहा
कि रात है
मैंने कहा
कि हाँ जी, हाँ जी
तुमने कहा
कि दिन है
मैंने कहा
कि हाँ जी, हाँ जी
तुमने कहा
कि पृथ्वी मेरी
मैंने कहा
कि बिल्कुल है जी
मैंने पूछा
बड़े प्यार से
बाबू जी फिर
क्या है मेरा?
कलम हो गयी
धड़ से गर्दन
पशु थे तुम
पशु ही
रहोगे
मरने पर लावारिस
लाशें
इस दुनिया
में
कुछ नहीं
तेरा
संकट के समय में
सोचो तब
क्या होगा?
जब संकट के
समय में
इंसानों की
तरह
सूर्य मना
करेगा रोशनी देने से
चाँद शीतलता
पेड़-पौधे
मना करेंगे
फल - फूल
छाया देने से
बादल पानी
सोचो तब
क्या होगा?
सोचो तब
क्या होगा?
जब पृथ्वी
मना करेगी
अपने ऊपर
रहने से
अग्नि आग
देने से
हवाएं मना
करेंगी
हवा देने से
सोचो तब
क्या होगा?
सोचो तब
क्या होगा?
जब नदियां
लौट जाएँगी
जैसे आई थीं
सागर मना
करेगा कुछ भी लेने से
आकाश के
तारे टिमटिमाने से
सोचो तब
क्या होगा?
सोचो तब
क्या होगा?
जब कलियाँ
मना करेंगी
खिलने से
भौरें
गुनगुनाने से
वसंत मना
करेगा आने से
चिड़ियाँ गीत
गाने से
सोचो तब
क्या होगा?
सोचो तब
क्या होगा ?
जब बीज मना
करेगा
अँखुआने से
ऋतुएं आने
से
जब पृथ्वी
का एक-एक कण
असहमत होगा
इंसानों से
इंसानों की
तरह
फिर सोचो तब
क्या होगा?
मुसहर स्त्रियां
मेरे गाँव
से थोड़ी दूर
पूर्व दिशा
की ओर
तालाब के
किनारे
मुसहरों की
मलिन बस्ती है
ये मुफ़लिस
मुसहर स्त्रियां हैं
झोपड़ों में
रहती हैं
सुअरों के
घें घा में
कटती हैं
इनकी खूंखार रातें
सुबह काम के
तरजीह में
ये बच्चों
की टाँगें किसी पेड़ से बांध कर
कभी - कभी
पीठ पर लाद कर
बन्नी -
मजूरी करती हैं
बोझा ढोती
हैं
गिट्टी
फेकती हैं
तसले का
तसला
मसाला चढ़ाती
हैं कई मंजिला
सीमेंट, बालू और पसीने से लथपथ इनकी देह
धूल - कीचड़
- गंदगी से सनी मटमैली आँखें
बेतहाशा सुलग
रही हैं
भूर - भूरे
दर्द के साथ
संघर्षरत
मुसहर स्त्रियां
बीड़ी के
छल्लेदार धुंए में
मिटाती हैं अपना थकान
चुनौटी से
निकले
सुरती -
चूना को हथेलियों पर रख
मल देती हैं अपना संपूर्ण जीवन।
2
मनुष्यता की
कोख से जन्मी
अनवरत
संघर्ष में पिसती
मुसहर
स्त्रियां
निर्निमेष
पलकों से
देखती हैं
आकाश की ऊँचाई
तप्त खून के
वाष्पित पसीने से
धोती हैं
अपने बच्चों का विकट भविष्य
अदम्य
जिजीविषा के साथ
सूर्योदय से
सूर्यास्त तक
3
कभी
अनाज की
मुसीबत आने पर
खेतों में
जाती मुसहर स्त्रियां
चिलचिलाती
धूप में
तपस्विता
भाव से
खोदती हैं
चूहों के बिलों को
सर्प, बिच्छू से बच कर
ज़मीन की
तपिश से
हटाती हैं
मुसकइल
निकालती हैं
गेहूँ की
सुनहली बालियां
एक वक़्त की
रोटी के लिये
4
संघर्षरत
मुसहर
स्त्रियां
फटे - मैले कपड़े में रह लेंगी
कटिया कर
लेंगी
खेतों से
अनाज के दाने, लकड़ियाँ बिन लेंगी
किसी तालाब, पोखर से
सेरखी, बेर्रा, घोंघा निकाल
लेंगी
तिन्नी का
धान झाड़ लेंगी
बगीचे में
लगे
महुये के
पेड़ पर चढ़ कर
पत्तियां
तोड़ लेंगी
पत्तल, दोना बना कर
बाज़ार में
बेचेंगी
लेकिन किसी
से भीख नहीं मांगती।
विषाणु
बहुत मक्कार
और मरणांतक निकले विषाणु
यंत्रणाएँ
तो बहुत है तुम्हारी
इतनी कि
मरहूम लासों के लिए
न ताबूत है, न पृथ्वी पर कोई जगह
अब तो रूह
कांपती है नाम से
कि मारना ही
तुम्हारी नियति है
शायद
तुम्हें पता नहीं
इस आतंक से
छिन गए
कितनो के प्रेम
लाखों -
करोङों की रोजी - रोटी
हुए कितने
विधुर - विधवा
कितने
मातृविहीन
ओह! और ओ
बेहद मासूम बच्चे
जिनके होठों
से माँ के स्तन का दूध भी नहीं धुला था
खैर छोड़ो
अब तो न
बुनकरों के करघे की आवाज सुनाई पड़ती
न राजगीर के
करनी - बसुली की संगीत
इस कठिन
वक़्त में
सम्पूर्ण
विश्व ने ओढ़ रखी है
मायूसी की
चादर
और तुम हो
कि मुँह फैलाये
हवाओं में
ज़हर घोल रहे हो
तुमसे
इल्तिजा नहीं है
फ़क़त कहना
ज़रूरी
यद्यपि तुम
होते इंसान
तो पूछा
जाता तुम्हारा पूरा नाम
मानुषिक
कर्म के अनुसार
दण्ड भी
मिलता तुम्हें
हो सकता है
कि तुम बच के भाग भी जाते
लेकिन पकड़े
जाने पर
निर्वस्त्र
पीटे जाते
किसी पेड़ से
उल्टा लटका के
पिस्तौल की
सारी गोलियां उतार दी जाती
तुम्हारी
खोपड़ी या सीने में
दोनों हाथ
बांध कर घसीटा जाता दूर तक
रौंद दिया
जाता ट्रक से किसी खुले चौराहे पर
मार के फेक
दिया जाता रेल की पटरियों के बीच
बोरे में कस
के बहा दिया जाता किसी नदी में या
फिर छोड़
दिया जाता सुदूर किसी निर्जन स्थान पर
जहाँ कुत्ते, चील, कौवे नोच -
नोच खाते तुम्हें
सच तो यह है
कि तुम इंसान नहीं हो
सिर्फ ! एक
विषाक्त विषाणु
नहीं सज़ा
में जीवन कारावास होता या
फिर होती
फांसी
वापसी
चलते - चलते
छिले पाँवों और
अंगूठों को
छोड़ चुके नाखूनों के घाव
अभी भरे
नहीं
लाठियों की
चोट का निशान
अभी हरा है
कपोलों से
लुढकते आंसूओं की लकीरें
अभी मिटी
नहीं
श्मशानों पर
जल चुकी हड्डियों की राख
अभी धुली
नहीं
कब्रिस्तानों
पर जलते दिए
अभी बुझे
नहीं
रास्तों में
फंसे श्रमिक
अभी घर लौटे
नहीं
किसानों का
अनाज
अभी भी खेत
में पड़ा है
विश्वव्यापी
विपत्ति का बेनूर अँधेरा डटा है
अभी भी वक़्त
बैठा है
हर कन्धों
पर चाबुक लिये और
तुम हो कि
वापसी की बात करते हो
टूटी हुई नाव
मैं देख रहा
हूँ
पिछले कई
महीनों से
नदी किनारे
एक
परिध्वस्त नाव
बिखरी पड़ी
है उपेक्षित
मैं जब भी
देखता हूँ इसे
मेरे अन्तस
में घूमता है
जीवन और
मृत्यु का एक चक्र
मैं चाह कर
भी मुक्त नहीं हो पाता
सूर्य हर
रोज लांघता है इसे
रेत से उठती
हवाएँ हिला देती हैं अंदर तक
पूर्णिमा का
चाँद ढलता है इसके अग्र नुकिले भाग पर
जुगनू
प्रकाशित करते हैं
टिमटिमाते
तारों की तरह इसे अपनी रोशनी से
खामोश और
उदास रातों में झींगुर गाते हैं शोकगीत
तिलचट्टे
दौड़ते हैं चारों तरफ इसे नोचने के लिए
बेफिक्र
चींटियां भी इसी के पास बना ली है अपनी बिलें
लगातार कई
महीनों से मकड़ियों का एक समूह
इसे बांधने
में लगा है किन्तु एक - एक कर
सरक रही हैं
इसकी कीलें
एक वक़्त था
साहब
कभी गरीब
मल्लाहों के परिवार का
नून - रोटी
चलता था इसी से
सुबह से शाम
तक परिप्लव करती थी
नदी के देह
पर
तरंगें चूमा
करती थीं इसे बार - बार
ये कैसा समय
का कुचक्र है ?
अब न इसमें
लय है, न गति
जब कई
महीनों बाद
लौटता हूँ
नदी किनारे
एक नई
उम्मीद के साथ
उसे वैसे ही
पाता हूँ
वहीं
पत्थरों के बीच टूटी हुई
किसी कोने
में चुप चाप पड़ी हुई
बूढ़े पिता
की तरह।
गाँव
जब कभी
लौटता हूँ
शहर से गाँव
अपनों के
सुख - दुःख से
होठों पर
जगती है मुस्कान
फिर आँखें
भीग जाती हैं।
रोमांचित हो
उठती हैं बाहें
मिलते ही
गाहे - बगाहे
जब ओ पूछते
हैं अपना हाल
मिट जाता है
सारा मलाल
फिर आँखें
भीग जाती हैं।
ओ सड़कें, ओ गलियां
ओ ओरी और
दुआर
ओ चट्टी, चौराहे
ओ वृक्ष
फलदार
ओ महुआ, ओ पाकड़
ओ जामुन, ओ आम
ओ लिपटस, ओ शीशम
ओ बासों की
शाम
ओ मढ़ई, ओ लोरी
ओ आंगन, ओसार
जब याद आते
हैं
फिर आँखें
भीग जाती हैं।
ओ चिप्पी, ओ गोली
कबड्डी और
लाली
मिला जो समय
तो
खेला होलवा
की पाती
ओ हॉकी, क्रिकेट
कभी बजाता
था ताली
ओह! बचपन का
मैं भी था
अच्छा
खिलाड़ी
जब याद आते
हैं
फिर आँखें
भीग जाती हैं।
ओ मुर्गा, ओ मुर्गी
ओ कुत्तें
और बिलार
ओ भेड़, ओ बकरी
दौड़ती
नीलगाय
ओ गेहूं, ओ जौ
चना और मटर
ओ गन्ना, ओ अरहर को
देखा कई
प्रहर
ओ पिता जी
की डांट और
माँ का ममता
दुलार
जब याद आते
हैं
फिर आँखें
भीग जाती हैं।
ऐसी मस्ती
में
कैसे पला
बेख़र
दिन, महीने, साल गुजरे
कितने इधर
आफ़त आई जब
रोटी की घर पर मेरे
गाँव छोड़ा
और फिर मैं निकला शहर
खाया ठोकर
शहर में मैं हर दर - ब - दर
सुखी रोटी
और चटनी मुनासिब न थी
भूखा सोया
मैं कितनी जगह बेकदर
जब याद आते
हैं
फिर आँखें
भीग जाती हैं।
2.
पिता जी के
ज़माने से ही देख रहा हूँ
गांव और
बाज़ार के बीच
एक बूढ़ा
विशाल पीपल खड़ा है आज भी
जिसे लोग
बुढ़ऊ बाबा के नाम से जानते हैं
गांव की
स्त्रियां इसी के नीचे
चढ़ाती हैं
सोहारी और हलुआ
कुछ लोग
गांजा चढ़ाते हैं
कुछ लोग धार
यहीं छूटता
है वैवाहिक जीवन का बनवार
थोड़ी ही दूर
पर हैं कोट की मरी माई का स्थान
जहाँ खड़े
हैं दो गगन चुम्बी ताड़
उसी के पास
फ़ेका जाता था गांव का डांगर
जहाँ सैकडों
की संख्या में
सुदूर से
आते थे गिद्ध डांगर खाने
धनुहियां
ताल में स्नान कर
उन्हीं ताड़ो
पर अपना पंख सुखाते थे और
फिर सुदूर
आकाश में उड़ जाते थे
यह भी उनकी
एक ग़ज़ब की संस्कृति थी।
ओ सिद्धनाथ
जिसे सीधनाथ बाबा भी कहा जाता है
के पीछे
वाला विशाल आमों का बगीचा
जहाँ
चरवाहों की असंख्य गायें
दोपहर में
विश्राम करती थीं और
चरवाहे
कानों पर हाथ रख के
लोरकी की
तान छेड़ते थे
ओ गांव के
बैजल बाबा जहाँ
मुसीबत के
दिनों में गांव की स्त्रियां
धार, अगरबत्ती चढ़ाती थीं
कभी - कभी
सुअर का बच्चा भी
दीपावली के
पूर्व संध्या पर
अपने - अपने
घूरों पर
जम का दिया
निकालती हैं
और आज भी
दरिद्दर खेदने वहीं जाती हैं
गांव की
स्त्रियां साथ में गाती हैं मंगल गीत ।
3.
अब केवल स्मृतियों
में बची है
ओ चुन्नू
दादा की विशालकाय नीम
जिस पर
असंख्य कबूतर बसेरे करते थे
वर्षा न
होने पर गांव के बच्चें उसी के नीचे
निर्वस्त्र
लोटते थे कभी
कुछ पुरनिये
उसी के नीचे सुरती मलते थे
बीड़ी पीते
थे और गांजा की कश लगाते थे
धन्य हैं वे
लोग जो चले गए
अब न माँ है, न पिता जी और न रामफेर दादा
रामफेर दादा
तो हवा, पानी, आग सबको चुनौती दे देते थे
इनमें से
किसी के तेज होने पर गालियां भी
अब न झींगुर
बाबा हैं न उनका रिक्शा
जिस पर हम
लोग सवारी करते थे और
उनके आने पर
छिप जाते थे
अब न नारद
दादा हैं न उनका सनई का संठा
जिसे छूने
मात्र से भी दौड़ा लेते थे दूर तक
अब न फुल्लू
भैया हैं न उनके जेब में
रखी स्टेशन
की गरम पकौड़ी
जिसे कोई
टोह ले तो पेट भर गालियां सुनता था
खुश रहने पर
बाट देते थे
अब न अलकतरा
फूफा है न उनका अमरूद
जिनके पलक
झपकते ही दो चार अमरूद
पेड़ से गायब
हो जाते थे एक दम रसीले और मीठे
जब तक ओ
उठते अपनी लाठी संभालते थे
तब तक
बच्चें गायब
बस अब केवल
उस लोक की सुखद स्मृतियां हैं
और उन
स्मृतियों में मेरा गांव
गुब्बारों वाली लड़की
सदियों से
सोये हुए लोग
धीरे - धीरे
जगने लगे हैं
तुम सो गई
मुन्नी
बहुरंगी
गुब्बारों के बीच
मुन्नी! मैं तुम्हारा नाम तो नहीं जानता
लेकिन
तुम्हें भूल भी नहीं पाउँगा
शौचालय के
किनारे तुम्हारा सोना
ओह ! चुभ गए
ओ दृश्य
मेरी काली
घनी पुतलियों में
बेध गयी तुम
ह्रदय की गहराइयों तक
अपने निर्भय, निश्छल मन से
मैं स्तब्ध
रहा
धूल गन्दगी
से सना तुम्हारा तन
थक कर चूर -
चूर हो रहा था
तकलीफ से
तुम्हारे हाथ स्पर्शन में
बार - बार
स्नेहाकुल थे
कभी सिर, कभी पांव
कभी दे रहे
थे देर तक
तकिया जैसा
आराम और
तुम अपनी
स्पृहा से
सोती रही
देर तक
वसुंधरा के
वक्षस्थल पर
सब कुछ उसी
को सहेज कर
बहती रही
मेरी भावनाओं में कविता की तरह
जैसे बहती
है एक नदी निर्बाध गति से
ओ तपसी बाला
मैं जानता
हूँ यह कोई तक़सीर नहीं
रोटी का
सवाल है
क्या
तुम्हें पता नहीं कि स्त्रियों के लिए
आज़ादी - ए -
आकाश तो है किन्तु अभी भी
आज़ाद - ए -
जमीं नहीं
यहाँ क़दम -
क़दम पर व्यभिचारी मिलेंगे
आज़ाद भारत
में भेड़ियों की संख्या बहुत अधिक है
ये शहर में
खुलेआम घूमते हैं
आदमी की
शक्ल में।
दलित बस्ती का उजड़ना
यह
प्राकृतिक अभिशाप नहीं है
मानव
निर्मित अतिवाद, यातनाएँ हैं
इन यातनाओं
से निकली आह
ज्वालामुखी
को जन्म देती है
इधर मैं कुछ
दिनों से परेशान - सा हूँ
यह जान कर
कि
पक्का महाल
की दलित बस्ती का उजड़ जाना
शिलाओं पर
लिखा जाने वाला तारीख़ी घटनाओं में से है
दलित बस्ती
का उजड़ना
वर्षों की संस्कृति
का ध्वंस होना है
जयप्रकाश
इसी संस्कृति का हिस्सा है
एक दलित और
बेबश मज़दूर है
पूर्वजों के
अहर्निश प्रयासों से निर्मित
इसी मोहल्ले
के एक छोटे घर में रहता है
जिसकी सकरी
गली मणिकर्णिका घाट पर खुलती है
घर के टूटने
के मोह से
उसकी रूआंसी
आँखों में सागर उमड़ जाता है
यह देख मैं
हैरान होता हूँ कि
नाशाद
जयप्रकाश निःशक्त बोलता है
इस गरीबी
में घर ही रहने का एक मात्र आधार था
आज रात यह
भी टूट जाएगा निःशेष
सरकारी
फरमान और मशीनी ताकतों द्वारा
फिर न जाने
कहाँ जाऊंगा
साहब! मैं
सिर्फ अकेला नहीं हूँ इस घर में
बूढ़े पिता
और बच्चे भी हैं
मैं इतना
सामर्थ्यवान नहीं कि
जुटा सकूँ
महीने भर का राशन
गरीबी का एक
- एक दिन काटना मुश्किल है
एक रिक्शा
ही रोटी का जरिया है
मैं अक्सर
रात में
रिक्शा चला
के लौटते समय उठा लाता हूँ
मणिकर्णिका
से मुर्दों की जली अँगीठियां
उसी पर पकती
है घर में रोटियां
अब चिताओं
की जली अँगीठियों पर रोटियां बनाना
आदत सी हो
गयी है साहब !
जाड़ों के
दिनों में इसी पर पूरा परिवार कौड़ा तापता है
छटपटाहट भरी
आवाज़ और डबडबाई ऑंखें
बहुत कुछ
कहना चाहती थी
उसके ऊपर
दुखों का मानो पहाड़ टूट पड़ा हो
लेकिन
धैर्यवान जयप्रकाश सब जनता था
आखिर सरकार
तो सरकार है
उसकी हुकूमत
का एतराज करना
लाठियां
खाना है, जेल जाना है
उसे किसी की
गरीबी से क्या फर्क पड़ता
साहब! आप ही
बताइए न
सत्ताएं
इतनी क्रूर और निर्मम क्यों होती हैं
दलितों और
मज़दूरों के लिए
सन्नाटे की
चीख़
यह कठिन समय
है
क्रूर और
अमानवीय
विपदाएं
काले मेह की तरह बरस रहीं हैं
यहाँ-वहाँ, सम्पूर्ण विश्व में
सड़कें
रक्तरंजित हैं
दिशाएँ
स्तब्ध
जेठाग्नि
सन्नाटे में
हवाओं में
कांप रहा है
चीख़ का एक -
एक कतरा
पंजे और हाथ
की अंगुलियाँ
गर्भवती
स्त्रियों की रक्तिम आवाज़ें
असंख्य मृत
मजदूरों के अनकहे सच
ऐसे संकट के
समय में
जब ईश्वरी
सत्ता नाकाम सिद्ध होती है और
पृथ्वी पर
कहीं नहीं बचती प्रेम करने की जगह
तो तुम अपने
उदास हाथों से चुन लाती हो अंचरा भर
टेंगुरी और
बेइल के सफ़ेद-सफ़ेद शान्ति के फूल
बुद्ध की
करुणा के लिए
अम्बेडकर के
सामाजिक न्याय के लिये और
रैदास के
समता, समानता एवं विश्वबन्धुत्व के लिए
ताकि पृथ्वी
पर बच सकें इंसान
बच सके
सभ्यता और
बच सके उनका
आपसी प्रेम
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स
विजेंद्र जी की हैं।)
सम्पर्क
अमरजीत राम
असिस्टेंट
प्रोफेसर
हिंदी विभाग
ईश्वरशरण
पी. जी. कॉलेज
इलाहाबाद
वि. वि., प्रयागराज
मोबाइल : 9795935083
बहुत सुंदर रचना सर, यथार्थ से रूबरू करवाती हैं आपकी रचना, उम्दा लेखन
जवाब देंहटाएंशानदार कविताएं सर!
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