संजय कुमार शाण्डिल्य की कविताएँ


संजय कुमार शाण्डिल्य

समकालीन कवियों में संजय का नाम मेरे लिए बिल्कुल नया है. हालांकि उनकी कविताएँ यह बताती हैं कि वे नए कवि नहीं बल्कि एक परिपक्व कवि हैं. उनकी कविताओं की बनक सामान्य तौर पर आज लिख रखे तमाम कवियों से अलग है. यह बनक एक दो दिन में निर्मित नहीं होता बल्कि इसके लिए एक लम्बे जीवनानुभव की जरुरत होती है. उनका शिल्प और कथ्य हमें चकित नहीं करता बल्कि सोचने के लिए बाध्य करता है कि सोच के आयाम ऐसे भी हो सकते हैं. संजय की कविताओं से हमें परिचित कराया युवा साथी आशीष मिश्र ने. हम आशीष के प्रति आभार प्रकट करते हुए प्रस्तुत कर रहे हैं संजय शाण्डिल्य की कविताएँ. आइए संजय को हम उनकी कविताओं के मार्फ़त ही जानने-समझने की कोशिश करते हैं.
      
संजय कुमार शांडिल्य की कविताएँ 

आवाज़ भी देह है

तुम हमारी आवाजें खा रहे हो
रूई के फाहों सी
हवाओं के दस्तक सी
निरपराध आवाजें।
यह शोर, इसकी आँखें हैं
जिस पर काली पट्टी बँधी है
मस्तिष्क है जिसमें उन्माद भरा है
इसके हाथ हैं लोहे के।
समुद्र के खारेपन से भरा
इस शोर में इस शोर की
जकङी हुई देह है
कभी-कभी आ सकता है तरस
पराजय का परचम है
शिकारी के पिंजरे
सहानुभूति फँसाने के लिए।
पृथ्वी की सारी कविताएँ
सदियों के साझेपन के गीत
हमारे संग-साथ के अनुभव
इन्हें उत्तेजित करता है
आदमखोर होने के लिए।
यह शोर नरभक्षी है
हमारी आवाज़ खाने आया है
हमारी आवाज जैसे
पहाड़ पर पानी की लकीरें।
पानी की लकीरें
उपत्यकाओं से मैदानों तक
मैदानों से खेतों में
खेतों से घरों तक
यह शोर नरभक्षी है 
नदियों और तालाबों को
देहों की नीली जलकुम्भियों से
भरती इसकी क्रूरता
हम बचाएँगे पानी की लकीरें
यही धान की बालियाँ होंगी
इन्हीं से गेहूँ के कल्ले फूटेंगे।
सिर्फ आँत, जिगर और दिल ही नहीं
आवाज़ भी देह है मनुष्य की।


खुश होने के लिए

इन झोल देते रास्तों में
घर एक जगह है
वस्तुओं के साथ सफ़र में शामिल
एक पेड़ रोज झरता है
अपने पत्ते में
पृथ्वी झरती है एक विशाल कंघे में
ध्रुव का सिर खाली होता है
एक केश की जगह
छूट जाती है
सूरज रोज तिल भर ठंडा होता है
पाँव भर रोज गर्म होता है जूता
माचिस के डिब्बे में एक तीली
खुशियाँ हैं, जीवन की जरूरत भर
मियामी
(
फ्लोरिडा ) में किसी को सौ
अमेरिकी डॉलर चाहिए
उसे उम्मीद है कि उधार मिल जाएगा
वह लौटा देगा नई नौकरी की
पहली तनख्वाह से।
खाली झोला भर कर वापिस आता है
बाज़ार से
आत्मा में खर्च होता हुआ
हर सपने में एक पृथ्वी झरती है,
एक सूरज ठंडा होता है
कहीं कोई नदी है शांत बहती हुई
एक पत्थर हुलस कर
उसे जीवन के हलचल से भरेगा
एक सुन्दर मगर मच्छ
फिसलता हुआ दूर निकल रहा है
हम खुश होने के लिए उसे पकड़ रहे हैं।


घर एक तंबु है तो जॉर्डन एक नदी नहीं है

चाय उबलती केतली खबर है
हमारा खत्म होना नहीं ।

एक-एक कर खत्म हुए हम
न जाने किस घेरेबन्दी में ।
जॉर्डन बह रही है इजरायल में
फिलिस्तीन में
सिरिया में ।
और कहीं भी जहाँ लोग
तंबुओं को घर कह रहे हैं ।
अमेरिका में भी घर नहीं बचे
दादियों और नानियों के बीच
बच्चे सिर्फ स्कूलों में हैं ।
तेजी से बहती हुई जॉर्डन
पार कर रही है सदियाँ ।
मृत्यु विलाप नहीं है
और मातम से बची जगहें नहीं है
वस्तुओं को जीवित इच्छाओं में
फिर से बदलने वाली नींद
तंबुओं में नहीं आती हैं ।
मृत टीलों में बदल जाएंगी
दुनिया की सब आबाद जगहें
तुम मनुष्य नहीं बचोगे
कोई चले जाने से पहले
नहीं लिख पाएगा अंतिम खत ।
इतनी उदास कभी नहीं थी जॉर्डन
बकरियों और भेड़ों के लिए
हरियाली और जीवन के लिए पानी
हजारों साल हुए बहते
इसे नदी होते भी हजारों साल हुए
पृथ्वी पर ।
किनारों पर बस्तियां थी तो
लोग उसे नाम से पुकारते दिनभर
अँधेरा घिरता सिर्फ एक वक्त के लिए
बकरियां, मेमने और लोग
लौट रहे होते उसके किनारों से
लौटते लोगों में जब तक रहने का घर था
कहीं दूर जॉर्डन एक बहती हुई नदी थी ।

पृथ्वी के छोर

यह पृथ्वी का एक छोर है :
गाँव पहाड़ की तलहटी है
जहाँ एन्डीज़ मिल रहा है
सपाट मैदानों से
पेरू की किसी लोक भाषा में
कचरा बटोरने का गीत है
घोङे की बग्घी में
पुरूष जब विलासिता के
कार्टुन चुनने निकलेगें
हाथों को काम करता देख
होंठ उन्हें अपने आप गाएंगे।
स्त्रियाँ पास ही शहरी इलाकों में
बच्चे सँभालने निकलेगी
बच्चे ईश्वर सँभालता है
उसी लोक भाषा में यह भी
एक गीत है पृथ्वी के उसी छोर पर।
यह पृथ्वी का दूसरा छोर है
मेरे पङोस में :
मूँज के पौधों में सिरकंडे होने से पहले
सपाट मैदानों के भी अपने पहाड़ हैं
जिनकी तलहटियों से
कुछ स्त्रियाँ खर निकालने निकलेगी
कुछ रह जाएंगी गोबर पाथने।
अभी सरोद की तरह बजेगी पृथ्वी
मूँज धूप में सूखेगा
झूमर और कजरी के गीत साथ-साथ
झरेंगे
लकङियाँ और पत्ते पास के
जंगल से इकट्ठा कर
पुरूष घर लौटेगा।
यहाँ की लोक भाषा में भात
बनने का भी एक लोकगीत है।
फिर किसी सस्ती सी आँच पर
प्रेम वहाँ भी पकेगा और यहाँ भी
एक साथ रात की देह गिरेगी
ओस की तरह
श्रम से दुनिया को भरती हुईं
सुबहें ऊगेंगी
खाली जगहों में
लकीरों की तरह
हम दुनिया के छोर पर
काम करते हुए लोग
सुबह की इन लकीरों को
कविताओं में पढेंगे।

सम्पर्क :
मोबाईल- 09431453709

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.) 

टिप्पणियाँ

  1. नये तेवर और कलेवर ने प्रभावित किया है ...

    जवाब देंहटाएं
  2. यहाँ की लोक भाषा में भात
    बनने का भी एक लोकगीत है।
    फिर किसी सस्ती सी आँच पर
    प्रेम वहाँ भी पकेगा और यहाँ भी
    एक साथ रात की देह गिरेगी
    ओस की तरह
    श्रम से दुनिया को भरती हुईं
    सुबहें ऊगेंगी
    खाली जगहों में
    लकीरों की तरह
    हम दुनिया के छोर पर
    काम करते हुए लोग
    सुबह की इन लकीरों को
    कविताओं में पढेंगे....
    wah......................................................

    जवाब देंहटाएं

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