शाहनाज़ इमरानी की कविताएँ
शाहनाज़ इमरानी |
जन्म -
भोपाल में
शिक्षा -
पुरातत्व विज्ञान (आर्कियोलॉजी) में स्नातकोत्तर
संप्रति
- भोपाल में अध्यापिका
इस दुनिया में धर्म के नाम पर हुई लड़ाईयों में जितने अधिक लोग मारे गए हैं उतना शायद और वजहों से हुई लड़ाईयों में नहीं मारे गए. हमारे प्रख्यात वैज्ञानिक यशपाल ने हाल ही में कहा है कि इस दुनिया में शायद की कोई पचास वर्ष हो जिसमें कोई लड़ाई न हुई हो. धर्म का उद्भव मानव के शुरूआती दिनों में उसे सभ्य और सुसंस्कृत बनाने के लिए किया गया होगा. लेकिन जैसे-जैसे मानव विकास क्रम में आगे बढ़ा, जटिलताएँ बढ़ने लगीं और धर्म का स्वरुप विकृत होने लगा. विज्ञान के विकास के साथ-साथ इस धर्म का खोखलापन उजागर होने लगा. लेकिन समाज के ऐसे लोग जो जनता को मूर्ख बना कर अपना हित साधना चाहते थे उन्होंने धर्म को हथियार की तरह उपयोग किया. राजनीति भी ऐसा ही क्षेत्र है जिसमें शासकों ने धर्म का उपयोग जनता को नियंत्रित करने और अपने शासन-सत्ता में बने रहने के लिए किया. लेकिन कविता इस गठजोड़ की वास्तविकता को लगातार उजागर करती रही है. शाहनाज़ इमरानी ऐसी ही युवा कवियित्री हैं जो अपने प्रगतिशील सोच के साथ राजनीति में धर्म के उपयोग को बेनकाब करती हैं. आइए पढ़ते हैं शाहनाज़ की कुछ नयी कविताएँ
शाहनाज़ इमरानी की कविताएँ
दरख्त गिर जाने के बाद
आँगन का दरख्त गिर जाने के बाद
उजागर हो सकता था
कौन सा सच
जड़ों का खोखला होना
या मिट्टी की कमज़ोर पकड़
कुछ दिन सूखे पत्ते खड़खड़ाये
और फिर मिट्टी का हिस्सा बन गये
हर दर्द हर दुख को देखने का
अपना-अपना नज़रिया
खिड़की दरवाज़ों ने होंठ सी लिए।
हद
हद का ख़ुद कोई वजूद नहीं होता
वो तो बनाई जाती है
जैसे क़िले बनाये जाते थे
हिफ़ाज़त के लिए
हम बनाते है हद
ज़रूरतों के मुताबिक़
अपने मतलब के लिए
दूसरों को छोटा करने के
लिए
कि हमारा क़द कुछ ऊँचा दिखता रहे
छिपाने को अपनी
कमज़ोरियों के दाग़-धब्बे
कभी इसे घटाते हैं कभी बड़ा करते हैं
हद बनने के बाद
बनती हैं रेखाएं, दायरे
और फिर बन जाता है नुक्ता
शुरू होता है
हद के बाहर ही
खुला आसमान, बहती हवा
नीला समन्दर, ज़मीन की ख़ूबसूरती।
पुरस्कृत चित्र
बसी हैं इंसानी बस्तियां
रेल की पटरियों के आस-पास
एन.जी.ओ. के बोर्ड संकेत देते है
मेहरबान अमीरों के पास
इनके लिए है जूठन, उतरन कुछ रूपये
रोटी की ज़रूरत ने
हुनरमंदों के काट दिए हाथ
उनकी आँखों में लिखी मजबूरियाँ
देख कर ही तय होती है मज़दूरी
वो खुश होते है झुके हुए सरों से
यही पैतृक संपत्ति है
यही छोड़ कर जाना है तुम्हे बच्चों के लिए
तुम्हारे लिए गढ़ी गई हैं कई
परिभाषाएं
इनकी व्याख्या करते हैं कैमरे के फ़्लैश
और पुरस्कृत होते हैं चित्र।
सब कुछ ठीक हो जायेगा
माँ बहुत याद आती हो तुम
जानती हूँ माँ कहीं नहीं
है
बस तुम्हें तस्वीरों में
देखा है
मेरी दुनियां में तो
सिर्फ में हूँ
और है वो सारी चीज़ें जो
एक आम ज़िन्दगी में हुआ
करती हैं
सूरज,तितलियाँ, पतंगें और प्रेम
पड़ोस, आवाज़ें, बच्चे और किताबें
बूढ़ों और बच्चों के
क़िस्से
हर सुबह ज़िन्दगी में
बोया जाने वाला रंग
शाम तक कुछ फ़ीका हो जाता
है
धूप और फिर ढलती रौशनी
के बाद
यहाँ वहाँ से झाँकता
काला रंग
देखती हूं तस्वीर पिता
की
उसमें भरा हुआ खालीपन
दरख्त पर लटका एक
खाली घोंसला
जिसमे रहने वाले परिंदे
अनजान दिशाओं की और उड़
गये
सब कुछ ठीक हो जायेगा
पिता कहते थे
वो अपने अल्फ़ाज़ों से
मेरी उम्मीदें जगाया
करते थे
कच्चे जख़्मों को हँसने
की कला
सिखाया करते थे
रौशनी कुछ और मद्धम हो
गई है
देख रही हूँ बचपन को दौड़ते हुए
बूढ़ों को आहिस्ता से घर
जाते हुए
जीवन की जिजीविषा लिए
ज़िन्दगी की मिट्टी के
साथ
कुम्हार के चाक की तरह
घूमते हुए लोग
अपनी-अपनी लड़ाई में जीते हैं
एक उम्मीद के साथ
आगे बढ़ते हुए कि एक दिन
सब कुछ ठीक हो जायेगा।
कम पड़ने लगीं बारूदें
अचानक ही बदल जाता दृश्य
काम पड़ने लगीं बारूदें
बेशुमार प्रश्न हैं?
गुनाह और कन्फेशन
रहम और हमदर्दी नहीं
मूल्य और आदर्श अब कुछ नहीं
सर्वशक्तिमान ख़ुदाओं की
घोषणा होती है
लाउडस्पीकर्स से
पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा है ऐतबार
प्रार्थना करते हाथों के
बीच भी
छुपे हुये हैं हथियार
कई हत्याओं की मंशा भी
शताब्दियों से चले आ
रहीं है
ज़ुल्मों की गढ़ी हुई
कहानियां
जो लावा बन कर बहने लगती
हैं रगों में
सदियों से जारी इस
खूंरैज़ी खेल में
गिरती हैं लाशें बिना
हिसाब के
हत्यारे धार्मिक मुखौटों
में
उपदेशकों के चोलों में
अपराधी।
सॉरी यार ....
तुम्हे याद है वो चट्टान
जिस पर बैठ कर हम चाय
पिया करते थे
तुम्हारे इस सवाल से
मेंरे पैर काँपने लगे
जैसे ऊँचाई से गिरने का डर
मेरे वजूद पर हावी हो जाता है
मेरे वजूद पर हावी हो जाता है
तुम मुझे भूल गयी न?
एक पल की डबडबायी ख़ामोशी
में
लहरों में देखती हूँ
टूटते सूरज को
कई बार छुपा लेते हैं हम उदासी
और दर्द को घोल देते
हैं दूसरे केमिकल में
झील अचानक सिकुड़ जाती है
लड़का दौड़ने लगता है गिलहरी के पीछे
पकड़ना चाहता है उसे
समय के रेगिस्तान में खो जाते हैं कई दृश्य
कुछ चीज़ें एहसास के बाहर ऐसे बदलती हैं
कि हमें पता ही
नहीं चलता
सारे दवाबों के बीच "मैं"
उससे पूछती हूँ अब स्टेशन चलें
नहीं तो तुम्हारी ट्रेन छूट जाएगी।
संपर्क -
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं)
बहुत शानदार कवितायेँ शहनाज़ जी की आपका बहुत २ आभार इन्हें शेयर करने के लिए
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ,लाजवाब कवितायेँ |
जवाब देंहटाएंकविताओं में अनुभूति की आंच और ताजगी लगातार महसूस होती हैं और वह बुनियादी बात भी , जो मानवता को रास्ते पर ले जाती है |जब तक गहरा और वास्तविक दर्द न हो , कविता नहीं , बंटी | दिखावटी दर्द तुरंत पकड़ में आ जाता है और सोचा हुआ दर्द भी |आजकल सोचा हुआ दर्द बहुत चल रहा है |शहनाज़ की खूबी यही है कि यहाँ दर्द की प्रामाणिकता उभरती हुई लगती है | बात अपनी हो , फिर चाहे थोड़ी ही क्यों न हो |शहनाज़ की यही खूबसूरती है |दूसरी बात यह कि उनके यहाँ भाषा--शिल्प का रचाव किसी का अनुकरण नहीं है |गद्य में जीवन बिम्बों की लय है |निस्संदेह इस कविता की संभावनाओं के लिए अपनी जगह होगी |
जवाब देंहटाएंशहनाज़ को कृपया शाहनाज़ पढ़ें |
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आप सब का।
जवाब देंहटाएंजीवन सिंह जी बहुत आभार और धन्यवाद।