राजीव आनंद का आलेख 'डॉ. हरिवंश राय बच्चन: भारत के बेमिसाल व सर्वाधिक लोकप्रिय कवि'

 
हरिवंश राय बच्चन


आज 27 नवंबर प्रख्यात कवि हरिवंश राय बच्चन की 107वीं जयंती है इस अवसर विशेष पर पहली बार के लिए  एक आलेख लिख भेजा है मित्र राजीव आनन्द ने तो आइए पढ़ते हैं यह आलेख 

डॉ. हरिवंश राय बच्चन: भारत के बेमिसाल व सर्वाधिक लोकप्रिय कवि


राजीव आनंद 

डॉ.  हरिवंश राय बच्चन का परिचय बहुत ही मुख्तसर सा है जो वे खुद दिया करते थे कि  


‘‘मिट्टी का तन, मस्ती का मन, 
क्षण भर जीवन, मेरा परिचय’’

    छायावाद के प्रखर और आधुनिक प्रगतिवाद के मुख्य स्तम्भ माने जाने वाले डॉ. हरिवंश राय बच्चन ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पी-एच. डी. की डिग्री डब्ल्यू. बी. यीट्स के कार्यों पर शोध कर प्राप्त किया था यह उपलब्धि हासिल करने वाले वे पहले भारतीय थे अंग्रेजी साहित्य में पी-एच. डी. की उपाधि लेने के बाद उन्होंने हिन्दी को भारतीय जन की आत्मभाषा मानते हुए हिन्दी क्षेत्र में साहित्य सर्जन का महत्वपूर्ण फैसला लिया तथा आजीवन हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में लगे रहे कैम्ब्रिज से लौटने के बाद डॉ. बच्चन आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र में कार्यरत रहे, बाद में अपने दिल्ली प्रवास के दौरान विदेश मंत्रालय में दस वर्षों तक हिन्दी विशेषज्ञ जैसे महत्वपूर्ण पद पर रहे इन्हें राज्यसभा में छह वर्ष तक के लिए विशेष सदस्य के रूप में मनोनीत किया गया 1972 से 1982 तक डॉ.  बच्चन अपने पुत्रों अमिताभ व अजिताभ के साथ कभी दिल्ली व कभी मुम्बई में रहे इसके पश्चात उन्होंने दिल्ली में ही रहने का फैसला किया और गुलमोहर पार्क में ‘सौपान’ में रहने लगे


    डॉ. हरिवंश राय बच्चन ने हिन्दी में ‘हालावाद’ काव्य का सृजन किया जिसमें शराब व मयखाना के माध्यम से प्रेम, सौन्दर्य, पीड़ा, दुख, मृत्यु और जीवन के सभी पहलुओं को अपने शब्दों में जिस तरह से पेश किया है, कि उनका काव्य आम लोगों के समझ में आसानी से आ जाता है और यही वजह है कि ‘मधुशाला’ को आज भी गुनगुनाया जाता है। हिन्दी कविता को ‘मधुशाला’ से एक नया आयाम मिला ‘मधुबाला, मधुशाला और मधुकलश’ हालावाद के नाम से बच्चन काव्य में प्रसिद्ध हुआ


    बच्चन के काव्य की विलक्षणता उनकी लोकप्रियता है निःसन्देह सारे भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में ‘बच्चन’ का स्थान सुरक्षित है और आज भी उन्हें एक विस्तृत और विराट श्रेातावर्ग प्राप्त है दरअसल बच्चन जिस समय लिख रहे थे उस वक्त के पाठक वर्ग छायावाद के अतिशय सुकुमार्य और मार्धुय से, उसकी अतीन्द्रिय और अतिवैयक्तिक सूक्ष्मता से, उसकी लक्षणात्मक अभिव्यंजना शैली से उकता गये थे परिणामस्वरूप हिन्दी कविता जनमानस और जन रूचि से बहुत दूर होती जा रही थी बच्चन ने चालीस के दशक में, जिसे व्यापक खिन्नता और अवसाद का युग भी कहा जाता है, मध्यवर्ग के विक्षुब्ध, वेदनाग्रस्त मन को वाणी का वरदान दिया, उन्होंने सरल, जीवन्त और सर्वग्राह्य भाषा में छायावाद की लाक्षणिक वक्रता की जगह संवेदनासिक्त अभिधा के माध्यम से अपनी बात कविता के माध्यम से कहना आरम्भ किया और पाठक वर्ग सहसा चौंक पड़ा क्योंकि बच्चन वही कह रहे थे जो पाठकों के दिलों की बात थी बच्चन ने अनुभूति से प्रेरणा पायी थी और अनुभूति को ही काव्यात्मक अभिव्यक्ति देना उन्होंने अपना ध्येय बनाया उन्होंने ‘हालावाद’ के माध्यम से व्यक्ति जीवन की सारी नीरसताओं को स्वीकार करते हुए भी उससे मुंह मोड़ने के बजाय उसका उपयोग करने की, उसकी सारी बुराईयों और कमियों के बावजूद, जो कुछ मधुर और आनंदपूर्ण होने के कारण ग्राह्य है, उसे अपनाने की प्रेरणा दी


    बचपन में ही बच्चन ‘सरस्वती’ पत्रिका में छपी उमर ख्याम की तस्वीर से जुड़े और कालांतर में उमर ख्याम से प्रभावित होते हुए, उमर ख्याम के फलसफा कि वर्तमान क्षण को जानो, मानो, अपनाओ और भली प्रकार इस्तेमाल करो, को अपना दर्शन बनाया, जो बच्चन के ‘हालावाद’ में दृष्टिगोचर होता है बच्चन का ‘हालावाद’ ‘गम गफलत करने का निमंत्रण है, गम से घबरा कर खुदकुशी करने का नहीं’ उन्होंने पलायन पर जोर न दे कर वास्तविकता को स्वीकारा और वास्तविकता की शुष्कता को अपने अंतर मन में सींच कर हरा-भरा बना देने की सशक्त प्रेरणा दिया बच्चन ने आत्मानुभूति, आत्म-साक्षात्कार और आत्माभिव्यक्ति के बल पर काव्य की रचना की कवि के अहं की स्फीति ही काव्य की असाधारणता और व्यापकता बन गई समाज की अभावग्रस्त व्यथा, परिवेश का चकाचौंध भरा खोखलापन, नियति और व्यवस्था के आगे आम आदमी की असाध्यता और बेबसी बच्चन के लिए सहज व्यक्तिगत अनुभूति पर आधारित काव्य विषय थे उन्होंने सत्यता और साहस के साथ बहुत ही सरल भाषा और शैली में सामान्य बिम्बों से संजा-सवार कर अपने गीत हिन्दी जगत को दिए तथा हिन्दी जगत ने अत्यन्त उत्साह से उनका स्वागत भी किया


    बच्चन की कविताओं की पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय आंदोलन की विफलता की कड़वी घूंट हमें ‘निशा  निमंत्रण’ तथा ‘एकांत संगीत’ नामक काव्य संग्रहों में मिलता है, जो उनकी सर्वोत्कृष्ट काव्योपलब्धि भी है व्यक्तिगत-व्यावहारिक जीवन में सुधार हुआ, अच्छी नौकरी मिली, ‘नीड़ का निर्माण फिर’ से करने की प्रेरणा मिली और निमित्त की प्राप्ति हुई बच्चन ने अपने जीवन के इस नये मोड़ पर फिर आत्म-साक्षात्कार किया और खुद से पूछा- 


‘जो बसे है, वे उजड़ते है, प्रकृति के जड़ नियम से, 
पर किसी उजड़े हुए को फिर से बसाना कब मना है ?’

बच्चन के साहित्य में साधारणीकरण है, जो उन्हें बेमिसाल कवि बनाता है उन्होंने कहा-  


‘है चिता की राख कर में, मांगती सिन्दूर दुनिया'  

व्यक्तिगत दुनिया का इतना सफल, सहज साधारणीकरण दुर्लभ है उनकी कविता की लोकप्रियता का मुख्य कारण उसकी सहजता और संवेदनशील सरलता है और यह सहजता और सरल संवेदना उनकी अनुभूतिमूलक सत्यता के कारण उपलब्ध हो सकी बच्चन ‘मधुकलश’ में ‘कवि की वासना’ कविता में कहते है-

    ‘मैं छिपाना जानता तो जग मुझे साधु समझता
    शत्रु मेरा बन गया है छल-रहित व्यवहार मेरा’


    ‘सतरंगिनी’ और ‘मिलन यामिनी’ में बच्चन के नये उल्लास भरे युग की सुन्दर गीतोपलब्धियां देखने-सुनने को मिलीं उन्होंने महान अंग्रेजी नाटकार शेक्सपीयर के दुखांत नाटकों का हिन्दी अनुवाद करने के साथ-साथ रूसी कविताओं का हिन्दी संग्रह भी प्रकाशित करवाया उनकी कविताओं में सभी प्रवृतियों यथा - छायावाद, रहस्यवाद, प्रयोगवाद और प्रगतिवाद का एक साथ समावेश देखने को मिलता है उन्हें ‘दो चट्टानें’ के लिए 1965 में हिन्दी कविता के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था बिड़ला फाउन्डेशन ने उनकी तीन खण्डों में प्रकाशित आत्मकथा के लिए उन्हें सरस्वती सम्मान दिया उन्हें सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के ‘कमल पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया था साहित्य सम्मेलन द्वारा उन्हें 'साहित्य वाचस्पति' पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। सन 1976 में उन्हें भारत सरकार द्वारा साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था


    भारत के बेमिसाल, सर्वाधिक लोकप्रिय कवि डॉ. हरिवंश राय बच्चन को उनकी 107वीं जयंती पर मेरा नमन


सम्पर्क-


राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी,  न्यू बरगंडा
गिरिडीह-815301
(झारखंड)

संपर्क-9471765417

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'