संजय कुंदन की कहानी 'फ्रेंड, फिलॉसफर गाइड'



संजय कुन्दन

युवा रचनाकारों में संजय कुंदन कविता और कहानी दोनों विधाओं में सक्रियता के साथ कार्य कर रहे हैं। हाल ही में उनकी एक नयी कहानी आउटलुक में पढने को मिलीकहानी का तानाबाना कुछ इस तरह का है कि जब हम इसे एक बार पढना शुरू करते हैं तो अन्त किये बिना मन नहीं मानता। यही नहीं संजय ने इस कहानी की बुनावट कुछ इस तरह से की है कि हम अनुमान तक नहीं लगा पाते कि कहानी किस तरफ जा रही है। तो आइए पढ़ते हैं संजय कुंदन की यह कहानी
       
फ्रेंड, फिलॉसफर गाइड 
 

संजय कुंदन
 


जब आप सफर में अकेले हों, तो आंखें किसी परिचित की तलाश में लगी रहती हैं। उस दिन एक सेमिनार के सिलसिले में शिमला जाने के लिए कालका शताब्दी में चढ़ा। अपनी सीट पर आकर इधर-उधर देख रहा था। आसपास की कुर्सी पर सारे यात्री बैठ चुके थे। सिर्फ सामने की कुर्सी खाली थी। तभी खिड़की के बाहर नजर गई। कई लोग हड़बड़ाए हुए चले आ रहे थे। मैंने सोचा, शायद इन्हीं में से कोई सामने वाली सीट पर बैठने आ रहा हो। इस बीच गाड़ी चल पड़ी।

मैंने अपने दाहिनी ओर ताखे पर रखे अपने ब्रीफकेस पर नजर डाली फिर पास में पड़ा अखबार उठाया और पढ़ने लगा। तभी महसूस हुआ जैसे सामने कुछ हिला। एक आदमी की पीठ  दिखी। वह अपना सामान रख रहा था।
 
तो वही है सामने की सीट का मालिक। मेरा सहयात्री।
वह शख्स ज्यों ही पलट कर बैठा, मैं उठ खड़ा हुआ। उस व्यक्ति को देखने पर मेरी यही स्वाभाविक प्रतिक्रिया होनी थी, सो हुई।
अरे, सर आप!’ मैंने कहा।
 
उन्होंने मुझे पहचानने में कुछ सेकेंड का वक्त लिया। फिर बिना किसी खास रोमांच के कहा, ‘और कैसे हो?’
ठीक हूं सर।यह कहकर मैं बैठ गया।
वह डॉक्टर साहब थे। डॉ. साकेत शरण। करीब दस सालों के बाद उन्हें देख रहा था। उनके चेहरे और भावों के उतार-चढ़ाव में उम्र का असर साफ दिख रहा था।
 
आप शिमला जा रहे हैं?’ मेरे इस सवाल का जवाब देने के बजाय उन्होंने सवाल ही किया, ‘तुम अब भी वहीं हो?’
हां, सर।
वहींसे उनका तात्पर्य था, वह सोशल रिसर्च इंस्टीट्यूट, जिसके वह डायरेक्टर हुआ करते थे, दस साल पहले। बारह साल पहले मैंने एक शोध सहायक के रूप में वहां ज्वाइन किया था। और अब मैं उसका डिप्टी डायरेक्टर हो चुका था।
और आप सर?’
मैं एक एनजीओ से जुड़ा हुआ हूं, चंडीगढ़ में। उसी के काम से दिल्ली आया था।’ 

मुझे उनमें एक तटस्थता सी दिख रही थी और संकोच भी। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन डॉ. साकेत शरण से इस तरह से संवाद होगा। क्या समय के लंबे अंतराल की वजह से हमारे बीच दूरी आ गई थी, या फिर यह उस घटना का असर था, जिसके कारण इंस्टीट्यूट से डॉक्टर साहब की विदाई हुई? पर वह मामला ऐसा तो था नहीं कि उन्हें इसके लिए मुंह छुपाना पड़े। हां, उस वक्त मेरी तीखी बहस जरूर हुई थी उनसे। हालांकि सचाई यह थी कि उस घटना ने मेरे मन में उनका कद और ऊंचा कर दिया था।
चाय आ गई थी। डॉ. साहब ने चाय बनाते हुए पूछा, ‘आजकल डायरेक्टर कौन है?’
 
केपी सिंह।मैंने चाय की चुस्की लेते हुए कहा। उनके चेहरे पर हल्की मुस्कान आई। फिर वे कुछ बुदबुदाए। शायद उन्होंने केपी सिंह का नाम दोहराया था। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि यह वही डॉ. साहब हैं। पहले वाली बात होती तो अब तक वे न जाने कितनी चीजों की चर्चा कर चुके होते। यही तो उनकी खासियत थी। वे बात से बात निकालते जाते थे। जैसे बातचीत चाय से शुरू होती तो वे दार्जिंलिंग की बात करने लग जाते। फिर अलग-अलग देशों में चाय पीने के कल्चर पर बात करने लगते। मैं उन्हें चलता-फिरता इन्साइक्लोपीडिया कहता था। मुझे समझ में नहीं आता था कि कोई शख्स हर चीज के बारे में कैसे जान सकता है।
दस साल पहले जब मैं नौकरी ज्वाइन करने दिल्ली आया, तो बहुत घबराया हुआ था। सिर्फ एक अटैची लेकर पहुंचा था। कहां रहूंगा, कैसे खाऊंगा-पीऊंगा, इसे लेकर बहुत परेशान था। मेरे असमंजस को भांप कर डॉ. साहब ने कहा, ‘आप परेशान न हों। सब इंतजाम हो जाएगा।’ 

लेकिन सर मैं जाऊंगा कहां।मेरे यह पूछने पर वह हंसते हुए बोले, ‘आप मेरे घर चलेंगे।
मेरी दुविधा दूर हो गईं। मैं उनके घर में तब तक रहा, जब तक मुझे किराये पर एक कमरा नहीं मिल गया। फिर तो मैं उनका मुरीद हो गया। हर वक्त उनसे कुछ सीखने की कोशिश करता। मैं उन्हें अपना फ्रेंड, फिलॉसफर, गाइड मानने लगा।
 
तुम कहां जा रहे हो?’ इस सवाल से मेरी तंद्रा टूटी।
शिमला…. एक सेमिनार में।मैंने थोड़ी हड़बड़ाहट में कहा।
तो कालका उतरोगे।
जी। फिर वहां से टैक्सी लूंगा।
वह बाहर देखने लगे। मैंने थोड़ा साहस कर के कहा,‘ सर, आपको इंस्टीट्यूट छोड़ना नहीं चाहिए था।
डॉ. साहब ने कुछ कहा नहीं, सिर्फ मुंह बनाया, इस अंदाज में कि क्या फर्क पड़ता है।
 
उनके लंबे करियर में पहली बार उन पर एक आरोप लगा, एक विचित्र आरोप। कहा गया कि एक अंतरराष्ट्रीय सेमिनार के आयोजन में उन्होंने पैसों का हेरफेर किया है। मुझे ही नहीं, संस्थान के ज्यादातर लोगों को समझ में नहीं आया कि जो आदमी तमाम सरकारी सहूलियतें ठुकरा चुका हो, वह भला ऐसा क्यों करेगा। आरोप तब के डिप्टी डायरेक्टर केपी सिंह और उनके कुछ दरबारियों ने लगाया था, जो डॉ. साहब की उपलब्धियों से जलते थे।

  
उनके विरोधियों की संख्या कम थी, आरोप में भी कुछ खास दम नहीं था, पर डॉ. साहब ने तुरंत इस्तीफा दे दिया। उनसे कहा गया कि वे जांच कमिटी की रिपोर्ट आने तक अपने पद पर बने रहें, पर वह नहीं माने। उनके विरोधियों ने प्रचारित किया कि चूंकि डॉ.साहब ने घपला किया है, इसलिए वे भाग रहे हैं। जबकि उनके समर्थकों का कहना था कि चूंकि वे संत स्वभाव के हैं, इसलिए इस मामूली आरोप ने उनका मन खिन्न कर दिया है।

मैंने डॉ. साहब से बार-बार कहा कि उनका इस तरह छोड़ना तो पलायन कहा जाएगा। उन्हें डटे रहना चाहिए ताकि उन पर गलत इलजाम लगाने वाले एक्सपोज हों। लेकिन उन्होंने एक नहीं सुनी। वे परिवार सहित विदा हो गए। उनके जाने के बाद इंस्टीट्यूट में ही नहीं मीडिया में भी उनकी ईमानदारी की चर्चा होती रही। कुछ दिनों के बाद जांच कमिटी की रिपोर्ट आई जिसमें उन्हें बेदाग घोषित किया गया। आखिरकार केपी सिंह जैसा व्यक्ति, जिसने किसी अकादमिक योग्यता के कारण नहीं, राजनीतिक सिफारिश के कारण नौकरी पाई थी, संस्थान का निदेशक बन गया। 

तुम्हारे सेमिनार का विषय क्या है?’ लगा जैसे डॉ. साहब की आवाज हवा में लहराती आ रही हो। मैं अब भी बीते दिनों में ही अटका पड़ा था या वर्तमान और अतीत के बीच कहीं।
आपको पता है इंस्टीट्यूट की क्या हालत हुई है। वह भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुका है।मैंने थोड़ा जोर से कहा।
 
डॉ. साहब एक फीकी हंसी हंसे। मैंने सोचा कि वह सब कह डालूं जो एक दशक से मेरे भीतर उमड़-घुमड़ रहा था। मैंने शुरू किया, ‘देश की यह हालत आप जैसे लोगों के कारण हुई है। अच्छे लोग सब कुछ गलत लोगों के हवाले इसी तरह करते रहे तो फिरडॉ. साहब ने हाथ से रुकने का इशारा किया फिर वे आगे झुक कर फुसफुसाते हुए कहने लगे,‘ तुम जो सोच रहे हो वैसा कुछ नहीं है।
कहना क्या चाहते हैं आप?’ मैं तैश में आ गया था।
वह उसी तरह कहते रहे, ‘देखो, कई बार सच के पीछे एक और सच होता है। क्या तुम्हें लगता है कि मैं केपी सिंह टाइप लोगों से डर कर चला गया?’

नहीं, हमें लगता है कि आप खिन्न होकर भागे।
उन्होंने एक लंबी सांस लेकर कहना शुरू किया, ‘मैं इतना कमजोर नहीं कि एक मामूली आरोप से घबरा जाऊं। मुझे पता था कि आरोप में कोई दम नहीं है। फिर एचआरडी मिनिस्टर तक मेरे साथ थे।’ 

मैंने टोका, ‘तो क्या आपको कोई बेहतर ऑफर मिल गया?’
उन्होंने कहा, ‘मुझे पद और पैसे का कोई लालच नहीं है। मेरे लिए वह नौकरी बहुत अच्छी थी। लेकिन कुछ पर्सनल कारण

 मैं हैरान रह गया। मैं तो इनके जीवन के हर अध्याय को अच्छी तरह समझता था। फिर क्या पर्सनल कारण। वह बोतल से गटागट पानी पीने लगे। फिर बाहर देखने लगे। मुझे लगा कि वह शायद नहीं बताना चाहते। तभी उन्होंने अचानक कहा, ‘जब तुमने पूछ ही लिया है तो सुनो।.. मुझे इंस्टीट्यूट की एक रिसर्च स्कॉलर से प्यार हो गया था। ऐसा प्यार कि क्या बताऊं।रात की नींद हराम हो गई। हर समय वही सामने दिखती।वो मेरी बहुत इज्जत करती थी। मैंने सोचा कि अगर मैं उसे अपने मन की बात बता दूं तो मैं उसकी नजरों में गिर जाऊंगा। संभव है, उसके जीवन में एक बड़ी समस्या खड़ी हो जाए। फिर मेरी पत्नी। उस पर क्या बीतेगी। मैं इसी उलझन में था कि तभी वह मामला सामने आ गया। मैंने सोचा कि अच्छा मौका है इसी बहाने निकल लो ताकि सभी चैन से रहें।

मैं उन्हें सन्न देखता रहा। कुछ देर बाद मेरा मोबाइल बजा। मेरी पत्नी का फोन था। मैंने कहा, ‘हां, मंजुला, सब ठीक है।  डॉ. साहब बुदबुदाए… ‘मंजुला!’ फिर उनके चेहरे पर अजीब से भाव उभरे जैसे किसी गहरी खाई में गिरने से बचे हों।
मंजुला ने मेरे साथ ही रिसर्च असिस्टेंट के रूप में ज्वाइन किया था। जल्दी ही हमारे बीच नजदीकियां बढ़ने लगीं। लंबे अफेयर के बाद हमने शादी की लेकिन तब तक डॉ. साहब इंस्टीट्यूट छोड़ चुके थे।
 
तो क्या मंजुला…? अचानक लगा जैसे मेरे भीतर बिजली सी कड़की हो। मैंने मुश्किल से खुद को संभाला। तभी देखा कि सामने की जगह खाली है। गाड़ी रुकी हुई थी। मैंने घबराकर बाहर झांका। डॉ. साहब प्लैटफॉर्म पर थे। उन्होंने जाते हुए हाथ उठाया। मेरा हाथ उठते-उठते रह गया।

संपर्क:
  
सी-301, जनसत्ता अपार्टमेंट,  
सेक्टर-9, वसुंधरा,  
गाजियाबाद-201012, (उ प्र)

मोबाइल : 09910257915
(कहानी में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

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