यादवेन्द्र का आलेख 'लोहे का स्वाद घोड़ा जानता है'


महक जमाल



पहाड़ दूर से देखने में भले ही आकर्षक लगें, वहां का जीवन काफी दुष्कर होता है। खासकर कश्मीर का जीवन, जो एक तरफ तो लम्बे अरसे से आतंकवाद का गढ़ रहा है, दूसरी तरफ सरकारों की प्रयोगशाला बना रहा है। फिल्मकार महक जमाल के कहानियों की किताब आई है "लोल कश्मीर"। यादवेन्द्र पाण्डेय इस किताब की तहकीकात करते हुए बताते हैं : 'किताब की भूमिका में महक लिखती हैं कि मैंने अपनी युवावस्था में कश्मीर में रहते हुए अशांति और हिंसा के लंबे दौर देखे। अनगिनत हड़तालें, एनकाउंटर देखे, बम धमाके देखे और हत्यायें देखीं। इन बवालों के चलते इम्तिहान और बर्थडे पार्टी को बीच में रोक दिया जाना देखा। हमारे इर्द-गिर्द पैरा मिलिट्री बलों का हमेशा इतना भारी जमावड़ा लगा रहता था कि हमें यह सब अपने जीवन का हिस्सा लगने लगा था - हमारे लिए जो एक आम बात थी वह राज्य से बाहरी किसी के लिए बेहद चौंकाने वाली और डराने वाली बात थी।... "कश्मीर में रह कर बड़ी होती हुई मैं हमेशा सोचती थी कि क्या बाहर का कोई भी इंसान कभी यह जान सकेगा कि अपने घरों के अंदर लंबे समय तक कैद कर के रखे जाते हुए हमारे दिल-दिमाग के अंदर क्या चलता रहा होगा?" इस किताब में आए हाड़ मांस के असल किरदारों की मार्फ़त महक जमाल इसी यक्ष प्रश्न का जवाब तलाशने की कोशिश करती हैं।'

आजकल पहली बार पर हम प्रत्येक महीने के पहले रविवार को यादवेन्द्र का कॉलम 'जिन्दगी एक कहानी है' प्रस्तुत कर रहे हैं जिसके अन्तर्गत वे किसी महत्त्वपूर्ण कहानी को आधार बना कर अपनी बेलाग बातें करते हैं। इस बार अपने कॉलम के अन्तर्गत उन्होंने फिल्मकार महक जमाल की कश्मीरी कहानी '44 डेज' की चर्चा की है। कॉलम के अंतर्गत यह तेरहवीं प्रस्तुति है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यादवेन्द्र का आलेख 'लोहे का स्वाद घोड़ा जानता है'।



'लोहे का स्वाद घोड़ा जानता है' 


यादवेन्द्र 


मूल रूप से फ़िल्मकार लेकिन कश्मीरी जीवन से गहरे जुड़ी हुई महक जमाल श्रीनगर में जन्मी हैं। फ़िल्म निर्माण के काम के चलते वे रहती पुणे में हैं लेकिन कश्मीर उनकी रगों में समाया हुआ है और वहाँ के आम नागरिक जीवन के सामने बार बार खड़ी होती मुश्किलें महक को न सिर्फ विचलित करती हैं बल्कि उनके सरोकारों और चुनौतियों से जूझने का हौसला भी देती हैं। एक कलाकार अपने माध्यम से ही उन चुनौतियों के समाधान का रास्ता ढूंढ सकता है सो महक जमाल ने इस बार सेल्युलाइड माध्यम से इतर "लोल कश्मीर" शीर्षक किताब के पन्ने चुने - इस किताब में सोलह ऐसी वास्तविक कहानियाँ हैं (कुछ किरदारों के मूल नामों के साथ, कुछ व्यक्तिगत सुरक्षा को ध्यान में रख कर बदले नामों से) जो एक खंडित इलाके में प्यार और उसकी बेकरारी भरी हसरत का साहस भरा खुलासा करती हैं।


धूमिल ने कहा था कि 


लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो

उस घोड़े से पूछो जिसके मुँह में लगाम है।


उनकी कश्मीरी कहानी (अंग्रेजी में लिखी) 44 डेज़ पढ़ते हुए मुझे एकदम यही लगा कि धूमिल ने कितना सही कहा है- असल कश्मीर के बारे में छुट्टियाँ बिताने सैर सपाटा करने चार पांच दिनों के लिए बाहर से जाने वाले सैलानी कभी नहीं बता सकते। दरअसल इसको जानने के लिए उर्दू या कश्मीरी में लिखी (मालूम नहीं कि लिखी जा भी रही है या नहीं... लिखने पर छपने दिया जा रहा है या नहीं) कहानी उपन्यास कविता रिपोर्ताज और इनसे इतर गद्य तक पहुंचना पड़ेगा। पर जब यह पब्लिक डोमेन में उपलब्ध नहीं है तो अंग्रेजी में छपी मुट्ठी भर किताबों की ओर ही नज़र जाती है - शर्त यह कि हम सचमुच इसका विश्वास करें कि कश्मीरी हमारे उतने ही सगे और अपने हैं जितने बंगाली, पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती या कन्नडिगा। जो बात यहाँ मैं कश्मीरी कहानी के बारे में कह रहा हूँ यह अक्षरशः नगा, मिजो या मणिपुरी कहानी के बारे में भी कही जा सकती है क्योंकि हमारे मेनस्ट्रीम मीडिया में इनकी अनुपस्थिति बड़ी डरावनी और अश्लील है। यक्ष प्रश्न यह है कि यदि वे भी भारत हैं तो उनका साहित्य हमारी आँखों के सामने क्यों नहीं आता?


किताब की भूमिका में महक लिखती हैं कि मैंने अपनी युवावस्था में कश्मीर में रहते हुए अशांति और हिंसा के लंबे दौर देखे। अनगिनत हड़तालें, एनकाउंटर देखे, बम धमाके देखे और हत्यायें देखीं। इन बवालों के चलते इम्तिहान और बर्थडे पार्टी को बीच में रोक दिया जाना देखा। हमारे इर्द-गिर्द पैरा मिलिट्री बलों का हमेशा इतना भारी जमावड़ा लगा रहता था कि हमें यह सब अपने जीवन का हिस्सा लगने लगा था - हमारे लिए जो एक आम बात थी वह राज्य से बाहरी किसी के लिए बेहद चौंकाने वाली और डराने वाली बात थी।


"कश्मीर में रह कर बड़ी होती हुई मैं हमेशा सोचती थी कि क्या बाहर का कोई भी इंसान कभी यह जान सकेगा कि अपने घरों के अंदर लंबे समय तक कैद कर के रखे जाते हुए हमारे दिल-दिमाग के अंदर क्या चलता रहा होगा?" इस किताब में आए हाड़ मांस के असल किरदारों की मार्फ़त महक जमाल इसी यक्ष प्रश्न का जवाब तलाशने की कोशिश करती हैं।


श्रीनगर में रहने वाली दंत चिकित्सक सानिया की सगाई बंगलुरु में नौकरी कर रहे गैर कश्मीरी युवक आई टी इंजिनियर मेहरान के साथ 21 जून 2019 को संपन्न हुई और शादी की तारीख पक्की होती इससे पहले ही 4 अगस्त से कश्मीर में फ़ोन और इंटरनेट बंद कर दिए गए। ध्यान रहे 5 अगस्त 2019 का दिन कश्मीर के इतिहास को बदलने वाला था। उन दोनों के बीच इस दरम्यान के 44 दिनों तक फ़ोन पर बात होती रही, उसके बाद एक डरावना अनिश्चित भविष्य दोनों के बीच रास्ता रोक कर खड़ा हो गया... किसी कश्मीरी नागरिक को नहीं पता यह पाबंदी कब उठेगी, कभी उठेगी भी या नहीं उठेगी?


सानिया कश्मीर में ही जन्मी पली बढ़ी सो घर से निकलने पर और फ़ोन इंटरनेट पर आए दिन लगाए जाने प्रतिबंधों की आदी थी पर मेहरान के लिए संपर्क के सभी साधनों का ओझल होना या टूट जाना अप्रत्याशित था - जब सारे उपाय कर लेने के बाद भी बात नहीं हो पाती तो दूसरे सिरे पर रहने वाले अपने लोगों की सलामती को ले कर गंभीर चिंता होना स्वाभाविक है। कोई और भी वैसा ही करता जैसा मेहरान ने सोचा - जा कर खुद अपनी आँखों से देख आऊँ सानिया के साथ सब कुशल मंगल तो है। पर जाए कैसे - बस, रेल और हवाई सेवा पूरी तरह से बंद। जैसे जैसे दिन बीत रहे थे शादी की संभावना खतरे में पड़ने का अंदेशा घिरने लगा। दोनों परिवार संपर्क में नहीं थे सो शादी की तारीख पक्की नहीं हो पा रही थी।


4 जून को रात में 11:30 बजे से सिग्नल खत्म हो गए, फोन इंटरनेट सब बंद। बातचीत की बंदी के बाद जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे सानिया के मन में यह बात घर करती चली गई कि मेरे, मेरे घर वालों और कश्मीरियों के बारे में हजारों किलोमीटर दूर बैठे मेहरान और उसके घर वाले क्या सोचेंगे...। हमारी विश्वसनीयता पर उन्हें संदेह होने लगेगा। लॉकडाउन और कर्फ्यू तो आम कश्मीरियों के जीवन का अभिन्न हिस्सा है और वे इसके साथ रहने के अभ्यस्त हो चुके हैं लेकिन बाहरी लोगों को यह अनिश्चितता चिंता में डाल देगी। इन सारी परिस्थितियों ने मिल जुल कर सानिया को मानसिक तौर पर तोड़ना शुरू कर दिया, वह सब से कट कर अपने आप में सिमटती चली गई और जीवन के प्रति उत्साह खत्म होने लगा। परिवार के लोग उसे सहज करने की कोशिश करते पर कामयाब नहीं हो पा रहे थे।


सानिया के मन में लगातार ऊहापोह और मंथन चल रहा था कि एक दिन अचानक एक तरकीब सूझी हालांकि पहले से ही वह यह मान कर चल रही थी कि वह तरकीब किसी भी सूरत में कामयाब होने वाली नहीं। फिर भी उसने अपने मन को समझाया कि कोशिश करने में क्या जाता है, ना तो उसके पल्ले पड़ा ही हुआ है। सानिया को लगा कि संचार माध्यम आम नागरिकों के लिए बंद किए गए हैं लेकिन सुरक्षा बलों के लिए तो वह अब भी चल रहे होंगे सो एक बार उनसे मदद मांग कर देखते हैं। हथियारबंद फौजियों के पास जाने का तो सवाल ही नहीं होता था लेकिन राज्य की पुलिस के नजदीक के थाने में जा कर देखते हैं, मदद मांगते हैं - क्या पता, मेरी मुश्किल हालत देख कर थानेदार का दिल पसीज जाए। कहानीकार ने यह संकेत किया है कि धारा 370 के हटाए जाने के बाद से कश्मीर पुलिस से उनके हथियार फ़ौज और केन्द्रीय बलों ने ले लिए हैं इसलिए सानिया को लगा कि पुलिस थाने में जाने में मारे जाने का खतरा कम है।





अपने चचेरे भाई को ले कर सानिया घर के पास की पहाड़ी पर स्थित थाने जाती है लेकिन नीचे तैनात गार्ड उन्हें ऊपर जाने से रोक देता है। सानिया निराश हो कर लौट आई। लेकिन सानिया का मन कहाँ मानने वाला था, कुछ दिनों के बाद उसने फिर से यह कोशिश की। इस बार गार्ड ने उसका अनुरोध मान कर ऊपर थाने तक जाने दिया। और सानिया के यह कहने पर कि वह अपने मंगेतर से इमरजेंसी में एक जरूरी संदेश पहुंचाना चाहती है, थानेदार का दिल पसीज गया। उसके पास सेटेलाइट फोन था, उसने 60 सेकंड के लिए सानिया को वह फोन सामने से इस्तेमाल करने को दिया।


फ़ोन हाथ में थामते हुए सानिया के पेट में मरोड़ होने लगी। उसने वहाँ पहुंचने से पहले इतनी बार यही सोचा था कि फोन करने देने की उसके मिन्नतों पर भला कौन पुलिस वाला ध्यान देगा लेकिन पुलिस स्टेशन आने के बाद अचानक जब उसकी गुजारिश मान ली  गई तब उसे यह समझ ही नहीं आ रहा था कि वह मेहरान को बोले तो भला क्या बोले... उसके दिमाग से शब्द फिसलते हुए इधर उधर छुपते से लगे। 


उसके पास मेहरान से बात करने के लिए 60 सेकंड थे। इन्हीं 60  सेकंड्स में उसे जो भी बात करनी है जो भी बात सुननी है वह पूरी हो जानी चाहिए। इन्हीं 60 सेकंड्स में उसे अपने जीवन और अपने आस-पास के माहौल की सारी अनिश्चितता मेहराम तक पहुंचा देनी है। इतना ही नहीं, यह सब उसे थानेदार की घूरती नजरों के सामने करना है उसका भाई भी लगभग सट कर ही खड़ा हुआ है। सारा माहौल ऐसा था जो किसी भी तरह से उसके न तो अनुकूल था न ही अपनी भावनाओं को सहज और खुले ढंग ढंग से व्यक्त करने की इजाज़त देता था।


सानिया ने कनखी से अपनी हथेली पर देखा जहाँ उसने मेहरान का नंबर लिखा हुआ था। पहाड़ी पर हाँफते हुए चढ़ने और अचानक की उसकी अप्रत्याशित घबराहट में भी मौसम सर्द रहते हुए पसीना आ गया था और हथेली पर बॉल पेन से लिखा हुआ नंबर धुंधला पड़ गया था। वैसे वह हर दिन मेहरान का नंबर अपनी हथेली पर लिखती थी, क्या पता किस समय उसे उस नंबर की जरुरत पड़ जाए।


जब फ़ोन कनेक्ट हुआ तो मेहरान ने बताया कि मैं हर रोज वहाँ के लिए फ्लाइट देख रहा हूँ लेकिन कोई फ्लाइट नहीं मिल रही है, उड़ ही नहीं रही हैं। इस पर सानिया ने अविलंब जवाब दिया कि तुम्हें यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं है। मालूम नहीं कि यहाँ के हालात कब तक सुधरेंगे, सुधरेंगे भी या नहीं।  जब मेहरान ने उधर से यह पूछा कि तुम ठीक हो न? तो इसका जवाब सानिया भला क्या देती। तभी थानेदार ने अपनी घड़ी के ऊपर उंगली से ठक ठक कर उसे दिखाया कि उसे दिए गए 60 सेकंड में से 40 सेकंड खर्च हो चुके हैं, अब उसके पास सिर्फ 20 सेकंड बाकी हैं। जिस माहौल में बात हो पा रही थी उसमें सानिया ने भविष्य को ले कर अपनी आशंका जताते हुए मेहरान को दिल कड़ा कर के यह कह दिया कि मुझे भूल जाओ और अपने लिए नए सुरक्षित जीवन का रास्ता चुनो। 60 सेकंड में 8 सेकंड बाकी थे तभी इन शब्दों के साथ सानिया ने फोन काट दिया और थानेदार को शुक्रिया कह कर घर लौट गई।


शुरू के 18 दिन सानिया ने मेहरान के साथ कोई बात नहीं की, कर भी नहीं सकती थी। उस दौरान उसने अपने मन में आई सभी बातों को कागज़ पर लिखा, जो कुछ भी वह उससे कहना चाहती थी, जो कुछ उसके मन में आ रहा था तारीख वार और समय वार। थाने जा कर मेहरान से बात करने के बाद भी यह सिलसिला चलता रहा। अपने मन के भावों को कागज़ पर उतारते हुए सानिया को लगातार यह महसूस होता रहा कि भले ही मेहरान के साथ उसकी बात नहीं हो रही है और उसने उससे यह रिश्ता तोड़ देने के लिए कहा है लेकिन जहाँ तक उसका सवाल है उसने अपनी तरफ से सब कुछ खत्म कर दिया हो ऐसा नहीं है। दरअसल इस बारे में वह सबको अपनी सफाई नहीं देना चाहती। उसे जो कहना था उसने मेहरान को कह दिया, उसके मन में यह विचार पक्का था कि मेहरान के पास दोनों में से कोई रास्ता चुनने का विकल्प है - हालात सुधरने तक सानिया का इंतज़ार करे या उसे भूल कर जीवन के नए सफ़र पर निकल जाए। कुल मिला कर बात यह थी कि मेहरान को वह किसी तरह से किसी मुश्किल स्थिति में नहीं डालना चाहती थी, उसकी सलामती चाहती थी चाहे उसे खुद को कितनी भी मुश्किलें स्वीकार क्यों न करनी पड़े।


कठिन से कठिन दिन हमेशा कठिन नहीं रहते, बदल कर आसान भी होते हैं। जब हालात कुछ सुधरे तो सानिया का भाई बेंगलुरु से श्रीनगर आया। आते ही उसने अपनी बहन का हाल-चाल पूछा और यह भरोसा दिलाया कि किसी भी हाल में वह उसके साथ मजबूती के साथ खड़ा रहेगा - मेहरान से रिश्ता बना रहे या टूट जाए। उसको तसल्ली दी कि कश्मीर के जो हालात आज हैं वह हमेशा थोड़े रहेंगे। धीरे-धीरे, हो सकता है वक्त कुछ ज्यादा लगे, लेकिन सब कुछ ढर्रे पर आ जाएगा। तुम मुझे सिर्फ़ यह बता दो कि फ़ोन की लाइन फिर से चालू हो जाए तो तुम सबसे पहले किसको कॉल करना चाहोगी?


मेहरान को, सानिया ने पल भर भी सोचा नहीं और बेसाख्ता बोल पड़ी।


भाई को मुस्कुराते देखा तो सानिया भी थोड़ी सहज हुई। उठ कर अपने कमरे से तमाम चिट्ठियाँ निकाल कर ले आई जो बात न होने के दौरान उसने मेहरान को लिखी थीं।


भाई, यह सारी चिट्ठियाँ ले जा कर मेहरान के हाथ में रख देना। इन्हें पढने के बाद वह फिर भी रिश्ते के लिए राजी है तो मेरी ओर से खुशी खुशी "हाँ" है।


नवम्बर 2019 में सानिया बंगलोर गई, दूसरी बार मेहरान से मिलने। अप्रत्याशित मुलाकात की शुरुआती घबराहट से उबरने पर जब दोनों सहज हुए तो मेहरान ने कहा : 'मैंने तुम्हें पसंद किया और मुझे लगता है तुमने भी मुझे पसंद किया, अपने जीवन साथी के तौर पर चुना। यही सच है सानिया इसके अलावा जो कुछ भी है वह सब बैकग्राउंड नॉइज़ है। मैं तुम्हारे मन में चल रही उथल पुथल और संभावित खतरों को खूब समझता हूँ पर तुम्हारी तरह की शब्दावली मेरे पास नहीं कि उन्हें कागज़ पर उतार पाऊं। पर यह सच है कि मेरा वज़ूद तुम्हारे साथ ही होने में है, तुम्हारे बगैर मैं कुछ नहीं।'


यह सुन कर सानिया के चेहरे पर मुद्दतों बाद मुस्कुराहट तैर गई।


दिसंबर 2020 में सानिया और मेहरान की शादी हो गई और दोनों खुशी-खुशी अपना साझा जीवन जी रहे हैं।


महक जमाल कश्मीर को प्रेमियों की भूमि कहती हैं और ख़ुद को उन प्रेमियों में से एक... इसीलिए वे अपनी किताब को कश्मीर को लिखा प्रेमपत्र बताती हैं। 


पर इस प्रेम मार्ग में आने वाली मुश्किलें कश्मीरी युवाओं के सामने जिस जिस तरह का रक्तरंजित तांडव करती हैं उसकी भयावहता के बारे में बाहर से आने और देखने वालों को कभी भी सही अंदाज़ा नहीं लग सकता। सारे कातिल झंझावात जो खुद अपने बदन पर झेलते हैं वही ज़माने की असलियत जानते हैं, उन्हें यदि इतिहास में अन्याय को दर्ज़ करना है तो अपनी कहानी खुद कहनी होगी। 


कोई सुबूत न होगा तुम्हारे होने का 

न आया फ़न जो क़लम खून में डुबोने का                          

रईसदीन रईस


मेरे दिमाग में यह एकदम स्पष्ट है कि यहाँ मैं किसी कल्पना से गढ़ी हुई कहानी की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि जिंदा इंसानों और इतिहास की धडकनों की बात पाठकों के साथ साझा कर रहा हूँ।



यादवेन्द्र 



सम्पर्क 


यादवेन्द्र 

पूर्व मुख्य वैज्ञानिक

सीएसआईआर - सीबीआरआई , रूड़की


पता : 72, आदित्य नगर कॉलोनी,

जगदेव पथ, बेली रोड,

पटना - 800014 


मोबाइल - +91 9411100294

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