सीमा आज़ाद की कहानी 'अभी इतने बुरे दिन नहीं आये हैं'

 

सीमा आज़ाद 


लोकतन्त्र राजनीति की सबसे बेहतर शासन प्रणाली इसीलिए है कि इसमें सबको, चाहें वह किसी भी धर्म, जाति, नस्ल या समुदाय का हो, अपनी मर्जी के मुताबिक रहने और जीने  का अधिकार प्राप्त होता है। सबको विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता होती है। अल्पसंख्यक समुदाय भी इस प्रणाली के तहत खुद को सुरक्षित महसूस करता है। लेकिन जब यह लोकतन्त्र धीरे धीरे 'बहुसंख्यकतन्त्र' या 'भीड़तन्त्र' में तब्दील होने लगता है तब अल्पसंख्यक समुदाय के लोग कुछ डरे डरे या आशंकित से रहने लगते हैं। 'मॉब लिंचिंग' जब कानून का जगह लेने लगती है तब यह भय लाजिमी भी हो जाता है। यह लोकतन्त्र के लिए त्रासद होता है। इतिहास गवाह है कि नाजी जर्मनी में यहूदियों के साथ किस निर्ममता के साथ व्यवहार किया गया। आज की परिस्थितियां भी कुछ इसी तरह की होती जा रही हैं। सीमा आज़ाद ने इस हालात को बेहतर तरीके से अपनी कहानी में अभिव्यक्त किया है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सीमा आज़ाद की कहानी 'अभी इतने बुरे दिन नहीं आये हैं'।



'अभी इतने बुरे दिन नहीं आये हैं'


सीमा आज़ाद


कमरे में सन्नाटा था। दो लोग आमने-सामने बैठे थे, एक पत्रकार दूजा डाॅक्टर। दोनों के बीच में एक बड़ी सी मेज़ थी।


‘‘अपने बारे में कुछ बताइये।’’


डाॅक्टर मिश्रा ने दोनों हाथों को आपस में बाँधते हुए पूछा, मानों वे थोड़ी देर आराम करना चाहते हों। लेकिन पत्रकार नदीम शून्य में ताकता रहा। डाॅक्टर मिश्रा ने उसे खोलने के लिए फिर से पूछा-‘

‘‘ऐसा क्यों लगता है कि आपको कोई समस्या है?’’ 


नदीम अब भी शून्य में ही ताकता रहा, इस बार डाॅक्टर मिश्रा भी थोड़ी देर की चुप्पी मार गये। डाॅक्टर मिश्रा नदीम पर और नदीम मेज़ पर नज़र गड़ाये बैठा था।


थोड़ी देर की चुप्पी के बाद नदीम ने ही भवें सिकोड़ कर हौले से गर्दन उठाई-

‘‘क्या.... आपको नहीं लगता कि आसपास समस्या ही समस्या है?’’


‘‘मुझे तो नहीं लगता, दुनिया अच्छी-भली है।’’ डाक्टर मिश्रा ने निश्चिंतता के साथ उसी आराम की मुद्रा में जवाब दिया।


‘‘तो मुझे कुछ नहीं कहना है।’’ 

नदीम ने डाॅक्टर की आँख में सीधा देखते हुए कहा। अब डाॅक्टर मिश्रा को आराम की मुद्रा से बाहर आना पड़ा, उन्होंने दोनों हाथ अलग-अलग कर कुर्सी के हत्थे पर रख लिया और ध्यान से उसकी ओर देखते हुए आहिस्ता से कहा-

‘‘लेकिन आपके आस-पास रहने वाले लोगों को लगता है कि आपके साथ कोई समस्या है..... आपको गुस्सा बहुत ज्यादा आता है।’’ 

‘‘अगर आपकी आँखें और कान सही-सलामत हैं, तो गुस्सा आपको भी आना चाहिए।’’

नदीम ने डाॅक्टर मिश्रा की आँख में आँख डाल कर कहा। उसके लम्बे साँवले चेहरे पर टँकी दो काली आँखें फैली हुई थीं और उसमें तनाव ठहरा हुआ था। डाक्टर को अपनी ओर ध्यान से देखते हुए वो असहज हो गया और उसने नज़रें नीची कर ली। कुछ सेकेण्ड चुप रहने के बाद बोला- 

‘‘मुझसे ज्यादा गुस्सा तो आजकल हिन्दुओं को आने लगा है.......... आप उनका इलाज क्यों नहीं करते डाॅक्टर.... मिश्रा जी...।’’


‘मिश्रा जी’ को उसने इस तरह से खींच कर कहा कि उसके निहितार्थ डाॅक्टर पर उजागर हो सकें। लेकिन डाॅक्टर साहब मुद्दे पर फोकस्ड थे।


‘‘हिन्दुओं को क्यों भला आप पर गुस्सा आने लगा?’’

‘‘तो वे क्यों हर समय हमें मारते-पीटते और अपमानित करते रहते हैं?....और आपकी सरकार.. वो तो हमें नागरिक ही नहीं समझती है।’’

नदीम झल्ला कर बोला और उसके माथे पर बल पड़ गया, उसकी फैली आँखें सिकुड़ कर छोटी हो गयीं।  


‘‘आप कुछ ज्यादा ही सोचने लगे हैं.... ‘ओवर थिंकिंग’.... निगेटिव बातों को ज्यादा सोचने के कारण आपका दिमाग ‘ओवर क्राउडेड’ हो गया है.... फिलहाल मैं नींद की हल्की दवा लिख दे रहा हूँ। एक सप्ताह इसे खा कर नींद पूूरी कर लीजिये फिर मुझसे मिलिये।’’ 

डाॅक्टर मिश्रा ने पेन हाथ में उठा कर लेटर पैड पर झुकते हुए कहा।


‘‘कितनों को नींद की गोली दे कर सुलायेंगे डाॅक्टर.... और कब तक?’’ 

नदीम ने व्यंग से मुस्कुराते हुए कहा। डाॅक्टर मिश्रा ने भी वैसे ही जवाब दिया-

‘‘जब तक हमारा मरीज़ तार्किक तरीके से सोचने नहीं लगता।’’ 

‘‘फिर तो आपको अपने मितरों कों.....भक्तों कों..... कुछ सालों के लिए सुला देना होगा, जब तक कि वे तार्किक तरीके से न सोचने लगें..... कुछ दिन आपको भी सो लेना चाहिए डाक्टर मिश्रा।’’ 


बाद वाली लाइन नदीम ने थोड़ा रूक कर कही। डाॅक्टर मिश्रा को एकबारगी गुस्सा आया, लेकिन उन्होंने उसे जज़्ब कर लिया, इसकी आदत हो गयी थी उन्हें। डिप्रेशन और सिजोफ्रेनिया के ऐसे कई मरीज़ों से उनका साबका पड़ता ही रहता था, जो अहंकार से भरी कई बातें बोलते ही रहते थे। डाॅक्टर मिश्रा ने अपने आप को उससे निरपेक्ष रखने की पूरी कोशिश करते थे। लेकिन इस मरीज से बार-बार ‘हिन्दू’ ‘भक्त’ और खास मकसद से डाॅक्टर के साथ ‘मिश्रा जी’ का सम्बोधन सुन कर उन्हें गुस्सा आ रहा था। उन्हें लगा इस बार उससे ज्यादा बातचीत संभव नहीं है, इसलिए उन्होंने चुपचाप दवा का पर्चा लिख कर दे दिया और नदीम चुपचाप उसे पकड़ कर बाहर आ गया। उसकी बीवी हिना बाहर बैठी उसका इन्तज़ार कर रही थी। उसका चेहरा तो नकाब में ढका हुआ था, लेकिन उसमें से झाँकती आँखें डाॅक्टर वाले चैम्बर के दरवाज़ें पर ही लगी हुई थी। नदीम के बाहर आते ही वह खड़ी हो गयी और लपक कर उसके पास आ गयी। धीरे से पूछा-

‘‘क्या कहा डाॅक्टर ने?’’

‘‘नींद की गोली खा कर मरना लिंचिंग में मारे जाने से बेहतर है।’’


दवा का पर्चा नदीम ने हिना की ओर लगभग उछाल दिया, हिना ने पर्चा पकड़ लिया लेकिन उस पर ध्यान ही नहीं दिया, उसके चेहरे का तनाव गहरा हो गया, उसे कुछ समझ में नहीं आया, दिमाग ने जैसे कुछ सेकेण्ड के लिए सोचना-समझना बंद कर दिया हो। फिर उसे गुस्सा भी आया कि डाॅक्टर ने उसे क्यों नहीं अन्दर बुलाया, मरीज़ को ही दवा की पर्ची पकड़ा कर भेज दी, यह कोई बात हुई? मरीज़ के मर्ज़ के बारे में कितनी बातें बतानी थीं। पता नहीं नदीम उन्हें कुछ बता भी पाया होगा या नहीं। पता नहीं डाॅक्टर ने ठीक से समझा भी होगा या नहीं। उसने नदीम को भाईजान के साथ घर जाने को कहा और खुद कुछ और काम से मार्केट जाने का बहाना करके रूक गयी। डाॅक्टर की पर्ची भी उसने अपने पास यह कह कर रख ली, कि आते वक्त वो दवा भी लेती आयेगी। उसे डर था कि कहीं नदीम डाॅक्टर की पर्ची फाड़ कर फेंक ही न दे। उन दोनों के जाने के बाद उसने डाॅक्टर के चैम्बर की थोड़ी टोह ली और जल्दी से अन्दर घुस गयी। नदीम के बाद आज डाॅक्टर मिश्रा के पास कोई मरीज नहीं था, इसलिए वे दोपहर के खाने के लिए उठने की तैयारी कर रहे थे। काले-काले बुर्के में नकाब वाली महिला के यूँ अन्दर घुसने पर डाॅक्टर मिश्रा चौंक गये।


हिना ने हड़बड़ाते हुए कहा ‘‘मैं..... वो नदीम... अभी जो पेशेन्ट दिखा कर गये हैं..... उनकी बीवी हूँ.... उनके बारे में पूछना था..... वो ठीक तो हो जाएंगे न?


डाक्टर ने खड़े-खड़े ही जवाब दिया-

‘‘अच्छा, अच्छा.... हाँ उन्हें मामूली सी समस्या है.... समझिये कि दिमाग में विचारों की बाढ़ है, थाट्स ओवर क्राउडेड हो गये हैं..... कुछ दिन अच्छी नींद लेंगे, तो ठीक हो जायेंगे।..... आप उन्हें शान्त माहौल दीजियेगा, तो बहुत जल्द ठीक हो जाएंगे।’’


हिना की आँखों की बेचारगी घनी हो गयी। उसने मायूसी भरे स्वर में धीरे से कहा- ‘‘शान्त माहौल कैसे बनायेंगे हम.... ये हमारे हाथ में नहीं...। आप दवा ही तगड़ी लिख दीजिये, ताकि वे शान्त रहें.... और हमारा घर ठीक से चल सके।’’

अन्तिम वाली लाइन बोलते समय हिना क़ातर हो गयी।


‘‘कोई दुर्घटना तो नहीं हुई है उनके साथ?’’

डाॅक्टर मिश्रा ने वापस कुर्सी पर बैठते हुए कहा और हिना को भी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। हिना ने राहत महसूस की, वो यही तो चाहती थी, इसीलिए तो नदीम के साथ आयी ही थी और इसीलिए तो जबरन डाॅक्टर के चैम्बर में घुसी ही थी।


उसने सामने की कुर्सी पर बैठते हुए चेहरे का नकाब हटा दिया और थोड़ा उतावलेपन के साथ कहा-

‘‘नहीं, दुर्घटना उनके साथ तो कोई नहीं हुई है, लेकिन..... लेकिन वैसे तो रोज़ हो ही रही है न।’’


वो थोड़ा असमंजस में आ गयी कि ये सब कहना ठीक होगा या नहीं। थोड़ा रूक कर उसने शब्दों को तौलते हुए कहा-

‘‘हम सबके साथ ही हो रही है... लेकिन.... वो...... हम मुसलमान हैं न इसलिए..... देख ही रहे हैं आजकल क्या-क्या हो रहा है......पता नहीं आप इसे समझ सकेंगे या नहीं।’’





हिना ने आखिरी लाइन लगभग बुदबुदाते हुए कही। डाॅक्टर मिश्रा को फिर थोड़ी झल्लाहट हुई, उन्होंने सीधे तात्कालिक कारण का पता लगाने की गरज से पूछा-

‘‘आज क्या हुआ था?’’

‘‘आज...?’’

हिना की आँख स्थिर हो गयी और उसमें सुबह का दृश्य चलने लगा...।


हर सुबह की तरह आज सुबह भी घर-घर में बच्चों को स्कूल भेजने के लिए जगाया जा रहा था, जल्दी तैयार होने, दूध पीने, नहा लेने, नाश्ता कर लेने की बात घर-घर में गूँज रही थी। घर-घर की रसोईयों में बच्चों के लिए टिफिन तैयार किये जा रहे थे। हिना भी रसोई में है और वो भी टिफिन तैयार करते हुए बीच-बीच में सूफी को ऐसी ही आवाजें दे रही है। नदीम बाहरी कमरे से लगी पतली सी बालकनी में खड़ा है। उसकी आँखें फोन पर गड़ी हुई हैं, उसके सांवले चेहरे को घेरे बैठी बेचैनी को साफ देखा जा सकता है। वह कुछ पढ़ रहा है और बीच-बीच में स्क्रीन को अँगूठे से ठेल रहा है। 


‘‘गोमांस के शक में ट्रेन में सफर कर रहे मुस्लिम दम्पत्ति की पिटाई’’ इस खबर पर उसकी नज़रें लाइन-बाईलाइन तेजी से दौड़ रही हैं। इस मामले में जीआरपी थाने में दो एफआईआर दर्ज हुई है- मुस्लिम दम्पत्ति को पीटने वालों के खिलाफ ‘अज्ञात’ और मुस्लिम दम्पत्ति के खिलाफ गोमांस खाने के लिए नामजद। उनका खाने का डब्बा भी थाने में जमा करा लिया गया है। उसे फोरेंसिक जाँच के लिए भेजा जाना है, ताकि पता चल सके कि उनके खाने के डिब्बे में मौजूद मांस किसका है- पीटने वालों के कथनानुसार गाय का, या मुस्लिम दम्पत्ति के अनुसार बकरे का। 


‘जब अभी इसकी जाँच होनी बाकी है, तो पीटा क्यों?’

नदीम एकदम गुस्से में आ गया, वह बालकनी से लगे कमरे में आ गया और कुर्सी पर बैठ गया। उसकी आँखें अभी भी फोन पर टिकी हुई हैं, लेकिन अब दिमाग फोन पर नहीं, कहीं और अटका हुआ है। दिमाग की तरह ही उसके चौड़े माथे पर पसीना भी अटका हुआ है। दोनों को वहाँ से निकलने के लिए किसी सहारे की ज़रूरत है। अटके हुये इसी मन में उसने तय किया कि वह कभी भी यात्रा में मांसाहारी खाना ले कर नहीं चलेगा। लेकिन वह यात्रा पर जाता ही कहाँ है, वह भी बीवी के साथ तो कभी भी नहीं गया, न ही ऐसी कोई संभावना ही है। घर, ससुराल नाते-रिश्तेदारी सब इस शहर में है, जाये भी तो कहाँ। सपरिवार कहीं घूमने जाये, ऐसे आर्थिक हालात भी तो नहीं है। बेटे को अच्छे से पढ़ा ले, यही बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। हिना ज़रूर कई बार कह चुकी है कि एक बार 13 साल के बेटे को ट्रेन की सवारी करा दी जाय, इस बहाने ही कहीं घूमने चला जाय। नदीम ने बेटे सूफी से वादा किया है कि वह उसे जल्दी ही ट्रेन से ले कर कहीं जायेगा। अभी इस वक्त अकेले में नदीम चुपचाप अपना वादा तोड़ रहा है।


‘इस सरकार के रहते तो मैं कभी सपरिवार यात्रा करूंगा ही नहीं....। अरे मांस तो बहाना है, हमारा नाम ही काफी है पीटे जाने के लिए......। कुछ साल पहले ईद के ही समय जुनैद को नहीं मार डाला था ट्रेन में? उसने कौन सा मांसाहारी खाने का डिब्बा लिया था? उसके तो कपड़े ही काफी थे उसे पीटे जाने के लिए।’


जुनैद की हत्या याद आते ही उसके कान गरम हो गये, दिमाग सांय-सांय करने लगा, ताज़ा निकले माथे के पसीने ने पुरानी बूंदों को ढकेल दिया और वो लुढ़क कर चेहरे पर आ गईं। उसने अपना पसीना पास रखे अँगोछे से पोछा और उठ कर किचन में चला आया। हिना जल्दी-जल्दी बेटे का टिफिन तैयार कर रही थी, और सूफी से बहस भी कर रही थी। आलू का पराठा तवे पर सिंक रहा था, टिफिन में अचार पहले ही रखा जा चुका था, लेकिन सूफी बगल वाले कमरे से ही तैयार होते हुए चिरौरी कर रहा था कि आज टिफिन में कल का बचा कबाब भी रख दिया जाय। हिना उसे समझाने की कोशिश कर रही थी-

‘‘बेटा गर्मी बहुत ज्यादा है कहीं खराब न हो जाय, घर पर आ कर खा लेना’’


सूफी किचन में आ कर माँ के बगल में खड़ा हो गया और शरारत से मुस्कुरा कर बोला-

‘‘लंच से पहले ही खा लेंगे मम्मा, अंकित ने कहा था, बकरीद के बाद आना तो कबाब जरूर लाना।’’


‘‘लंच के पहले कैसे खा लोगे, मैम देख लेंगी तो?...फिर दोनों को पड़ेगी...। अंकित को घर पर बुला कर खिला दो न।’’ 


हिना ने बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की।


‘‘नहीं देखेंगी मैम, मम्मा रख दो यार’’ सूफी ने हिना का गाल खींचते हुए चिरौरी की।


‘‘अरे... हटो... ठीक है भइया, ले जाओ, जाते ही खिला देना।’’


सूफी खुश हो कर शर्ट की बटन लगाता कमरे की ओर भागा। हिना ने फ्रिज से कबाब के चार गोले निकाले और तवे पर सिंकने के लिए रख दिया। यह देख कर नदीम एकदम से बिफर गया-

‘‘क्या कर रही हो हिना, उसकी हर ज़िद मानना जरूरी है क्या?.... टिफिन में कबाब मत भेजो।’’ 


अंतिम लाइन उसने गुस्से के साथ थोड़ी लाचारी में भी कहा। नदीम के अप्रत्याशित हस्तक्षेप से हिना चौंक गयी और उसकी ओर देख कर बोली-

‘‘क्या हुआ?’’


‘‘तुम कुछ पढ़ती-वढ़ती तो हो नहीं, देश दुनिया में क्या हो रहा है कुछ पता है?’’


हिना समझ गयी कि आज फिर कोई ख़बर आ गयी है। नदीम की चिन्ता अब उस पर भी छा गयी। उसने आशंकित नज़रों से उसकी आँख में झाँकते हुए धीरे से फिर वही सवाल पूछा- ‘‘क्या हुआ?’’


नदीम फोन लेकर एकदम से उस पर टूट ही पड़ा-

‘‘ये देखो... पढ़ो... टिफिन में गाय का मांस बोल कर मुसलमान मियां बीवी को पीट दिया हिन्दुओं ने...। वो तो कहो कि उनकी जान बच गयी है.... और तुम ‘हिन्दू दोस्त’ को खिलाने के लिए कबाब भेज रही हो...। कल को.. कल को जाने क्या-क्या इल्ज़ाम लगा डालेंगे वे...।’’


हिना उसकी बात के बीच में ही बोल पड़ी-

‘‘अरे तो हमारा कबाब कौन सा गाय के मांस से बना है।’’


वह तवे पर कबाब को पलटने लगी, जिससे नदीम को और भी गुस्सा आया कि इतनी जरूरी ख़बर पढ़ने की बजाय हिना कबाब पलट रही है। वह एकदम से फट पड़ा-

‘‘कबाब देख कर कैसे पता चलेगा कि गोमांस है या नहीं? जब तक फोरेंसिक रिपोर्ट आयेगी, तब तक तो हम उनसे पिट चुके होंगे, हो सकता है कि हमारी जान भी चली जाय और कब्रिस्तान में हमारी लाश गल भी चुकी हो।’’ 


यह सब बोलते हुए नदीम ने फिर से गुस्से से उसकी ओर फोन बढ़ाया-

‘‘लो पढ़ो पहले।’’


नदीम का बढ़ता गुस्सा देख कर हिना ने मोबाइल उसके हाथ से ले लिया और पढ़ना शुरू कर दिया, उसके चेहरे पर भी तनाव गाढ़ा होता गया, सरसरी निगाह से पढ़ने के बाद चुपचाप फोन नदीम के हाथ में पकड़ा दिया। वह भी सोच में पड़ गयी। इतने में सूफी अपना टिफिन लेने किचन में आ गया। हालांकि नदीम भरसक अपनी आवाज दबाकर बात कर रहा था, लेकिन सूफी आशंकित हो गया था। उसे ये समझ में आ गया था कि ‘आज पापा को गुस्सा आने की फिर से कोई वजह मिल गयी है उनसे थोड़ा बच कर रहना है।’ हिना ने कनखियों से नदीम की ओर देखते हुए चार सिंके हुए कबाब को टिफिन में रखते हुए कहा-

‘‘अरे बच्चे हैं, स्कूल में ऐसा थोड़े ही होगा, इतने भी बुरे दिन नहीं आये हैं अभी।’’ 


सूफी खुश हो कर टिफिन ले कर बस्ते की ओर भागा, उसे बैग में रख कर सीढ़ियों से नीचे उतर गया।


नदीम के चेहरे पर गुस्सा और बेबसी दोनों एक साथ नज़र आने लगी। सूफी के जाने के बाद हिना ने उसका गुस्सा शान्त करने के लिए कहा-

‘‘बच्चे हैं, ऐसा कुछ नहीं होगा...। लेकिन आगे से नहीं दूंगी... स्कूल से आयेगा तो समझा दूंगी,... उसे अभी से ये सब समझना भी चाहिए।’’





नदीम वहाँ से हट कर कमरे में चला गया, लेकिन उसके कान में हिना का यह वाक्य अटक गया ‘‘अभी इतने बुरे दिन नहीं आये हैं।’’ ऑफिस में तो लोग उससे यह बोलते ही थे और अब हिना भी....। आखिर लोग कैसे दिन को बुरा दिन कहेंगे? जुनैद की अम्मी भी यही सोचती रही होगी- ‘अभी इतने बुरे दिन नहीं आये’, कल ट्रेन में पिटने वाले मिया-बीवी भी यही सोचते रहे होंगे, ‘अभी इतने बुरे दिन नहीं आये’....। नदीम के दिमाग में लिंचिंग की ढेरों देखी-सुनी घटनायें घटित होने लगीं। वास्तव में ऐसी घटनायें इसलिए भी खतरनाक होती हैं कि जमीन पर तो यह एक बार ही घटित होती है, लेकिन कई-कई दिमागों में यह कई-कई बार घटित होती है। उसके दिमाग में विचारों का तूफान चलने लगा, जिस पर उसका नियंत्रण खतम हो गया। अचानक वह उठा और सीढ़ियों से नीचे उतर गया। मोटरसाइकिल बाहर निकाली और स्टार्ट कर चल पड़ा। पीछे से दी गयी हिना की आवाज को उसने अनसुनी कर दी या शायद सुनाई ही न दी हो। उसकी मोटरसाइकिल सूफी के स्कूल की ओर बढ़ रही थी। सूफी दोस्तों के साथ तेजी से साइकिल चलाते हुए स्कूल के गेट तक पहुँच चुका था और साइकिल से उतर कर साइकिल का हैण्डिल थामे दोस्तों से ‘हाय-हेलो’ करता हुआ गेट की ओर बढ़ रहा था, जब नदीम ने उसे आवाज दी। सूफी रूक गया और आशंकित हो कर पापा को देखने लगा। मोटरसाइकिल खड़ी कर नदीम सूफी के करीब आया और उसके बैग से टिफिन बाहर निकाल लिया। वह जल्दी से मुड़ा और मोटरसाइकिल की डिक्की में टिफिन को डाल कर किक मारने लगा। दोस्तों के सामने हुई इस घटना से सूफी एकदम हतप्रभ हो गया, उसकी आँखें लाल और तरल हो गयी, उसका भोला चेहरा एकदम निरीह लगने लगा। तभी अचानक नदीम ने स्टार्ट मोटरसाइकिल बंद कर दी और सिर झुकाये गेट की ओर बढ़ते सूफी को आवाज़ दी, सूफी वहीं रूक गया, लेकिन नदीम की ओर नहीं बढ़ा। नदीम मोटरसाइकिल से उतर कर खुद उसके पास गया और उसे 100 की नोट पकड़ाते हुए धीरे से बोला-


‘‘लंच टाइम में कुछ खरीद कर खा लेना, दोस्तों को भी खिलाना।’’ सूफी के चेहरे का भाव इससे नहीं बदला, नज़र झुकाये-झुकाये उसने नोट ले ली और जेब में रख कर गेट के अन्दर घुस गया। उसका उतरा हुआ चेहरा देखकर नदीम फिर से बेचैन हो गया, लेकिन ये वाली बेचैनी पहले वाली बेचैनी से काफी कम थी और अलग भी। बेटे को वह शाम को कहीं घुमा लायेगा, ऐसा सोचते हुए वह दुखी मन से आगे बढ़ गया। वह जितनी बदहवासी में सूफी के पीछे आया था, उतनी ही सुस्त रफ्तार से घर लौट रहा था। आधे रास्ते पहुँचने पर उसके दिमाग में कौंधा कि उसने स्कूल के सामने बच्चे से टिफिन छीना है, इसलिए कोई उसका पीछा कर रहा है। उसने मोटरसाइकिल तेज कर दी, उसे लगा कि पीछे वाले आदमी की मोटरसाइकिल की रफ्तार भी तेज हो गयी है, उसने एक गली में अपनी मोटरसाइकिल घुसा ली और गली-गली होता हुआ बदहवास सा घर पहुँचा। इस समय कोई भी उसे देख कर बता सकता था कि उसके दिमाग में तूफान मचा हुआ है। मोटरसाइकिल से टिफिन निकाल कर वह ऊपर पहुँचा, जहाँ हिना उसका बेसब्री से इंतजार कर रही थी, आते ही उसने हिना से कहा-

‘‘हिना कोई मेरा पीछा कर रहा है उसे पता चल गया है कि टिफिन में कबाब है, इसे छिपा दो।’’


हिना भी एकदम परेशान और आशंकित हो गयी, घबरा भी गयी। नदीम ने खुद ही टिफिन खोल कर गरम-गरम कबाब को कचरे के डिब्बे में डाल दिया। फिर हिना से पूछा-

‘‘फ्रिज में और तो नहीं है न।’’


हिना ने न ‘हाँ’ कहा न ही ‘न’। वह इस स्थिति को समझने में अपना पूरा दिमाग लगा रही थी कि नदीम ने जो बताया है, वो भ्रम है या असलियत। असल में भी तो ये हो ही सकता है, हो ही रहा है, इसलिए इसे कोरा भ्रम कैसे मान ले भला? उसे जो बात सबसे पहले सूझी वो ये, कि उसने अपना फोन उठाया और पास में ही रहने वाले नदीम के भाई को फोन मिला कर तुरन्त घर बुला लिया। नदीम को उसने समझाया कि ‘भाईजान का यहाँ रहना जरूरी है।’ जब तक भाईजान आ कर स्थिति को और समझते और संभालते वह नदीम को पानी-चाय देती रही और खुद भी उससे सवाल पूछ-पूछ कर मामले को समझने की कोशिश करती रही। थोड़ी-थोड़ी देर पर उसकी नज़रें बालकनी से बाहर की ओर ताक ही लेती थी। लेकिन वहां सब कुछ ठीक नज़र आ रहा था। उसे लगने लगा कि नदीम को भ्रम हुआ होगा, वह उसे यथासंभव शान्त करने की कोशिश करती रही और तमाम तरह के तर्क देती रही-


‘‘उस आदमी ने तो बंद टिफिन देखा होगा ना, उसे कैसे पता कि अन्दर क्या है?... उसे कैसे पता कि हम मुसलमान हैं... आज तो आपने कुरता-पायजामा और टोपी भी नहीं पहनी है... और आपको कैसे पता कि वो आपका पीछा ही कर रहा है...? उसका भी घर इधर ही होगा, इसलिए वो पीछे आ रहा होगा’’। 


उतने में भाईजान आ गये। आते ही हिना के पहले नदीम ने अपनी तरफ से ही जल्दी-जल्दी पूरी बात बताई-


‘‘भाईजान.. भाईजान, हिना ने सूफी के टिफिन में कबाब रख कर भेजा था..। मैं किसी तरह टिफिन ले आया, लेकिन मुझे किसी ने देख लिया है और उसने मेरा पीछा किया...। भाईजान इससे बोलिये कि वो सूफी के टिफिन में साग-सब्जी ही भेजा करे...। और इससे कहिये कि ...ये फ्रिज में रखा कबाब फेंक दे, वो... वो आदमी भीड़ को लेकर आता ही होगा।’’


भाईजान ने एक नज़र हिना की ओर डाली, जो अब ख़ौफज़दा नहीं, बल्कि परेशान थी। फिर बाहर की ओर एक नज़र डाली, स्थिति को समझने की कोशिश की। हिना की आँखों ने बिना बोले काफी कुछ समझा दिया था। नदीम को कई बार ऐसा लग चुका है, इसलिए उसके आस-पास के लोगों को समझना पड़ता है, कि मामला सही है या सिर्फ भ्रम है। लेकिन समाज में ऐसी घटनायें घटती ही जा रही हैं, इसलिए हर बार भ्रम मानने की भूल भी तो नहीं की जा सकती। पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद भाईजान ने उसे समझाते हुए कहा-

‘‘अरे भाई जिसे आना होता इतनी देर में आ ही गया होता...। ऐसे ही कोई आदमी अपने रास्ते जा रहा होगा, उसे इससे क्या मतलब है कि तुम्हारे टिफिन में या फ्रिज में क्या रखा है।... तुम निश्चिन्त रहो, अभी इतने बुरे दिन नहीं आये हैं, तुम बेकार ही ये सब सोचते रहते हो।’’ 


‘अभी इतने बुरे दिन नहीं आये हैं’ ये सुनते ही नदीम आग बबूला हो गया और पास-पड़ोस का लिहाज किये बगैर चिल्लाने लगा-

‘‘अख़लाक याद है आपको... उसके घर की ही नहीं, फ्रिज की भी तलाशी ले ली थी उन लोगों ने...। आप लोगों को ये सब पता नहीं कब समझ में आयेगा कि कितने बुरे दिन हैं ये...। हमारा हर सामान... हर सामान.. हमारा ज़िंदा और मरा हुआ शरीर तक खंगाला जा रहा है... और आप लोगों को लगता है कि इतने बुरे दिन अभी नहीं आये हैं?’’


चिल्लाते-चिल्लाते वह पसीने-पसीने हो गया और गिर पड़ा। भाईजान और हिना उसे उठाने के लिए उस पर झुके तो देखा, उसके दिमाग ने इससे ज्यादा तनाव लेने से इंकार कर दिया है... वह बेहोश हो चुका था।


‘‘पानी का छींटा दे कर उसे पास के डाॅक्टर के पास ले गये थे, उन्होंने दवा दी और आपके पास दिखाने को भी कहा, तो.. इसलिए आज यहाँ आये।’’





हिना की आवाज़ डूबती हुई सी आ रही थी। अपनी बात खतम कर उसने डाॅक्टर की ओर चिंता के साथ देखा। डाॅक्टर साब ने चुपचाप काफी गम्भीरता के साथ हिना की पूरी बात सुनी, जबकि उनके उठने का समय हो चुका था। लेकिन हिना ने यह सब अब सोचा। डाॅक्टर ने हिना से पूछा- 

‘‘पहली बार हुआ है ऐसा, या पहले भी हो चुका है?’’ 


‘हाँ, इसके पहले भी एक बार..., इण्टरव्यू लाइव करते समय उनको गुस्सा आ गया किसी बहुत बड़े आदमी पर चीखने-चिल्लाने लगे थे... और शायद कैमरे के सामने ही हुआ ये सब...। उसी के कुछ दिन बाद उन्हें काम से निकाल दिया गया था।’


‘‘उन्होंने कुछ बताया नहीं, किस बात पर उन्हें गुस्सा आ गया था?.. अच्छा उस दिन घर आ कर वे गुस्से में थे या अफसोस था?


हिना ने दूर दीवार पर अपनी आँखों को स्थिर किया और उस दिन को याद करने लगी।


नदीम उस दिन समय से पहले घर आ गया, रोज़ की तरह कपड़ा बिना बदले ही गैलरी में चहलकदमी करने लगा। हिना समझ गयी कि उसके साथ आज कुछ गड़बड़ हुई है, आँखों में सवाल लिए वह नदीम के सामने जा कर खड़ी हो गयी। नदीम ने उसे देखा और देखते ही बोलना शुरू कर दिया-

‘‘बोल रहा था आज का भारत हिटलर की जर्मनी से बेहतर है।... तो क्या करें?... बोलें कि सब अच्छा है?... आज के समय को उस समय से नापते हैं सब.. और कहते हैं अभी उतने बुरे दिन नहीं आये हैं।’’ 


बोलते वक्त वह अपने दोनों हाथ ज़ोर-ज़ोर से हिला रहा था। आखिरी लाइन कहते हुए उसने एक हथेली को दूसरी हथेली पर मुट्ठी बना कर ज़ोर से मारा और दूसरी ओर मुड़ गया। हिना को बात समझ में आई तो, लेकिन पूरी नहीं। वह घर के अन्दर आई और एक गिलास में ठण्डा पानी भर कर उसके सामने फिर से पहुँच गयी। उसके हाथ में गिलास पकड़ाते हुए बोली-

‘‘अन्दर आइये, कपड़े बदल लीजिये चाय बना रही हूँ।’’


नदीम ने पानी का गिलास पकड़ लिया, लेकिन पिया नहीं, वह हिना के पीछे-पीछे रसोई घर में आ गया रसोई के दरवाजे पर खड़ा हो कर वह फिर ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगा-

‘‘उनके कुकर तो कुकर होते हैं हिना, हमारे कुकर उन्हें बम दिखते हैं, हमारे कपड़ों का वे मज़ाक बनाते हैं....। अरे कपड़ों से पहचान कर हमें लिंच किया जा रहा है, हमें यहाँ से खदेड़ा जा रहा है हिना, कोई क्यों नहीं समझता यह सब।’’

 

उसकी आवाज़ में तल्खी बढ़ती जा रही थी। हिना को घबराहट सी होने लगी, यह घबराहट नदीम के व्यवहार के कारण थी या वह जो कुछ बोल रहा था उसे महसूसने के कारण, यह उसे समझ में नहीं आ रहा था। उसकी स्थिति अजीब थी, जो घटनायें नदीम को प्रभावित करती थीं, वे उसे भी करती थीं, अपनी दुआ में वो नदीम सूफी और घर-परिवार के लोगों की हिफाज़त ही माँगती थी। लेकिन वह अपने जज़्बात नदीम के सामने नहीं रख सकती थी, वो तो पहले से ही इन घटनाओं से जज़्बाती हो कर घर लौटता था। वह सुनाता था, वह सुन लेती थी, कई बार उसे समझाती भी थी। उसे समझाते हुए उसे लगता था कि वह अपने को छल रही है, लेकिन नदीम और खुद के सुकून के लिए यह छल ज़रूरी भी था। लेकिन आज तो मामला सुनाने से ज्यादा है, सुनाने में चिंता से अधिक बेचैनी और बेबसी थी। वह चुपचाप उसे सुनती हुई चाय में चीनी और चायपत्ती डाल रही थी। अचानक नदीम उसके एकदम करीब आ गया और एक हाथ से उसे झिंझोड़ते हुए बोला-

‘‘तुम इन सबके बारे में क्यों नहीं सोचती हो, यहाँ औरतों के पेट फाड़ कर बच्चे निकाल लिये जाते हैं, रेप होता है रेप।’’


नदीम के इस अचानक के व्यवहार से हिना एकदम डर गयी, उसने नदीम को परे ढकेल दिया और दोनों कान पर हाथ रख कर बाहर आ गयी। इससे नदीम को और ज़्यादा बेबसी महसूस होने लगी, उसे लगा कि उसे समझने वाला कोई नहीं है। बेबसी में उसने हाथ में पकड़ी हुई पानी की गिलास जमीन पर पटक दी, जिससे वह चकनाचूर हो कर पूरे रसोईघर में फैल गयी।


‘‘हमारी शादी के 14 साल में उन्होंने पहली बार ऐसा व्यवहार किया था, मैं बुरी तरह डर गयी थी, मुझे लगा कि अब वे मुझे पीटेंगे, लेकिन उसके बाद वे घर से बाहर निकल गये और एक घण्टे बाद वापस आये। वे बहुत थके और डिप्रेस्ड लग रहे थे। वे कमरे में घुसे और कमरे की लाइट बन्द कर लेट गये, खाना भी मुश्किल से बहुत कहने पर खाया।’’ 


हिना थोड़ी देर के लिए चुप हो गई। डाॅक्टर ने भी कुछ नहीं कहा।


‘‘नौकरी छूटने के बाद से उन्हें और ज़्यादा गुस्सा आने लगा है’’ 


हिना ने यह कह कर अपनी बात खतम की।


‘‘हूंहूंहूं... लगता है उनमें मुस्लिम सेंटिमेण्ट थोड़ा ज्यादा है, इसलिए उन्हें ज़्यादा गुस्सा आता है।’’


हिना ने डाॅक्टर की ओर प्रश्नवाचक नज़र से देखा, लेकिन कहा कुछ नहीं, ऐसा लगा कि कहे को जज़्ब कर गयी, बस इतना कहा-


‘‘जो हो रहा है वो सब सुन कर किसी को दुख होता है और किसी को गुस्सा आता है, सेण्टिमेंट तो हम सभी में है।’’


डाॅक्टर मिश्रा चुप हो गये और कुर्सी से खड़े हो गये, इसलिए हिना को भी खड़े होना पड़ा।


‘‘ठीक है जो दवा लिखी है, एक सप्ताह तक रोज़ रात के खाने के बाद दे देना, न खायें तो खाने में मिला कर दे देना, फिर लेकर आना तो और दूसरी दवायें लिखूंगा।’’


नदीम दवा नहीं खाना चाहता, डाॅक्टर के कहे अनुसार हिना उसे खाने के किसी हिस्से में मिला ही देती है। वह रात भर सोता है और दिन भर सुस्त पड़ा रहता है। ‘उसे ऐसे देखना अच्छा तो नहीं लगता, लेकिन उसे नार्मल करने के लिए ये सब करना ही पड़ेगा’। हिना ने भाईजान को कहा और इस बहाने खुद को भी समझाया। 


एक सप्ताह बाद जब डाॅक्टर के यहाँ उसे ले जाया जा रहा था, तो वह सीधी-साधी गाय की तरह भाई और बीवी के साथ चल पड़ा।


नम्बर आते ही हिना ने उसे डाॅक्टर के चैम्बर में भेजा। बिना किसी ना नुकुर के वह तुरन्त चला गया। सामने वाली कुर्सी पर बैठने के पहले उसने डाॅक्टर से नमस्कार भी किया। डाॅक्टर ने सवाल किया-


‘‘कैसे हो?’’

‘‘जैसे आपने मुझे सुला दिया और सुस्त कर दिया, वैसे ही सारे भक्तों को कर दीजिये डाॅक साब।’’


‘‘उन्हें इसकी जरूरत होगी तो कर दूँगा’’ डाक्टर ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।


‘‘ज़रूरत तो है, आपको दिख नहीं रहा....। वे मेरी हत्या कर देंगे... सिर्फ मेरे धर्म के कारण, तब भी आपको नहीं लगेगा कि ज़रूरत है।’’


‘‘आपमें मुस्लिम सेंटिमेंट थोड़ा ज्यादा है, यही आपकी समस्या है नदीम मियां।’’


‘‘आप हिन्दू हैं इसलिए आपको दिखता ही नहीं कि मेरे बाहर कहीं कोई समस्या है, आप लोगों को सारी समस्यायें हमारे अन्दर देखने की आदत हो गयी है मिश्रा जी।’’


डाॅक्टर मिश्रा फिर से बार-बार उन्हें ‘मिश्रा जी’ बुलाने से खीझ रहे थे। उसे छुपाते हुए वे बोले-


‘‘हाँ, इंसान पर समाज का गहरा असर होता है....। आप पर भी होगा.....। लेकिन मूल बात तो आपकी सोच ही है....। समाज में क्या है..... थोड़ी-बहुत प्राब्लम तो हमेशा रहती है..... हो सकता है इस समय थोड़ी ज़्यादा समस्या हो, लेकिन इतने बुरे दिन अभी नहीं आये हैं..........।’’


नदीम का दिमाग सनसनाने लगा, दिमाग में भूचाल सा आ गया, आगे डाॅक्टर ने क्या बोला उसे कुछ सुनाई नहीं दिया। दवा के असर वाली सुस्ती पर यह दिमागी भूचाल भारी पड़ने लगा। वह कुर्सी पर से उठ कर खड़ा हो गया और चिल्ला कर बोला-

‘‘आपको मालूम है मुसलमान होने के नाते कितने लोगों को लिंच कर मारा जा चुका है? ‘अखलाक, जुनैद, रकबर खान, पहलू खान, तबरेज़ अंसारी, नासिर खान, जुनैद खान, जहीरूद्दीन, अब्दुल अंसारी, नासिर कुरैशी, फिरोज अहमद कुरैशी, नसीम, लुकमान अंसारी, लितान मियां...।’’ 


डाक्टर सकपका गया। नदीम एक-एक कर देश भर में हुई लिंचिंग की कई घटनायें मंत्रोत्चार की तरह बोलने लगा। उसकी आवाज लगातार ऊँची होती जा रही थी। डाक्टर ने सहयोगियों को अन्दर बुलाने के लिए काॅलबेल बजा दी और एक-एक कर ढेर सारे लोग अन्दर आ गये। अन्दर आये लोग उसे घेर कर खड़े हो गये। अपने को घिरा देख कर नदीम घबरा गया, उसे लगा कि अब उसकी भी लिंचिंग शुरू होने वाली है, उसका दिमाग सनसनाने लगा, उसे पहले डर लगा, वह पसीने-पसीने होने लगा। जल्दी ही डर गुस्से में बदल गया, उसका चेहरा लाल हो गया। अचानक उसका हाथ आगे बढ़ा, उसने डाॅक्टर की मेज पर रखा पेपरवेट उठा कर डाॅक्टर की ओर उछाल दिया, डाक्टर के माथे से खून की धार बह निकली। लोगों ने उसे पकड़ लिया और थप्पड़ लगाने लगे। शोरगुल बाहर पहुँचने में थोड़ी देर लगी। लेकिन जब पहुँचा तो हिना और भाईजान भी दौड़ते हुए अन्दर आ गये, उन्होंने पीटने वालों को रोका, लेकिन तब तक नदीम को काफी पीटा जा चुका था। डाॅक्टर को मरहम पट्टी के लिए वहाँ से ले जाया जा चुका था। नदीम का चेहरा लाल था, उसका दिल हथौड़े की तरह बज रहा था, होठों के एक कोर से खून बह रहा था, कपड़े अस्त-व्यस्त और शरीर पसीने से भीगा हुआ, अभी भी वह इस अप्रत्याशित घटना को समझने की कोशिश ही कर रहा था। बल्कि वे तीनों ही इस घटना को समझने की कोशिश में थे। हिना और भाईजान सन्न थे, फिर भी दोनों नदीम को और उसके कपड़ों को ठीक करने में लगे थे। हिना ने अपने पास रखी बोतल से उसे पानी पिलाया और रूमाल से हवा झलने लगी। किसी को पता नहीं था कि आखिर हुआ क्या। तीनों अभी इससे संभल ही रहे थे, कि चार लम्बे-चौड़े आदमी वहाँ फिर से आ गये और नदीम को खींच कर ले जाने लगे। उन्होंने नदीम के हाथ को जंजीरों से बाँध दिया, उसे इंजेक्शन दे कर एक कमरे में बंद कर दिया।  


नदीम एकदम चुप हो गया। उसके शरीर पर चोट के ढेरों निशान उभरे हुए थे। अपमान के निशान उससे भी ज़्यादा थे, जिसे हिना साफ-साफ देख पा रही थी। उसकी हालत देख कर हिना की कई दिन से रूकी हुई रूलाई फूट पड़ी। हिना का दुख ये भी था कि उसके आँसू पोछ कर उसे थपकी देने वाला आज उसे रोता देख कर जाली के उस पार शिथिल खड़ा था। रोते हुए हिना के मुँह से निकला-


‘‘इतने बुरे दिन देखने पड़ेंगे, कभी सोचा भी नहीं था।’’ 


हिना की बात सुन कर नदीम के शिथिल शरीर में एक कम्पन हुआ जैसे नींद से चौंक कर जागा हो-


‘‘अरे.... मुसलमान होने के बावजूद उन्होंने पीट-पीट कर मेरी हत्या नहीं की और मैं ज़िन्दा हूँ..... देखो न..... अभी इतने भी बुरे दिन नहीं आये हैं।’’


नदीम ज़ोर से हँसने लगा। हिना के पूरे शरीर में सिहरन हुई और उसका पूरा शरीरशरीर में जड़ी दो आँखें पूरी तरह जड़ हो गयीं।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

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