प्रभा मुजुमदार की कविताएं



डॉ. प्रभा मुजुमदार

जन्म:  10.04.1957, इन्दौर (म.प्र.)

एम.एस-सी. पी-एच.डी.(गणित), तेल एवम प्राकृतिक गैस निगम में भूवैज्ञानिक के तौर पर 35 वर्ष कार्यकाल के बाद  उपमहाप्रबंधक (तेलाशय) के पद से 2017 में सेवानिवृत। 

5 कविता संग्रह ‘अपने अपने आकाश’ (2003), ‘तलाशती हूँ जमीन’ (2010), ‘अपने हस्तिनापुरों में’ (2014), “सिर्फ स्थगित होते हैं युद्ध” (2019) तथा “नकारती हूँ निर्वासन” (2025) प्रकाशित, अनेक साझा संग्रहों में प्रकाशन, कविता के अतिरिक्त छिटपुट व्यंग, आलेख, समीक्षा, कथा लेखन। प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं मे प्रकाशन। 



प्रभा मुजुमदार की कविताएं 


जिद


लगातार होती पराजय,

निराश तो करती हैं

मगर डराती नहीं अब,

न ही अहसास कराती हैं

किसी कमतरता  का। 


सब कुछ खत्म हो जाने के बावजूद,

बचा ही रहता है

नए आरंभ का एक विश्वास। 

आँसू, वेदना और

रोष के तीखे कड़वे पलों,

संशय और अंतर्द्वंद्व के जलजलों,

अवसाद भरी रातों

और निरुद्देश्य लगती

दिनचर्या के बीच,

अचानक महक उठती है 

आकांक्षाओं की कोई  बगिया।


धूप और चाँदनी से

अपने हिस्से की उजास पा कर 

इंद्रधनुष के सारे रंगों को समेट, 

परखता है मन, 

धरती और आसमान का मिज़ाज। 


मोहभंग के

कड़वे अनुभवों,

छले जाने के

यथार्थ-बोध के बीच,

अनबीते नहीं हो जाते

सुख-सुकून, मान-मनुहार के

असंख्य आत्मीय पल।

दरक नहीं जाते

विश्वास की डोर से बंधे,

सम्बन्धों के मौन संबल।


उम्मीदें

दामन नहीं छोड़तीं,

इतनी आसानी से।

आँखें नहीं कहतीं,

सपनों को अलविदा।


और 

एक बार फिर

पराजित हो जाती है

पराजय।


 

रिश्ते 


रिश्तों के आईने में 

देखती हूँ 

अपने अलग-अलग प्रतिबिंब।

समझती हूँ 

लय थिरकन ऊर्जा,

कभी रीत जाने का अहसास। 

स्वागत की गुनगुनाहट,

या ठंडी बेजान जबरन की मुस्कान।   


आँखों के नम होने  

या पथरा जाने के अहसास। 

अलग लोगों के लिए जिए 

अपने ही अलग-अलग हिस्सों की  

पहचान करती हूँ। 


रिश्तों की धरती पर 

टहलते हुए पाती हूँ 

सौंधी मिट्टी की महक, 

हरियाली की चादर, 

फूलों की बगिया,

तो कहीं तपते रेगिस्तान 

और कटीली नागफणी के जंगल। 


कुछ निश्छल प्रांजल

कलकल 

अविरत बहती नदियां, 

कुछ सूख गई 

गंदला गई। 

बरसाती नदी का 

उफान उतरने के बाद 

किनारों पर 

उपेक्षित पड़े रहने का 

अहसास भी हुआ है मुझे।   

रिश्तों के अन्तरिक्ष में

कुछ अपने-से  लगते

सूरज-चंद्र,  

कुछ सुदूर नक्षत्र,

आकाशगंगाएँ,

यूं ही टहलते आ जाते 

पुच्छल तारे

और सब कुछ निगलने को तत्पर 

ब्लैकहोल्स भी....


जिंदगी भर 

कितनी ही पाठशालाओं के बावजूद 

पहेली ही बने रहे 

रिश्तों के सूत्र और समीकरण



शब्द


खामोशी में ड़ूबे कुछ शब्द

सहमे और बेबस, 

थके, दुःखी और आहत

घुप्प अंधेरे में, 

अपना वजूद तलाश रहे हैं। 


बचा रहे हैं अपने को 

विद्रुप चेहरों की आँखों से

झरते अंगारों में 


झुलस जाने से,

हिंस्त्र पशुओं सी दहाड़ 

वीभत्स हंसी, अश्लील चुटकुलों 

गालियाँ और धमकियों के बीच

सहमें ठिठके हुए हैं।


देख रहे हैं 

उन्माद के सैलाब में

उत्सव मनाती भीड़

को तालियाँ पीटते, 

जीने के अधिकार को 

किसी धर्म किसी नस्ल का

पर्याय बना कर,

निरंकुश सेनाओं को 

तत्काल न्याय करते देख, 

वक्त की नब्ज 

महसूस कर रहे हैं। 


सभ्यताओं की नदियों को 

कंटीले रेगिस्तानों में

गुम होते 

या सड़ांध मारते 

गंदले नाले में बदलते देख, 

शब्द 

तलाश रहे हैं

अपनी झुलसती क्यारियों को  

बचा सकने के विकल्प। 

उन्हें विश्वास है 

नफरती हवा 

प्रदूषित पानी 

और खाद के नाम 

जहरीले रसायनों से 

भर दी गई क्यारियों की 

गहरी तहों के भीतर, 

जरूर बचा ही होगा 

अपनी मिट्टी का स्वाद 

रंग और खुशबू।



जड़ें जिन्दा है 


उग आती है जब भी,

मन की चट्टानी, 

पथरीली कठोर जमीन पर 

थोडी सी नर्म घास, 

जिन्दा हो जाता है तब

अपने जीने का अहसास।


जब भी गिद्धों, बाजों 

और चीलों के कब्जाये आकाश से, 

उड़ उड़ कर लौट आती है 

नन्हीं सी एक चिड़िया,

मेरे स्वप्न,

फिर बादलों में तैरने लगते हैं।


समर्पण और समझौतों की, 

अन्धेरी और 

गहराती सुरंगों के भीतर 

उम्र दर उम्र गुजरते हुए, 

जब भी सुलगी है

मेरे भीतर हल्की सी चिंगारी,

उजास की वही छोटी सी किरण

लौटा कर लायी है

मेरा खोया हुआ वजूद।

बिखरे विश्वासों 

और आस्थाओं का आलोक 

जिन्दा होने का अटूट अहसास भी।



भस्मासुर 


भस्मासुर कभी खत्म नहीं होते

अपनी ही राख से 

संजीवनी पा कर 

उठ खडे होते है।

फिर फिर पाते है 

विध्वंस शक्ति का वरदान 

आक्रांताओं आतताईयों के खेल में 

उनकी उपयोगिता खत्म नहीं होती।



विभाजन


जमीन पर खींची 

एक विभाजक रेखा का 

नाम नहीं है 

सीमा।

यूं एक ही दिन में 

नहीं खींच जाती है सीमा रेखा। 

बरसों, दशकों या सदियों की 

पृष्ठभूमि 

आकार देती है इसे। 


सबसे पहले 

मन में ही खिंचती है दीवार। 

मन की धरती ही 

बंटती है द्वीपों में,

बीहड़, खाई और टीले, 

अपना अलग संसार रचते है, 

तो उभर आते हैं कहीं 

नागफणियों के जंगल।  


छोटे छोटे मतभेद,

मनभेद बन जाते हैं। 

सद्भाव के पुल,

मतलब की गरजती लहरों में 

ढह जाते हैं। 

अलगाव का एक अंकुर 

पनपने लगता है 

आशंकाओं की घनी झड़ियों में। 


मस्तिष्क 

जुटा लेता है 

अनुकूल तथ्य, संदर्भ और आंकड़े। 

मौजूद ही रहती हैं, 

कच्ची दीवारों को 

कंक्रीट-सी मजबूती देने,

आवाजाही को 

बंद करने को तत्पर, 

कुछ साजिशें।  


नफरत का सुनामी 

इतिहास और भूगोल ही नहीं,

धर्म, राष्ट्र और राजनीति को भी 

परिभाषित करने लगता है। 

घोषित हो जाते हैं, 

अपने लोग,

अपनी जमीन

रातों-रात पराए ही नहीं 

दुश्मन भी।  


कुछ भी हो सकता है 

नफरत का नाम। 

कुरुक्षेत्र से ले कर 

गाजा पट्टी, 

कहीं भी हो सकती है

वह खूनी विभाजक रेखा।


   

शेष 


 खौलता हुआ दूध

 उफनता गिरता रहा 

 पतीले की परिधि के बाहर।

 घड़ी भर खड़ी अपनी तंद्रा में 

 सोचती रही मैं, 

 बरसों से जमीं ठहरी चीजें 

 थोड़ी सी आंच पाते ही 

 कैसे उफन जाती हैं। 

 मोम सी पिघल जाती हैं, 

 लावा बन बहने लगती हैं

 तो कभी 

 भाँप बन उठ जातीं हैं। 


 आंच कोई भी हो,

 बदल देती है 

 सब की अवस्था, 

 रूप और आयतन, 

 रंग और गुण-धर्म,

 क्रिया-प्रतिक्रिया की 

 अपनी विशिष्ठिता। 


 बची हुई यह 

 मुट्ठी भर राख 

 ठंडी और बेजान 

 निष्क्रिय निस्पंद....

 विश्वास ही नहीं होता 

 इसमें समाए हुए हैं 

 चहकते मचलते हुए,

 सपनों अरमानों, 

 प्रेम और तृप्ति से महकते,

 अभिमान में दिपदिपाते, 

 वेदना से भीगे,  

 हताश उदास बिखरे...

 जिंदगी के सारे पन्ने।


इन दिनों


इन दिनों

पलकों की कोर में

नहीं झिलमिलाते मोती।

आंखों ने ही

सोख लिए हैं सारे आंसू।


इन दिनों

लुप्त हो गई है

ओठों पर से हंसी,

लिपिस्टिक की पर्ते

और गहराती हुई

उनके रंग कुछ अधिक चटकीले।


इन दिनों

बढ़ते जा रहे हैं नाखून

बेतहाशा... 

और नुकीले होते जा रहे

हथियारों की तरह।


इन दिनों

ख़त्म हो गए है

आपस के सारे संवाद

सन्नाटे के खंडहरों में

गूँजती हैं निश्शब्द चीखें।


इन दिनों

सुनाई नहीं पड़ती

बच्चों की किलकारियाँ

माँओं की लोरियाँ।

अक्सर कानों पर पड़ता है

अपना ही अट्टाहास

क्रूर, वीभत्स, भयावह...


इन दिनों

अक्सर पूछने लगी हूं अपने से

क्या जिंदा रहना जरूरी है

इस तरह? 



आभारी हूं मै नदी


एक पहाड़

मेरे भीतर लगातार

उठता चला जा रहा है

महात्वाकांक्षा की किसी 

छोटी सी तलहट से आरंभ हो कर

बहुत ऊपर जाना चाहता है

आकाश को चीर कर....

उसके उत्तुंग शिखर

मेरे हाथों की पहुंच से बहुत परे।

अपने तमाम विजयी दर्प

एवं दंभ के बावजूद

निरंतर दुर्गम और एकाकी होते जाना

भीतर ही कहीं डरा देता है मुझे।


एक विराट सागर

लगातार उफन गरज़ रहा है

मेरे ही आवेगों की लहरों को समेटे हुए।

उस ज्वार और भाटे के बीच

कभी बहती हूं बेसुध

तो कभी हतप्रत, निष्प्राण सी

किनारों पर टटोलती हूं

वक्त ने क्या-क्या बाकी 

छोड़ा है मेरे लिए

एक स्थायी खारेपन के अलावा।


एक मरुस्थल

जो फैलता जा रहा है

अनियंत्रित, निरंकुश सा

तमाम हरियाली को रौंदता हुआ,

फल और फूलों के पेड़ों को

ठूंठ बनाता हुआ।

कल-कल बहते छोटे छोटे झरने

कब का लील चुका है वह

लू के थपेड़ों में झुलसते 

पानी की बूंद-बूंद के लिए

भटकते हुए,

मै बचाती हूं अपने को

नागफणियों के दंश से,

जो फैली है मेरे इर्द-गिर्द 

अपनी ही ईर्ष्याओं-संकीर्णताओं से।


यहाँ कभी जंगल थे

जिनमें बसा ली है मैंने

स्वार्थों और लालसाओं की

अट्टालिकाएँ।

अब यहां मखमली दूब में

कुलांचे नहीं भरते 

मासूम आकांक्षाओं के हिरण, 

किसी उत्सव का आभास देते

पखेरूओं के बोल

न मालूम कब से सुनाई नहीं दिये।

तीखे कर्कश हार्न के साथ

दनदनाती है गाड़ियां 

समृद्धि की चमचमाती राहों पर।


मेरे तरल अहसासों की

एक नदी

जिंदगी के तमाम पथरीले रास्तों

दुर्गम वादियों, कटींली झाड़ियों के बीच

अनवरत बहती रही।

उस नदी को मैं 

कुछ भी नहीं दे सकी

अवरोधों के अलावा। 


आभारी हूं मैं नदी

बचाए रखी तुमने 

मेरे भीतर थोड़ी सी मिठास

प्रांजल शीतलता

प्रवाह और तरलता

निश्छलता और निरंतरता,

वर्तमान के 

एक भयावह ठहराव के बावजूद।



तुम्हारे आकाश में


मेरे मटमैले आकाश में 

तुमने भर दिया था

असंख्य सितारों का आलोक. 

सूनी बंजर 

कंटीली सी धरती में 

खिल उठी थी सुंदर-सी एक बगिया।

सूखे तपते मरुस्थल में 

कल-कल बह उठी थी

प्रांजल सी नदियां।

अमावस के अंधेरे को चीरती

उजास की रेखाएँ,

एक रंग-बिरंगी इंद्रधनुष

झिलमिला उठा था,

रंगों और सपनों के 

खुशनुमा अहसासों के साथ।

एक गीत बज उठा था

उदास चुप्पी की

सर्द तहों को झंकारते हुए। 

 

तुम्हारी नन्हीं हथेलियों ने

मेरे हाथों में भर दिये थे

तमाम रेशमी अहसास।

असंख्य दीप जल उठे थे  

तुम्हारी हंसी से,

और काली बदलियों भरी रातें 

जगमगा उठी थी,

तुम्हीं आँखों में बसे 

नन्हें सूरज की उजास से।


तुम्हारी मुट्ठियों में

समाया था एक ब्रह्माण्ड….

अभिभूत हो उठी थी मैं

तुम्हें बाहों में भर कर,

जैसे तीनों लोकों का साम्राज्य

समेट लिया हो मैंने।


जितना भी कुछ दे सकी तुम्हें,

पाती रही उससे बहुत अधिक।

लौट आए मेरे पास इंद्रधनुष के सारे रंग,

आस, ऊर्जा और उल्लास,

साहस और संयम,

स्वप्न और संकल्प। 


बहुत कुछ सीखा....

सीखती ही रही तुमसे।

तुम्हारे मासूम प्रश्नों के आगे

बहुत बौना साबित हुआ

मेरे ज्ञान अनुभव का गुमान।

तुम्हारे कौतूहल ने सिखाया मुझे,

दुनिया के साथ

एक बार फिर अपने को तलाशना.

नई पहचान रंगों की, 

पक्षियों के गीतों की,

मरुस्थलों के विस्तार, 

हरियाली की परतों,

नदियों के प्रवाह,

और सागर की गहराई की।


नक्षत्रों सी 

तुम्हारी आकांक्षाओं के, 

अद्भुत अपरिमित आकाश में 

मैंने भी सीखा,

अपने पंखो को फैलाना 

फिर एक बार उड़ सकना। 


 

सिर्फ स्थगित होते है युद्ध


अंतिम नहीं होती है पराजय। 

कोई भी जीत

निर्विवाद नहीं होती।


सिर्फ स्थगित होते हैं युद्ध

ख़त्म नहीं होते कभी।


एक युद्ध का परिणाम

निर्धारित करता है

आगामी जंग का आरंभ

समय, सीमा, दिशा.......

जीत के जश्न बढाते हैं

प्रतिशोध में लिए गए

संकल्पों के तेज।

इतिहास दोहराता है अपने को

नए नामों और चेहरों के साथ।


देखो समूचा ब्रह्मांड  ही

एक युद्धस्थल बन गया है,

इस कौरव पांडवों खेल में

और मूक प्यादे बने हम

अभिशप्त हैं

एक खेमे को चुनने के लिए।

खुदगर्जी और अहंकार के लिए,

एक और धर्मयुद्ध को

जारी रखने के लिए।



सम्पर्क 


B 8/803 ला मरीना 

शांति ग्राम, एस जी  हाई वे, 

गांधी नगर 382421    

(गुजरात)


मोबाइल : 9969221570.   

ई मेल : mujumdarprabha@gmail.com


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