ममता कालिया की कहानी 'बोलने वाली औरत'

 

ममता कालिया 


भारतीय परिवेश में आमतौर पर बहुओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी जुबान सिल कर रहें। परिवार में छोटे हो या बड़े, सबके आदेशों का न केवल पालन करे बल्कि उनकी सोच के अनुरूप कार्य करने के लिए तत्पर रहे। अगर बहू ने अपनी कोई जायज बात भी कह दी तो उसे जुबान लड़ाने वाली या ज्यादा बोलने वाली ठहरा दिया जाता है। घर वाले यह कभी ध्यान भी नहीं देते कि बहू एक दूसरे घर से इस घर में आई है और उसके एडजस्ट करने में उसकी हरसंभव मदद करनी चाहिए। ममता कालिया की कहानियों में स्त्री विमर्श बिना किसी अतिरिक्त शोरो गुल के कहानी की लय की तरह ही आता है। आज ममता कालिया का जन्मदिन है। उन्हें जन्मदिन की बधाई देते हुए आज पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कहानी 'बोलने वाली औरत'।



(कहानी) 

'बोलने वाली औरत'  


ममता कालिया



“यह झाड़ू सीधी किसने खड़ी की? बीजी ने त्योरी चढ़ा कर विकट मुद्रा में पूछा। जवाब न मिलने पर उन्होंने मीरा को धमकाया, इस तरह फिर कभी झाड़ू की तो...।”


वे कहना चाहती थीं कि मीरा को काम से निकाल देंगी, पर उन्हें पता था कि नौकरानी कितनी मुश्किल से मिलती है। फिर मीरा तो वैसे भी हमेशा छोड़ू-छोड़ूँ मुद्रा में रहती थी।


'मैंने नहीं रखी’ — मीरा ने ऐंठ कर जवाब दिया।


'क्यों रखी थी! तुझे इतना नहीं मालूम कि झाड़ू खड़ी रखने से घर में दलिद्दर आता है, क़र्ज़ बढ़ता है, रोग जड़ पकड़ लेता है।


“यह तो मैंने कभी नहीं सुना।


“जाने कौन गाँव की है तू। माँ के घर से कुछ भी तो सीख कर नहीं आई। काके का काम वैसे ही ढीला चल रहा है, तू और झाड़ू खड़ी रख, यही सीख है तेरी!


मेरा ख़याल है झाड़ू ग़ुसलख़ाने के बीचोबीच भीगती हुई, पसरी हुई छोड़ देने से दलिद्दर आ सकता है। तीलियाँ गल जाती हैं, रस्सी ढीली पड़ जाती है और गन्दी भी कितनी लगती है।


“आज तो मैंने माफ़ कर दिया, फिर भी कभी झाड़ू खड़ी न मिले, समझी!


इस बात में कोई तुक नहीं है बीजी, झाड़ू कैसे भी रखी जा सकती है।


बीजी झुँझला गई। कैसी जाहिल और ज़िद्दी लड़की ले आया है काका। लाख बार कहा था — इस कुदेसिन से ब्याह न कर, पर नहीं, उसके सिर पर तो भूत सवार था।


शिखा को हँसी आ गई। बीजी अपने को बहुत सही और समझदार मानती हैं, जबकि अकसर उनकी बातों में कोई तर्क नहीं होता।


उसे हँसते देख  कर बीजी का ख़ून खौल गया।


इसे तो बिलकुल अक़ल नहीं, उन्होंने मीरा से कहा।


बीजी चाय पिएँगी? शिखा ने पूछा।


बीजी उसकी तरफ़ पीठ करके बैठी रहीं। शिखा की बात का जवाब देना, वे ज़रूरी नहीं समझतीं। वैसे भी उनका ख़याल था कि शिखा के स्वर में ख़ुशामद की कमी रहती है।


शिखा ने चाय का गिलास उनके आगे रखा तो वे भड़क गईं, वैसे ही मेरा क़ब्ज़ के मारे बुरा हाल है, तू चाय पिला-पिला कर मुझे मार डालना चाहती है।


शिखा ने और बहस करना स्थगित किया और चाय का गिलास ले कर कमरे में चली गई।





शिखा का शौहर, कपिल अपने घर वालों से इन अर्थों से भिन्न था कि आमतौर पर उसका सोचने का एक मौलिक तरीक़ा था। शादी के ख़याल से जब उसने अपने आस-पास देखा, तो कॉलेज में उसे अपने से दो साल जूनियर बी.एस-सी. में पढ़ती शिखा अच्छी लगी थी। सबसे पहली बात यह थी कि वह उन सब औरतों से एकदम अलग थी, जो उसने परिवार और अपने परिवेश में देखी थीं। शिखा का पूरा नाम दीपशिखा था, लेकिन कोई नाम पूछता तो वह महज नाम नहीं बताती, मेरे माता-पिता ने मेरा नाम ग़लत रखा है। मैं दीपशिखा नहीं, अग्निशिखा हूँ। वह कहती।


अग्निशिखा की तरह ही वह हमेशा प्रज्वलित रहती, कभी किसी बात पर, कभी किसी सवाल पर। तब उसकी तेज़ी देखने लायक़ होती। उसकी वक्तृता से प्रभावित हो कर कपिल ने सोचा वह शिखा को पा कर रहेगा। पढ़ाई के साथ-साथ वह पिता के व्यवसाय में भी लगा था, इसलिए शादी से पहले नौकरी ढूँढ़ने की उसे कोई ज़रूरत नहीं थी। बिना किसी आडम्बर, दहेज़ या नख़रे के एक सादे समारोह में वे विवाह-सूत्र में बँध गए। शिखा उसकी आत्मनिर्भरता, ख़ूबसूरती और स्वतन्त्र सोच से प्रभावित हुई। तब उसे यह नहीं पता था कि प्रेम और विवाह दो अलग-अलग संसार हैं। एक में भावना और दूसरे में व्यवहार की ज़रूरत होती है। दुनिया भर में विवाहित औरतों का केवल एक स्वरूप होता है। उन्हें सहमति-प्रधान जीवन जीना होता है। अपने घर की कारा में वे क़ैद रहती हैं। हर एक की दिनचर्या में अपनी-अपनी तरह का समरसता रहती है। हरेक के चेहरे पर अपनी-अपनी तरह की ऊब। हर घर का एक ढर्रा है जिसमें आपको फ़िट होना है। कुछ औरतें इस ऊब पर शृंगार का मुलम्मा चढ़ा लेती हैं पर उनके शृंगार में भी एकरसता होती है। शिखा अन्दाज़ लगाती, सामने वाले घर की नीता ने आज कौन-सी साड़ी पहनी होगी और प्रायः उसका अन्दाज़ ठीक निकलता। यही हाल लिपिस्टक के रंग और बालों के स्टाइल का था। दुख की बात यही थी कि अधिकांश औरतों को इस ऊब और क़ैद की कोई चेतना नहीं थी। वे रोज़ सुबह साढ़े नौ बजे सासों, नौकरों, नौकरानियों, बच्चों, माली और कुत्तों के साथ घरों में छोड़ दी जातीं, अपना दिन तमाम करने के लिए। वही लंच पर पति का इन्तज़ार, टी. वी. पर बेमतलब कार्यक्रमों का देखना और घर -भर के नाश्ते, खाने — नखरों की नोक-पलक सँवारना। चिकनी महिला - पत्रिकाओं के पन्ने पलटना, दोपहर को सोना, सजे हुए घर को कुछ और सजाना, सास की जी-हुज़ूरी करना और अन्त में रात को एक जड़ नींद में लुढ़क जाना।


कपिल के घर आते ही बीजी ने उसके सामने शिकायत दर्ज की — "तेरी बीवी तो अपने को बड़ी चतुर समझती है। अपने आगे किसी की चलने नहीं देती। खड़ी-खड़ी जबाब टिकाती है।”


कपिल को ग़ुस्सा आया। शिखा को एक अच्छी पत्नी की तरह चुप रहना चाहिए, ख़ासतौर पर माँ के आगे। इसने घर को कॉलेज का डिबेटिंग मंच समझ रखा है और माँ को प्रतिपक्ष का वक्ता। उसने कहा, मैं उसे समझा दूँगा, आगे से बहस नहीं करेगी।


उलटी खोपड़ी की है बिलकुल। वह समझ ही नहीं सकती।— माँ ने मुँह बिचकाया।


रात, उसने कमरे में शिखा से कहा,— "तुम माँ से क्यों उलझती रहती हो दिन-भर!"


“इस बात का विलोम भी उतना ही सच है।"


“हम विलोम-अनुलोम में बात नहीं कर रहे हैं, एक सम्बन्ध है जिसकी इज़्ज़त तुम्हें करनी होगी।"


"ग़लत बातों की भी!"


माँ की कोई बात ग़लत नहीं होती।


“कोई भी इंसान परफेक्ट नहीं हो सकता।”


कपिल तैश में आ गया — "तुमने माँ को इम्परफ़ेक्ट कहा। तुम्हें शर्म आनी चाहिए। तुम हमेशा ज़ियादा बोल जाती हो और ग़लत भी।"


"तुम मेरी आवाज़ बंद करना चाहते हो।"


"मैं एक शान्त और सुरुचिपूर्ण जीवन जीना चाहता हूँ।"


शिखा अन्दर तक जल गई इस उत्तर से क्योंकि यह उत्तर हज़ार नए प्रश्नों को जन्म दे रहा था। उसने प्रश्नों को होठों के क्लिप से दबाया और सोचा, अब वह बिलकुल नहीं बोलेगी, यहाँ तक कि ये सब उसकी आवाज़ को तरस जाएँगे।





लेकिन यह निश्चय उससे निभ न पाता। बहुत जल्द कोई-न-कोई ऐसा प्रसंग उपस्थित हो जाता कि ज्वालामुखी की तरह फट पड़ती और एक बार फिर बदतमीज़ और बदजुबान कहलाई जाती। तब शिखा बेहद तनाव में आ जाती। उसे लगता घर में जैसे टॉयलेट होता है ऐसे एक टॉकलेट भी होना चाहिए, जहाँ खड़े हो कर वह अपना ग़ुबार निकला ले, ज़ंजीर खींच कर बातें बहा दे और एक सभ्य शान्त मुद्रा से बाहर आ जाए। उसे यह भी बड़ा अजीब लगता है कि वह लगातार ऐसे लोगों से मुख़ातिब है, जिन्हें उसके इस भारी-भरकम शब्दकोश की ज़रूरत ही नहीं है। घर को सुचारू रूप से चलाने के लिए सिर्फ़ दो शब्दों की दरकार थी — जी और हाँ जी।


“कल छोले बनेंगे?"


"जी, छोले बनेंगे।"


"पाजामों के नाड़े बदले जाने चाहिए।”


"हाँ जी, पाजामों के नाड़े बदले जाने चाहिए।"


उसने अपने जैसी कई स्त्रियों से बात कर के देखा, सबमें अपने घर-बार के लिए बेहद सन्तोष और गर्व था।


हमारे तो ये ऐसे हैं। हमारे तो ये वैसे हैं, जैसा कोई नहीं हो सकता।


हमारे बच्चे तो बिलकुल लव-कुश की जोड़ी है। हमारा बेटा तो पढ़ने में इतना तेज़ है कि पूछो ही मत। शिखा को लगता उसी में शायद कोई कमी है जो वह इस तरह सन्तोष में लबालब भरकर ’मेरा परिवार महान’ के राग नहीं अलाप सकती।


रातों को बिस्तर में पड़े-पड़े वह देर तक सोती नहीं, सोचती रहती, उसकी नियति क्या है। न जाने कब कैसे एक फ़ुलटाइम गृहिणी बनती गई, जबकि उसने ज़िन्दगी की एक बिलकुल अगल तस्वीर देखी थी। कितना अजीब होता है कि दो लोग बिलकुल अनोखे, अकेले अन्दाज़ में इसलिए नज़दीक आएँ कि वे एक-दूसरे की मौलिकता की क़द्र करते हों और महज़ इसलिए टकराएँ, क्योंकि अब उन्हें मौलिकता बरदाश्त नहीं।


दरअसल वे दोनों अपने-अपने खलनायक के हाथों मार खा रहे थे। यह खलनायक था — रूटीन, जो जीवन की ख़ूबसूरती को दीमक की तरह चाट रहा था। कपिल चाहता था कि शिखा एक अनुकूल पत्नी की तरह रूटीन का बड़ा हिस्सा अपने ऊपर ओढ़ ले और उसे अपने मौलिक सोच-विचार के लिए स्वतन्त्र छोड़ दे। शिखा को भी यही उम्मीद थी। उनकी ज़िन्दगी का रूटीन या ढर्रा उनसे कहीं ज़ियादा शक्तिशाली था। अलस्सुबह वह कॉलबेल की पहली कर्कश ध्वनि के साथ जग जाता और रात बारह के टन-टन घण्टे के साथ सोता। बीजी घर में इस रूटीन की चौकीदार तैनात थीं। घर की दिनचर्या में ज़रा-सी भी देर-सबेर उन्हें बर्दाश्त नहीं थी। शिखा जैसे-तैसे रोज़ के काम निपटाती और जब समस्त घर सो जाता, हाथ-मुँह धो, कपड़े बदल एक बार फिर अपना दिन शुरू करने की कोशिश करती। उसे सोने में काफ़ी देर हो जाती और अगली सुबह उठने में भी। उसके सभी आगमी काम थोड़े पिछड़ जाते। बीजी का हिदायतनामा शुरू हो जाता, यह आधी-आधी रात तक बत्ती जला कर क्या करती रहती है तू। ऐसे कहीं घर चलता है! ससुर 1940 में सीखा हुआ मुहावरा टिका देते, “अर्ली टु बेड एंड अर्ली टु राइज़" वग़ैरह-वग़ैरह। हिदायतें सही होतीं, पर शिखा को बुरी लगतीं। वह बेमन से झाड़ू-झाड़न पोचे का रोज़नामचा हाथ में उठा लेती, जबकि उसका दिमाग़ किताब, काग़ज़ और क़लम की माँग करता रहता। कभी-कभी छुट्टी के दिन कपिल घर के कामों में उसकी मदद करता। बीजी उसे टोक देतीं,— "ये औरतों वाले काम करता, तू अच्छा लगता है। तू तो बिलकुल जोरू का ग़ुलाम हो गया है।"


घर में एक सहज और सघन सम्बन्ध को लगातार ठोंक-पीटकर यान्त्रिक बनाया जा रहा था। एकान्त में जो भी तन्मयता पति-पत्नी के बीच जन्म लेती, दिन के उजाले में उसकी गर्दन मरोड़ दी जाती। बीजी को सन्तोष था कि वे परिवार का संचालन बढ़िया कर रही हैं। वे बेटे से कहतीं,— “तू फ़िकर मत कर। थोड़े दिनों में मैं इसे ऐन पटरी पर ले आऊँगी।”





पटरी पर शिखा तब भी नहीं आई, अब दो बच्ची की माँ हो गई। बस, इतना भर हुआ कि उसने अपने सभी सवालों का रुख़ अन्य लोगों से हटा कर कपिल और बच्चों की तरफ़ कर लिया। बच्चे अभी कई सवालों के जवाब देने लायक़ समझदार नहीं हुए थे, बल्कि लाड-प्यार में दोनों के अन्दर एक तर्कातीत तुनकमिजाज़ी आ बैठी थी। स्कूल से आ कर वे दिन-भर वीडियो देखते, गाने-सुनते, आपस में मार-पीट करते और जैसे-तैसे अपना होमवर्क पार लगा कर सो जाते। कपिल अपने व्यवसाय से बचा हुआ समय अख़बारों, पत्रिकाओं और दोस्तों में बिताता। अकेली शिखा घर की कारा में क़ैद घटनाहीन दिन बिताती रहती। वह जीवन के पिछले दस सालों और अगले बीस सालों पर नज़र डालती और घबरा जाती। क्या उसे वापस अग्निशिखा की बजाय दीपशिखा बन कर ही रहना होगा, मद्धिम और मधुर-मधुर जलना होगा। वह क्या करे, अगर उसके अन्दर तेल की जगह लावा भरा पड़ा है।


उसे रोज़ लगता कि उन्हें अपना जीवन नए सिरे से शुरू करना चाहिए। इसी उद्देश्य से उसने कपिल से कहा,— "क्यों नहीं हम दो-चार दिन को कहीं घूमने चलें।"


“कहाँ?"


“कहीं भी। जैसे जयपुर या आगरा।”


"वहाँ हमें कौन जानता है। फ़िज़ूल में एक नई जगह जा कर फँसना।


“वहाँ देखने को बहुत कुछ है। हम घूमेंगे, कुछ नई और नायाब चीज़ें ख़रीदेंगे, देखना, एकदम फ़्रेश हो जाएँगे।"


"ऐसी सब चीज़ें यहाँ भी मिलती हैं, सारी दुनिया का दर्शन जब टी०वी० पर हो जाता है, तो वहाँ जाने में क्या तुक है?"


“तुक के सहारे दिन कब तक बिताएँगे?"


बच्चों ने इस बात का मज़ाक बना लिया, — “कल को तुम कहोगी, अंडमान चलो, घूमेंगे।”


“इसका मतलब अब हम कहीं नहीं जाएँगे, यहीं पड़े-पड़े एक दिन दरख़्त बन जाएँगे।"


"तुम अपने दिमाग़ का इलाज कराओ, मुझे लगता है तुम्हारे हॉरमोन बदल रहे हैं ।"


"मुझे लगता है, तुम्हारे भी हॉरमोन बदल रहे हैं।"


"तुम्हारे अन्दर बराबरी का बोलना एक रोग बनता जा रहा है। इन ऊलजलूल बातों में क्या रखा है?"


शिखा याद करती वे प्यार के दिन जब उसकी कोई बात बेतुकी नहीं थी। एक इनसान को प्रेमी की तरह जानना और पति की तरह पाना कितना अलग था। जिसे उसने निराला समझा वहीं कितना औसत निकला। वह नहीं चाहता जीवन के ढर्रे में कोई नयापन या प्रयोग। उसे एक परम्परा चाहिए, जी-हुज़ूरी की। उसे एक गाँधारी चाहिए, जो जानबूझ कर न सिर्फ़ अन्धी, हो बल्कि गूँगी और बहरी भी।


बच्चों ने बात दादी तक पहुँचा दी। बीजी एकदम भड़क गईं — “अपना काम-धन्धा छोड़ कर काका जयपुर जाएगा, क्यों, बीवी को सैर कराने। एक हम थे, कभी घर से बाहर पैर नहीं रखा।


“और अब जो आप तीर्थ के बहाने घूमने जाती हैं वह?" शिखा से नहीं रहा गया।


"तीरथ को तू घूमना कहती है! इतनी ख़राब जुबान पाई है तूने, कैसे गुज़ारा होगा तेरी गृहस्थी का!


“काश! गोदरेज कम्पनी का कोई ताला होता मुँह पर लगाने वाला, तो ये लोग उसे मेरे मुँह पर जड़ कर चाबी सेफ़ में डाल देते," — शिखा ने सोचा,— “सच ऐसे कब तक चलेगा जीवन।


बच्चे शहजादों की तरह बर्ताव करते। नाश्ता करने के बाद जूठी प्लेटें कमरे में पड़ी रहतीं मेज़ पर। शिखा चिल्लाती, यहाँ कोई रूम-सर्विस नहीं चल रही है, जाओ, अपने जूठे बर्तन रसोई में रख कर आओ।


“नहीं रखेंगे, क्या कर लोगी, बड़ा बेटा हिमाक़त से कहता।"


न चाहते हुए भी शिखा मार बैठती उसे।


एक दिन बेटे ने पलट कर उसे मार दिया। हल्के हाथ से नहीं, भरपूर घूँसा मुँह पर। होठ के अन्दर एक तरफ़ का माँस बिलकुल चिथड़ा हो गया। शिखा सन्न रह गई। न केवल उसके शब्द बन्द हो गए, जबड़ा भी जाम हो गया। बर्तन बेटे ने फिर भी नहीं उठाए, वे दोपहर तक कमरे में पड़े रहे। घर भर में किसी ने बेटे को ग़लत नहीं कहा।


बीजी एक दर्शक की तरह वारदात देखती रहीं। उन्होंने कहा, हमेशा ग़लत बात बोलती हो, इसी से दूसरे का ख़ून खौलता है। शुरू से जैसी तूने ट्रेनिंग दी, वैसा वह बना है। ये तो बचपन से सिखाने वाली बातें हैं। फिर तू बर्तन उठा देती तो क्या घिस जाता।


उन्हीं के शब्द शिखा के मुँह से निकल गए — “अगर ये रख देता तो इसका क्या घिस जाता।


“बदतमीज़ कहीं की, बड़ों से बात करने की अक़ल नहीं है। बीजी ने कहा।


ससुर ने सारी घटना सुन कर फिर 1940 का एक मुहावरा टिका दिया,— "एज यू सो, सो शैल यू रीप"


कपिल ने कहा,— "पहले सिर्फ़ मुझे सताती थीं, अब बच्चों का भी शिकार कर रही हो।"


"शिकार तो मैं हूँ, तुम सब शिकारी हो," — शिखा कहना चाहती थी, पर जबड़ा एकदम जाम था। होंठ अब तक सूज गया था। शिखा ने पाया, परिवार में परिवार की शर्तों पर रहते-रहते न सिर्फ़ वह अपनी शक़्ल खो बैठी है, वरन अभिव्यक्ति भी। उसे लगा वह ठूस ले अपने मुँह में कपड़ा या सी डाले इसे लोहे के तार से। उसके शरीर से कहीं कोई आवाज़ न निकले। बस, उसके हाथ-पाँव परिवार के काम आते रहें। न निकलें इस वक़्त मुँह से बोल, लेकिन शब्द उसके अन्दर खलबलाते रहेंगे। घर के लोग उसके समस्त रन्ध्र बन्द कर दें, फिर भी ये शब्द अन्दर पड़े रहेंगे, खौलते और खदकते। जब मृत्यु के बाद उसकी चीर-फाड़ होगी, तो ये शब्द निकल भागेंगे शरीर से और जीती-जागती इबारत बन जाएँगे। उसके फेफड़ों से, गले की नली से, अन्तड़ियों से चिपके हुए ये शब्द बाहर आकर तीखे, नुकीले, कँटीले, ज़हरीले असहमति के अग्रलेख बन कर छा जाएँगे घर भर पर। अगर वह इन्हें लिख दे, तो एक बहुत तेज़ एसिड का आविष्कार हो जाए। फिलहाल उसका मुँह सूजा हुआ है, पर मुँह बन्द रखना चुप रहने की शर्त नहीं है। ये शब्द उसकी लड़ाई लड़ते रहेंगे।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

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