ललन चतुर्वेदी द्वारा की गई समीक्षा 'ख़लल : समय का नग्न यथार्थ'
अपने अपने जीवन का युद्ध सभी को खुद अपने हथियारों से ही लड़ना पड़ता है। यह लड़ाई तब और दुरूह हो जाती है जब परिस्थितियां विपरीत हों। जब मनुष्यता को ताक पर रख कर जाति, नस्ल, धर्म, वर्ग, भाषा को वरीयता प्रदान की जाती है। हाल ही में प्रकाशित संतोष दीक्षित का उपन्यास हमारे समय की विडंबनाओं को शिद्दत से उद्घाटित करता है। कवि ललन चतुर्वेदी इसकी समीक्षा करते हुए उचित ही लिखते हैं 'ख़लल एक ऐसा उपन्यास है जिसमें अनेक पात्र है, पुरुष और स्त्री भी लेकिन यहाँ कोई नायक या नायिका नहीं सब अपने-अपने जीवन का युद्ध लड़ रहे हैं। वास्तव में इस उपन्यास का नायक मुर्गियाचक ही है। हकीकत यह है कि देश के हर शहर में ढूँढने पर अनेक मुर्गियाचक मिल जायेंगे। यह वर्तमान समय की त्रासदी है कि हर मुर्गियाचक अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्षरत हैं। कितने मुर्गियाचक तथाकथित विकास की आँधी में बुलडोजर की भेंट चढ़ रहे हैं। जिस प्रकार मॉल कल्चर ने छोटे दुकानदारों को निगलना शुरू कर दिया है, उसी प्रकार इको टूरिज्म के नाम पर कितने गाँव-मोहल्ले नक़्शे से मिटाए जा रहे हैं. आस्था के नए केन्द्रों की डिस्कवरी हो रही है। धर्म का नशा ऐसा चढ़ा है कि लोग विवेकशून्य हो गए हैं। यहाँ तर्क का कोई स्पेस नहीं है। प्रबुद्ध व्यक्ति अपने ही गाँव-मोहल्ले के लोगों के सामने अपनी पीड़ा तक व्यक्त नहीं कर सकता। मुर्गियाचक के माध्यम से लेखक ने वर्तमान समय की व्यथा-कथा रच दी है। इस मुर्गियाचक में हिन्दू, मुसलमान लम्बे समय से मिल-जुल कर स्नेह सद्भाव के साथ रहते आये हैं। यहाँ मुट्ठी भर अगड़े हैं तो पिछड़े भी हैं जिनमें यादव, बनिया आदि विभिन्न वर्गों और वर्णों के लोग शामिल हैं. अधिकांश लोग गरीब तबके से आते हैं, वे निम्न मध्यवर्गीय से भी निम्न स्थिति में हैं। उनके पास रोजी-रोटी का कोई मुफीद साधन नहीं है। उन्हें धर्म से अधिक दो जून की रोटी की जरूरत है लेकिन इसके विपरीत उन्हें धर्म की घूंटी पिला कर बेसुध करने का उपक्रम किया जा रहा है। नए-नए मंदिरों का निर्माण हो रहा है। उसमें नए-नए देव-देवियों की स्थापना हो रही है। भले ही वे शास्त्र सम्मत हों या नहीं, इससे क्या फर्क पड़ता है। लाउडस्पीकर पर सुबह-शाम घंटों कान-फोड़ू आवाज में भजन बज रहे हैं। दुखद यह है कि उनका भक्ति से कोई लेना-देना नहीं है। इस भयानक ध्वनि प्रदूषण में बुजुर्गों-बीमारों की स्थिति तो दयनीय है ही, बच्चों की पढाई लिखी भी बाधित हो रही है। धार्मिक जुलूस भी अब परम्परागत रूप में नहीं, नए सज-धज में निकलते हैं और हर आयोजन के बाद तथाकथित भक्तों की पार्टी होती है जिसमें खाने-पीने की सारी सीमायें टूट जाती है। इसके विरोध में यदि कोई आवाज उठाये तो उसे धर्म-विरोधी करार दिया जाता है। दबंगों के सामने बुद्धिजीवियों की क्या औकात। यह स्थिति कमोबेश सर्वत्र है।' तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं संतोष दीक्षित के उपन्यास खलल पर ललन चतुर्वेदी की समीक्षा।
'ख़लल : समय का नग्न यथार्थ'
ललन चतुर्वेदी
ख़लल वरिष्ठ उपन्यासकार संतोष दीक्षित का पाँचवाँ उपन्यास है। वाणी से एक और सेतु प्रकाशन से उनके तीन अन्य उपन्यास बैल की आँख, घर-बदर और बगलगीर प्रकाशित हो चुके हैं। यहाँ मैं सेतु से प्रकाशित चौथे महत्वपूर्ण उपन्यास 'ख़लल' की चर्चा कर रहा हूँ जो इसी वर्ष प्रकाशित हो कर आया है। चार उपन्यासों का एक ही प्रकाशन गृह से आना पहली ही नजर में लेखक की विश्वसनीयता पर मुहर है।
पठनीयता रचना की पहली शर्त है। यदि कोई किताब बोझिल है तो पाठक उसके दो चार-पन्ने से दो-चार होने के बाद ही उससे किनारा कर लेगा। इस कसौटी पर इस किताब को शत-प्रतिशत अंक देने में कोई कटौती नहीं करूँगा. तीन सौ साठ पृष्ठ की सुदीर्घ काया के बावजूद इसका प्रवाहमान गद्य बांधे रखता है। भाषा की चर्चा पहले इसलिए कि यह सबसे महत्वपूर्ण टूल है जिसके माध्यम से एक लेखक अपने पाठकों से संवाद स्थापित करता है। संतोष जी ने लोक जीवन से जुड़े शब्दों का पूरे कौशल के साथ इस्तेमाल किया है। यह उनकी निपुणता कहूँगा कि उन्होंने पात्रों के डायलाग को हू-ब-हू उन्हीं की भाषा में रख दिया है। इसे पढ़ते हुए सहज ही पाठक पात्रों के साथ हो लेता है और कहिए कि मंद-मंद मुस्कराने लगता है। यहाँ लेखक नहीं, पात्र ही पाठक की अंगुली पकड़ कर अपने साथ दूर-दूर तक ले जाता है और उसे सुनते हुए आप कहीं से बोर नहीं होते। यह कुशल लेखक की सफलता होती है कि उसके पात्र बोलें, सिचुएशन बोले। यहाँ यह भी उल्लेख करना आवश्यक लग रहा है कि लेखक के व्यंग्यकार होने का पूरा-पूरा फायदा इस उपन्यास को मिला है। गद्य हो या पद्य व्यंग्य उसे धारदार कर देता है। लेखक ने पात्रानुकूल स्थानीय बोलियों का प्रयोग कर संवाद में जान डाल दी है। एक बानगी देखिये। सियाराम अम्मा के साथ बाजार से लौट रहे हैं। वे इस बात से खुश हैं कि रिक्शे वाले से भाड़ा तीन रुपये कम में तय हुआ। शिवाला के पास पहुँच कर रिक्शा वाला आगे बढ़ने का नाम नहीं ले रहा है। रोड पर बकझक होने लगती है. "भाड़ा यहीं तक का तय हुआ है" -रिक्शे वाले ने हाथ से माथा का पसीना काछ्ते हुए कहा। इसी बकझक के बीच सियाराम अम्मा को वादा करते हैं कि जब वह कमाएंगे अम्मा के लिए लाल मोटर लायेंगे. अम्मा क्या बोलती हैं, उसे देखिये- "हमें मोटर जरिको न सुहावे है, बंद डिब्बे में बैठ पसीना चुआते रहो.... हुंह ..! मोहरों की लूट और कोयले पर छापा ...अरे मोटर लोगे तो भी घर तक लानी पड़ेगी। हमें बीच सड़क पर हुज्जत जरिको पसंद नहीं।" इस प्रसंग को उदधृत करने का मकसद मात्र इतना ही है कि इस उपन्यास में यत्र-तत्र ठेठ बिहारी हिंदी का ठाठ है। आज जबकि समकालीन कथा-परिदृश्य में लोकभाषा की उपस्थिति विरल होती जा रही है, बहुत कम लेखकों ने इसे बचाए रखा है। यह भाषा इस उपन्यास की बड़ी ताकत है। दूसरी महत्वपूर्ण और सूक्ष्म बात यह कि एक अच्छा लेखक वह है जो स्वयं कम बोले और उसके दृश्य अधिक मुखर हों। पाठक को पढ़ते समय उसकी आँखों में पूरा दृश्य घूमने लगे। सधे हुए लेखक की कलम में कैमरा लगा होता है। हिंदी कथा जगत में रेणु, प्रेमचंद और निर्मल वर्मा कुछ गिने-चुने नाम हैं जो अपनी इस क्षमता का प्रयोग बखूबी करते रहे हैं। निर्मल का तो अंदाज ही जुदा है. संतोष जी के इस उपन्यास में भाषाई—कौशल और दृश्य-संयोजन का अद्भुत तालमेल है।
कथा-वस्तु की और लौटते हुए पहली बात यह कहना चाहूँगा कि इस उपन्यास के आरंभिक पृष्ठों से गुजरते हुए मुझे लगा कि समय (समकाल) को दर्ज करना बहुत कठिन है. कारण यह है कि लोग खुली आँखों से देख रहे होते हैं कि वर्तमान में क्या हो रहा है। दूसरे सूचना प्रौद्योगिकी के विस्फोटक समय में सारी जानकारियां हस्तामलक की तरह सुलभ हैं। ऐसे में पाठक आपको डेविएट करने की कोई छूट नहीं दे सकता। वह लेखक को ही कटघरे में खड़ा कर देगा। इस तरह से यदि थोड़ी भी चूक हुई तो आप पूरी तरह फ्लॉप हो जायेंगे। निष्कर्ष यह कि वर्तमान पर लिखना सबसे बड़ी चुनौती है और इसके अपने खतरे भी हैं। संतोष जी इस खतरे से अवगत हैं। खुशी की बात यह है कि वे जोखिम उठाना जानते हैं। इस प्रकार हम देखें तो यह उपन्यास उनका एक साहसिक प्रयास है. सच है, जो वर्तमान से नजरें चुराए वह लेखक कैसा। हरिशंकर परसाई ने अपने लेखन में ईमानदारी से वर्तमान को लिखा और उनका लेखन शाश्वत हो गया। लिखते समय शायद ही किसी लेखक का ध्यान जाता हो कि कल हो कर उसकी रचना किसी के लिए श्रोत सामग्री होगी. अतः यहाँ सच्चाई से समझौता करना अनैतिक होगा। वर्तमान पर लेखन निष्पक्षता की मांग करता है। आप अपने अनुभव से बाहर जायेंगे तो विश्वसनीयता संकट में पड़ जायेगी। पाठकों के लिए यह संतुष्टि की बात होगी कि संतोष जी ने अपने परिवेश और अनुभव से बाहर जा कर कुछ भी नहीं लिखा है। उनके यहाँ अनुभूति की सच्चाई है और अभिव्यक्ति की सफाई भी। इस जरूरी भूमिका के बाद, अब आपको इत्मीनान से मुर्गियाचक से न्यू मुर्गियाचक तक की सैर कराते हैं।
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| संतोष दीक्षित |
आमतौर पर उपन्यास या काव्य में नायक और नायिका की अवधारणा होती है। फिल्मों में भी होता है। दर्शक या पाठक नायकों के विजयी होने की कामना करते हैं। परन्तु ख़लल एक ऐसा उपन्यास है जिसमें अनेक पात्र है, पुरुष और स्त्री भी लेकिन यहाँ कोई नायक या नायिका नहीं सब अपने-अपने जीवन का युद्ध लड़ रहे हैं। वास्तव में इस उपन्यास का नायक मुर्गियाचक ही है। हकीकत यह है कि देश के हर शहर में ढूँढने पर अनेक मुर्गियाचक मिल जायेंगे। यह वर्तमान समय की त्रासदी है कि हर मुर्गियाचक अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्षरत हैं। कितने मुर्गियाचक तथाकथित विकास की आँधी में बुलडोजर की भेंट चढ़ रहे हैं। जिस प्रकार मॉल कल्चर ने छोटे दुकानदारों को निगलना शुरू कर दिया है, उसी प्रकार इको टूरिज्म के नाम पर कितने गाँव-मोहल्ले नक़्शे से मिटाए जा रहे हैं. आस्था के नए केन्द्रों की डिस्कवरी हो रही है। धर्म का नशा ऐसा चढ़ा है कि लोग विवेकशून्य हो गए हैं। यहाँ तर्क का कोई स्पेस नहीं है। प्रबुद्ध व्यक्ति अपने ही गाँव-मोहल्ले के लोगों के सामने अपनी पीड़ा तक व्यक्त नहीं कर सकता। मुर्गियाचक के माध्यम से लेखक ने वर्तमान समय की व्यथा-कथा रच दी है। इस मुर्गियाचक में हिन्दू, मुसलमान लम्बे समय से मिल-जुल कर स्नेह सद्भाव के साथ रहते आये हैं। यहाँ मुट्ठी भर अगड़े हैं तो पिछड़े भी हैं जिनमें यादव, बनिया आदि विभिन्न वर्गों और वर्णों के लोग शामिल हैं. अधिकांश लोग गरीब तबके से आते हैं, वे निम्न मध्यवर्गीय से भी निम्न स्थिति में हैं। उनके पास रोजी-रोटी का कोई मुफीद साधन नहीं है। उन्हें धर्म से अधिक दो जून की रोटी की जरूरत है लेकिन इसके विपरीत उन्हें धर्म की घूंटी पिला कर बेसुध करने का उपक्रम किया जा रहा है। नए-नए मंदिरों का निर्माण हो रहा है। उसमें नए-नए देव-देवियों की स्थापना हो रही है। भले ही वे शास्त्र सम्मत हों या नहीं, इससे क्या फर्क पड़ता है। लाउडस्पीकर पर सुबह-शाम घंटों कान-फोड़ू आवाज में भजन बज रहे हैं। दुखद यह है कि उनका भक्ति से कोई लेना-देना नहीं है। इस भयानक ध्वनि प्रदूषण में बुजुर्गों-बीमारों की स्थिति तो दयनीय है ही, बच्चों की पढाई लिखी भी बाधित हो रही है। धार्मिक जुलूस भी अब परम्परागत रूप में नहीं, नए सज-धज में निकलते हैं और हर आयोजन के बाद तथाकथित भक्तों की पार्टी होती है जिसमें खाने-पीने की सारी सीमायें टूट जाती है। इसके विरोध में यदि कोई आवाज उठाये तो उसे धर्म-विरोधी करार दिया जाता है। दबंगों के सामने बुद्धिजीवियों की क्या औकात। यह स्थिति कमोबेश सर्वत्र है। मुर्गियाचक में गिने-चुने दो-चार प्रगतिशील बुद्धिजीवी भी हैं जो सिसकते हुए अपना समय गुजार रहे हैं। लेखक को समय की कथा बांचनी है तो कुछ मुख्य पात्रों के माध्यम से कथा का विस्तार होता है। ख़लल की कथा सियाराम सिंह से शुरू होती है और धीरे इसमें मुर्गियाचक के अनेक हिन्दू-मुस्लिम पात्र जुड़ जाते है जो अपनी भूमिका का बखूबी निर्वहन करते हैं। विस्तार से इस पर न जाते हुए कल्कि देवी की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा के लिए भूमि अधिग्रहण और वहां के लोगों के लिए उद्योग-धंधे तथा रोजगार मुहैया के नाम पर एक कुत्सित चक्रव्यूह रचा जाता है जिसमे फंस कर पूरा मुर्गियाचक कभी निकल नहीं पाता है। कुछ लोग जब तक इस षड़यंत्र को समझ पाते तब तक मामला ही रफा-दफा हो जाता है। सियाराम सिंह जिन्हें कभी मुसलमान नाम से डर लगता था वे वास्तविकता को भली-भांति समझ जाते हैं. वह अपने रामलला अपार्टमेन्ट से मुर्गियाचक के अपने मकान में लौट आते हैं। वे यह भी समझ जाते हैं कि असल समस्या हिन्दू या मुसलमान की है ही नहीं। सारा षड़यंत्र तो पूंजी रचती है. राजनेता को सत्ता चाहिए और बिना पूंजी के राजनीति का रोजगार तो एक पल भी नहीं चल सकता। धर्म की चाशनी में राजनीति की जलेबी खूब खिलती है। आम आदमी तो समझ ही नहीं पाता कि यह जलेबी उनके लिए या देश के लिए कितना नुकसानदेह है। सियाराम बाबू अंत में विक्षिप्त सा हो जाते हैं और पुणे में दीवारों पर यत्र-तत्र स्लोगन लिखते पाए जाते हैं। वे न्यायालय में चल रहे मुक़दमे के संदर्भ में बार-बार दरियाफ्त करते हैं। कुल मिला कर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका से मोहभंग की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। मीडिया की तो बात ही मत पूछिए।
उल्लेखनीय है कि इस उपन्यास का फलक बहुत बड़ा है। लेखक अगर चाहता तो इस समय-कथा को सात-आठ सौ पृष्ठों तक ले जा सकता था लेकिन अनेक स्थलों पर संकेत से काम लिया गया है। देखने में सहज बोलचाल की भाषा में रचित इस उपन्यास में कितने लेयर हैं, यह तो गंभीरता से पढने पर पता चलता है। मानव-मन के कितने मनोविकारों को पात्रों के माध्यम से वाणी दी गयी है। इसके कुछ पात्र अनोखे हैं तो कुछ भावुक भी करते हैं। अपेक्षाकृत कम पढ़ा-लिखा जयराम सिंह जो सियाराम सिंह का अनुज है अपना अलग प्रभाव छोड़ता है। उपन्यास में कहीं प्रेम की कुछ छींटे हैं तो कहीं प्रगाढ़ रंग भी हैं। इतनी चीजों को समग्रता में रखने का काम कोई सिद्धहस्त लेखनी ही कर सकती है। बावजूद इसके कहीं कोई दोहराव और दुराव भी नहीं।
एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि यह उपन्यास प्रतिरोध का सशक्त पाठ है। हर लेखक की अपनी शैली होती है और कथा-कहन का अपना ढंग होता है। संतोष जी आँख-मिचौली नहीं खेलते, सीधे मुठभेड़ करते हैं। सरल लिखने के अपने जोखिम होते हैं और यह चुनौती स्वीकार करना सबके बस की बात नहीं है। सत्यता के साथ सरलता और मारक होती है। यहाँ उलझनें हो सकतीं है लेकिन उलझाव नहीं होता। यह लेखक की प्रवृत्ति नहीं बल्कि प्रकृति होती है। वह अपना रास्ता स्वयं चुनता है और उस पर चल कर अपनी मंजिल तक पहुंचता है। ख़लल का अपना रोड मैप है जिसे लेखक ने बड़े मनोयोग से तैयार किया है। यहाँ भटकने और भटकाने की कोई गुंजाइश नहीं है। जो रचनाकार का अभिप्रेत है, उसने उसे बड़ी साफगोई से विश्वसनीय तरीके से प्रस्तुत किया है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इसे पाठक किस रूप में देखते हैं। प्रत्येक पाठक का भी अपना पाठ होता है जो आलोचक के अभिमत से भिन्न भी हो सकता है। बावजूद इसके यह उपन्यास पाठकों के बीच भी प्रिय होना चाहिए। सारांश रूप में कहूंगा कि संतोष दीक्षित ने अपने इस उपन्यास ख़लल में पूंजी, सत्ता और धर्म के तिकड़म को पूरी तरह बेनकाब करने का सफल प्रयास किया है। मैं समझता हूँ कि बिना कोई पूर्वाग्रह के इस उपन्यास को एक बार पढ़ा जाना चाहिए।
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| ललन चतुर्वेदी |
सम्पर्क
ललन चतुर्वेदी
मोबाइल : 9431582801



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