चन्द्रभूषण का आलेख 'महान नागार्जुन, दो पुरानी किंवदंतियों में'
प्राचीन भारत में नागार्जुन नाम के दो अलग अलग व्यक्ति हुए थे। पहले नागार्जुन जहां दार्शनिक थे वहीं दूसरे नागार्जुन रसायनविद थे। नागार्जुन को एक व्यक्ति माने जाने की स्थिति में सात सौ वर्षों का अन्तराल आता है। कोई भी हाड़ मांस वाला व्यक्ति इतनी लम्बी उम्र का जीवन नहीं जी सकता। सहज तर्कबुद्धि इसकी इजाजत नहीं देती। दोनों नागार्जुन के बारे में अलग अलग समयों के साहित्यिक साक्ष्य प्राप्त होते हैं। दार्शनिक नागार्जुन के बारे में महायान की मूलभूत रचना ‘अष्टसहस्रिका प्रज्ञापारमिता’ उल्लेख मिलता है जबकि दूसरे नागार्जुन का जिक्र ‘कथा-सरित्सागर’ में मिलता है, जो ईसा की ग्यारहवीं सदी में कश्मीरी कवि सोमदेव द्वारा रची गई। चन्द्रभूषण इसकी तहकीकात करते हुए लिखते हैं 'हालांकि कथा-सरित्सागर में मौजूद इस किस्से के केंद्र में रसाचार्य नागार्जुन हैं, लेकिन इसका एक पहलू दार्शनिक नागार्जुन से भी मिलता है। वह यह कि नागार्जुन के बारे में किंवदंती प्रसिद्ध है कि बौद्ध भिक्षु बनने से पहले वह अमरावती में किसी सातवाहन राजा के मंत्री थे। ‘बृहत्कथा’ निश्चित रूप से भारत में तंत्र और धात्विक रसायनों का युग शुरू होने से बहुत पहले का ग्रंथ है, लेकिन पुनर्प्रस्तुति के क्रम में दोनों नागार्जुनों से जुड़ी दंत-कथाओं का समावेश संभव है।' चन्द्रभूषण जी आजकल इस समस्या पर विचार करते हुए सिलसिलेवार लिख रहे हैं। इस क्रम में आज हम दूसरी कड़ी प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं चन्द्रभूषण का आलेख 'महान नागार्जुन, दो पुरानी किंवदंतियों में'।
'महान नागार्जुन, दो पुरानी किंवदंतियों में'
चन्द्रभूषण
हफ्ता-दस दिन पहले नागार्जुन पर डाली गई अपनी पिछली पोस्ट में मैंने दार्शनिक नागार्जुन और रसाचार्य (रसायनज्ञ) नागार्जुन को कम से कम पांच सौ साल के अंतर पर हुए दो व्यक्तित्व मानने का आग्रह किया था। दुनिया की तार्किक समझ यही कहती है कि इंसान चाहे कितना भी प्रतापी क्यों न हो, छह-सात सौ साल जिंदा रहना, वह भी लगातार महान बौद्धिक योगदान करते हुए, दुनिया पर अपनी छाप छोड़ते हुए- उसके बूते की बात नहीं है। मानव इतिहास में ऐसा तो क्या, इसके आस-पास का भी कोई व्यक्तित्व दर्ज नहीं है।
लेकिन नागार्जुन नाम के साथ किताबें और किस्से इतने सारे जुड़े हुए हैं कि तर्क बार-बार तेल लेने चले जाते हैं। चीन में बनी हुई उनकी जो भी शक्लें देखने को मिलती हैं, उनमें उनकी आंखों और भौंहों की कमोबेश चीनी बनावट स्वाभाविक है, लेकिन उनके सिर के पीछे पांच-छह सांप भी लहराते दिखाई पड़ते हैं, जिसका चीनी चित्र योजना से कोई संबंध नहीं है। और यह आकृति पांच स्थिर फनों वाले एक शांत मिथकीय नाग की नहीं होती, जो जब-तब बुद्ध पर छत्र ताने दिखाई पड़ जाता है। कई सारे वास्तविक सांप, जिन्हें देख कर झुरझुरी पैदा होती है!
दार्शनिक नागार्जुन के बारे में किस्सा यह चलता रहा है कि महायान की मूलभूत रचना ‘अष्टसहस्रिका प्रज्ञापारमिता’ वे नागलोक से ले कर आए थे। बुद्ध द्वारा कहे गए इन सूत्रों को नागों ने चुरा लिया था इसलिए उनके परिनिर्वाण के कई सदियों बाद तक दुनिया इनके बारे में जान नहीं पाई। लेकिन नागार्जुन का एक छोर चूंकि नागों से ही जुड़ा था, लिहाजा उन्होंने नागलोक पहुंचने का रास्ता खोज लिया और वहां से यह सूत्रसंग्रह पृथ्वी लोक वापस ले आए।
इस किंवदंती के पीछे की दलील खोजने के बहुतेरे उपाय सोचे गए हैं, जिन्हें अभी हम छोड़ देते हैं। यहां दो अलग किंवदंतियों पर बात करते हैं, जो ऐसे तो रसाचार्य नागार्जुन के बारे में हैं, लेकिन दोनों का ही एक टांका दार्शनिक नागार्जुन से भी भिड़ा हुआ लगता है। दोनों में यह गुठली मौजूद है कि नागार्जुन के पास लोगों को अमर बना देने और दूसरे चमत्कार करने की शक्ति मौजूद थी, लेकिन दोनों ही अपने निष्कर्ष में नागार्जुन को बुरी मौत की ओर ले जाती हैं। निहितार्थ यह कि प्रकृति को पछाड़ने की ताकत आप रखते हों तो भी प्रकृति आपसे अपना हिसाब चुकता कर ही लेगी।
एक किस्सा ‘कथा-सरित्सागर’ से है, जो ईसा की ग्यारहवीं सदी में कश्मीरी कवि सोमदेव द्वारा चौथी-पांचवीं ईसवी सदी में या उससे भी पहले महाकवि गुणाढ्य द्वारा पैशाची प्राकृत में लिखी गई रचना ‘बृहत्कथा’ का संस्कृत अनुवाद या उस पर आधारित रचना है। 1889 ई. में किए गए इसके संपादित गद्य रूपांतरण का विष्णु प्रभाकर और गोपाल कृष्ण कौल द्वारा संक्षिप्त हिंदी अनुवाद मेरे पास मौजूद है। उसी महागाथा के पृष्ठ 142 से 145 के बीच मौजूद नागार्जुन संबंधी सामग्री को मैं बहुत छोटे में यहां पेश कर रहा हूं।
कथा-सरित्सागर के मुख्य नायक नरवाहन दत्त के बचपन से ही चले आ रहे कुछ दोस्त उनके राजा बनने पर मंत्रियों की भूमिका निभाने लगते हैं। किताब पढ़ते हुए कभी-कभी लगता है कि इनकी ड्यूटी कहीं राजा को किस्से सुनाते रहने की ही तो नहीं थी। बहरहाल, इस प्रकरण में एक मंत्री मरुभूति शराब पी कर राजा से मिलने चला गया। बाकी मंत्रियों ने कहा कि यह ठीक नहीं है, लेकिन उनमें से एक, गोमुख ने कहा कि कोई सद्गुण सहजता से अपना लेना इसके वश की बात नहीं है। ऐसे लोग और ही होते हैं, जिनमें कोई गुण बिना प्रयास किए ही चला आता है।
यहां मंत्रियों के बीच किस्सेबाजी के जरिये ही पूरे दो दिन यह बहस चलती है कि मनुष्य कोई गुण अपनी कोशिशों से प्राप्त करता है या पूर्वजन्म के संस्कारों से। इस पूरी बहस में हम नहीं जाएंगे, सिर्फ दो किस्से सुनाएंगे, जिनमें एक का संबंध नागार्जुन से है। वसंतक नाम के मंत्री के किस्से में एक बूढ़े राजा को जवान होने की खब्त सवार हो जाती है। इसके लिए वह एक वैद्य की मदद लेता है, जो लंबा सोचने वाला है। राजधानी से दूर एकांत में वह एक गड्ढा खुदवाता है, उसे राजा के रहने लायक बनाता है और सबको भरोसा देता है कि साल भर में राजा जवान हो जाएंगे।
महीने भर में वह राजा से मिलती-जुलती शक्ल वाला एक जवान आदमी खोज लेता है, राजा को मार कर लाश को कहीं गाड़ देता है और बाकी बचे समय में जवान को अच्छी तरह प्रशिक्षित कर के बड़ी धूमधाम से रानी और मंत्रियों को उसे मिलवाने ले जाता है। उनकी पूछ-ताछ में सब कुछ सही पाया जाता है और जवान को गद्दी मिल जाती है। आगे वैद्य का ख्याल है कि गद्दी तो असल में उसके ही हाथ में है लेकिन जवान राजा उसको घास भी नहीं डालता।
वैद्य अकेले में उससे कहता है कि यह सारा भोग-विलास उसका ही दिया हुआ है, उसकी ही योजना और इतनी लंबी सिखावन का नतीजा है। लेकिन जवाब में नया राजा कहता है कि नहीं, यह सब उसके पूर्वजन्मों का फल है। कायदे से उसका यह कहना भी काफी था, क्योंकि वैद्य अभी दुनिया को यह बताने की स्थिति में नहीं था कि राजाओं की फेर-बदल का सारा खेल उसी का किया हुआ है और कैसे आपराधिक ढंग से उसने इसको अंजाम दिया है। लेकिन नरवाहन दत्त का मंत्री वसंतक यह किस्सा पुनर्जन्म की महत्ता बताने के लिए सुना रहा है, लिहाजा वह इसमें सिनेमा जैसा एक अद्भुत दृश्यात्मक ट्विस्ट भी डालता है।
एक सुबह राजा और वैद्य नदी किनारे टहल रहे हैं, जहां उन्हें पानी में स्वर्ण-कमलों की एक कतार बहती हुई आती दिखाई पड़ती है। राजा वैद्य को इन कमलों का उद्गम खोजने के लिए भेजता है। काफी दूर जाने के बाद वैद्य को दिखाई पड़ता है कि एक पेड़ पर इंसानी हड्डियों का एक ढांचा लटका हुआ है। बारिश का जो पानी उससे हो कर नदी में टपकता है, वह स्वर्ण-कमल में बदलता जाता है।
वैद्य बड़ी कोशिशों से उस कंकाल को नदी में प्रवाहित करता है, फिर राजा के पास पहुंचता है तो वह बताता है कि जिस कंकाल को आप जल-समाधि देकर आ रहे हैं, वह मैं ही हूं। आपके षड्यंत्रों से नहीं, पेड़ पर उलटा लटक कर तप करते-करते प्राण छोड़ा था, तभी आज राजा बन कर सारे सुख भोग रहा हूं।
इस किस्से के जवाब में दूसरे दिन सुरभूति ने, जो तब शायद शराब नहीं पिए हुए था, इंसानी नियति का हवाला देते हुए नागार्जुन की कथा सुनाई। तात्पर्य यह कि सब कुछ मिल जाए, सारी क्षमताएं हासिल हो जाएं तब भी उसके परिणाम पर मनुष्य का कोई वश नहीं है।
उसके सुनाए किस्से में चिरायु नाम के राज्य पर चिरायु नाम का ही राजा राज करता है और उसका मंत्री नागार्जुन बहुत दयालु और दानशील तो है ही, साथ में रसाचार्य भी है। उसने राजा को अमृत पिला कर अमर कर दिया था, लेकिन कुछ समय बाद उसके बेटे की मृत्यु हो गई तो उसने बड़े पैमाने पर अमृत बनाने का फैसला किया। इस उद्यम में जब वह अंतिम औषधि मिलाने जा रहा था तो देवता विचलित हो गए कि अगर अमृत पी कर सारे लोग अमर होने लगे, फिर तो देवताओं और मनुष्यों का फर्क ही मिट जाएगा।
इस चिंता के निस्तारण के लिए दो काम जरूरी थे। एक तो अमृत बनाने का काम तत्काल रोक दिया जाए, दूसरा, नागार्जुन जल्द से जल्द मृत्यु-लोक से विदा हो जाए, यानी उसका जीवन समाप्त हो।
पहले वाले काम के लिए देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमार ने नागार्जुन को राजी कर लिया। बड़े पैमाने पर अमृत बनाने का प्रॉजेक्ट अपने आखिरी मुकाम पर ला कर छोड़ दिया गया। दूसरे काम के लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ा। हुआ यह कि राजा ने अपने एक बेटे को युवराज बना दिया तो उसकी मां ने लड़के को समझाया कि युवराज बन गए अच्छी बात है लेकिन राजा तो तुम कभी नहीं बनने वाले, क्योंकि तुम्हारे पिता अमर हैं। समाधान यह कि कल सुबह नागार्जुन दान देने बैठे तो जाकर उसका सिर मांग लो। वह मर जाएगा तो राजा भी मर जाएगा या गद्दी छोड़ देगा।
युवराज ने ऐसा ही किया, नागार्जुन अपना सिर उसके सामने रख दिया लेकिन सारी कोशिशों के बाद भी नागार्जुन का सिर वह नहीं काट पाया। फिर युवराज ने प्रार्थना की तो नागार्जुन ने उसकी तलवार पर एक रसायन लगा दिया और इस बार उसका सिर आराम से कट गया। आगे कहानी रानी की योजना के अनुसार ही आगे बढ़ती है। राजा चिरायु वन चला जाता है, युवराज को सिंहासन प्राप्त होता है, लेकिन फिर नागार्जुन के लड़के इस नए राजा को मार डालते हैं और चिरायु के किसी दूसरे लड़के को चिरायु राज्य का राजा बना देते हैं।
कथा-सरित्सागर में मौजूद इस किस्से के केंद्र में रसाचार्य नागार्जुन हैं, लेकिन इसका एक पहलू दार्शनिक नागार्जुन से भी मिलता है। वह यह कि नागार्जुन के बारे में किंवदंती प्रसिद्ध है कि बौद्ध भिक्षु बनने से पहले वह अमरावती में किसी सातवाहन राजा के मंत्री थे। ‘बृहत्कथा’ निश्चित रूप से भारत में तंत्र और धात्विक रसायनों का युग शुरू होने से बहुत पहले का ग्रंथ है, लेकिन पुनर्प्रस्तुति के क्रम में दोनों नागार्जुनों से जुड़ी दंत-कथाओं का समावेश संभव है।
बहरहाल, नागार्जुन से जुड़ा दूसरा किस्सा हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास ‘चारु चंद्रलेख’ में मौजूद है और वहां इसकी जगह किताब के ‘कथामुख’ में ही है। द्विवेदी जी ने इसे चौदहवीं सदी ईसवी में हुए जैन आचार्य मेरुतुंग की रचना ‘प्रबंध चिंतामणि’ से लिया है, जिसका हिंदी रूपांतरण उन्होंने मुनिश्री जिनविजय जी के लिए किया था। इस किस्से में दो नागार्जुन जैसा कोई मामला ही नहीं है। एक ही नागार्जुन हैं, जिनमें सारी कलाएं और कौशल मौजूद हैं।
किस्सा यह है कि वासुकि नाग टंक पर्वत की रहने वाली राजपुत्री भूपल देवी पर मुग्ध हो गए और दोनों के संयोग से नागार्जुन का जन्म हुआ। वासुकि नाग ने जो औषधियां नागार्जुन को खिलाईं, उससे उसे अनायास ही महासिद्धि प्राप्त हो गई। युवा होने पर वह सातवाहन राजा के पास पहुंचे और उनके कलागुरु बने, लेकिन उन्हें खुद में एक ही कमी खटकती थी कि वे उड़ नहीं सकते थे।
इसके लिए वे पालित्तिय (पादलिप्तक) नाम के महासिद्ध जैन आचार्य के पास गए और उनकी सेवा करने लगे। आचार्य जब उड़ कर दूर के तीर्थों पर जाते तो उनके वापस लौटने पर नागार्जुन उनके पांव धो कर पीते। इस पानी के स्वाद से ही उन्होंने 107 औषधियों की पहचान कर ली और उन्हें पीस कर अपने पैरों पर लगाया तो जल्द ही मुर्गों और मोरों की तरह थोड़ा-थोड़ा उड़ना सीख गए।
ऐसी ही उड़ान के क्रम में वे एक दिन किसी गड्ढे में गिर कर चोट खा बैठे तो आचार्य ने पूछा कि यह कैसे हुआ। उन्होंने पूरी कहानी बता दी, जिसे सुनकर आचार्य पालित्तिय को दया आ गई। उन्होंने कहा, ये 107 औषधियां साठी चावल के पानी में पीसनी थीं। इस तरह नागार्जुन ने उड़ने की सिद्धि भी प्राप्त कर ली। आगे का किस्सा नागार्जुन की नियति के बारे में है।
आचार्य से उन्होंने कोटिबेधी रस बनाने की विधि सीखी, जिससे सारी समस्याओं का समाधान हो सकता था। ‘चारु चंद्रलेख’ उपन्यास में यह कोटिबेधी रस, या इसे बनाने की कोशिश छाई हुई है। लेकिन इसके कथामुख में (यूं कहें कि आचार्य मेरुतुंग के यहां) इसका किस्सा एक आकस्मिक दुखांत के साथ समाप्त हो जाता है।
आचार्य पालित्तिय से नागार्जुन ने सुन रखा था कि ‘समस्त स्त्री-लक्षणों से युक्त कोई युवती पार्श्वनाथ की रत्नमूर्ति के सामने अपने हाथों से पारद का मर्दन दीर्घकाल तक करे तो कोटिबेधी रस सिद्ध होता है।’ ध्यान रहे, द्विवेदी जी के सुनाए इस किस्से में नागार्जुन के लिए आदरसूचक संबोधन या क्रियाएं बिल्कुल नहीं आई हैं- नागार्जुन ने समुद्र में मिला पार्श्वनाथ का रत्नबिंब चुरा लिया और सातवाहन रानी चंद्रलेखा को एक प्रेत के जरिये उड़वा कर सेढ़ी नदी के किनारे इसी मूर्ति के सामने उससे पारे का मर्दन करवाने लगा। (रसाचार्य नागार्जुन की ख्याति सबसे ज्यादा पारे के रसायनशास्त्र पर काम को ले कर ही है। इस क्षेत्र में वैसा शोध और किसी ने नहीं किया। न उनके पहले, न बाद में।)
चारु चंद्रलेख के कथामुख में किस्से का अंत इस रूप में होता है कि रानी चंद्रलेखा पूरी तरह नागार्जुन के वश मे थीं और दोनों में गहरा लगाव भी हो गया था लेकिन इसी क्रम में किसी समय नागार्जुन ने कोटिवेधी रस का रहस्य उन्हें बता दिया। फिर रानी अपने दो बेटों को वहां ले आईं और उन्हें रस-सिद्धि की जगह पर ही कहीं छिपा दिया। उन्होंने यह भी पता लगा लिया था कि यह नागवंशी व्यक्ति कुश (एक धारदार घास) के बनाए हथियार से ही मरेगा।
जैसे ही रस सिद्ध हुआ, उन्होंने बेटों को इशारा किया और उन्होंने कुश के हथियार से नागार्जुन को मार डाला। लेकिन यह हत्या रानी चंद्रलेखा और उनके बेटों के लिए ज्यादा लाभप्रद सिद्ध नहीं हुई। नागार्जुन के मरते ही कोटिवेधी रस अप्रभावी हो गया। जिस जगह पर रस स्तंभित हुआ था, वह बाद में स्तंभनक नाम के तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित हुई।
दोनों कहानियों में ऐसा कुछ असाधारण नहीं है, लेकिन इनसे नागार्जुन के कद का एक अंदाजा जरूर मिलता है।
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