हेरम्ब चतुर्वेदी का आलेख 'इलाहाबाद विश्वविद्यालय और हमारा बचपन'
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| हेरम्ब चतुर्वेदी | 
'इलाहाबाद विश्वविद्यालय और हमारा बचपन'
हेरम्ब चतुर्वेदी
हमारा जन्म तो दिसम्बर 1955 में इंदौर में हुआ था, जहां हमारे बाबा मध्य भारत उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति थे। सन 1957 में मध्य प्रदेश के गठन के बाद जबलपुर आ गए और वहीं उनकी मृत्यु हो जाने के कारण हम साढ़े चार साल की उम्र में अपने ननिहाल इलाहाबाद आ गए थे, जहां सेवानिवृत्ति के पश्चात हमारे नाना राय बहादुर हुकुम चंद जी नए कटरे में बस गए थे। हम जब इलाहाबाद 1959 के अंत में आये तब वे 502, ममफोर्डगंज में रहने लगे थे।
हमको तो जो पहली याद है वह विश्वविद्यालय से जुड़ी हुई है। ममफोर्डगंज में तब मकानों की संख्या और आबादी काफी कम थी। हम लोगों की नींद विश्वविद्यालय के घड़ी के घंटों की मधुर ध्वनि से ही खुलती और प्रायः उसी से दिनचर्या निर्धारित होती, कि अब कितना बज गया है। यानि अपने पहले स्कूल में पढ़ने जाने से भी पहले हम विश्वविद्यालय से परिचित हो चुके थे। लोग गर्मी में जब छतों पर सोते और बरसात में नीचे आँगन में तब घड़ी और उसके घंटे बिलकुल करीब से सुनाई देते जैसे नए कटरे और ममफोर्डगंज के बीच में बने खेत में रात को बोलते सियार! असल में एक सड़क थी जो इन दो मोहल्लों को जुदा भी करती और जोड़ती भी वह थी लाला लाजपत राय मार्ग। इसके दक्षिण नया कटरा स्थित था और ढलान पार कर के ममफोर्डगंज। बीच में गंगा जी का पुराना मार्ग होने के कारण एक ज़बरदस्त डिप्रेशन या ढलान थी। इसमें लीज पर खेत ले कर कर्नलगंज निवासी एक मियाँ जी, जो बड़े ठेकेदार भी थे, वे खेती करवाते थे और सब्जी उगवाते थे।
वैसे इस विश्वविद्यालय से हमारे परिवार और ननिहाल सभी का नाता रहा है। हमारे बाबा कॉलेज इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही सम्बद्ध थे अतः तभी से हम अपने-आप को इससे सम्बद्ध मानते। न्यायमूर्ति ब्रजकिशोर ने बार-एट-लॉ करने से पूर्व सारी पढाई आगरा से की थी और तब आगरा के हैं। हमारी मां ने 1951 में राजनीतिशास्त्र से परास्नातक किया था जबकि पिता जी ने एक चाचा के साथ 1950 में इतिहास से परास्नातक की उपाधि अर्जित की थी। इसी तरह हमारे छोटे मामा एवं मौसी ने 1950 में अर्थशास्त्र में परास्नातक किया और बड़े मामा ने 1948 में जन्तु विज्ञान से एम. एस-सी. की उपाधि प्राप्त की थी। न जाने कितने चचेरे चाचाओं, बुआओं ने भी यहीं पढ़ाई की थी अतः इससे एक रिश्ता सा बिलकुल शुरू से हो गया था।
खैर हमारा पहला विद्यालय सेंट अन्थोनी कान्वेंट स्कूल था और विद्यालय पहुँचने से पहले ही विश्वविद्यालय के बगल से हम गुज़रे थे। शायद तभी कोई आकर्षण हो गया हो-लव एट फर्स्ट साईट? इसके बाद सेंट जोसेफ में पढ़ते हुए विज्ञान संकाय के बगल से कटरे होते हुए शहर उत्तरी से दक्षिण जाने वाली इस सड़क से कई वर्षों तक गुज़रना हुआ उसके बाद ही जा कर कहीं 1974 में उस विश्वविद्यालय में पढ़ना हुआ जिसके प्रभाव में घर का वातावरण ही रंगा हुआ था। अपने बचपन में दो भाईयों की एक जोड़ी की याद है जो हमारे नाना की उम्र के होंगे जिन्हें हम सब लोग 'पापा जी' और 'चाचा जी' कहते थे। बहुत बाद को ज्ञात हुआ कि पापा जी और कोई नहीं वनस्पति विज्ञान विभाग के प्रोफेसर आर. एन. टंडन थे जिनके (तीन में से) एक पुत्र बिशन नारायण टंडन आई. ए. एस. थे और इंदिरा जी के कार्यकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय में संयुक्त सचिव थे और हिंदी जगत में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप करने वाली संस्था 'परिमल' के संस्थापक सदस्य रहे थे।
इसी तरह एक पड़ोसी थे अजब वेश-भूषा यानी एक घुटन्ना और बनियायिन पहने रहने वाले डा. रमाशंकर शुक्ल रसाल जी- अगर किसी ने भूल से रमाशंकर कह दिया तो उसकी खैर नहीं रहती थी। वे हिंदी विभाग में अध्यापक रहे फिर सागर विश्वविद्यालय में रीडर हो कर चले गए थे। बाद में पं. भैरव नाथ झा जब गोरखपुर विश्वविद्यालय (अब पं. दीन दयाल उपाध्याय) के कुलपति हुए तब उन्हें हिंदी का प्रोफेसर और अध्यक्ष बना कर नए विश्वविद्यालय के गठन में मदद के लिए ले गए थे और जब जोधपुर विश्वविद्यालय (अब जय नारायण व्यास) के गठन की ज़िम्मेदारी उन्हीं को मिली तब फिर रसाल जी एक बार वही सेवाएं देने जोधपुर भी गए थे। आयुर्वेद और ज्योतिष के उनके ज्ञान के चलते उनके यहाँ आगंतुकों की भीड़ सदा ही लगी रहती थी। चूंकि वे हमारे नाना को बड़ा भाई मानते थे अतः हम उनको नाना जी ही पुकारते थे। इसी तरह नाना जी जब शाम को टहल कर आते थे तब वे दो-तीन बाजी ब्रिज (ताश का एक खेल) खेलते, डा. हंसराज, श्री बेनी दत्त तिवारी (जिन्हें हम लोग कक्कू सर पुकारते थे) के साथ ही उन लोगों से उम्र में कम और विश्वविद्यालय के जंतु विज्ञान विभाग के प्रोफेसर और अध्यक्ष डा मुरली धर लाल श्रीवास्तव भी होते थे क्योंकि इस खेल में चार लोगों के भाग लेने की अनिवार्यता थी। संभवतः प्रोफेसर मुरली धर लाल श्रीवास्तव से पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित होने का श्रेय प्रोफेसर टंडन (पापा जी) का था। मुरली धर जी भी लाजपत राय मार्ग पर दक्षिण पट्टी में रहते थे।
लाजपत राय मार्ग की थोड़ी और चर्चा समीचीन है ताकि हम इस बात को सही दिशा में बढ़ा सकें। हमारे स्कूल के साथ के अनेक (12-14) विद्यार्थी बी. ए. तक साथ रहे थे फिर लॉ करने चले गए। इनमें से तीन चार तो हम लोग एम. ए. तक साथ रहे उनमें से एक लाजपत राय रोड नए कटरे में रहने बाले साथी संदीप शर्मा (जो आई. ए. एस संवर्ग से सेवानिवृत्त हुये)। हम लोग स्कूल साथ ही जाते थे। उसके पिता जी प्रोफेसर शांति शर्मा विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग में थे और जब हम लोग बी. ए. में थे (1974-76) तब वे अंग्रेजी एवं आधुनिक यूरोपी भाषाओं विभाग के विभागाध्यक्ष थे। उनके घर के आगे स्टेनली रोड की तरफ बढ़ते ही पहले गणित विभाग के अध्यक्ष रहे प्रोफेसर प्यारे लाल श्रीवास्तव का घर पड़ता था। उनकी पौत्री सरिता बी. ए. तथा एम. ए. में हमारी बैचमेट ही नहीं बैच की टॉपर रही थी।
इनके मकान के आगे ही गणित विभाग के प्रोफेसर गोरख प्रसाद का लाल रंग का बड़े अहाते वाला मकान था जिसे हम लोग लाल किला कहते थे। उनके सामने ही प्रोफेसर मुरली धर लाल श्रीवास्तव का मकान था। इसी लेन में थोड़ा सा दक्षिण की ओर आज के जगराम से स्टेनली रोड को जोड़ने वाली सड़क की तरफ बढ़ते ही डा. नईमुर रहमान साहब का घर था। वे अरबी-फारसी विभाग में थे और उनके पाकिस्तान जाने के बाद यह संपत्ति राज्य के कब्जे में आ गयी थी।
लाजपत राय रोड पर ही धोबीघाट से आगे बढ़ते हुए बाईं तरफ एक ऋषि रहते थे, उनका नाम था प्रोफेसर नील रतन धर, वे रसायन शास्त्र के मृदा विज्ञान के अंतर्राष्ट्रीय विद्वान थे। उनकी जमीन पर ही विश्वविद्यालय का मृदा विज्ञान विभाग, उसकी प्रयोगशाला और एक छोटा सा छात्रावास भी निर्मित था। वे प्रायः टहलते हुए हमारे घर के सामने से निकलते तो हम बच्चों को निर्देश था कि उनके चरण स्पर्श अवश्य करें। आशीर्वाद देने के बाद वे ज़रूर कहते 'आई एम 85 इयर्स यंग, हाउ ओल्ड अरे यू'? यानी बच्चों से चहल करते. और फिर अगला सवाल होता कि नाश्ते तथा दोनों वक़्त भोजन में क्या खाते हो? और फिर बताते कि प्रोटीन की मात्रा कम ले रहे हो फलां-फलां चीजों का सेवन करो आदि-आदि यानी हम लोग बचपन से ही विश्वविद्यालय के माहौल में रच-बस गए थे। शायद इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शिक्षक हो जाना कभी एकमात्र महत्वाकांक्षा बन गयी?
इलाहाबाद का दशहरा भी अपने-आप में एक अनोखा अवसर होता है जब षष्ठी से ले कर दशमी तक दुर्गा-पूजा के पंडाल सजते हैं और अंतिम दिन विसर्जन होता है। तो इन्हीं दिनों अलग-अलग मोहल्लों में चौकियां निकलती हैं. अष्टमी के दिन कटरा का दल होता है। उस दिन नए कटरे में अपने विशाल बंगले में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति श्री रंजन जी (वनस्पति विज्ञान विभाग के पूर्व अध्यक्ष) पानी छिड़कवा कर बढ़िया कुर्सियां लगवा देते थे। प्रथम पंक्ति की कुर्सियों पर सिर्फ बच्चों को बैठने की अनुमति थी। उस दौर में शाम साढ़े सात-आठ बजे तक चौकियां निकल जाती थी विलम्ब तो बाद में शुरू हुआ। हम लोग वहीं से कटरा के रामदल की चौकियां देख कर घर आ जाते थे. उन्हीं के घर के बगल में डा. आशा मुकुल दास जी का घर था जिसकी गोल-घुमावदार सीढ़ी बाहर की तरफ होने के कारण सड़क से दिखती थी - हम बच्चे जो बायस्कोप में कुतबमीनार देखते थे उनके लिए यह उसका बच्चा रूप और हमारे आकर्षण का केंद्र था। उन्हीं के पुत्र प्रोफेसर मानस मुकुल दास अंग्रेजी विभाग में बाद में हमारे अध्यापक भी रहे। श्री रंजन जी के बंगले के लगभग सामने ही उर्दू विभाग में अध्यापिका श्रीमती नसीर का घर था (बिना किसी रद्दो-बदल के आज भी वैसा ही है)।
एक व्यक्ति का उल्लेख थोड़ी देर से इसलिए किया कि उनके विषय में कुछ विस्तार से बताना था। उनका नाम श्री के. पी. मोहिले था। उनको हम लोग बाबा ही मानते और कहते थे। वे आगरा जनपद के सुदूर बीहड़ के क्षेत्र में बसे हमारे गाँव होलीपुरा (तहसील बाह) में 1932 में जूनियर हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक हो कर पहुंचे थे और फिर उसे हाईस्कूल और अंततः इंटर कॉलेज में तब्दील कर दिया। हमारे पिता जी, चाचा आदि की पीढ़ी उनके आशीर्वाद से बहुत सफल रही थी। और क्या किस्मत जब वे सब कॉलेज से आगे विश्वविद्यालय की पढ़ाई के लिए अग्रसर हुए तब तक मोहिले साहब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पहले उप-कुलसचिव फिर कुलसचिव हुए। हमारे पिता जी की बारात जब इलाहाबाद आई तब माधो कुञ्ज में जनवासा था किन्तु हमारे बाबा साहब घनघोर डायबिटीज के मरीज थे अतः वे मोहिले साहब के बैंक रोड वाले सरकारी/विश्वविद्यालय के घर पर ही रुके और रोटी लौकी का ही सेवन किया। उन समय की बरात कम से कम तीन दिनों की होती ही थी। वे हर बार भोजन से पूर्व घोषणा करते थे कि दुल्हे के पिता जी को वे अपने रसोई में भोजन करवा रहे हैं अतः वे दुगनी खुराक के हकदार हैं। हमारे ऊपर उनका आशीर्वाद आखिर तक बना रहा. बचपन में ही एक बार किसी काम से जब चौक जाना हुआ तब पता चला कि घंटाघर पर जिन छुन्नन गुरु की मूर्ति लगी है उनके सगे छोटे भाई थे श्री के. पी. मोहिले!
हमारे छोटे मामा सुरेश चन्द्र जी के मित्र थे हर्षनाथ जी मिश्र। वे विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र पढ़ाते थे और टैगोर टाउन से पहले ममफोर्डगंज में रहते थे। उनके यहाँ से भी बहुत आना जाना था। हमारी बुआ डा. चित्रा चतुर्वेदी ने 1960 में एम. ए. राजनीति शास्त्र से और फिर प्रोफेसर अम्बा दत्त पन्त जी के निर्देशन में शोध किया था। वे तब के इकलौते सरोजिनी नायडू महिला छात्रावास में रहती थीं। शोध के दौरान मिस हर्लेकर के एलेनगंज वाले निवास में रही थीं जो उस समय शोध छात्राओं के लिए आवंटित था। अब यहाँ प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग का कोई कार्यालय है। उन्हीं के समय उनकी एक खास सहेली प्रोफेसर अम्बा दत्त पन्त की साली तिला दी (जोशी) से भी परिचित हो गए थे, उनका स्नेह हमें अध्यापक हो जाने के बाद भी उनके उसी वत्सल भाव से मिलता रहा।
जिस रिक्शे से हम स्कूल जाते थे वही जगई राजनीतिशास्त्र के काम्थान साहब को भी ले जाता था। वे भी बेली रोड, नया कटरा के निवासी थे। अतः हमें खपरैल की छत वाले बंगले के रूप वाला राजनीतिशास्त्र का विभाग आज तक यूँ ही मन में बसा हुआ है। एक बार जगई हमको यह कह कर वहाँ ले गया था कि उनको भी घर ले चलें। उनको तब तक लकवा मार चुका था। यह रिक्शे वाला जिस 'गजराज भवन' के सागर पेशा में रहता था वह गीता सिंह जी का विशाल प्रांगण वाला बंगला था, बेली गाँव की मोड़ पर और बेली कछार के कोने पर जहां अब लखनऊ तथा फैजाबाद-अयोध्या वाला नया पुल समाप्त हो रहा है। वे बाद में प्राचीन इतिहास विभाग, संस्कृति तथा पुरातत्व विभाग में प्रोफ़ेसर तक हुई।
प्राचीन इतिहास विभाग के संदर्भ में याद आया कि कैसे मेरी मां बताती थीं कि वहाँ अमरुद की बगिया थी और कैसे वे अपनी सहेली हमारी कुदसिया मौसी (पुत्री एम. एम. रऊफ जो कनाडा में भारत के उच्च आयुक्त थे तथा पत्नी सैयद्दुल्लाह साहब सदस्य राजस्व परिषद से सेवानिवृत्त हुए थे) की बग्घी में आती थीं और घोड़ा उसी अमरुद की बगिया में बाँध दिया जाता था। जहां आज प्राचीन इतिहास विभाग का सामने वाला बाग है, हम जब 1974 में प्रवेश लेने आये तब प्रोक्टर कार्यालय था-वहीं विश्वविद्यालय का डाकघर भी था और दर्शन आदि की कुछ कक्षाएं भी चलती थीं। यह भवन 1980 दिसम्बर में ध्वस्त हो गया था जब इतिहास विभाग से पृथक हुए प्राचीन इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व विभाग की रजत जयंती मनाई जा रही थी। यानी हम 1980 जनवरी में आये और उसी वर्ष के अंत में वह भवन ध्वस्त हुआ जिसमें हमें विश्वविद्यालय ने प्रवेश दिया था. प्राचीन इतिहास विभाग की रजत जयंती में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी, राज्यपाल सी. पी. एन सिंह ने समारोह को भव्यता प्रदान की थी और छात्र संघ ने ज़बरदस्त विरोध दर्ज किया था! वो नींव का पत्थर आज भी अपने भविष्य को ले कर अनिर्णय की स्थिति में है जबकि हम पढ़ाई ही नहीं उसी विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में अपनी नौकरी पूरी करके सेवानिवृत्त भी हो गए हैं!
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व विभाग की चर्चा एक बार फिर हमें वापस नया कटरा की ओर ले जाती है. वहीं दिलकुशा पार्क में इस विभाग के संस्थापक प्रोफेसर गोवर्धन राय शर्मा का निवास था और वे भी प्रोफ़ेसर टंडन के ही चलते नाना से जुड़ गए। उन्हीं के मकान के पास जो सड़क बेली रोड को प्रयाग स्ट्रीट होते हुए बैंक रोड को जोड़ती है वहीं एक बड़े से मकान में कालिया परिवार के साथ ही प्रोफेसर जे. एस. नेगी रहते थे। चूंकि, वे भी जगई के रिक्शे का उपयोग करते थे अतः एक बार बचपन में संभवतः 1968 में वे हमको अपने साथ बाढ़ दिखाने ले गए थे। यानी बचपन से विश्वविद्यालय के अध्यापकों से जुड़ाव ही नहीं एक गहरी आत्मीयता होती गयी थी और शायद यही आकर्षण बना बाद में इसी प्रयाग स्ट्रीट पर द्वारका प्रसाद बालिका विद्यालय के ठीक बगल में हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार डा. राम कुमार वर्मा का घर था 'साकेत'- ये स्कूल और 'साकेत' थे अतः हम लोग छुट्टियों में बॉम्बे मेल से सतना की यात्रा करते और उसी द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में एक भी आज तक वैसे ही हैं जैसे तब थे. अक्सर ऐसा हुआ कि हमारे पिता जी सतना सीमेंट वर्क्स में कार्यरत, से अधिक बार वर्मा जी का आशीष मिला। उनकी बेटी (बाद में संस्कृत विभाग में प्रोफेसर) राजलक्ष्मी जी, जो हम लोगों से बड़ी थीं उनका स्नेह भी तभी से मिलने लगा था!
शायद इतना अधिक सानिध्य और आत्मीयता का भाव विश्वविद्यालय के शिक्षकों से शुरू से मिला तभी हमें उसका चुम्बकीय आकर्षण खींचने लगा था और शायद स्थायी जिन्दगी, आलसी प्रवृत्ति, पढ़ने की लत और इलाहाबाद न छोड़ने की जिद्द ने हमें हमको सबसे अच्छे लगने वाली नौकरी की तरफ खींचा होगा। बच्चन जी ने अपने आत्मकथ्य 'क्या भूलें क्या याद करूं' में लिखा ही है कि किस तरह रसाल जी ने उन्हें नीलम पहनने की सलाह दी और उनकी किस्मत पलटी और वे अग्रवाल (अब इलाहाबाद) इंटर कॉलेज से इलाहाबाद विश्वविद्यालय में नौकरी पा गए। कुछ ऐसा ही हमारे साथ भी हुआ और आज तक हम रसाल जी के बताये नीलम को उतार नहीं पाए हैं। ज्योतिष के शौकीन लोगों को हमारे नीलम पहनने पर आश्चर्य होता है मगर रसाल जी ने सिखाया था कि नक्षत्र के स्वामी के नग को धारण करने से अधिक लाभ होता है-तब हमें ज्योतिष में गुरुत्वाकर्षण (इलेक्ट्रो-मग्नेटिस्म), नक्षत्र-स्वामी और नवांश आदि के पारंपरिक ज्ञान और आज की 'नैनो-टेक्नोलॉजी' के साम्य समझ में सहजता से आ जाते हैं।
(प्रयाग पथ के हालिया अंक से साभार।)
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सुंदर। किसी इतिहासकार को ही इतने नाम याद रह सकते हैं!!
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