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हरेराम समीप की भूमिका आलेख 'जन-सरोकारों से लैस : डी. एम. मिश्र के शेर'

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  साहित्य का ध्येय होता है समाज की विसंगतियों को सामने लाना। इस तरह रचनाकार प्रायः सत्ता के सामने खड़ा हो कर एक सवालिया की तरह नजर आता है। जाहिर सी बात है यह काम वह सत्ता से दूर रह कर ही कर सकता है। अंग्रेजी काल में तमाम ऐसी रचनाएं सामने आईं जिसमें सत्ता के प्रति आक्रोश व्यक्त किया गया था। इसीलिए उन्हें जब्त कर लिया गया। यह काम आज भी जारी है। सत्ता के लिए सबसे बड़ा डर ये रचनाकार ही पैदा करते हैं। डी एम मिश्र की गजलों की किताब की अपनी भूमिका में हरे राम समीप लिखते हैं : 'अपने समय की संवेदना को काव्य-संवेदना में तब्दील कर इन शेरों में ढाला है। इनके शेर समाज, राजनीति और व्यवस्था के इर्द-गिर्द घूमते हैं। इनके शेरों के केंद्र में आम जनता का जीवन और उसकी संघर्ष-चेतना साफ दिखाई देती है। इन शेरों  में किसान, मजदूर तथा वंचित समाज का दर्द पूरी शिद्दत से व्यक्त हुआ है। ग्राम्य-जीवन की दारुण स्थिति पर यहां कमाल के शेर आए हैं। इन शेरों में ग्राम्य-जीवन के प्रश्न, उसकी तकलीफें और संघर्ष का आँखों देखा हाल बयान किया गया है। उन्होंने  अपने शेरों को भाषाई जटिलता से सदैव दूर रखा है। उर्दू व...

फ्रेडरिक एंगेल्स का आलेख 'भारत में विद्रोह'

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फ्रेडरिक एंगेल्स 1857 का विद्रोह भारतीयों द्वारा किया जाने वाला ऐसा पहला विद्रोह था जिसने अंग्रेजी वर्चस्व के सामने कड़ी चुनौती प्रस्तुत की। अभी तक अंग्रेजों को इस तरह के कड़े और संगठित प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा था। हम भारतीय इसे अपना स्वतन्त्रता संघर्ष भी कहते हैं। हालांकि ऐतिहासिक तौर पर जब हम इस धारणा के परिप्रेक्ष्य में तहकीकात करते हैं तो कई दिक्कतें उठ खड़ी होती हैं। ऐसे में साम्राज्यवादी इतिहासकारों द्वारा गढ़े गए टर्म विद्रोह को ही अगर हम स्वीकार कर लें, तो इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि इस विद्रोह में गरिमा थी। वह गरिमा जो मनुष्य होने के नाते कोई भी प्राप्त करना चाहता है। भारत के इस विद्रोह पर लंदन में बैठे हुए समाजवादी चिन्तक कार्ल मार्क्स और  फ्रेडरिक एंगेल्स की भी नजर थी और ये दोनों विभूतियां विद्रोह की घटनाओं की रिपोर्टिंग और विश्लेषण कर रही थी।  फ्रेडरिक एंगेल्स का लिखा एक आलेख  1 अक्टूबर 1858 के न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून, अंक 1443, में एक संपादकीय आलेख के रूप में प्रकाशित हुआ। कल 28 नवम्बर को फ्रेडरिक एंगेल्स का जन्मदिन था। उनकी स्मृति को हम नमन क...

हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं

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  किसी अजनबी से मिलने पर हर आदमी उसके बारे में जानना चाहता है। नाम के बाद अक्सर यही सवाल पूछा जाता है कि 'वह कहां का रहने वाला है?' गांवों से ले कर शहरों तक आदमी के बसने की पृष्ठभूमि होती है। परिस्थितियों वश आदमी को अपना पता ठिकाना बदलना पड़ता है और जहां वह रहने लगता है वही उसका गांव, वही उसका शहर हो जाता है। हरीश चन्द्र पाण्डे मानवीय संवेदनाओं की गहन अनुभूतियों के कवि हैं। उनकी कविताएं सहज ही पाठक से जुड़ जाती हैं। यही उनके कविताओं की ताकत है। अपनी कविता में हरीश जी लिखते हैं "पूछ ही लेते हैं/ दो लोग जब पहली बार मिलते हैं/ 'आप कहां के हुए' या/ 'आपका घर?'/ जैसे 'आपका शुभ नाम'।/ यही होता आया है/ सौजन्य टूटा या परंपरा जो कहिए/ अबकी ऐसा नहीं हुआ/ उससे जब पूछा गया, 'तुम कहां के हो'?/ उसने कहा, 'जहां का मैं हूं/ वहां एक छोटी नदी बहती है/ वही वहां की मूल निवासी है/ या फिर उसके पड़ोसी  - पहाड़, जंगल" आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं। हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं आदमी नहीं  जो उखाड़ा पौधे को तो देखा  जड़ें अभी ...

लीलाधर मंडलोई की आत्मकथा पर यतीश कुमार की समीक्षा 'खून और पसीने से सींची हुई कहानी'।

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  कोई भी आत्मकथा केवल उस व्यक्ति की अपनी कहानी नहीं होती। उस कहानी में जिक्र होता है उस समय का। जिक्र होता है समय के संघर्षों का, तथा इन संघर्षों में सहभागी बने व्यक्तियों का। इस आलोक में देखें तो लीलाधर मंडलोई की आत्मकथा ‘जब से आँख खुली हैं’ केवल उनकी नहीं बल्कि सतपुड़ा के जंगलों में विस्थापित हो कर पहुँचे खान-मज़दूरों, दलित-अल्पसंख्यक और पिछड़े वर्गों की भी कथा है। इस कथा में जड़ रूप में जीवन देने वाली मां है, जिसके बिना कोई आत्मकथा ही क्या, कोई भी कथा, कविता अधूरी होती है। मंडलोई जी अपनी इस आत्मकथा में बचपन की यादों में विचरते दिखाई पड़ते हैं। इसके साथ ही इस आत्मकथा में बकौल यतीश कुमार "यहाँ बिना अस्पताल के जड़ी-बूटियों, पत्तियों से इलाज के अजूबे तरीक़े मिलेंगे, इसी के साथ उजड़ते जंगल में तितलियों के उड़ते रंग भी। पेड़–पौधों की ख़ुशबू अपने पूरे दृश्य-संयोजन के साथ इस किताब में उपस्थित है। बचपन का कोई भी किस्सा, कैरियों की दाँतकट्टी खटास और इमली की खटमिट्ठी झाँस के बिना कहाँ संभव? जंगल की बात हो तो शिवप्रिय बेर और उसके काँटे का स्वाद याद आना स्वाभाविक है। सब कुछ पूरी रोचकता के साथ...