सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य लेखन 'चोक' हो गया है'
सेवाराम त्रिपाठी आज हम एक अजीब दौर में जी रहे हैं। ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ लोग धूल फांकते हैं जबकि जोर जुगत करने वाले लोग तगमे और सम्मान हासिल करते हैं। इसके लिए सत्ताधारी लोगों की कृपा हासिल करनी होती है। आज स्थिति इतनी धुंधली हो गई है कि अगर किसी वास्तविक व्यक्ति को सम्मान दिया जाता है तो उस पर भी सन्देह उठ खड़ा होता है। इस क्रम में आलोचक सेवाराम जी को परसाई जी का कहा ध्यान आया है - “लेखक का शंकालु मन है। शंका न हो तो लेखक कैसा? मगर वे भी लेखक हैं जिनके मन में न शंका उठती है और न सवाल।” (हरिशंकर परसाई - 'अपनी-अपनी बीमारी') वाकई इन पंक्तियों को विराट परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए, किसी चुहलबाज़ी में नहीं। व्यंग्य जैसी गम्भीर विधा में जोर जुगत से आहत सेवाराम जी का यह आलेख महत्त्वपूर्ण है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य लेखन 'चोक' हो गया है'। "व्यंग्य लेखन 'चोक' हो गया है" सेवाराम त्रिपाठी “उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं - आदत बन चुकी है” - धूमिल ...