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जनवरी, 2025 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य लेखन 'चोक' हो गया है'

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  सेवाराम त्रिपाठी आज हम एक अजीब दौर में जी रहे हैं। ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ लोग धूल फांकते हैं जबकि जोर जुगत करने वाले लोग तगमे और सम्मान हासिल करते हैं। इसके लिए सत्ताधारी लोगों की कृपा हासिल करनी होती है। आज स्थिति इतनी धुंधली हो गई है कि अगर किसी वास्तविक व्यक्ति को सम्मान दिया  जाता है तो उस पर भी सन्देह उठ खड़ा होता है। इस क्रम में आलोचक सेवाराम जी को परसाई जी का कहा ध्यान आया है - “लेखक का शंकालु मन है। शंका न हो तो लेखक कैसा? मगर वे भी लेखक हैं जिनके मन में न शंका उठती है और न सवाल।” (हरिशंकर परसाई - 'अपनी-अपनी बीमारी') वाकई इन पंक्तियों को विराट परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए, किसी चुहलबाज़ी में नहीं। व्यंग्य जैसी गम्भीर विधा में जोर जुगत से आहत सेवाराम जी का यह आलेख महत्त्वपूर्ण है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य लेखन 'चोक' हो गया है'। "व्यंग्य लेखन 'चोक' हो गया है" सेवाराम त्रिपाठी  “उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे  कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं - आदत बन चुकी है” - धूमिल  ...

माननीया मातृ देवी की कहानी 'कुम्भ में छोटी बहू'

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  बंग महिला  बंग महिला को हिन्दी की पहली महिला कथाकार माना जाता है। यह राजेन्द्र बाला घोष का छद्म नाम था। हिन्दी नवजागरण के दौर में कहानी लिखने वाली वे पहली महिला थीं। उनका परिवार वाराणसी का एक प्रतिष्ठित बंगाली परिवार था। आपके पूर्वज बंगाल से आकर वाराणसी में बस गए थे। 1904 से 1917 तक बंग महिला की रचनाएँ विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। इसी बीच अपने दो बच्चों के असमय निधन और 1916 में पति के देहान्त से वे बुरी तरह टूट गईं। इन आघातों के कारण उनका लेखन भी बन्द हो गया। नारियों को रूढ़ तथा जड़ परम्पराओं के शिकंजे में कसने वाली शास्त्रीय व्यवस्थाओ को नकारती हुई बंग महिला ने स्त्री-शिक्षा का नया माहौल बनाया। उन्होंने नारियों के लिए स्वेच्छया पति का चुनाव करने, तलाक देने और यहाँ तक कि ‘पत्यन्तर’ करने के अधिकार की माँगें पुरजोर कीं। उनके लेखन में नया युग नई करवटें लेने लगा। बंग महिला के जीवन और कृतित्व में समकालीन नारी-लेखन के तमाम-तमाम मुद्दे अन्तर्भूत हैं। बंग महिला ने 1910 में 'कुसुम संग्रह' नामक पुस्तक का सम्पादन किया जिसमें अपनी कहानियों के साथ-साथ कु...

प्रेमकुमार मणि का आलेख 'कुम्भ मेला : बात-बात में बात'

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  प्रेम कुमार मणि कुम्भ मेले का आयोजन कैसे और कब शुरू हुआ, इसको ले कर कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इस सन्दर्भ में कुछ लोग इस परम्परा को मोहनजोदड़ो के सार्वजनिक स्नानागार से जोड़ते हैं तो इस क्रम में कुछ लोग  हर्षवर्धन के उस महामोक्ष परिषद की बात करते हैं जो उसके द्वारा प्रत्येक पांचवें वर्ष प्रयाग में आयोजित किया जाता था। मुगल काल तक कुम्भ के आयोजन का स्वरूप निश्चित होने लगा था, हालांकि इसके स्पष्ट प्रमाण प्राप्त नहीं होते। ब्रिटिश काल में कुम्भ के आयोजन का उल्लेख प्राप्त होता है। प्रेम कुमार मणि ने अपने आलेख में कुम्भ की ऐतिहासिकता को तर्कों के द्वारा बताने की कोशिश की है। आइए आज पहली बार पर 'महाकुम्भ विशेष' कॉलम के अंतर्गत हम पढ़ते हैं  'कुम्भ मेला : बात-बात में बात'। महाकुम्भ विशेष : 6 'कुम्भ मेला : बात-बात में बात'   प्रेमकुमार मणि  बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने मनुष्य में मूर्खता के जिन पांच चिह्नों की चर्चा की है उसमें एक धर्म की इच्छा से स्नान करना भी है। इस हिसाब से प्रयागराज के संगम पर अभी जो कुम्भ स्नान चल रहा है, उससे हिन्दू समाज के मूर्ख...

अवधेश प्रीत की कहानी 'कौतुक-कथा'

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  अवधेश प्रीत  मानव सभ्यता ने वैज्ञानिक विकास के चलते आज ऊंचाइयों के जो प्रतिमान स्थापित किए हैं उनका कोई सानी नहीं है। लेकिन इसका एक दूसरा आयाम भी है जो भयावह है। विकास के क्रम में हमने जो रास्ते अख्तियार किए, वे हमें उस तरफ ले कर जा रहे हैं जहां तबाही के अलावा कुछ भी नहीं दिखता। इस पृथ्वी को हरियाली का जीवनदाई आवरण प्रदान करने वाले पेड़ पौधों को हमने जिस अंधाधुंध अंदाज में समाप्त किया है अब वह जलवायु परिवर्तन के रूप में दिखाई पड़ने लगा है। हमने ऐसे हथियार बना लिए हैं जिससे इस पृथ्वी को कई बार तबाह किया जा सकता है। विकास के क्रम में हम उन आदर्शों और नैतिकताओं को लगातार दरकिनार करते जा रहे हैं जो हमें सचमुच इंसान की शक्ल देते रहे हैं। रचनाएँ बहुत कुछ हमारे अपने बीते हुए को आधार बना कर लिखी जाती हैं। लेकिन कुछ रचनाएं ऐसी भी होती हैं जो हमें भविष्य की भयावहता की तरफ आईना दिखाती हैं। कुछ इसी अंदाज की कहानी है अवधेश प्रीत की 'कौतुक कथा।' अपनी कहानी में अवधेश लिखते हैं 'बच्चों, मेरे प्यारे बच्चो! मैं जो कह रहा हूं उस पर विश्वास करो, क्योंकि विश्वास दुनिया को बेहतर बनाने की पहली ...

पंकज मोहन की प्रस्तुति '1954 के कुम्भ मेले का लोमहर्षक काण्ड'

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  कुम्भ मेले का मुख्य स्नान पर्व मौनी अमावस्या को होता है। आजादी के बाद पहले महाकुम्भ का आयोजन  प्रयागराज में 1954 में किया गया। एक अनुमान के अनुसार महाकुम्भ के इस आयोजन  में 4-5 मिलियन तीर्थयात्रियों ने भाग लिया। दुर्भाग्यवश 3 फरवरी 1954 को मेले में भगदड़ मच गई। इसी दिन मेले का मुआयना करने के लिए भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी आए थे। हालांकि उन्होंने स्नान नहीं किया। मेले में तैनात किसी भी पुलिसकर्मी को उनकी सुरक्षा में नहीं लगाया गया। दूसरी तरफ तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने इसी दिन संगम स्नान किया।  विभिन्न स्रोतों के अनुसार इस त्रासदी के आंकड़े अलग-अलग थे। द गार्जियन के अनुसार इस भगदड़ में 800 से ज़्यादा लोग मारे गए और 100 से ज़्यादा घायल हुए। टाइम ने बताया कि "कम से कम 350 लोग कुचले गए और डूब गए, 200 लापता बताए गए और 2,000 से ज़्यादा घायल हुए"।  'लॉ एंड ऑर्डर इन इंडिया' नामक पुस्तक के अनुसार इस भगदड़ में 500 से ज़्यादा लोग मारे गए। पंकज मोहन ने इस त्रासदी के बारे में वाराणसी से छपने वाले दैनिक आज के साक्ष्यों का विश्लेषण ...