राहुल राजेश की ग़ज़लें
राहुल राजेश |
राजनीतिक व्यवस्था में अब तक की सबसे बेहतरीन व्यवस्था होने के बावजूद लोकतन्त्र की अपनी सीमाएं भी हैं। इन सीमाओं का लाभ उठा कर ही आपराधिक और अराजक तत्त्व, माफिया और वे लोग जिन्हें इस व्यवस्था का हिस्सा कतई नहीं होना चाहिए, इसका हिस्सा बन कर, हमारे नुमाइंदे बन कर सदन में पहुंच जाते हैं। जब ऐसे तत्त्व सदन में जाते हैं तब लोकतन्त्र बिजूका बन कर रह जाता है। जिस लोकतन्त्र को सामाजिक संकीर्णताओं को समाप्त करने में भूमिका निभानी चाहिए वह उसे और बढ़ावा देता हुआ दिखाई पड़ता है। राहुल राजेश हमारे समय के चर्चित कवि हैं। हम पहले भी इस मंच पर उनकी कविताएं पढ़ चुके हैं। राहुल आजकल गजलें लिख रहे हैं। ये गजलें प्रभावकारी हैं और व्यवस्था पर प्रहार करने का अपना काम बखूबी कर रही हैं। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं राहुल राजेश की गजलें।
राहुल राजेश की ग़ज़लें
1.
गाँवों में अब वो पीपल, वो बरगद नहीं है
गाँवों में अब वो बरकत नहीं है
सांय-सांय धूल उड़ाते फटफटियों के आगे
बूढ़-पुरानों की अब वो इज्जत नहीं है
खेतों-खलिहानों में अब वो रौनक नहीं है
मिहनत की फसलों की अब वो कीमत नहीं है
एक ही आँगन में भले सब रहते हैं
पर उनमें अब वो मिल्लत नहीं है
गिरते पुश्तैनी मकानों के सब दावेदार हैं
पर इन्हें बचाने की अब वो शिद्दत नहीं है
गर्मियों में जो गया बच्चों संग, वे खुश थे
पापा, यहाँ अब नेटवर्क की वो दिक्कत नहीं है!
2.
कल तक जो गुंडा था, आज हमारा नुमाइंदा है
इस पर न हम शर्मिंदा हैं, न सदन शर्मिंदा है
जिस पेड़ पर टाँग दी गई थीं दोनों लड़कियाँ
वो पेड़ भी जिंदा है, वो कातिल भी जिंदा है
अब तो संवेदनाओं का सैलाब भी नकली है
यह देखकर तो मुआ फेसबुक भी शर्मिंदा है
हम इंसां नहीं, हिंदू या मुसलमां रह गए हैं
मर गई आदमियत, बस जात-धरम जिंदा है
बेच कर अपना ईमान जो बन गया धनवान
उसकी इज्ज़त देख कर खुद्दारी भी शर्मिंदा है
कभी अपने घर से निकला भी कर पैदल
मुझको यकीं तो हो कि तू अब भी जिंदा है!
3.
सिर्फ़ चिल्लाने से कुछ नहीं होगा
जमीन पर कुछ काम भी तो कीजिए
फेसबुक रंगने से कुछ नहीं होगा, किसानों को
साग-सब्जियों के वाजिब दाम भी तो दीजिए
दफ्तर में आधे दिन तो चक्कल्लस करते हैं
अरे भाई, कभी तो पूरे दिन काम कीजिए
सिर्फ़ सरकार को गरियाने से कुछ नहीं होगा
जनाब, आप भी तो कुछ जिम्मेदारी लीजिए
सिर्फ़ बाज़ार को गुनहगार मान लेना ठीक नहीं
कभी अपने गुनाह भी तो कबूल कीजिए
सिर्फ़ आवाज़ बुलंद करने से कुछ नहीं होगा
अपना ईमान ओ करम भी तो बुलंद कीजिए!
4.
मौत से डर नहीं लगता, मौत के बाद
लानत-मलानत से डर लगता है हुजूर
जिंदा रहते कोई इधर झाँकता तक नहीं
मरते ही कितने अपने निकल आते हैं हुजूर
न हो यकीं तो करके देखिए अपनी मौत का एलान
फेसबक पर मातम-पुर्सी की बाढ़ आ जाएगी हुजूर
अगर जरा भी नामचीन हैं आप तो जान लीजिए
आपकी तस्वीर देर तलक भुनाई जाएगी हुजूर
नामचीन न भी हों, हिन्दू या मुसलमां तो होंगे
कोई न कोई पार्टी हंगामा मचाएगी जरूर!
5.
अगर तू सिर्फ़ बुत नहीं तो
मंदिर-मस्जिद से बाहर आ
देखता क्या है अब
सड़कों पर उतर आ
अगर है दुनिया की परवाह
तो हाथ में अब पत्थर उठा
सुना नहीं तूने उस बच्ची की चीख
जा उन दरिंदों को रौंद कर आ
बच्चों का यकीं डोल गया है
सबसे पहले उनका यकीं बचा
मर गई है आदमियत जब तो
आदमियों से उम्मीद ही क्या!
6.
दिल की चिड़िया फिर फुदकने लगी है
कि फोन की घंटियां फिर बजने लगी हैं
उजड़े आशियाने फिर बसने लगे हैं
कि दरख्तों पे कोंपलें फिर लगने लगी हैं
काम न आईं अक्ल ओ गुमां की तलवारें
कि मुहब्बत की बाहें फिर मुसकने लगी हैं
तुम मिलो न मिलो ताउम्र तो क्या
फिजां में हमारी सांसें घुलने लगी हैं
तुम्हारी छत से उड़ी जो पतंगें, देखो
मेरी छत पे तेरी खुशबू लिए उतरने लगी हैं!
7.
नींद हुई कि ग़ज़ल हुई, क्या जाने
ख्वाब में था या खाक में, क्या जाने
इश्क किया कि इबादत, क्या जाने
वो मूरत थी या माशूका, क्या जाने
मौत मिली कि मंज़िल, क्या जाने
जीत हुई या हार हुई, क्या जाने
सफर में था कि सजदे में, क्या जाने
सुबह हुई या शाम, क्या जाने
वो घर था कि मकां, क्या जाने
राह मुश्किल थी या आसां, क्या जाने!
8.
अब ख़तों में नहीं आती खुशबू हाथों की
अब अल्फ़ाज़ में नहीं कशिश जज़्बातों की
अब यादों में नहीं कसक उन रातों की
अब बातों में नहीं जिक्र उन बातों की
अब मिलने के मौके हैं पर सच कहूँ तो
बात ही कुछ और थी उन मुलाकातों की
अब गिफ्ट में लोग देने लगे हैं कार भी
पर कीमत कुछ और थी उन सौगातों की
अब न घर में बची कद्र कलम-दवातों की
अब न जेहन में बची छुअन बरसातों की!
9.
तू उजले दिन रख
मैं शब रख लेता हूँ
तू मेरी शोहरत रख
मैं अपना मकतब रख लेता हूँ
तू मेरा सब रख
मैं बस लब रख लेता हूँ
तू मेरी जिंदगी रख
मैं जीने का सबब रख लेता हूँ
तू मजहब रख
मैं रब रख लेता हूँ!
***
(शब- रातें, मकतब- लिखने-पढ़ने की छोटी-सी जगह, लब- जुबान, सबब- कारण, रब- ईश्वर)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्वर्गीय कवि विजेंद्र जी की हैं।)
संपर्क
जे-2/406, रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास,
गोकुलधाम, गोरेगांव (पूर्व),
मुंबई-400063
मो. 9429608159
बहुत बेहतरीन, महोदय 🙏
जवाब देंहटाएंवाह दोस्त
जवाब देंहटाएंसराहनीय अभिव्यक्ति कुशलता -
जवाब देंहटाएंसभी 9 ग़ज़लों एक से बढ़कर एक शेर
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंग़ज़ल के नाम पर कुछ भी अंट-संट ठेल दिया गया है . ना कोई शे'र हुआ है, ना कोई ग़ज़ल । एक भी शे'र में शे'रियत नाम की शय नहीं है.क्राफ्ट के साथ तोड़ फोड़ भी बर्दाश्त कर ले,अगर कोई न ई बात कही हो तो,पिछले दिनों समालोचन पर पढ़ी थी ऐसे ही ग़ज़ल के नाम छपी सामग्री। हज़रत पहले ग़ज़ल परिभाषा पढ़े और फिर ग़ज़ल कहे । कवि कविता कहते नहीं हैं ,क्यों बेचारी ग़ज़ल की इज़्ज़त लूटने मेंलगे हैं,और संपादक भी ध्रतराष्ट्र बने हुए हैं
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