विनोद दास का आलेख 'कविता की संगत: विजय कुमार' 

 

विजय कुमार


सुपरिचित आलोचक विजय कुमार एक बेहतर कवि एवम इंसान भी हैं। विजय कुमार जी का एक व्यक्ति चित्र शब्दबद्ध किया है कवि आलोचक विनोद दास ने। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं विनोद दास का आलेख 'कविता की संगत: विजय कुमार'। हाल ही में विजय कुमार पर केंद्रित समीचीन पत्रिका का एक अंक प्रकाशित हुआ है उसी अंक से यह व्यक्ति चित्र साभार लिया गया है।



व्यक्तिचित्र 


कविता की संगत: विजय कुमार 


विनोद दास 


किताबों से भी कई बार मित्रता के फूल खिलते हैं।


कवि-आलोचक विजय कुमार और मेरे बीच मैत्री फूल खिलने की भी एक दिलचस्प दास्तान है।


किताबें मेरी सबसे बड़ी कमज़ोरी रही हैं। अच्छी किताब देख कर मेरे भीतर उथल-पुथल मच जाती है। ऐसी एक किताब थी- लातीनी कथाकार गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज़ के लंबे साक्षात्कार की किताब 'फ्रेग्रेन्स ऑफ़ गुवावा'। इस किताब की प्रशंसा अनेक अंग्रेजी लेखों में पढ़ चुका था। पटने में यह किताब उपलब्ध नहीं थी। पटने दौरे पर आये मुंबईवासी कवि आलोचक विजय कुमार ने जब पहली मुलाक़ात में इस किताब का जिक्र मुझसे किया तो मेरे लोभ का संयम भरभरा कर ढह गया। दरअसल उन दिनों मुझ पर मार्खेज़ का नशा तारी था। युवावस्था के प्रेम की तरह मैं मार्खेज़ के कालजयी उपन्यास 'वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सोलीटयूड' उपन्यास और उनकी चंद कहानियों की भाषा-कहन के जादू में गिरफ्तार था। कथाकार भीष्म साहनी की बेटी कल्पना साहनी ने मार्खेज़ का एक साक्षात्कार रूसी से अंग्रेज़ी में किया था जिसका अनुवाद मैंने इलाहाबाद से निकलने वाली वर्तमान साहित्य पत्रिका के लिए “लेखक की रसोई” शीर्षक से हिंदी में किया था।


एक दिन पीले कवर में डाक से एक पार्सल आया। खोला तो मार्खेज़ की किताब और विजय जी का पहला कविता संग्रह 'अदृश्य हो जायेंगी सूखी पत्तियां' थीं। मुंबई से विजय जी ने एशियाटिक लाइब्रेरी से वह किताब इशु करा कर भेजी थी। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि उस विशद, आत्मीय, सम्वेदनशील और पारदर्शी साक्षात्कार को पढ़ कर मार्खेज़ के लेखन के प्रति मेरा अनुराग और बढ़ गया।


विजय जी से मित्रता में खिली यह पहली पंखुरी थी।


फिर बाद में मित्रता की कुछ पंखुरियां और खिलीं जब विजय कुमार एक-दो बार दफ्तरी दौरे पर पटना आये। वह पटना के साहित्यकारों से मिलने को उत्सुक थे। मुझे याद है कि पटना बोरिंग कैनाल रोड़ पर स्थित कवि ज्ञानेन्द्रपति के घर हम उनके साथ गये थे। उन दिनों ज्ञानेंद्रपति का कविता संग्रह “यह कागज़ लिखने के लिए बना हुआ है”, प्रकाशित हो चुका था। इनके इस कविता संग्रह ने अपने कथ्य और भाषा से पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा था। वह जेल विभाग में अधिकारी थे। अकेले अपने फ्लैट में रहते थे। अरुण कमल से विजय जी का परिचय पहले से था। पूर्णकालिक कवि आलोक धन्वा से अपनी पहल पर वह खुद मिल चुके थे और उनके अलबेले व्यक्तित्त्व को ले कर किंचित रोमांचित भी।


विजय कुमार उन दिनों भारतीय औद्यगिक विकास बैंक में वरिष्ठ अधिकारी थे। :विकास प्रभा' नामक बैंक की गृह पत्रिका का संपादन भी करते थे। वह पत्रिका हर तिमाही में एक सुंदर चिट्ठी की तरह मुझे मिलती। यह पत्रिका जहाँ अपनी उपस्थिति से अपनी मित्रता की सुवास बिखेरती थी, वहीं विजय कुमार की विविधवर्णी रुचियों और उनकी संपादन कला को जानने-समझने की खिड़की भी थी। मैंने सैकड़ों गृहपत्रिकाएं देखी हैं, लेकिन इतनी सुरुचिपूर्ण और विचार संपन्न गृह पत्रिका देखने का सुयोग अभी तक नहीं मिला। हिंदी में तमाम ऐसी साहित्यिक पत्रिकाएं ऐसी होती जिन्हें एक बार पलटने के बाद मैं अखबार की रद्दी के साथ रख देता लेकिन 'विकास प्रभा'  जैसी सरकारी हाउस जर्नल के कई अंक गुल्लक में रखे पैंसों की तरह काफी समय तक सहेज कर रखे थे।

 


 


विजय कुमार संपादन कला की ट्रेन पर अचानक नहीं बैठ गये थे। इसके पहले वह मुंबई विश्वविधालय में एम. ए. हिन्दी में टॉप करने के बाद टाइम्स समूह में कुछ समय प्रशिक्षु के रूप में धर्मयुग के महारथी सम्पादक धर्मवीर भारती के साथ काम कर चुके थे। उनको वहां से पहली तनख्वाह चार सौ सत्तर रुपये बीस पैसे मिली थी। यह वह दौर था जब वहां सुरेन्द्र प्रताप सिंह और एम. जे. अकबर जैसे उदीयमान पत्रकार टाइम्स समूह के एक ही भवन में रहते हुए काम करते थे। पत्रकारिता की नयी फसल की यह पौधशाला उन दिनों टाइम्स समूह था। कहानी पत्रिका 'सारिका' के संपादक कमलेश्वर वहीं थे। विजय कुमार के पास इन दिग्गज संपादकों की उन दिनों की अनगिनत चटपटी कहानियाँ का कोष है। इन दिनों के अपने कार्यकाल में महत्त्वपूर्ण हस्तियों से उन्होंने इंटरव्यूज भी किये थे जिनमें प्रख्यात खलनायक प्राण भी थे। प्राण से मिलाने वह अपूर्व रूपसी सहपाठी से बनी अपनी पत्नी को भी साथ ले गये थे जिनसे उन्होंने कुछ अरसा पहले अंतरजातीय विवाह किया था। सबसे हैरत की बात यह थी कि प्राण के पास जब वह अपना छपा इंटरव्यू ले गये तो उन्होंने पढ़ कर सुनाने के लिए विजय जी से आग्रह किया। दरअसल प्राण उर्दू पढ़ लेते थे लेकिन कम लोगों को पता होगा कि हिंदी फिल्मों के इतने बड़े कलाकार प्राण हिंदी पढ़ नहीं पाते थे।


टाइम्स समूह की पत्रकारिता दीक्षा का लाभ विजय कुमार जी को यह हुआ कि उन्होंने पहल पत्रिका के लिए पाकिस्तानी शायर अफज़ल अहमद, समकालीन अफ्रीकी साहित्य, वाल्टर बेंजामिन तथा एडवर्ड सईद पर विशेष अंकों के संयोजन के अलावा और उद्भावना पत्रिका के लिए सदी के अंत में कविता के विशेषांक के अतिथि संपादक की भूमिका का निर्वहन बखूबी किया। बाल्टर बेंजामिन के अंक में उन्होंने मुझे भी शामिल किया था। अफ़सोस! कविता विशेषांक में उनके आग्रह के बावजूद शामिल नहीं हो पाया।


विजय कुमार जी के व्यक्तित्त्व के नये रूप से तब साक्षात करने का अवसर मिला जब पटना से मेरा तबादला लखनऊ हो गया और वहां से कविता केन्द्रित एक छोटी पत्रिका “अंतर्दृष्टि” के संपादन-प्रकाशन का सिलसिला मैंने शुरू किया। उन दिनों आठवें दशक के कवि काव्य क्षितिज पर नक्षत्रों की तरह टिमटिमा रहे थे। हर दौर के अपने आलोचक होते हैं जो अपने समय की रचनाधर्मिता की धमनियों में बहते रक्त की धड़कन सुन कर उसका वस्तुपरक मूल्याकंन करते हुए उसकी व्याख्या करते हैं। कहना न होगा कि विजय कुमार उस दौर के कवियों के रचना अनुभव में धंस कर और डूब कर उनकी कविता के भूमिगत हलचलों को बेलौस और बेहिचक दृष्टि से रेखांकित कर रहे थे। मैंने उनसे अपनी मित्रता का लाभ उठाया। उन्होंने भी मुझे निराश नहीं किया। उन्होंने अपने कई महत्त्वपूर्ण लेख “अंतर्दृष्टि” पत्रिका को सहर्ष दिये जिसमें सबसे अधिक विचारोत्तेजक और विवादास्पद लेख आलोक धन्वा की चर्चित कविता “भागी हुई लड़कियां “ पर था। 


'अंतर्दृष्टि' पत्रिका के लिए मिले उनके सहयोग से हमारी मित्रता की कुछ और पंखुरियां खिलीं।


अक्सर देखा गया है कि यदि कोई कवि है और आलोचना कर्म में भी संलग्न है तो उसके रचना व्यक्तित्व में  दोनों विधाओं के बीच स्पर्धा बनी रहती है। विजय कुमार जी के साथ भी कुछ ऐसा ही रहा। मूलतः वह कवि हैं लेकिन समकालीन कविता को जानने-समझने की प्रक्रिया में आलोचना कर्म से जुड़ गये। सृजनात्मक आलोचना की अकाल बेला में उनकी मांग बढ़ती गयी और उनकी आलोचना की ख्याति उनकी कविता को सरकाकर अपना वज़ूद बढाने लगी। उनकी आलोचक की आँख समकालीन समाज के सामजिक-आर्थिक और तकनीकी विकास के आलोक में समीक्ष्य कवि के आत्म लिप्त सलवटों को भेदती हुई उसके वृहत्तर अर्थ को जांचती-परखती है। इनकी आलोचना का मूल स्वभाव हार्दिकता रही है। उनकी “कविता की संगत” न होती तो शायद समकालीन कविता के कुछ पते ठिकानों का पता नहीं चलता। उनका कविता संग्रह “रातपाली” और “चाहे जिस शक्ल में” महत्वपूर्ण कविता संग्रह हैं। मुंबई जैसे महानगर की जीवन ध्वनियों, रंगों और उनके नागरिकों के मन-जिंदगी के तहखानों को समझने के लिए ये दोनों अनिवार्य किताब हैं।


मैं उन लोगों से अब ईर्ष्या करता हूँ जो आजीवन एक ही शहर में रह पाते हैं। मैं इतने शहरों में रहा हूँ कि मुझे हर शहर एक वेटिंगरूम सरीखा लगता है। विजय कुमार के साथ ऐसा नहीं है। वह मुंबई में पले-बढ़े हैं.जन्म भी यही हुआ है। मुंबई को पूरी तरह से जीते हैं। इसके इतिहास-भूगोल से रग-रग परिचित हैं। उनके साथ मुंबई में पैदल घूमने का अपना आनंद है। वह कभी किसी जगह के बदले हुए भूगोल के बारे में उमंग से बताते हैं तो कभी उससे जुड़ा कोई रोचक किस्सा या घटना पर रोशनी डालने लगते हैं। मुंबई की लोकल ट्रेन में वह जिस तत्परता और कौशल से बैठते हैं, वह उनके मुम्बइया होने की गवाही देता है। मुझे याद है कि मुंबई की पहली मुलाक़ात में उन्होंने मुझे सुरैया का घर दिखाया था। यह अकारण नहीं था कि मुंबई के जीवन पर केन्द्रित नवभारत टाइम्स में उनका साप्ताहिक स्तंभ बेहद लोकप्रिय था। अपने इस स्तम्भ में मुंबई महानगर की गहमागहमी, रेलमपेल यातायात, ऊँची भव्य दुकानों, होटलों-रेस्तराओं की तड़क-भड़क, गगनचुंबी इमारतों की जगमग के पीछे छिपी अंधेरी करुण ज़िन्दगी के रोयें रेशों को विजय कुमार बहुत हार्दिकता से पेश करते रहे हैं। इसमें कभी वह मुंबई के इतिहास से पाठकों का परिचय कराते तो कभी उसके सांस्कृतिक-साहित्यिक संसार की झलक दिखाते।


हिंदी में विदेशी विचारकों के बिना पढ़े-समझे उद्धरण देना अपने को बौद्धिक साबित करने की एक कामयाब हिकमत रही है। कई बार इन उद्धरणों से लेख इतना बोझिल, बड़ा और अपठ हो जाता है कि उसे रद्दी की टोकरी में डालना ही अंतिम विकल्प होता है। लेखकों खासतौर से आलोचकों की उद्धरण ठूंसने की इस बीमारी से परिचित विजय कुमार ने बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के विचारकों पर केंद्रित “अँधेरे समय में विचार” एक ऐसी किताब तैयार की जो वाल्टर बेंजामिन, थियोडोर एडोर्नो, जुरगेन हेबेरमास, टेरी इगलटन, फेडरिक जेमसे, मिशेल फूको, जाक देरिदा, सूसन सोटांग, एडवर्ड सईद सरीखे आधुनिक विचारकों को समझने के खिड़की है। बेहद सरस भाषा और आत्मीय शैली में इन विचारकों के माध्यम से बीसवीं सदी के बदलते जीवन और हलचलों की इसमें पहचान की गयी है। इसी तरह उनकी एक और अमूल्य पुस्तक खिड़की के पास कवि है जिसमें पहली बार बीसवीं सदी के सर्वाधिक चर्चित विश्व कवियों पर अनूठे लेख हैं जिनके बहाने हमारे समय के सृजन कर्म की मूलगामी चिंताओं को जांचा परखा गया है। इनमें अन्ना आख्मातोवा,ओसिप मंदेल्स्ताम, ज़िब्न्यु हरबर्ट, यानिस रित्सोस, यहूदा आमिखाई, महमूद दरवेश, विस्लावा शिम्बोर्स्का, अदम जिग्ज़ेवस्की, कार्ल्स अन्द्रादे डेरेक वाल्कोट की कविताओं के अनुवाद के साथ उनके कशमकश, सपनों, विडम्बनाओं, कौतूहलों को रेखांकित किया गया हैं। हिंदी में यह अपने ढंग की पहली किताब है। इन कवियों के अनुवाद तो हिंदी में इफ़रात में पढने को मिलते हैं लेकिन उनकी रचना प्रक्रिया और विचारों के बारे में अक्सर अँधेरा ही छाया रहता है। विजय कुमार की यह किताब अँधेरे में रोशनी की एक पतली शहतीर है।

 


 


हिंदी समाज पुस्तक प्रेमी नहीं होता। उसके घर में पुस्तकों के लिए जगह नहीं होती। कई बार घर में पुस्तकों के लिए नाक-भौंह सिकोड़ी जाती हैं। ऐसे समाज में किताबों को देख कर विजय जी की आँखों में बाल सुलभ निर्मल चमक आ जाती है। मुंबई की अच्छी किताबों की दुकानों से उनका गहरा परिचय अपनी हाथ की रेखाओं की तरह से रहता है। प्रख्यात आलोचक और पुस्तक प्रेमी डॉ. नामवर सिंह को भी वह कई बार उन दुकानों में ले गये हैं। दरअसल कविता की आधुनिक दुनिया में विजय जी का प्रवेश भी किताबों के जरिये हुआ था। कॉलेज प्रतियोगिता में पुरस्कार में मिले एक सौ रूपये से उन्होंने कवि मित्र की सलाह पर लगभग बीस कविता संग्रह एक साथ खरीद लिए और फिर उसके बाद उनकी दुनिया बदल गयी। मुझे स्मरण है कि मुंबई में पहली बार उन्होंने चर्च गेट पर मिलने के लिए मुझे व्हीलर बुक स्टाल पर बुलाया था जहाँ हिंदी की अनेक पत्र पत्रिकाओं को देख कर मैं सुखद विस्मय से भर गया था। फाउंटेन के पास पटरियों पर सजी पुरानी किताबों को ऐसे दिखाया था मानो उनसे बरसों से गहरा राफ्ता हो। घुटनों के बल बैठना एक लम्बे आदमी के लिए दुष्कर होता है। अपनी लम्बी टांगों पर उकडूं बैठे विजय कुमार वहां घंटों किताबें छांटते रहते। वीटी के पास स्थित किताब की दुकान “स्ट्रैंड” उन्होंने मुझे बतायी थी। जब भी किसी काम से मुझे मुंबई आना होता, सूटकेस लादे हुए उस दुकान की परिक्रमा लगाना मेरी कार्य सूची में होता। जैको पुस्तक केंद्र में जब वह स्पानी कवि लोर्का की हत्या से जुड़ी एक किताब को बांचने में डूबे हुए थे तो महान फिल्मकार सत्यजित राय ने उनसे यह किताब देखने की इच्छा व्यक्त की थी। फिल्मकार-गीतकार गुलज़ार को उन्होंने ही बांद्रा स्थित पुस्तक की दुकान लोटस के बारे में बताया था जहाँ गुलज़ार अक्सर जाते थे। किताबों से उनका अनंत प्रेम ही है कि वह आजकल एशियाटिक लाइब्रेरी के पुस्तक चयन समिति के सम्मानीय सदस्य हैं। कुछ साल पहले मेरे अनुरोध पर उन्होंने मुझे भी उसका पाठक सदस्य बनाया था लेकिन मुंबई की दूरी और मेरे आलस्य के चलते उसकी सदस्यता चल नहीं पायी। 


किताबों की तरह विजय का दूसरा प्यार सिनेमा है। दरअसल वह पुरानी फिल्मों और गानों के रसिया हैं। हिंदी फिल्मों से यह उनकी अनुरक्ति का प्रमाण है कि उन्होंने हिंदी फिल्मों की अभिनेत्री साधना, महान गायक मोहम्मद रफ़ी और रूपतारा स्टूडियो पर कविताएं लिखी हैं।


एक दौर था जब मित्र वत्सल विजय कुमार पहले अपने साथियों को खूब पत्र लिखते थे। अब उनका मोबाइल सबसे संवाद बनाये रखता है। कभी व्हाट्स अप पर किसी का लेख भेज देते हैं तो कभी किसी पत्रिका का पीडीएफ। कुछ साल पहले एकाध मित्र को छोड़ कर मुझसे कोई संवाद नहीं करता था। एकमात्र वही थे जो मुझे कभी-कभार फोन करते। वह अपने मित्रों का हौसला अफज़ाई करते रहते हैं। लिखने-पढने के लिए उकसाते रहते हैं। निजी बातें कम करते हैं। फोन पर वह बात की शुरुआत अक्सर किसी साहित्यिक या राजनीतिक सवाल से ऐसे करते है जैसे वह आपकी राय जानना चाहते हों, फिर धीरे-धीरे अपना मत प्रकट करते हैं। वह किसी पर अपने विचार नहीं थोपते. बातचीत में लोकतांत्रिक बने रहना उनका स्वभाव है। समकालीन साहित्यिक परिदृश्य से दुखी या हताश मित्रों को आशा के खटोले पर बिठा देते हैं। उनसे बात करके कई बार निराशा दूसरी तरफ़ करवट ले लेती है। उनकी आलोचना नये कवियों के प्रति उदार भी हुई है। मुंबई के अनेक युवा कवियों पर उन्होंने सहृदयता से लिखा है।


मुंबई प्रवास के दौरान उनको करीब से कुछ और जानने का अवसर मिला। वह बेहद भावुक हैं। मुंबई स्थित  मराठी और उर्दू के अनेक साहित्यकारों से उनका राब्ता रहा है। साहित्यिक और सांस्कृतिक तंत्र के खोखलेपन और अपसंस्कृति को ले कर उनके मन में गहरा तिरस्कार और चिंता रहती है। उन्हें लंद-फंद करने वाले लोग कम पसंद आते हैं। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। साहित्य में जिन मूल्यों को देख कर वह इससे जुड़े थे, वे अब धीरे-धीरे तिरोहित होते जा रहे हैं। भीष्म साहनी, कुंवर नारायण जैसी सादगी के वह प्रशंसक हैं। चाय प्रेमी हैं। सभा गोष्ठी खत्म होने के बाद वह अक्सर कहते हैं। चलिए! कहीं बैठ कर चाय की चुस्की ली जाय। अगर सच में आपको असली विजय कुमार से मिलना है तो चाय की चुस्की पर उनसे मिलिये। वह उस समय अपनी पूरी धज में रहते हैं। खुले, बेबाक और निष्कवच।


कोरोना के कारण चाय पर उनसे मिलने का मुझे इधर अरसे से इंतज़ार है।

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्वर्गीय कवि विजेंद्र जी की हैं।)

 

 

विनोद दास

 

 

सम्पर्क

 

मोबाईल – 09867448697

 

टिप्पणियाँ

  1. विजय कुमार जी के बारे में लिखे इस बहुत महत्वपूर्ण लेख हेतु बहुत साधुवाद सर।दरअसल उनके बहुत ध्यातव्य लेख, आलोचना पढ़ते लेकिन उनके व्यक्तित्व , कृतित्व पर नही पढ़ा था। आपने अपनी मित्रता का संदर्भ देते हुए बेहतरीन लिखा।सादर।

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