दुन्या मिखाइल दुन्या मिखाइल की कविताएं, अनुवाद : देवेश पथ सारिया
जीवन के कई रंग हैं। रंगों का कोलाज जीवन को निर्जीव होने से बचाता है। जब कोई कवि इस कोलाज को शब्द रंग देने लगता है तब एक कविता साकार होती है। वह कविता जिसके सरोकार व्यापक होते हैं। जिसमें संवेदनाएं कुछ इस तरह घुल मिल जाती हैं कि सहज ही वे अपनी लगने लगती हैं। दुन्या मिखाइल इराक़ में पैदा हुई कवयित्री हैं। वह लंबे समय से अमेरिका में रह रही हैं। वह अब अमेरिकी नागरिक भी हैं। उनके कविता-संकलन चर्चित रहे हैं और उन्हें कुछ प्रतिष्ठित पुरस्कार भी मिले हैं। हिंदी सहित संसार की कई भाषाओं में उनकी कविताओं का अनुवाद समय-समय पर होता रहा है। युवा कवि देवेश पथ सारिया ने हमारे अनुरोध पर दुन्या मिखाइल की कविताओं का अनुवाद पहली बार के लिए किया है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं दुन्या मिखाइल की कविताएं।
दुन्या मिखाइल की कविताएं
हिन्दी अनुवाद : देवेश पथ सारिया
(1)
कछुए की तरह
पीठ पर उठाए अपना घर
मैं फिरती हूं दरबदर।
(2)
दीवार पर लगा शीशा
नहीं दिखाता अब
उन लोगों के चेहरे
जो गुज़रते थे
उसके सामने से।
(3)
मृत व्यक्ति
चाॅंद जैसी हरकत करते हैं
धरती को पीछे छोड़
निकल जाते हैं दूर।
(4)
ओह, नन्ही चींटियों
कैसे तो तुम आगे बढ़ती जाती हो
पीछे मुड़ कर एक बार नहीं देखतीं
काश, पाॅंच ही मिनट को मिले होते मुझे उधार
तुम्हारे जैसे पैर।
(5)
हम सारे
पत्तियाॅं हैं पतझड़ की
झड़ जाने को तैयार।
(6)
मकड़ी
अपने ही बाहर
बनाती है एक घर
और उसे निर्वासन नहीं कहती।
(7)
हम
कुछ इस तरह भूले हैं
मृतकों के चेहरे
मानो सिर्फ़ एक बार हुआ था उनका दीदार
घूमते हुए दरवाज़ों के पार।
(8)
कोई कबूतर नहीं हूँ मैं
जिसे मालूम हो
घर की राह।
(9)
बड़ी आसानी से
उन्होंने हमारे उपजाऊ साल इकट्ठे किए
एक भूखी भेड़ को खिलाने के लिए।
(10)
बेशक़
तुम्हें नहीं नज़र आएगा
'मुहब्बत' नाम का लफ़्ज़
मैंने पानी पर लिखा था उसे।
(11)
पूनम का चाॅंद
सिफ़र सा दिखता है
जीवन, अंततः एक गोला है
(12)
दादा ने घर छोड़ा
हाथों में थामे एक सूटकेस
पिता ने घर छोड़ा, ख़ाली हाथ
पुत्र ने घर छोड़ा, बिना हाथ।
(13)
नहीं, मैं तुमसे उकता नहीं गई हूॅं
चाॅंद भी तो हर रोज़ आता है।
(14)
उसने अपने दर्द का चित्र उकेरा :
एक रंगीन पत्थर
समुंदर के गर्भ में बैठ गया
मछलियाॅं उसकी बग़ल से गुजर जाती हैं
उसे छू नहीं पातीं।
(15)
वह सुरक्षित थी
अपनी माॅं के पेट में।
(16)
लालटेनें रात की सच्ची मुरीद हैं
उनमें सितारों से ज़्यादा सब्र है
वे जलती रहती हैं सुबह तक।
(17)
मृतकों के अंतिम शब्द हैं
सामूहिक क़ब्रों के ऊपर खिले
रंग-बिरंगे फूल।
(18)
जो अंक अभी तुम्हें दिखते हैं
अगला पासा फेंकते ही बदल जाएंगे
ज़िंदगी अपने सारे चेहरे
एक बार में नहीं दिखाएगी ।
(19)
वह प्यारा-सा क्षण बीत गया
मैंने एक घंटा बिताया
उस एक क्षण के बारे में सोचते हुए।
(20)
हमारे कबीले के कुछ लोग जंग में मरे
कुछ लोग मरे अपनी ही मौत
उनमें से कोई ख़ुशी से नहीं मरा।
(21)
चौराहे पर खड़ी पर वह औरत
तांबे की बनी है
और वह बिकाऊ नहीं है।
(22)
अपने छोटे-छोटे पैरों पर
तितली ले कर आती है पराग
और जाती है उड़
फूल उसके साथ उड़ नहीं सकता
इसलिए उसकी पंखुड़ियां फड़फड़ाती हैं
जड़ें गीली हो जाती हैं।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
मेरा ताइवान का पता :
देवेश पथ सारिया
पोस्ट डाक्टरल फेलो
रूम नं 522, जनरल बिल्डिंग-2
नेशनल चिंग हुआ यूनिवर्सिटी
नं 101, सेक्शन 2, ग्वांग-फु रोड
शिन्चू, ताइवान, 30013
अच्छी कविताएं। सुंदर अनुवाद!
जवाब देंहटाएंपहली बार निरंतर अच्छी चीजें ला रहा है। बहुत बधाई!
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविताएँ। बहुत सुंदर अनुवाद।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएँ
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