रुचि बहुगुणा उनियाल की कविताएं

 


 

 

प्रख्यात कवि केदार नाथ सिंह की एक कविता है 'जाना' इस कविता में कवि जाना को हिन्दी की सबसे खौफनाक क्रिया मानता है। जाना का विपरीतार्थक शब्द है लौटना। लौटना सकारात्मकता का प्रतीक है। लौटना उम्मीद का प्रतीक है। लौटना जीवन का प्रतीक है। कवयित्री रुचि बहुगुणा उनियाल जीवन की समर्थक कवि हैं। वे मनुष्यता की पक्षधर हैं। अपनी मैं लौटूंगी कविता में वे लिखती हैं "जैसे लौटती है/ गाय/ अपने बछड़े के पास/ गोधूलि में,/ जैसे लौट आता है/ बचपन/ नाती-पोते के रूप में" आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं रुचि बहुगुणा उनियाल की कुछ नई कविताएं।

 

 

रुचि बहुगुणा उनियाल की कविताएं

 

 

मैं लौटूँगी 

 

 

जैसे लौट आती हैं 

ऋतुएँ,

 

 

जैसे लौटती हैं

हर शाम चिड़ियाँ 

घोंसले में,

 

 

जैसे लौटती है 

गाय

अपने बछड़े के पास

गोधूलि में,

 

 

जैसे लौट आता है 

बचपन

नाती-पोते के रूप में,

 

 

हाँ

मैं लौट आऊँगी 

एक दिन-

 

 

जैसे लौटती है 

एक मीठी याद,

 

 

बस तुम बचाए रखना

मेरे लौटने तक 

पुनर्मिलन की इच्छा!

 

 

 

तुम्हारी याद का रंग 

 

 

खिलता जा रहा है निरंतर इन उचाट गर्मियों में भी

पहाड़ों पे गुर्याळ/ साकीना / बुरांश

बेहिसाब लकदक खिलकर झुकी है "कुज्जू" की झाड़

पूरा पहाड़ मह-मह महक रहा है इन दिनों

लेकिन हाए.......

इन सब रंगों और ख़ुशबुओं का

इस विरहिणी आत्मा पर कोई असर नहीं पड़ता रे

क्या तुम्हारे लिए प्रेमिल कामनाओं की चाह रखता ये मन

समाज के साथ-साथ प्रकृति का भी अपराधी हो गया है?

बताओ तो मेरे जोगी! 

 

 

जाने कितने ही जीव-जंतुओं का ठौर यह पहाड़

मेरी विरह को ठिकाना नहीं दे पाता

जहाँ से भी गुजरती हूँ फूलों की महक मंद पड़ जाती है

तुम्हारी प्रीत की सुवास से लोबानी हो गई है देह मेरी

 

 

इन आँखों को केवल एक तुम्हारे

सलोने रूप का रंग याद रह गया है

पहाड़ पर खिले फूलों का रंग इन आँखों में अपना स्थान ही नहीं बना पाता 

प्रेम की रागिनी में डोलते पगों ने

धरती की प्रत्यंचा खींच दी है

और मौसम झुलसती ग्रीष्म ऋतु में ही 

ठहर के रह गया है! 

लकदक फूलों से सजे पहाड़ ने प्रतीक्षा में

बिछा दी हैं अपनी आँखें तुम्हारे स्वागत के लिए 

अरे मेरे प्यार.......

इससे पहले

कि समय के क्रूर आदेश का पालन करने को

विवश हो जाएं मेरे प्राण,

तुम प्रकृति का मौन संकेत समझ

"धै" लगाना मुझे सामने के पहाड़ वाली धार से....

तुम्हारी पुकार सुन इस पहाड़ी धरती की रीढ़

फिर से सीधी हो जाएगी

फिर बरसेगा प्रेम और ये गर्मियों के दुर्दिन बरसात का मुँह देखे सकेंगे !

 

 

(गुर्याळ, साकीना, बुरांश, कुज्जू-पहाड़ों पर खिलने वाले फूल /धै- पुकार लगाना) 

 

 

 

जरा सा 

 

 

बचा रहे प्यास बुझाने जितना 

पानी बादलों की कोख में....,

 

 

दुनिया भर के दुःखों की कठोरता के उत्तर में 

धरती के आँचल में

नर्म दूब बची रहे..,

 

 

ज़रा सी लाज बची रहे

ताकि बचा रहे स्त्रीत्व...,

 

 

बूढ़ों के सामने नई पीढ़ी की 

आँखों में थोड़ी सी शर्म के साथ

बचा रहे लिहाज़ जरा सा..,

 

 

द्वार पर आए साधु को

देने के लिए कोठार में नाज बचा रहे जरा सा,

 

 

तुम्हारे भीतर बची रहे मेरी याद जरा सा

जरा सा मुझसे मिलने की इच्छा बची रहे,

 

 

दूर होने पर भी दोनों के बीच बचा रहे प्यार जरा से विश्वास का दामन थामे हुए

ताकि दुनिया जीने लायक बनी रहे जरा सा !

 

 


 

 

पहाड़ी लड़की

 

 

शहर से अपने पहाड़ लौटती

मेरे भीतर की लड़की को

आगोश में ले लेती है पहाड़ी ठंडी हवा

करती है सरगोशी कानों में

जैसे दिन भर मेरे पीछे क्या-क्या हुआ

इसकी कर रही हो चुगली।

 

 

पहाड़ लौटती मेरे भीतर की पहाड़न को

मेरा पहाड़ देता है "हरी थपकियाँ" 

मानो दे रहा हो आश्वस्ति

कि "तू कहीं भी हो कर लौट... 

मैं तेरे भीतर की नर्माहट और हरितिमा

लौटाऊँगा हर बार तुझे वापस"

 

 

कंक्रीट के जंगल में धुंए और गंदगी से

दुखती आँखों पर

रखती हैं पहाड़ियां "हरियाली के फाहे" 

विषैली हवा और लोगों की दोहरे चरित्रों से

झुलसी मेरी आत्मा को

फिर से अपनत्व की संजीवनी से

दुलारता है मेरा पहाड़

और बचा लेता है मरती संवेदनाओं की "कुट्यारी" अंतस में मेरे।

 

 

शहर से अपने घर, पहाड़ लौटती पहाड़न को

पहाड़ी हवा /पानी / खुला नील गगन और पहाड़ी का "गात" देता है

असंख्य कविताएँ जो मेरे भीतर

एक चंचल /निश्छल /शैतान "पहाड़ी लड़की" को

रखती हैं चिरयुवा हर विषम परिस्थिति में।

 

 

(गात-देह/कुट्यारी-छोटी सी पोटली जिसमें कुछ मनपसंद रखा हो) 

 

 

 

 

''

 

 

तुम चाहो तो  "" से पलायन के बजाय

बोल सकते हो  "" से पहाड़

लेकिन "" से पहाड़ बोलने के लिए

डालनी होगी आदत

"" से पीड़ा को आत्मसात करने की

"" से प्रसव पीड़ा से तड़पती

पहाड़ी स्त्री के जितनी ही.....

जो छोड़ जाती है अपने दुधमुंहे को

समय पर अस्पताल तक की अलंघ्य दूरी

नाप सकने के कारण!

"" से पहाड़ आत्मसात करने के लिए

सीखना होगा तुम्हें शांत पहाड़ियों के भीतर का

अंतर्नाद सुनने का गुण......

 

 

"" से पहाड़ बोलने से पहले

स्कूल तक मीलों की दूरी

गाड_गदेरे, नदी_नाले, और सुनसान

पहाड़ी उतार_चढ़ाव की परवाह किए बिना 

"" से पैदल ही तय करने का

करना होगा अभ्यास.....

 

 

"" से पहाड़ बोलने के लिए

डालनी होगी आदत तुम्हें

"" से पीर को अपने सख्त चट्टानी सीने में छुपा कर 

निःस्वार्थ भाव से छलछलाती

स्नेह की निर्झर गंगा बहाने की.....

 

 

परन्तु तुम इतना कष्ट सह सको इसकी योग्यता नहीं रखते

इसलिए तुम "" से पलायन ही बोल सकते हो।

 

 

 

हरी कविताएँ 

 

 

रो लेने से हल्का होता मन

अक्सर ही बादलों को

सौंप देता है भारीपन

तब देर तक बरसते हैं मेघ!

 

 

जब भी रोए बादल

धरती ने उन्हें सहेजा

और लिखीं पीड़ा की

"हरी कविताएँ" अपने आँचल में! 

 

 

आकाश निहारता रहता है 

धरती का रचनाकर्म

पीड़ा को सहेज कर धरती ने

सृष्टि का कंठ तृप्त किया

बादल पीड़ा से मुक्त हुए

परन्तु आकाश रिक्तता से व्यथित!

 

 


 

ईश्वर तुम आत्महत्या कर लो

 

 

ईश्वर तुम आत्महत्या कर लो अब

सही वक्त पर तुम्हारे अस्तित्व का

समाप्त हो जाना ही अच्छा है

अपने झूठे मुखौटे को हटाओ

और कर लो स्वीकार

कि सिसकते हो तुम भी!

 

 

यदि ये दुनिया तुम्हारे लिए खेल है

तो तुम्हें नहीं लगता

कि खेल एकतरफ़ा होता जा रहा है

कि कमज़ोर के आँसुओं से अब

तुम्हारी सत्ता डिगने की कगार पर है?

 

 

इससे पहले कि कमज़ोर,.... 

जिसकी प्रार्थनाएँ तुम्हारे वज़ूद को बचाए हुए हैं,

उतार दे तुम्हें सिंहासन से तंग कर

नकार दे तुम्हारा ईश्वर होना

उजाड़ दे तुम्हारे बड़े-बड़े मंदिरों का अस्तित्व

और तुम्हारी ईश्वर होने की नौकरी से 

तुम्हें बेदखल कर दे

तुम आत्महत्या कर लो!

 

 

सुना है कि तुम्हें धरती पर

सबसे अधिक प्रिय बच्चों की मुस्कानें हैं

कि चिड़ियों की चहचहाहट तुम्हारा संगीत है

कि तुम तितली के पंखों के रंग से करते हो श्रृंगार

कि तुम प्रेम की भाषा समझते हो

तो क्यों नहीं देते सज़ा?

उन्हें जो बच्चों का बचपन उजाड़ देते हैं

जो चिड़ियों के पंख कतर देते हैं

जो तितलियों के रंगीन परों को मसल देते हैं

जो भय, नफरत, हथियारों की भाषा सीखा रहे हैं!

 

 

बुढ़ा गए हो तुम ईश्वर

अब तुम घर के बाहर देहरी पर बैठे

बुजुर्ग माँ-बाप की तरह लाचार हो

जिसे कभी भी उनकी संतानें 

भेज सकती हैं वृद्धाश्रम!

तुम झूठी हंसी के पीछे ठीक वैसे ही

छुपा रहे हो अपने आँसू

जैसे कोई कलाकार अपने चेहरे पर

पोत लेता है कई परतें श्रृंगार की!

 

 

असल में ये दुनिया अब वैसी रह नहीं गयी

जैसी तुमने बनाई थी

इसलिए...

कमज़ोर बेबस तुम्हारे वज़ूद को

नकार दे उसके पहले 

तुम आत्महत्या कर लो ईश्वर!

 

 

 

गुरुत्वाकर्षण 

 

 

धरती अपनी धुरी पर घूमती हुई

हर बार अपने उस कोने की ओर झुक जाती है

जिस कोने में रहते हैं हम-तुम

 

 

जितनी बार तुम चूम लेते हो मेरे माथे का सूरज

उतनी बार धरती पर गुरुत्वाकर्षण का बल

अपनी नियत नियमावली के विरूद्ध हो जाता है

 

तुम्हारे एक चुम्बन का भार

धरती पर मौजूद हज़ारों दुःखों के

भार का महत्व शून्य करने को पर्याप्त है।

 

 

 

परिणाम 

 

 

तुम्हारे पास

शब्द ही शब्द... शब्दों का शिल्प

मेरे पास चुप्पियाँ

कभी-कभार जो मुझे मिले भी शब्द

तो तुम्हारे पास अनगिनत अर्थ

कई बार इन अर्थों से गढ़ता अनर्थ

मेरे पास तुम्हारे शब्द और

तुम्हारे पास अर्थ का 

संयुक्ताक्षर शब्दार्थ 

मेरे पास भाव

तुम्हारे पास भावार्थ

भावार्थ से विश्लेषण

विश्लेषण से अक्सर ही निकला

अप्रिय परिणाम।

 

 

पुकार

 

 

तुम्हें पुकारती हुई मेरी आवाज़ के कंपन से

थरथराती है हवा की देह

वेगवती पहाड़ी नदी के फेनिल स्वच्छ बहाव में भी

ठिठक कर रुक जाती हैं मछलियाँ

इस कातर पुकार का स्वर

छेड़ता है सिम्फनी का एक और अभिनव सुर

धू-धू कर जलती हैं तुमसे मिलने की

कोमल कामनाएँ और मेरी आत्मा से उठती लपटें 

दूर पहाड़ी की चोटी पर रंगती हैं बुरुंश के 

फूलों की सुकोमल पंखुड़ियां

 

 

बिछड़ जाने की पीड़ा से चोटिल 

और तुम्हारे स्वर की छुअन याद करती आत्मा

जैसे एक पहाड़ी शहर हो

जिसकी हर गली के मोड़ पर

तुम्हारा इंतज़ार करती ठिठुरती स्मृतियाँ उकड़ूं बैठी हैं

कहीं दूर पहाड़ी की धार पर

उतरती नवोढ़ा वधू-सी सांझ के आँचल में

तुम्हें लगाई पुकार

बूटों की तरह टांकती है तारों की लड़ी

गहराती रात की कालिमा में ऊँगलियां डुबो कर

प्रतीक्षा में थकी आँखों को सुरमा लगाती हूँ

 

 

सुनो प्यार मेरे......

बस ! एक बार तुम पुकारना

शरीर के शिथिल होने से पहले

मुझे अपने दिये नाम से

इन सब जंजालों से दूर

मृत्यु की ठंडी गोद में सोने के लिए

मेरी आत्मा कात लेगी...

तुम्हारे स्वर से कुनकुना सूत! 

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं)

 

 

बायो डाटा

 

* नाम : रुचि बहुगुणा उनियाल

* जन्म स्थान : देहरादून

* निवास स्थान : नरेंद्र नगर, टिहरी गढ़वाल

* प्रकाशन : प्रथम पुस्तक - मन को ठौर

              (बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित)

  प्रेम तुम रहना, प्रेम कविताओं का साझा संकलन 

  (सर्व भाषा ट्रस्ट से प्रकाशित) 

* पिछले तीन सालों से लगातार दूरदर्शन आकाशवाणी पर रचनाओं के प्रसारण के साथ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंंतर लेख कविताएँ प्रकाशित, विभिन्न ऑनलाइन पोर्टल पर सतत रूप से लेख कविताओं का प्रकाशन सभी प्रतिष्ठित ब्लॉग्स में कविताएँ प्रकाशित।

 

 

 

संपर्क 

 

मेलruchitauniyalpg@gmail.com

मोबाइल नंबर - 9557796104 

 

टिप्पणियाँ

  1. बहुत खूबसूरत कविताएं ..

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  2. बहुत सुंदर कविताएँ

    जवाब देंहटाएं
  3. परिणाम और जरा सा बहुत पसंद आयी।शुभकामनाएं💐💐

    जवाब देंहटाएं
  4. वैसे तो सारी कवितायें एक से बढ़ कर एक हैं पर ईश्वर तुम आत्महत्या कर लो एक सशक्त कविता के रूप में दर्ज करुंगा। यह कविता ईश्वर के अस्तित्व को मानते हुए भी उसकी निरीहता को चित्रित करने के कारण विशिष्ट है। गहरे आक्रोश में लिखी गई यह कविता चिंतन के विविध आयामों को खोलने में सक्षम है।
    ललन चतुर्वेदी

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    1. मैं हृदय से आभारी हूँ आपकी आदरणीय इस अनुपम टिप्पणी हेतु 🙏🏻

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