यतीश कुमार का यात्रा वृतांत 'राउरकेला की यादगार यात्रा'

                                                                   यतीश कुमार


यात्राएँ किसी भी व्यक्ति को हमेशा समृद्ध करती हैं। यात्राओं से व्यक्ति के जीवन की एकरसता टूटती है। इससे व्यक्ति न केवल सामाजिक बल्कि रचनात्मक स्तर पर खुद को बेहतर महसूस करता है। कवि यतीश कुमार लगातार यात्राएँ करते रहते हैं। हाल ही में यतीश का राउरकेला जाना हुआ। उन्होंने राउरकेला का एक यात्रा वृत्तान्त शब्दबद्ध कर भेजा है। इस यात्रा वृत्तान्त में उन्होंने जीवन के उस सत्य का नजदीक से दीदार किया जिसे एकमात्र और अन्तिम सत्य भी कहा जाता है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं यतीश कुमार का यात्रा वृत्तान्त 'राउरकेला की यादगार यात्रा'।


 
 
राउरकेला की यादगार यात्रा


यतीश कुमार 

 



सरकारी चाकरी में कई बार झटके का सफ़र होता है। झटका मतलब बिना वक़्त दिए गन्तव्य की ओर पलायन। जनवरी में मुझे ऐसे ही एक झटकेदार यात्रा में राउरकेला (उड़ीसा) जाना पड़ा ।


मुम्बई मेल में अब साधारण आईसीएफ कोच की जगह आधुनिक एलएचबी कोच ने ले ली थी। (Linke Hofmann Busch (LHB) कोच भारतीय रेलवे के यात्री कोच हैं जिन्हें जर्मनी के Linke-Hofmann-Busch द्वारा विकसित किया गया था)। आधुनिकता के साथ ये कोच झटके देने के लिए मशहूर है। झटके के कारणों की विवेचना फिर कभी करेंगेअभी तो घुप्प अंधेरी रात में ठंड को चीरती हुई हमारी ट्रेन मध्य रात्रि में सफर कर रही थी। नरेंद्र कोहली की महाकृति महासमर का पहला भाग पढ़ते पढ़ते कब नींद ने मुझे राउरकेला पहुँचा दिया पता ही नहीं चला।


प्रातः 04:55 में ट्रेन से उतरते ही राउरकेला की ठंड का एहसास हुआ जब एक तीव्र शीत लहर ने मेरी रीढ़ की हड्डी में थरथराहट छेड़ दी। होटल पहुँचते ही मैंने महासमर में फिर से डुबकी लगा ली।
 
 
 

 


राउरकेला अपने स्टील प्लांट के लिए प्रसिद्ध है और प्रसिद्ध है अपनी सादगी और सफाई के लिए भी। कोई मार-काट नहीं, इस शहर में अंतिम हत्या कब हुई थी पूछने पर मेरे राउरकेला के साथी ने बताया याद नहीं। बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ सुन कर, कानों को विश्वास नहीं हो पा रहा था।


दिन में धूप ने बड़ा सुकून दिया और वक़्त से पहले ही मेरी अकस्मात् यात्रा का ध्येय पूर्ण हुआ और मैं बिलकुल आज़ाद हो गया। गूगल के सहारे जाना कि उस शहर में कुछ ख़ास जगहें हैं  जिन्हें देखे-जाने बग़ैर इस शहर से गुज़रना, इस यात्रा के साथ पूर्ण न्याय नहीं होगा । मैंने ड्राइवर को सीधा वेदव्यास मंदिर ले जाने को कहा । वहाँ देखा कि संध्याकालीन बेला उस जगह को और भी पवित्र बना रही थी । महाभारत के जनक महर्षि पराशर और मत्स्यगंधा सत्यवती के पुत्र महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्रपाण्डु और विदुर के पिता भी थे और दूर इसी आश्रम में बैठ सारे महाभारत की घटना को लेखनी दी। महर्षि ने जिस जगह गुफा में बैठ कर इस ग्रंथ की रचना की थी वहीं आज मैं भी चिंतन कर रहा था ।


सामने कोयल नदी झारखंड के काले कोयले को धोती हुई, सारी गंदगी को अपने में समेटे बही आ रही थी। दूसरी ओर से शंख नदी छत्तीसगढ़ की पवित्रता समेटे चली आ रही थी। काले पानी की कोयल और धवल जल लिए शंख नदी का मिलन अद्वितीय सम्मोहित करने वाला दृश्य समेटे था। सुना था सरस्वती भी कभी मिली थी इसी जगह और तीनों मिल कर तृधारा संगम कहलाते थे। ये नदियाँ अंततः ब्राह्मणी नदी बन आगे की यात्रा करती बहे जा रही थी। ब्राह्मणी नदी तो आज भी बह रही है पर सरस्वती का नामोनिशान मिट चुका था। हाँ, वहीं घाट पर एक दिव्य कुंड आज भी उपस्थित है जिसमें अपना मुख साफ़-साफ़ झलक रहा था मुझे। वहाँ बैठे पंडित बाबा ने यह भी बताया कि इस दिव्य कुंड के पानी का स्रोत प्राकृतिक है। नदी तल से 100 मीटर की ऊँचाई पर स्थित इस कुंड के जल का स्तर पूरे साल एक सा रहता है, चाहे नदी में उफान आये या सूखा।
 
 
कोयल नदी

 

मैं आश्चर्यचकित विस्मित प्रकृति के जादू के सामने घुटने टेके अपने नन्हें अस्तित्व को देख रहा था। जहाँ तीन नदियों का संगम इंगित कर रहा था कि अंततः ब्रह्म में ही विलीन होना है हर वर्ण, हर समुदाय, हर रंग को अंत में एक ही रंग में रंग जाना है। ब्राह्मणी नदी में संगम होना और एक नदी बन जाना मानो यही दर्शा रहा था कि सत्य ब्रह्म सार ही बचेगा और उस सार का निचोड़ सरस्वती अपनी अवस्था, अपनी स्थिति, अपनी सत्यता समेटे एक पिंड में प्राण की तरह मिलेगी, जैसा मुझे उस कुंड के समान जलस्तर में दिखा था।


अपने हिस्से का सूरज ‘सत्य और सारअपनी कविता में ढालूँगा, यही सोच कर असीम शांति लिए जैसे ही आगे बढ़ा था कि उसी बाबा ने मुझे टोका और कहा यह तुम्हारी अकस्मात यात्रा नहीं थी बेटा। तुम्हारा यहाँ आना तो तुम्हारे जन्म के साथ तय हो चुका था और अगर सत्य ने तुम्हारी साँकल खटकायी है तो उसकी आवाज़ भी सुनते जाओ।


मेरी आँखे फटी की फटी रह गयीं। लगा ये बाबा इस पवित्र स्थली पर अपना वक़्त ज़ाया नहीं कर रहे हैं, सब अपने-अपने हिस्से का सूरज खोज रहे हैं, सत्य ढूँढ रहे हैं।


बाबा ने फिर टोका, “अर्ध-सत्य लिए मत जा बच्चे। आगे ही मोक्ष धाम है, जान ले ज़िंदगी का मर्म और सीख ले बचा हुआ सत्य। तूने सृष्टि के रचना की झलक देखी है, अब उसकी पूर्णता देख। मुझे डर लग रहा था, ये मोक्ष धाम क्या जगह है। शाम ढलने वाली थी, सूरज ढकने वाला था और मन थकने लगा था। मेरी उबाहट हावी हो रही थी। मेरी अलसाहट ने मुझे समझाना शुरू कर दिया था- चलो यहां से निकल चलो, ज़्यादा ज्ञान तुझे हज़म नहीं हो सकेगा। इसके बाद जैसे ही मेरे पैर गाड़ी की ओर बढ़ा ड्राइवर ने टोक दिया। लगा जैसे ड्राइवर नहीं बाबा सामने खड़े हैं और मुझे घूर रहे हैं। मुझे ख़ुद अंदर से शर्म आने लगी, फिर बाबा और ड्राइवर से नज़रें छुपाते हुए मैं मोक्ष धाम की ओर चल चुका था।


मोक्ष धाम वहीं दो क़दम पर ही था जहां ब्राह्मणी नदी जन्म ले रही थी। घाट किनारे बना हुआ यह धाम एक सुंदर वाटिका की तरह था। प्रवेश-द्वार पर ही दीवार में मूर्तिकारी की बेजोड़ प्रस्तुति दिख रही थी। बाल्यकाल से मृतकाल के हर एक अवस्था, एक सोपान की तरह चित्रित थे और जीवन के सच को समझा रहे थे। मुझे बाबा का चेहरा याद आया फिर याद आया पूर्ण सत्य वाली बात, मुझे लगा क्या दरवाज़े पर ही सत्य का दर्शन है। मैं यही सोचते सोचते वाटिका के अंदर आ चुका था। वाटिका की भव्यता कुछ कहना चाह रही थी जिसे मैं समझने से डर रहा था।


सामने जलती लाश ने सब कुछ प्रत्यक्ष प्रस्तुत कर दिया था। मोक्ष-धाम एक श्मशान घाट था जिसे बेहद ख़ूबसूरत स्वरूप दिया गया था। पूरे श्मशान घाट को दस हिस्से में बाँटा गया था। हर चबूतरे को एक यज्ञ स्थली का रूप दिया गया था। दूर से हर गुम्बज एक मंदिर की तरह दिखता था जिसके निचले हिस्से यानी चबूतरे पर जलती रूहें मानो कोई यज्ञ हो रहा हो।


दसों चबूतरे के ठीक सामने ध्यान केंद्र बना हुआ था जिसका स्वरूप मंदिर की तरह था। आकबत के दर्द को भुलाने और तुरबत जैसे ध्यान लगाने के लिहाज़ से इससे अच्छी जगह नहीं हो सकती। अग्नि जलन की ताप चिंतन मुद्रा को पर्याप्त ऊर्जा प्रदान कर सके इस दृष्टिकोण से वह केंद्र बनाई लग रही थी।


क़रीने से अस्थि-कलश रखने का स्टैंड बनाया हुआ था, जैसे मानो बहिश्त बैकुंठ जाने की लाइन लगी हो। अद्भुत वातावरण, पूर्ण व्यवस्था, ब्राह्मणी नदी का कलकल और मोक्ष धाम सब मुझे वीतरागी बना रहे थे।


मैं पुलसिरात की ओर चल चुका था। अजाब से दूर मैं फ़ानी से लाफ़ानी के सफ़र पर चल रहा था। लग रहा था भगवान ने बसीरत प्रदान कर दी हो मैं भ्रम और अलीक छोड़ ब्रह्म की ओर चल चुका था। अचानक मेरे ड्राइवर ने मुझे झकझोर दिया, चिल्लाते हुए कहने लगा- आप को गर्म हवा और आग से भी डर नहीं लगता। मेरी आँखे खुल चुकी थी। मेरे बिल्कुल सामने पुरज़ोर से एक लाश फफक के जल रही थी और उसकी लपटों में कई भगवान के रूप बन रहे थे। मानो व्यास मुनि अपने 28 रूप का दर्शन करवा रहे हों, जैसे 28 जन्मों में व्यास मुनि ने महान ग्रंथ की रचना की थी। मेरी आँखे फटी की फटी रह गयी और भागता हुआ मैं बिना रुके सीढ़ियाँ फलाँगते एक साँस में अपनी गाड़ी में बैठ चुका था।


मेरी धड़कन गाड़ी की गति को मात दे रही थी और मैं अपनी अस्थिर स्थिति को शांत करने की कोशिश कर रहा था। बार-बार बाबा की आवाज़ कानों में गूंज रही थी- सत्य से बिलकुल पलक मात्र दूरी से लौट गए मूर्ख। आवाज़ गूँजती जा रही थी “मैं यहाँ वर्षों बिता चुका और जिस सत्य ने मुझे दर्शन नहीं दिया, उसको ठुकरा गए तुम।


मैं मानो अपनी आँख के साथ अंतर्मन के चक्षु भी बंद करने का सायास प्रयास कर रहा था। धीमे-धीमे गाड़ी ने अपनी गति कम की और मेरी मति पर स्वतः ब्रेक लगने लगा। मन स्थिर हो निद्रा अवस्था की ओर चहल क़दमी करने लगा कि अचानक ड्राइवर ने कहा- साहब होटल आ चुका है।


मैं चुपचाप उतरा, कुछ बख्शीश ड्राइवर को देते हुए कहा आज रात की मुंबई मेल से वापसी है, समय पर आ जाना। कमरे में पहुँचते ही मैंने अपने आप को शावर के हवाले कर दिया। देर तक ठंडा-गरम पानी के मिश्रण में अपने आप को घोलता रहा- मानो अपने अनुभव को स्वच्छ करने में सायास लगा हूँ और फिर बटोरेंगे उन पलों को जो मुझे अंदरूनी शांति दे। मेरे बेचैन मन को समंदर की लहरों से बदल कर कुएं का जल सतह प्रदान करे।


तकरीबन 12 बजे रात्रि पहर मुंबई मेल ने मुझे एच-1 कोच में समा लिया। अब मुझमें महासमर में डूबने की शक्ति नहीं थी। मैं बिलकुल शिशु की भांति गहरी नींद में डूबना चाहता था कि मेरे केबिन-बी में दो प्रौढ़ ने दाखिला लिया। उनकी ऊँची आवाज़ बता रही थी कि वो स्टील प्लांट के कोई मैनेजर थे।
 
 
 



रात को 12:30 बजे भी उनकी आवाज़ें मानो इंजन की आवाज़ को मात दे रही हों। मुझे बहुत क्रोध आ रहा था। उनका मोबाइल फ़ोन लगातार बज रहा था और वो अपनी क्षेत्रीय भाषा में ऊँची आवाज़ में बात किए जा रहे थे। कुछ देर बाद मुझसे रहा नहीं गया और मैंने तैश में आ कर उनसे और ऊँची आवाज़ में चिल्लाते हुए कहा- प्लीज मुझे सो जाने दें। दोनो अचानक ठंड में बाहर चले गए। मैंने बत्ती बुझा दी और करवट बदल कर सो गया।


ट्रेन अपने सामान्य समय से दो घंटे विलंब से हावड़ा स्टेशन में खड़ी थी। दोनों महाशय ने मुझे विनम्र आवाज़ में उठाया। फिर मेरे कंधे पर दोस्ताना हाथ रख दिया और कहने लगे- माफ़ कर देना, कल आपको तकलीफ़ दी।


मैंने भी हल्की मुस्कान के साथ कहा- कोई नहीं भाई। मैं भी थका था। तेज आवाज के लिए मुझे भी माफ़ कर दें। इतना कहते ही मैं यह भी पूछ बैठा कि इतनी रात को लगातार फोन करके आपको कौन परेशान कर रहा था।


वे दोनों हँस पड़े। कहने लगे मोक्षता का फोन था।


मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मैंने दोबारा प्रश्न किया- भाई मैं आपका छोटे भाई जैसा हूँ। साफ़-साफ़ बताएं।


दोनो ने एक दूसरे को देखा। एक हँसी दोनो के अधर पर फैल गयी और दोनो एक साथ कह उठे- हम दोनो भाई हैं। माता जी का देहांत दो महीने पहले हुआ था। कल रात बीते दस साल तक मौत से जूझते पिता जी को मोक्ष मिल गया।


घर से लगातार फ़ोन आ रहा था। ट्रेन की आवाज में ठीक से सुन नहीं पा रहे थे इसलिए थोड़ी ऊँची आवाज़ में बात करना पड़ रहा था। पिता जी ने दस साल माँ को देख कर बिस्तर पर बिताई । माँ के जाने पर टिक नहीं सके और हम ख़ुश हैं पिताजी को दर्द, खीज, चिड़चिड़ाहट से मुक्ति मिल गयी है।

 

मैं आश्चर्य विस्मित आँखें फाड़े दोनों के चेहरे को देख रहा था। फ़्लैश्बैक की तरह रात की सारी घटनाएं आँखों के सामने से गुज़र गयी थी। मैं इन पर किस तरह गुस्सा हुआ, क्या-क्या सोच रहा था इनके बारे में और मेरे चिल्लाने पर दोनों भले मानुष कड़कड़ाती रात में केबिन से बाहर चले गए थे।


बाबा फिर सामने से हँस रहे थे। मुझे लग रहा था मोक्ष धाम में सत्य की राह की जो शिक्षा बच गयी थी, अब शायद पूरी हो गयी। मैं अब बिना समझे, गुस्सा नहीं होता कभी भी...।



संदर्भ-

आकबत - मृत्यु होने के पश्चाताप के अवस्था
बहिश्त - बैकुंठ
अजाब - दुःख, पीड़ा
तुरबत - समाधिकब्र
पुल-सिरात - सच्चाई का पुल जो spirituality तरफ जाता है
बसीरत - ज्ञान चक्षु देखने की शक्ति
वीतराग - ऐसा व्यक्ति जिसने सांसारिक आसक्ति का परित्याग कर दिया हो। वह जो निस्पृह हो गया हो।
अलीक - विशेषण अप्रिय, मिथ्या।
लाफ़ानी - अमर



(इस पोस्ट में प्रयुक्त चित्र गूगल इमेज से साभार लिए गए हैं।)


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मोबाइल : 8420637209

टिप्पणियाँ

  1. लाजवाब यात्रा वृत्तांत सर

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  2. अंतर्जलि यात्रा... मन के आभ्यांतरिक आलोडन की बहुत ही जीवंत व्याख्या। मन से मन को जोड़ कर स्वयं का बहिर्प्रकाश बहुत ही आत्मीय भावनाओं के साथ मुखर हुई हैं। 👏👌🙏

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  3. अति सुंदर यात्रा वर्णन है पढ़कर आनंद आ गया

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  4. यतीश जी इतना भावपूर्ण ज्ञानात्मक और मार्मिक चित्रण सच मे अभिभूत हो गया

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  5. सहज और रोचक वृत्तांत।
    इसे बच्चों के पाठ्यक्रम में लगाना चाहिए।

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  6. बहुत बढ़िया लिखा है पढ़कर तस्वीर उभरने लगी

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  7. सुन्दर यात्रा वृत्तांत

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  8. बहुत गतिशील अनुभव। जिसमें आध्यात्मिक धरातल भी है, लौकिक भी। यात्रा में जो अनुभव मिलते हैं वो किसी भी शिक्षण संस्थान में नही मिल सकते। उदात्त भाव से खुद को सौंपते चलिए, तो रहस्य बनते और खुलते भी चलते हैं।

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  9. ओह ! इस संस्मरण को हम पढ़ रहे थे या स्वयं अनुभव कर रहे थे !
    जलती हुई चिता में महर्षि वेदव्यास के 28 जन्मों का रूप देखने का साहस कैसे कर पाये आप ? हमारी धड़कनों की गति बढ़ गई थी ....लेकिन उत्कंठा उसके आगे भी देखने/पढ़ने की थी .....इसे और जानना है ....!

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  10. Puri yatra ka vratant ek aakarshak flow me. Shamshan ghat ka bahut shandar dhang se kissa batana fr last me hawrah me utarkar dono se batcheet sb kuch Dil ko chhoo gya . Ek shandar yatra . Bahut badhiya.

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  11. कमाल है, मेरे संदेह और गहरे हो रहे हैं...

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