सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'प्रतिभाओं के सीमांकन और अनुकूलन के द्वंद्व'
सेवाराम त्रिपाठी
प्रतिभा नैसर्गिक होती है। लेकिन खुद को लगातार मांजते रहने की चुनौती भी इसके सामने होती है। जो इस चुनौती पर खरा उतरता है वह खुद को तो साबित करता ही है अपनी प्रतिभा से समाज, देश और दुनिया को लाभान्वित करता है। कवि आलोचक सेवाराम त्रिपाठी ने इस संदर्भ में दृष्टिपात करते हुए एक विचारोत्तेजक लेख लिखा है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'प्रतिभाओं के सीमांकन और अनुकूलन के द्वंद्व'।
प्रतिभाओं के सीमांकन और अनुकूलन के द्वंद्व
सेवाराम त्रिपाठी
हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या प्रतिभा का कोई ठीक ठाक मानदंड हो सकता है। सचमुच नहीं हो सकता? यानी प्रतिभा मानदंडों से हमेशा ऊपर है। वह इसलिए कि प्रतिभा में व्यापकता एवं गहराई दोनों होती है। उसमें कुछ अति चमत्कृत कर देने वाली क्षमता होती है। प्रतिभा में जितनी प्रखरता होती है उतना ही तर्कपूर्ण और अर्थपूर्ण नजरिया होता है। मुझे लगता है कि प्रतिभा में द्वंद्व भी होता है और दृष्टि का विस्तार भी। जाहिर है कि हमें यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि प्रतिभा का क्या कोई केंद्र भी होता है। जहां आवाजाही करते हुए वह सतत काम करती है। प्रतिभा को क्या ठीक ढंग से अंटाया जा सकता है? प्रतिभा में विस्फोट करने की अद्भुत क्षमता होती है। प्रतिभा को किसी भी तरह एक औसत खाते में न तो ठहराया जा सकता और न उसे किसी भी तरह ज्यादा समय तक छेंका जा सकता? प्रतिभाएं अपना रास्ता खोज लेती हैं। यही नहीं उन्हें यदि रोकने के प्रयास होते भी हैं तो वे समूचे तटबंध तोड़ दिया करती हैं। प्रतिभा संघर्ष किया करती हैं। अपनी मंज़िल वे किसी न किसी तरह ढूंढ ही लेती हैं।
यूं तो प्रतिभा के बारे में लगातार बातचीत होती रही है। न उसका सीमांकन हो सकता और न अनुकूलन। हमारे जीवन में प्रश्न उठना अत्यंत सहज और स्वाभाविक प्रक्रिया है? प्रश्न हैं तो उनके उत्तरों की तलाश भी की जाती है। इस दौर में अनंत प्रश्न दहाड़ रहे हैं और उत्तर देने के बजाय या तो बहलाया जा रहा है या उन्हें दूसरी दिशाओं में मढ़ा जा रहा है। मुकुट बिहारी सरोज ने एक गीत लिखा था-
"सब प्रश्नाें के उत्तर दूंगा लेकिन आज नहीं?"
इधर उत्तर न देने की परिपाटी विकसित कर ली गई है, केवल घोंघा बजाया जाता है। उत्तर देने की औकात भी होती है?
सिद्धांतों की असली परीक्षा व्यवहार के विशाल पटल पर ही संभव होती है। सिद्धांतों के प्रसंग-संदर्भ और व्याख्याएं भी होती हैं। उसकी पहचान और विशिष्टताएं भी होती हैं। व्यवहार उसका मूर्तिमान रूप है? सत्य कहना सिद्धांत में जितना सरल है, व्यवहार में उतना ही कठिन और दुष्कर? है कि नहीं? यह बहुत मुुश्किल और गंभीर जीवन वास्तव की चीज़ है? उसके अनुपालन में दांतों तले उगली दबानी पड़ती हैं। परंपराएं हमेशा परंपराएं नहीं होतीं, समय की चाक पर जब भी वे चढ़ती हैं तो उनकी कांट -छांट होती है? कुछ जुड़ता है, कुछ घटता है और बहुत कुछ बदलता रहता है? प्रश्न है कि प्रतिभा का मूल्यांकन कौन करे? वह भी अपने आप को प्रतिभावान कहता है जो समय की चकाचौंध में अपने को लगातार महिमावान रूप में स्वीकृति देता है? बखानता है और महिमा मंडित होने की ख्वाहिश रखता है। कबीर ने कभी बहुत अच्छी बात कही थीं।-
"जा का गुरु है आंधरा, चेला खरा निरंध्र।
अंधम अंधा ठेलिया, दोनों कूप परंतु।।"
जाइए जिसको जहां जाना हो? सोचते नहीं लोग चले जा रहे हैं एकदम निर्द्वंद्व।
मैं मानता हूं कि प्रतिभाओं के लिए हमेशा हमारे पास हाशिए होने चाहिए ताकि हम उन हाशियों में कुछ नोट्स ले सकें या नोट्स लिख सकें। नोट्स बनाने भर के लिए नही होते। वे उत्साह के लिए भी होते हैं और कुछ संकेत के लिए भी होते हैं? मुक्तिबोध ने 'एक साहित्यिक की डायरी' नामक क़िताब में हाशिए पर कुछ नोट्स शीर्षक निबंध में कुछ इसी तरह की बातें की थीं। भारतीय सभ्यताओं की निर्मिति में मनुष्य की अपार भूमिका रही है? योग्यता को कोई हमेशा-हमेशा के लिए रोक नहीं सकता? हमारे ज्ञान की गंभीर और अप्रतिम सीमाएं हैं? सभ्यताएं प्रवृत्तियों, प्रभावों को साथ ले कर चलती हैं। इसलिए उन्हें सीमाओं में किसी से कैद नहीं किया जा सकता? उन का छोटा सा अंश भी विभिन्न गलत मान्यताओं को ध्वस्त करने में सक्षम है?
हम विज्ञान की परिधियों के बीच हैं? इतिहास की दुर्गति यह है कि हम उसके असंख्य प्रमाणों को, उसके प्रभाव को अपने उत्साह के अतिरेक में झूठ में बदलते रहते हैं? झूठ, छल कपट और धोखा भी खुला खेल खेलता है। इतिहास की विकृतियों का करिश्मा चल रहा है।
एक दूसरा रूप भी देखें। यह उसी तरह है जैसे कुम्हार जब चाक पर मिट्टी का लोंदा चढ़ाता है तो अपने मनोविज्ञान और कलात्मकता के आधार पर असंख्य चीजों की निर्मित करता है? वह अपने कलात्मक वैभव द्वारा चाहे जो बना ले? लेकिन वह आवश्यकताओं के आधार पर सब कुछ चयन किया करता है। वह बिक्री का बाज़ार भी देखता है और जीवन मूल्यों का यथार्थ भी?
प्रतिभा का परीक्षण भी सतत होते रहना चाहिए? तभी उसमें धार आती है? यह समय सहज स्वीकार का शायद समय नहीं है? हम उत्तरोत्तर विविध संचार माध्यमों के बीच हैं। यह भी देखना ज़रूरी है कि कहीं उनका अनुकूलन तो नहीं किया जा रहा? अनुकूलन के दुष्परिणाम भी होते हैं या हो सकते हैं? सामाजिक सांस्कृतिक विकास एक क्षणिक परिघटना नहीं होती? हम यह भी अनुभव करें और कोशिश भी कि उनका अनुकूलन किसी भी तरह होने न पाए?
प्रतिभा और अभ्यास की द्वंद्वात्मकता पर संस्कृत काव्य शास्त्र में बड़ी गम्भीर चर्चाएं होती रही हैं? अब परिदृश्य बदला तो वो ढांचे भी तहस-नहस हो रहे हैं? सभी मानक आहिस्ता-आहिस्ता ढहाए जाते रहे हैं? बहरहाल प्रतिभाओं के संदर्भ में अभ्यास की गतिशीलता के अपार क्षमता वाले संसार में कुछ कहनेऔर करने की लगातार कोशिश की जाती रही है।
प्रतिभाओं के अनुकूलन के द्वंद्व भी कम नहीं हैं। कुछ शक्तियां इस तरह के प्रयास भी करती रहतीं हैं। इसे किसी भी सूरत में अनदेखा नहीं करना चाहिए। असमंजस हों या द्वंद्व हों कुछ इसी अंदाज में बातें सामने आती हैं। कबीर ने कभी लिखा था -
"नाचै ताना नाचै बाना,
नाचै कूंच पुराना री माई को बीनै।
कर गहि बैठ कबीरा नाचै,
चूहै काट्या ताना री माई को बीनै।।"
उसमें केवल एक चीज़ जोड़ना शेष है -
"सबद मिलावा होइ रहा, देव मिलावा नाहिं।"
संवाद से बाहर जाने के यही परिणाम होते हैं?
अनेक लोग इन प्रश्नों को अपने तईं रेखांकित किया करते हैं - उनके संदर्भों को भले ही उजागर कर दिया जाए, पर कुछ कोण तब भी मौजूद रहे आते हैं। इन प्रश्नों को अंतरभूत करने से भी काम नहीं चलेगा क्योंकि प्रश्न जब भी उठ रहे हैं। जवाब मांगेंगे ही। हो यह रहा है कि हम हाशिए के विस्तृत संदर्भों को बहुत कम आंक रहे हैं? हाशिए में प्रतिभाओं के लिए कुछ नोट्स या टिप्पणियां होती हैं। माना कि कुछ संकेतक भी होते हैं और कभी -कभी तो ये संकेतक बहुत महत्वपूर्ण भी हुआ करते हैं। ऐसा माना जाना चाहिए और कभी-कभी तो इसके अनेक रूप भी होते हैं। हाशिए कभी भी नकारात्मकता के सूचक नहीं हैं, जबकि ऐसा मान लिया जाता है। जाहिर है कि ऐसा नहीं मानना चाहिए। उत्तर संक्षिप्त हो सकते हैं। निश्चय ही प्रतिभाओं के ताप को हमेशा के लिए चाह कर भी रोका नहीं जा सकता? योग्यताएं उन्हें मुखर करती हैं और निरंतर प्रमाणित भी। हमारा इतिहास और वर्तमान इससे अछूता नहीं है।
अनुकूलन का मतलब अंग्रेजी के कंडीशंड से होता है? लोग या अन्य उन्हें कुछ समय के लिए अनुकूल बना सकते हैं? उनका अनुकूलन कर सकते हैं या बना सकने के खेल रच सकते हैं लेकिन हमेशा-हमेशा के लिए नहीं? हमारा लोकतंत्र इस झमेले में है। संघर्षों और द्वंद्वों का क्या होगा? इस कंडीशनिंग के रिफ्लेक्शन भी होते हैं या अन्य उन्हें अपने लिए अनुकूल बना देते हैं? जीवन में संघर्ष की बड़ी भूमिका होती है। जिसका सही-सही अंदाजा नहीं लगाया जा सकता? परीक्षण का मामला हमेशा तात्कालिकता से होना संभव नहीं है? उसकी प्रॉसिस या प्रक्रिया लंबी हो सकती है। अब कोई प्रतिभा सहन शक्ति के साथ होती है तो संघर्ष करती है। कुछ जल्दी ही निराश हताश होते हैं और अपने को रफ्ता-रफ्ता खत्म कर लेते हैं। खेती किसानी के संदर्भ में यह जानना समीचीन होगा कि खेती किसानी में बाढ़, अकाल या प्राकृतिक प्रकोप की अनेक घटनाएं घटती हैं? क्या निराश हो कर किसान खेती किसानी करना बंद कर देता है? नहीं न? मैं किसान का बेटा हूं और इन आपदाओं को समझता हूं। किसानों के कठिन संघर्षो को देखा भुगता है। मैंने 1964-65 के भीषण अकाल भुगते हैं। सचमुच किसान का कलेजा बड़ा होता है। इसे किसान आंदोलन ने प्रमाणित भी किया है?
हाशिए के संदर्भों को आखिर निराशा से ही क्यों जोड़ने के उपक्रम हों? क्या कोई दूसरा विकल्प नहीं है? इसका निपटारा मात्र किसी भी तरह की तात्कालिकता से संभव नहीं है? इसमें संभावनाओं के बड़े-बड़े रूपाकार होते हैं? प्रतिकूलता इस सिलसिले में कोई मुद्दा नहीं होनी चाहिए। प्रतिभा के दायरे बहुत बड़े हैं। उसे एक छोटे से आलेख में नहीं समेटा जा सकता? प्रतिभा के विस्फोट भी होते हैं? प्रतिभायें अपने आप में विभिन्न संदर्भों में गलत चीजें सोचते हुए अपने आप को समाप्त भी कर लेती हैं। दरअसल गुरुर तथाकथित प्रतिभाओं में भी होता है। इसे एकतरफा ढंग से नहीं सोचना चाहिए। अहंकार यदि मात्र अहंकार है तो उन्हें अपनी सीमितता में ही सब कुछ बिताना पड़ेगा?
व्यक्तिगत समस्याओं के उलझाव और समाधान व्यक्ति को अपने तौर में सोच-समझ कर, चर्चा कर और प्रयास करते हुए उसके हल निकालने पड़ते हैं। यहां मनमानी नहीं चल सकती? उसे बौद्धिकता के आरोह और अवरोह में नहीं लेना चाहिए। ऐसा करने से बने बनाए काम भी प्रभावित हो सकते हैं क्योंकि इसमें व्यक्तिवाद का बुखार ज्यादा होता है।
प्रतिभाओं की कोई निश्चित और अंतिम कसौटी संभव नहीं है? चमक-दमक का इतना ज्यादा बुखार चढ़ा है कि किसी को जरा देर ठहरने की इच्छा ही नहीं है? जो हो सब आनन फानन हो। शायद हितोपदेश में कभी एक श्लोक पढा था-
"उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथै।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशंति मुखे मृगाः।।"
अर्थात जिस प्रकार सोते हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं नहीं प्रवेश करता, उसी प्रकार केवल इच्छा करने से सफलता प्राप्त नहीं होती है। अपने कार्य को सिद्ध करने के लिए मेहनत करनी पड़ती है।
अब किसी प्रतिभा की कमी को कहना भी या उसका रेखांकन करना भी आसान नहीं रहा। इस दौर में क्या आलोचना के लिए कोई स्पेस है? पूछा जा सकता है कि यह कसौटी कहां से आएगी? यह एक विकट प्रतिभा निर्धारण का मामला है। प्रतिभा या प्रतिभाओं का आकलन कोई भी ठीक ठिकाने से अंतिम रूप से कुछ नहीं कर सकता? बहुत ठहर कर हर मुद्दे का आलोचनात्मक ढंग से उस पर बातचीत हो सकती है? गंभीरता की खोज हो सकती है? पुराने सामाजिक ताने-बाने में और आज के सामाजिक ताने-बाने में जमीन आसमान का फर्क है। प्रतिभाएं लंबा संघर्ष करती हैं। और ठान लेती हैं तो उसे पा कर ही छोड़ती हैं। संस्कृत में कोई श्लोक पढा था- कोई व्यक्ति विघ्न के भय से कार्य ही प्रारंभ नहीं करते। कुछ करते हैं और विघ्न आने पर उसे छोड़ देते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं जो बार-बार विघ्न आते हैं तब भी डटे रहते हैं और अंततोगत्वा सफल हो कर ही मानते हैं? प्रतिभा में इतना धैर्य है तो उसकी विकास यात्रा को कभी कोई नहीं रोक पाएगा? ऐसा मेरा अनुभव है? सफलता प्राप्त करने की हड़बड़ी ने प्रतिभाओं को छैंक रखा है। इसे हमें समझना होगा। प्रतिभाओं के सीमांकन और अनुकूलन के द्वंद्व के जो प्रश्न उठाए गए हैं। या हम ऐसा समझते हैं। यह कोई अंतिम सीमा नहीं है और हमारी समझ की भी सीमाएं हैं और प्रश्न करने की भी सीमाएं हैं। इस गहरे द्वंद्व को भी हमें सतत रेखांकित करते रहना चाहिए?
प्रतिभाओं का भी क्षेपक हुआ करता है। वैसे रचनात्मकता को किसी संजीवनी बूटी की ज़रूरत नहीं होती। वह अपने संघर्ष, ध्येय, लक्ष्य और जिजीविषा से ही संभावनाओं के द्वार खोलती है? हरिशंकर परसाई का एक आत्मकथ्य याद आ गया। "मैं उन बेहया लेखकों में हूं जो अपने बारे में कहने में नहीं सकुचाते। यों यह भी सही हो सकता है कि जो सकुचा कर भी अपने बारे में कह लेते हैं वे कुछ अधिक ही बेहया होते हैं। मैं अपनी तारीफ़ के लिए किसी का मोहताज नहीं हूं। खुद कर लेता हूं। अपनी बुराई भी खुद कर लेता हूं। और यदि कम पड़े तो आसपास इतने उपकारी लोग तो हैं। मैं अपने ऊपर हंस भी लेता हूं।"
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्वर्गीय कवि विजेंद्र जी की हैं।)
सम्पर्क
रजनीगंधा 06, शिल्पी उपवन,
अनंतपुर, रीवा (म. प्र.)
486002
।
आपको पहले भी कई बार पढा है सर बहुत सही लिखते हैं आप और बहुत अच्छा लिखते हैं
जवाब देंहटाएंत्रिपाठी जी बहुत साधुवाद। शुभकामना।
जवाब देंहटाएंप्रतिभा नैसर्गिक होती है। लेकिन खुद को लगातार मांजते रहने की चुनौती भी इसके सामने होती है। जो इस चुनौती पर खरा उतरता है वह खुद को तो साबित करता ही है अपनी प्रतिभा से समाज, देश और दुनिया को लाभान्वित करता है .............बहुत सही बात.....
जवाब देंहटाएं. बहुत अच्छे विचार व्यक्त किए हैं आपने
बहुत अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं