रुचि बहुगुणा उनियाल की कविताएँ

रुचि बहुगुणा उनियाल


जीवन की अनन्यतम अनुभूति है प्रेम। इस प्रेम ने ही दुनिया को रचा गढ़ा और मनुष्य को सचमुच का मनुष्य बनाया। यह सारी सरहदों को तोड़ने में यकीन करता है। कोई बंदिश इसे न तो रोक नहीं पाई न ही सीमित कर पाई। प्रेम जिसमें समर्पण है, प्रेम जिसमें प्रतीक्षा है, प्रेम जिसमें विरह है, फिर भी प्रेम है तो है। कवियों के लिए यह विषय सर्वथा नवीन ही रहा है। रुचि बहुगुणा उनियाल ने प्रेम पर कुछ उम्दा कविताएं लिखी हैं। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं रुचि बहुगुणा उनियाल की कविताएं।


परिचय

नाम : रुचि बहुगुणा उनियाल
* जन्म स्थान : देहरादून
* निवास स्थान : नरेंद्र नगर, टिहरी गढ़वाल
* प्रकाशन : प्रथम पुस्तक - मन को ठौर, 
   (बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित)
  प्रेम तुम रहना, प्रेम कविताओं का साझा संकलन 
  (सर्व भाषा ट्रस्ट से प्रकाशित) 
* पिछले तीन सालों से लगातार दूरदर्शन व आकाशवाणी पर रचनाओं के प्रसारण के साथ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अनगिनत लेख व कविताएँ प्रकाशित, विभिन्न आनलाइन पोर्टल पर अनगिनत लेख व कविताओं का प्रकाशन। 



रुचि बहुगुणा उनियाल की कविताएँ


पीड़ा का वैभव 


इतनी निष्ठुर सर्दियाँ
कि शरीर की सारी कोशिकाएँ
सुप्तावस्था में चली जाएँ

मैं जीवित हूँ तुम्हारी याद को लपेटे हुए
मानो हृदय की भीत से लग कर भीतर
जल रही हो सिगड़ी सी कोई

विरह के बाणों से बिंधा मन छलनी हो चुका है
बिंधे मन के रन्ध्रों से 
फूट रहा है तुम्हारी याद की
अग्निशिखा का प्रकाश.... 
शरीर के साथ ही चेहरे पर भी विशिष्ट ओज फैल गया है

कितना छलनी है मन
कि, देखा जा सकता है आर-पार, 
कि छलक आता है सुख तुरंत बाहर टिकता ही नहीं
फिर भी तुम्हारी याद इतनी ज़िद्दी
कि छोड़ कर जाने का नाम ही नहीं लेती

इससे पहले कि मेरी आत्मा धैर्य की डोर छोड़ दे
तुमसे विरह का दुःख ख़त्म होना चाहिए

संसार में आने और यहाँ से जाने तक का समय नियत होता है
फिर प्रतीक्षा की अवधि भी तय तो करनी चाहिए न

मुझे देखने वाले अक्सर ही कहते हैं.....
तुम दिव्य रूप की स्वामिनी हो
मेरे प्यार......
देखो प्रेम में मिली पीड़ा भी
कितनी गरिमामयी और वैभवशाली होती है!



अंतिम पायदान पर प्रेम 


सुलगती रहती है दिन-रात तुम्हारी याद की भट्टी
मैं कामनाओं को खदबदाने देती हूँ

घर से लगे जंगल में बोलता है एक पंछी रात्रि के तीसरे पहर
जंगल के पैर धोती 
बहती गाड उसके स्वर को ले जाती है दूर तक साथ अपने
मैं मन ही मन तुम्हारी कुशलता मनाती सोचती हूँ
काश कोई ज़रिया होता
तो भेज देती बांध कर अपने आकुल स्वर तुम तक मैं भी

कितनी संकोची हूँ जानते तो हो तुम
फिर भी प्रेम ने कब माना संकोच के दायरे में बंधना?

इस पहाड़ी शहर में
जहाँ प्रेम को जीवन की आवश्यकताओं के अंतिम पायदान पर रखा जाता है
भला मेरी प्रेमिल अभिव्यक्तियाँ कौन स्वीकार करेगा?

फिर भी इन उदास कविताओं में
रख देती हूँ मन के समस्त संताप उतार के 
पढ़ने वाले इन्हें प्रेम कविताओं की संज्ञा देते हैं

जब सारी दुनिया सो रही होती है बेखबर
मैं तुम्हें याद करते हुए सुनती हूँ पुराने ट्रांजिस्टर पे
लता का कोई उदास नग़मा
और बह निकलती हूँ तुम्हारी यादों संग कहीं दूर बेसुध सी

प्यार मेरे......... 
तुम्हारी छवि मन के दर्पण में जड़ी मुस्कुराती रहती है
मैं अपने ही अंतस में झांकने से कतराती हूँ
मानो तुम झट से नज़रें उठा कर देख लोगे मुझे
और मैं पकड़ी जाऊँगी तुम्हें गुपचुप निहारते हुए। 






ख़ारिज आत्मा
 

तुम्हारे प्रेम में उमगती हैं अबोध कामनाएँ
और मैं नंगे पाँव दौड़ती हूँ इस पहाड़ी धार से
प्योंली असमंजस में पड़ी है
बुरांश संयम तोड़ बेमौसम खिल रहा है
धरती अपनी नियत नियमावली भूल गयी है
तन गई हैं धरा की भवें
मानो मेरे दौड़ते पग रच रहे हों
नया संगीत
प्रकृति ने आलाप ले कर तुम्हारे नाम को जपना प्रारंभ कर दिया है
चीड़ के जंगल में स्यूंत की घंटियां तुम्हारा नाम
गा रही हैं सस्वर
इस पहाड़ी के पार, जहाँ मैं रहती हूँ
तुम ही धुन.... तुम ही संगीत
तुम ही ऋतु.... तुम ही पहर
तुम ही भक्ति..... तुम ही भगवान
तुमसे ही रंग...... तुमसे ही रौशनी है

तुम्हें सुमिरती हूँ तो इतना जान लो
मैं अंतस में अव्यक्त पीड़ा को पोसती हूँ
तुम ही जीवन का सर्वोच्च सुख.... 
और तुम ही अनकहा, अनबूझा दुःख हो रे!

अरे ओ लाटे......
चुपचाप सिसकियों में स्पंदित हुई रूदन की धुन पर ही
नीलकंठ होते हैं नृत्यरत.....
बन जाते हैं नटराज
फिर भी तुम्हारे लिए प्रेम में डूबी इस आत्मा को
असभ्य और उद्दण्ड कह कर ख़ारिज कर दिया है संसार ने!



बाएँ पैर की अँगुली का तिल

नहीं चूमा उसने प्रेमिका के होंठों के नीचे का तिल
जो गवाह था प्रेमिका के
लजाते सौंदर्य का
जिसे पता थी सारी भंगिमाएँ
प्रेमिका की मनःस्थिति के साथ
पल-पल बदलते होंठों की

न ही उसने पीठ पर उभरे
तिल को चूमना चाहा
जो प्रेम का गूढ़ रहस्य लिखता था पीठ पर प्रेमिका की

ऐसे न जाने कितने ही तिलों को अनदेखा किया उसने
केवल एक उस तिल को छोड़ कर
जो प्रेमिका के बाएँ पैर में
अँगूठे के बराबर वाली ऊँगली में इठला रहा था
उसी एक तिल ने सहेजी थी सब यात्राएँ
जो तय की थी प्रेमी तक पहुँचने के लिए
प्रेमिका के सुकोमल तलुवों ने.....
जब-जब भी मिले दोनों
प्रेमी ने आतुरता से झुक कर चूमा
बाएँ पैर में उभरे गाढ़े तिल को!



मेरी विदा के बाद 

मेरी विदा के बाद भी 
मेरी करुणा और स्नेह बचाए रखेगा 
तुम्हारे भीतर की नर्माहट 
और तुम्हें याद रहेगा 
कि तुम प्रेम में डूबे मनुष्य हो 
तब मेरी विदा सूर्य डूबने की भाषा में पढ़ पाओगे तुम ।


मेरी एक चुप तुम्हें हज़ारों की भीड़ के कोलाहल में भी 
अकेला कर देगी 
तुम आँसुओं के खारेपन से 
प्रेम की मिठास बोओगे
तब तुम्हें याद आएगा 
कि मेरा जाना तुम्हें भरी दुनिया में तन्हा कर गया है। 

जब मैं लूंगी विदा 
तब तुम्हें मेरी उपस्थिति फूलों में दिखाई देगी
तुम्हें तब समझ आएगा 
कि जीवन किसी खूबसूरत फूल की तरह ही रहा मेरे साथ 
और मेरी विदा के बाद 
तुम मेरी याद की खुशबू में नहाए सुवासित रहोगे सदा।

मेरी विदा के बाद 
मेरे प्रेम की सुवास पार कर लेगी 
मेरे पहाड़ और तुम्हारे मैदान के 
बीच की दीवार 
और मैं तुम्हारी स्मृतियों में 
किसी पहाड़ी भेड़ की कुलाँचे बांध 
करूंगी विचरण यहाँ-वहाँ स्मृति वीथिकाओं में
तुम विवश हो देखते रहोगे अहंकार की बाड़ को टूटते हुए। 

मेरी विदा के बाद उस दिशा के आकाश को
तुम मृदंग बना लेना 
छेड़ देना एक पहाड़ी लोकगीत 
मैं थड़्या चौंफुला और चांचरी सुन के 
ठिठक कर देखूंगी तुम्हारी ओर 
देखना तब मेरे गमन की दिशा का आकाश 
गहरा सिंदूरी होगा हमारे प्रेम की लालिमा में डूब कर। 
 
 

 


दादुर राग 


झींगुरों का गीत तो
सब ने सुना
न सुनी गई मेंढ़क की ध्वनि
इतिहास ने उसे दादुर राग कहकर
कर दिया बहिष्कृत श्रावण के सौंदर्य से
उसके लयबद्ध राग को
दी गई उपमा टर्र-टर्र टर्राने की
जबकि उसका निरपराध स्वर
करता रहा पुष्टि इस बात की
कि अब बरसेगा मेह आसमाँ से
कि फिर से पानी लिखेगा
धरती की छाती पर
हरा पृष्ठ उर्वरता का
कि खेतों की फटी बिवाईयाँ
अब "मौळ्याने" वाली हैं
असल में केवल धरती जानती है
कि मेंढ़क की टेर सुन कर ही
गदराई थी नीम की निंबौली
कि संगीत के द्विशतकीय रागों की श्रृंखला से भी पहले
धरती का घूर्णन नृत्य
मेंढ़क के सुमधुर राग पर ही प्रारंभ हुआ था।



आँसू

(1)

आँसुओं को मत कोसना
कि तुम बहा ले जाते हो
काजल की बनी मेड
आँखों की छलकती क्यारियों से! 
आखिर....
क्यारियाँ कितना दबाव झेलें?


(2)

आँसुओं ने कितनी सहजता से
धोया आँखों के गंदलेपन के साथ
मन की ज़मीन को भी!

(3)

कई बार जो बातें
शब्दों की सीमा से परे थीं
उन्हें आँसुओं ने
भाषाएँ दी!


(4)

बहते हुए आँसुओं ने
सबसे बेहतरीन
करूण कविताओं का
सृजन किया!

(5)

दो प्रेम करने वाले
जानते हैं कि
हंसी केवल एक छलावा है
जबकि आँसू हैं जो
जीवन का यथार्थ समेटे हुए हैं!


(6)

अक्सर प्रेम में
आँसुओं के जिम्मे आती है
सारी खुशी
क्योंकि लंबी प्रतीक्षा के बाद
मिलने पर बहुत खुश होते ही
आँखें बरसती हैं चुपचाप! 
 
 

 


बेटी का जन्म 

बेटा जन्मता है तो वंशबेल बढ़ती है.... कहता है समाज
लेकिन जब बेटी जन्मती है
तो संस्कृति और परंपरा की जड़ें होती हैं पुष्ट

खिलखिलाती स्त्रियों के हाथों में
उमगती हैं नयी ऋतुएँ
तब रत्नगर्भा अपना घूर्णन 
आधे समय में ही पूरा कर लेती है

स्त्री की इन्हीं नर्म हथेलियों ने सहेजकर रखा
आँगन की तुलसी को
रसोई के स्वाद को
रिश्तों की गर्माहट को
और सभ्यता के भविष्य को भी

पृथ्वी की तरह 
टिकाए रहती है स्त्री परंपराओं का भार
अपनी सुकोमल हथेलियों के बीचों-बीच
इन हथेलियों की थपकियाँ सुलाती हैं कठोर दिखने वाले पहाड़ को गोधूलि बेला में

यदि स्त्री किसी रोज़ खींच लेगी अपने हाथ
तो अनाथ हो जाएंगे लोक के रंग 
सभ्यता के तलुवों पर फूटेंगे छाले
और वो लड़खड़ा के औंधे मुँह गिर पड़ेगी

 

विस्मृति 

स्त्री का समर्पण
शुक्राणु का भविष्य बदल देता है
भले ही, 
वह शुक्राणु हो 
एक अहंकारी पुरुष के वीर्य का अंश

परन्तु, स्नेहिल माता की स्निग्ध कोख में 
आश्रय पा तज देता है अहंकार का गुण 
हो जाती है तिरोहित क्रूरता की प्रवृत्ति 
और धारण कर लेता है 
माता के गुणों की शीतलता
सुनो !
दुनिया के दहशतगर्दों
नौ महीने कोख में रह कर जो सीखा 
उसे कैसे भुला देते हो तुम सब?


बिम्ब की पूर्णता 

ऊपर की पंक्ति से 
नीचे वाली पंक्तियों की असहमति ने 
कविता को जिद्दी बना दिया 
कविता का अर्थ कटघरे में खड़ा 
और उसका निरपराध शिल्प घोषित दोषी सा 
हतप्रभ रह गया 
मात्राएँ शब्दों से उलझी हुई 
अर्थ को दोषमुक्त करने के प्रयास में जुटी सी
एक कुशल न्यायाधीश की तरह 
तुम पढ़ पाओ भावार्थ 
तो शायद……… 
कविता के बिम्ब पूर्णता प्राप्त करें।
 
 
 
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।) 



संपर्क

मोबाइल नंबर - 9557796104 

ई मेल : ruchitauniyalpg@gmail.com


टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर कविताएँ। मन को छू लेने वाली। रुचि जी को बधाई

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  2. रुचि बहुगुणा उनियाल जी परिचय और उनकी चुनिंदा कविताओं को साझा करने हेतु धन्यवाद!

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  3. बहुत ही सुंदर कविताएं। मन को छू लेने वाली 🙏💐💐💐💐

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