आशीष सिंह का आलेख 'वह पेड़ काटने की बात तो मैंने मजाक में कही थी, तुम किसी से जिक्र मत करना'

 

प्रबोध कुमार

 

हिन्दी साहित्य में कई ऐसे नाम हैं जो महत्त्वपूर्ण होने के बावजूद परिदृश्य से बाहर हैं। प्रबोध कुमार ऐसा ही एक नाम है। वे प्रेमचंद के नाती हैं। प्रबोध कुमार साठ के बाद के कहानीकारों में से एक रहे हैं। वे नए लेखक लेखिकाओं को सामने लाने वाले हस्ताक्षर के तौर पर भी जाने जाते हैं। झाड़ू पोंछा करने वाली महिला बेबी हालदार की जीवन गाथा 'आलो आँधारि' को सामने लाने का श्रेय प्रबोध जी को ही है। प्रबोध कुमार की कहानियों पर एक महत्त्वपूर्ण आलेख लिखा है युवा आलोचक आशीष सिंह ने। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं आशीष सिंह का आलेख 'वह पेड़ काटने की बात तो मैंने मजाक में कही थी, तुम किसी से जिक्र मत करना'

 

 

'वह पेड़ काटने की बात तो  मैंने मजाक में कही थी, तुम किसी से जिक्र मत करना'  

 

 

आशीष सिंह

 

 

 

 

सच बात तो यह है कि बहुत दिनों तक  हम (मैं) कहानीकार प्रबोध कुमार से अपरिचित रहे। कहानीकार प्रबोध कुमार का नाम हम लोगों ने बहुत देर से सुना। आखिर इस न सुन पाने की क्या वजहें रही होंगी? क्या पुरानी पत्रिकाओं की फाइलों में दर्ज कहानीकारों को पढ़ने, उन तक पहुंच बनाने की ना कोशिशों के कारण या हमारे हिन्दी समाज की खासियत के कारण? फिर मन में प्रतिप्रश्न उठता है कि हम साठोत्तरी कहानीकारों में चन्द प्रमुख नामों के अलावा कितनो को जानते हैं? और नहीं जानते हैं क्यों नहीं?

 

 

परेश, योगेश गुप्त, इब्राहिम शरीफ, गुणेन्द्र सिंह कम्पानी, राम नारायण शुक्ल, प्रकाश बाथमविजय चौहान, प्रबोध कुमार आदि की कितनी कहानियों से हमारा परिचय है। हम कह सकते हैं कि साठोत्तरी कहानीकारों से  हमारा परिचय महज' चार 'या 'साढ़े चार यार ' तौर पर घोषित टीम से आगे महज गिनती की ही है। सिर्फ इसी सीमित अपरिचय को झुठलाने के लिए हमें एक बार फिर पलट कर पीछे छूट गये, भुला गये कथाकारों की कहानियों को देखने की कोशिश करनी चाहिए! या नहीं?

 

 

हिन्दी जगत में प्रबोध कुमार का नाम लेते ही सबसे पहले एक छवि उभरती हैनये लेखक- लेखिकाओं को उभारने, प्रोत्साहित करने वाले व्यक्ति की छवि। 'झाड़ू-पोंछा, चौका-बरतन करने वाली महिला बेबी  हालदार की जीवन गाथा 'आलो आँधारि' का नाम हम सबने सुन रखा है। कैसे एक सामान्य महिला, महज सातवीं पास महिला अपनी कटु अनुभूति को बेहद मार्मिकता से पेश करती है। साथ ही यह जान लेना भी जरूरी है कि किताबों के रैक को साफ करते-करते यह महिला अक्षरों को गौर से निहारती रहती थी। शायद उसके मनोभाव को पढ़ कर ही नृतत्वशास्त्री, लेखक व प्रेमचन्द के नाती प्रबोध कुमार बरबस सोचने को विवश हो गये हों कि इस महिला की कटु-तिक्त जीवनी कोई कैसे लिख पायेगा? और उन्होंने बेबी हालदार को अपने जीवन के कटु अनुभवों को दर्ज करने की प्रेरणा ही नहीं दी बल्कि आलो आँधारि, व ईषत रूपांतर' का बांग्ला से अनुवाद भी किया। क्या हम सोच सकते हैं कि न सिर्फ हिन्दी जगत बल्कि दुनिया भर के सहृदय समाज में एक सामान्य महिला के त्रासद अनुभवों को ले जाने का काम प्रबोध कुमार के सानिध्य बगैर सम्भव हो पाता! इस प्रकार अनपहचाने गये नये लेखक-लेखिकाओं को सामने लाने में प्रबोध कुमार अपने लेखन की कीमत पर लगे रहे। साहित्यिक जमात में इस प्रकार लोग कितने हैं यह खोजने की जरूरत है। 

 

 

प्रबोध कुमार के लेखक मित्र व  प्रिय साथी रमेश गोस्वामी सही कहते हैं कि "प्रबोध कुमार एक रोग से मुब्तिला हैं। दूसरों को अपने से ऊपर रखते हैं और उनकी किताबें छपवाने में सर खपाते हैं। छपने पर वे किताबें खरीद कर दोस्तों को तोहफे में भेजते हैं। मित्रों की हाथ से लिखी कविताएँ फोटो कॉपी करवा कर इधर-उधर भेजते रहते हैं कि यह होती है कविता!'' 

 

पेशे से नृतत्वशास्त्री रहे प्रबोध कुमार नई कहानी आंदोलन के बाद की पीढ़ी के महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में से एक महत्वपूर्ण कहानीकार रहे हैं। दुर्भाग्य से उनकी कहानियां कहानी, वसुधा, कृति, माध्यम जैसी तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में ही दबी पड़ी रह गयी जिसके चलते नये पाठकों का उनके कथाजगत से परिचय नहीं हो पाया। इस साहित्यिक अपरिचय की खास वजह उनका व्यक्तित्व भी रहा है जो खुद की रचनाएं छपने-छपाने से लगभग विरत ही रहा है। गर ऐसा न होता तो उनकी पहली कथाकृति 'सी-सा' 2013 में संकलित हो कर सामने आती। जिस लेखक की अधिकांश कहानियां सन् पचास-साठ के दौरान तत्कालीन प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में जगह पाती रही हों। और यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि यह काम भी उनके लेखक मित्रों ने अपने प्रयासों से ही सम्पन्न किया। उनकी रचनाओं पर बातचीत न हो पाने की एक खास वजह उनकी अनुपलब्धता भी रही और साथ ही कथाकार प्रबोध कुमार का अपनी साहित्यिक पहचान दिखाने-भुनाने, प्रचारित करने की अनिच्छा भी रही। हमें मालूम होना चाहिए कि साठोत्तरी पीढ़ी के महत्वपूर्ण कथाकार और आलोचक विजय मोहन सिंह ने सन् साठ के बाद के कहानीकारों की कहानियों के वैशिष्टय को रेखांकित करने के लिए सन् उन्नीस सौ  पैंसठ में 'सन् साठ के बाद की कहानियां' शीर्षक से एक पुस्तक सम्पादित कर के प्रकाशित करवाई। जिसमें राम नारायण शुक्ल, प्रयाग शुक्ल, रवीन्द्र कालिया, मधुकर सिंह, ज्ञानरंजन के साथ प्रबोध कुमार को भी जगह मिली। चौदह कहानीकारों की दो-दो कहानियों वाले इस संकलन में प्रबोध कुमार की आखेट, अभिशप्त नामक दो कहानियां शामिल थीं। अभी ताजी परिघटना में करीब पैंतालीस साल न लिखने के बाद उनका पहला उपन्यास पंचतंत्र शैली सामने आया। रोशनाई प्रकाशन, कोलकाता से सन् 2010 में  'निरीहों की दुनिया' शीर्षक से प्रकाशित यह उपन्यास लेखक प्रबोध कुमार के लेखकीय सरोकार की प्रत्यक्ष गवाही भी देता है। सन् 1956 से ले कर सन् 1963-64 कृति, कहानी व वसुधा जैसी पत्रिकाओं में छपी उनकी तमाम कहानियां आज भी पुरानी पत्रिकाओं की फाइलों से बाहर आने का इंतजार कर रही हैं। गाँव, आखेट, अभिशप्त व डायनासोर का दिमाग आदि कई कहानियां भाषा, शिल्प-गठन व भावबोध के स्तर पर सफल कहानियों के रूप में दर्ज की जाती रही हैं इनमें से 'गाँव', 'डायनासोर का दिमाग' आज भी पाठकों के पहुंच से दूर है। उनकी महज दस कहानियां हमारी पहुंच में हैं जिनके द्वारा साठोत्तरी पीढ़ी के इस महत्वपूर्ण कथा शिल्पी की कला और 'उनकी सोच व स्वभाव' का अक्स देखने को मिलता है।

 

 

 

Prabodh-Kumar aur Baby Haldar

 

 

 

(1)

 

 

नयी कहानी आंदोलन के दौरान एक तरफ सामाजिक, राजनीतिक बदलाव की समाजशास्त्रीय परिघटना को विमर्श, घटनाओं ,चरित्रों को ध्यान में रख कर परम्परागत कहन/शैली में कहानियां लिखी जा रही थी। जिनमें मूल्यगत परिवर्तनों को यथार्थवादी ढ़ंग से कहानीकार सामने लाने की कोशिश करते मिल रहे थे। हम इन कहानियों में समय-समाज में आ रहे परिवर्तनों को बेहद निकट और जाने पहचाने रूप में आसानी से देख ले रहे थे। भाषा-शिल्प और भाव बोध के तौर पर  पुराने मूल्यों के नाकाफी होने, उनसे उपजने वाले नये सम्बन्धों की आहट सुन पड़ती है तो दूसरी तरफ परम्परागत आदर्शों के लिए एक अकुलाहट भरी चाह भी अपनी किरीचों के साथ उनमें दर्ज होती दिखती है। ऐसे में नये में रूप का पहलु प्रभावी दिखता है जबकि अभी नयी मिली आजादी की बयार उनमें उम्मीदों, आदर्शों के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती मिलती है। दूसरी तरफ, चिन्तनपरक रूप में, सामाजिक परिघटनाओं व मूर्तवत यथार्थ के बरक्स अपने समय व स्वयं से संवादरत कहानियों के रूप हमें देखने को मिलते हैं। अप शिल्प, भाषा भंगिमा में नयेपन की कुछ छवियाँ समोये होने के बावजूद यहाँ बीत गये अतीत के 'उड़ते परिन्दे' भुलाये भूलते नहीं हैं। सामूहिक गान के बरक्स एकांत संगीत की ये कहानियां भी भावबोध के तौर पर पूरी तरह से नयी तो नहीं कही जा सकती, भले ही उन्हें नये के नाम पर खूब प्रचार मिला हो तब भी।

 

 

'नई कहानी आंदोलन' की कहानियां तमाम 'नयेपन' के प्रचार के बावजूद कितनी 'नयी' थीं और नयी क्यों नहीं थीं इसको लेकर आलोचक विजय मोहन सिंह, देवी शंकर अवस्थी के साथ श्रीकांत वर्मा जैसे कहानीकार भी सवाल उठाते दिखते हैं। शिल्प, कहन के ढंग में तब्दीली के बावजूद' नयी कहानी' पुराने भाव-बोध से बाहर निकलने के लिए प्रयासरत जरूर रही लेकिन पूरी तरह से  मुक्त नहीं हो पायी। अगर नये भावबोध व अर्थ बोध की वास्तविक जमीन कहीं मिलती है तो वह है सन् साठ के कहानीकारों में। साठोत्तरी कहानियां नये भावबोध की कहानियां हैं। सामाजिक मूल्यों, नजरिए में आ रहे बदलाव व जीवन को तटस्थ दृष्टि से देखने के रूप में ही नहीं, कहानी के रूप में भी परिवर्तन देखने को मिलता है। आज साठ साल बाद जब हम प्रबोध कुमार की कहानियों में प्रवेश करते हैं तो महज पुराने कथानक, प्लाट, कहन की खातिर नहीं बल्कि साठोत्तरी कहानी की खासियतें क्या थीं, प्रबोध कुमार की कहानी कला किस रूप में अपने प्रभाव को हमसे साझा करती मिलती है ये सारे सवाल हमसे मुखातिब हैं।

 

 

हमारे सामने कथाकार प्रबोध कुमार की  कुल जमा दस कहानियां ही हैं। 'सी-सा' नाम से प्रकाशित इस संग्रह की पहली कहानी 'कबूतर' में महज दो पात्र हैं। कस्बे में आया एक युवक और उसके कमरे में अनधिकृत रूप से जगह बना चुका एक कबूतर। जिस कबूतर को कमरे से बाहर करने की सारी जुगत में ही युवक अपने बचपन की स्मृतियों में उतरता जाता है और अन्त में वह चाहता है कि 'कबूतर ' अपनी जगह बना कर या जिस रूप में ही सही उस कमरे में उपस्थित रहे। कुल जमा कहानी का क्षीण कथानक इतना ही है। लेकिन कहानी के वाक्य दर वाक्य में जिस जीवन की अनुगूंज सुन पड़ती है वह पहले पाठ में लगभग ओझल रहती हैं। पाठ उपरांत कहानी की पंक्तियाँ पुन: अपने पीछे एक दूसरे दृश्य की सर्जना करती मिलती हैं। जैसे इसी कहानी में  कथानायक बेतरह परेशान होते हुए भी ऐनकेन प्रकारेण कबूतर को कमरे से निकाल बाहर करने में बुरी तरह से भिंदा है।" मैं बहुत कुढ़ गया। मुझे काफी घबराहट भी होने लगी जिससे मेरे हाथ पसीजने लगे। मेरा दिल तेजी से धड़क रहा था। मुझे लगा, किसी भी क्षण मैं अपना पाजमा गीला कर लूँगा। कबूतर की हालत भी मुझसे बहुत अच्छी नहीं थी। अब वह गर्दन बहुत कम मटका रहा था। उसका सीना, जिसमें वह रह रह कर अपनी चोंच रगड़ लेता, अब अपेक्षाकृत जल्दी गिर-उठ रहा था। खिड़की से टकराने पर शायद उसे चोंच में चोट आ गई थी। मैं फिर कुर्सी पंखे के नीचे खिसकाने को था कि तभी कबूतर वहाँ से उड़ ,खिड़की के पर्दे से उलझता, उसी पुरानी जगह पर बैठ गया। मैं उसे घूरता, बिस्तर पर बैठ सिगरेट पीने लगा। वह भी मुझे देख रहा था। उसकी मटकती आँखे मुझे बहुत बुरी लगीं। कहीं से मोम मिल जाता तो उसकी पुतलियों में लगा मैं उन्हें स्थिर कर देता। उसके हिलते-डुलते शरीर में यदि केवल आँखें ही स्थिर रहें तो वह कैसा दीखेगा यह सोच मैं डर गया। मेरी इच्छा हुई कि झट सो जाऊँ लेकिन मैं जानता था कि अब बहुत आसानी से नींद नहीं आएगी, इसलिए डर के बावजूद कबूतर की तरफ से मैंने ध्यान नहीं हटाया।

       

 

एक अपनाव व अलगाव भरी भाषा में कथानायक की मन:स्थिति ही नहीं समानांतर तौर पर कबूतर की मन:स्थिति एकाकार होती दिखती है। जिस कबूतर के घोंसले को कथानायक ने उखाड़ फेंका है मानो अब दोनों अपने-अपने घोंसले की खातिर प्रयासरत हैं। जिस तरह से किसी अप्रत्याशित आवाज पर चौंक कर कबूतर अपने पंख फड़फड़ा कर गिरा देता है। इन पंखों की फड़फड़ाहट से कहानी में एक अप्रत्याशित परिवर्तन दीखने को मिलता है। मानो कबूतर और उस युवक के बीच 'सम्बन्धों ' की नयी इबारत दर्ज होने जा रही है। हर प्रकार का संघर्ष सहजीविता की ओर खिसकता मिलता है शायद। वह कहता भी है कि "आकस्मिक आवाजों से घबराता मैं भी था लेकिन उसे प्रकट करने के लिए मेरे पास पंख नहीं थे। पंख होते तो मैं उनसे दिन-रात उन्हें फड़फड़ाया करता। पंखों के साथ रोयें भी होते तो उनसे अपने लिए एक खूब गुलगुला तकिया बना लेता। मैंने अपना तकिया टटोल कर देखा। वह बहुत कड़ा था।" सम्बन्धों में आ रहा यह परिवर्तन महज आवश्यकता पूरी करने तक सिमटा रहता तो निश्चय ही इस वाक्य के अर्थ इकहरे रहते। लेकिन यहाँ इन पंखों के गुलगुले तकिए को सीने चिपटाये सोया हुआ कथानायक नींद में उन सपनों को देखना चाहता है जो 'अप्राकृतिक' न हो। क्या कबूतर का बसेरा उजाड़ना प्राकृतिक है या उसके पंखों  का आकस्मिक वजहों से झड़ना स्वाभाविक है? शायद नहीं तभी कहानी कथानायक के बचपन के उन दृश्यों को याददिहानी कराती है जब वह और उसकी छोटी बहन गीत गाकर नीलकंठ से उसके पंख मांगा करते थे। आज इस कबूतर के रोयेंदार पंख उसे स्मृति के उस मुहाने पर ले जा रहे हैं जहाँ बचपन का 'भोलापन' उपस्थित था। कथानायक बहुत प्रयास करता है कि अपने चेहरे पर बचपन वाला' भोलापन' ला सके जिससे कबूतर को अपनी बात समझा सके,उससे रोयेंदार पंख पा सके। अन्ततः कहानी पाठक को उस मुकाम पर ला खड़ा करा करती है कि बचपन की मासूमियत कितनी जरूरी है। इस मासूमियत की याददिहानी कराती कोई भी चीज किसी भी अन्य वस्तु से बहुत कीमती है। और कथानायक पूरे मन से चाह रहा था कि कबूतर उससे चाहे जैसा बदला ले ले लेकिन कमरा छोड़ कर न जाए, अन्यथा बचपन की याद दिलाती किसी पंक्ति के याद रह जाने की सारी संभावना ही खतम हो जाए। कहानी कई बार मनुष्यों के दुर्दम्य व्यवहार की बिना कुछ आलोचना ही नहीं करती बल्कि मनुष्य बने रहने के लिए बचपन के 'भोलापन' को बार-बार याद करते रहने का संकेत भी देती है। कहानी का यह निष्कर्ष न तो किसी तरह के किन्हीं वाक्य में संदेशमूलक ढंग से उपस्थित है और न ही निष्कर्ष तक कहानी बनाने की कोशिश दीखती है। बल्कि मामूली से ब्यौरों के बीच जीवन अपनी उपस्थिति दर्ज करता मिलता है।

         


  

   

(2)

 

इस संग्रह की दूसरी कहानी 'मोह ' शीर्षक से है। एक बुजुर्ग और अब पैरों से लाचार महिला की स्मृतियों और वर्तमान के बीच आवाजाही करती है यह कहानी। अपने बीच बचे हुए वर्तमान को हर तरह से जी लेनी की  भरसक कोशिश और उससे रिश्ता न बना पाने की कसमकस ही इसका केंद्रीय पक्ष है। एक तरफ वह बुजुर्ग महिला एल्बम में बीते दिनों की तस्वीर देखते हुए उन दिनों को याद कर रही है। मानो जीवित न सही 'कल्पना ही में फिर पा वह नये सिरे से जिंदगी शुरू कर सकती थी 'शादी की तस्वीरों से आगे बढ़ कर वह एक और तस्वीर पर आ ठिठकती है 'जब वह विधवा हुई थी' 

 

 

'बहुत मना करने पर भी उसके लड़के ने वह तस्वीर खींची थी और उसे फेंक देने की बात सोचते भी वह अब तक ऐसा इसलिए न कर सकी कि शोक वस्त्रों में भी वह सुंदर लगती थी। उस पोशाक को खरीदने वह अकेली ही बाजार गई थी।' वह वही शोक वस्त्र खोज रही थी जिसे उसने अपने विधवा सहेली के शरीर पर देखा था। वह खोजते-खोजते उस दुकान पर पहुंचती हैं और पहन कर पति की याद कर रोने लगती है। 'दुकान से निकल वह एक काफी हाउस में गई थी जहाँ उसके पति का वह दोस्त मिला था जो उसके शव के  साथ कब्रिस्तान गया था। सहानुभुति क दो- चार बातें उससे कर वह फिर अपने दोस्तों के बीच लौट गया था और थोड़ी देर गंभीर मुद्रा बनाये बैठे रहने के बाद उनके साथ फिर हँसने लगा था 'कहानी की कितनी तटस्थता से, बिना मार्मिक शब्दावली का प्रयोग किये बदल रहे भाव-बोध व सम्बन्धों के बदलाव को दर्ज कर रही है। यहाँ पाठक का ध्यान इन शब्दों के पीछे मौजूद जीवन की ओर ही नहीं कई अर्थ समेटे अन्य बदलावों की ओर भी चला जाता है। यह बुजुर्ग महिला अपनी नातिन व सद्यः जात परनाती के साथ रहती है। वह परनाती के चेहरे में खुद के बचपन की तलाश करती है। आत्मसंवादी स्वर में कहती है क्या कभी यह बच्चा जान पायेगा कि उसकी नानी बचपन में कैसी थी। क्या कनेरी चिड़ियाँ के परिवार का आगे न बढ़ना, चीड़ और बाँज के पौधों का सूखता जाना उसके जीवन रस का सूखता जाना है? महज स्वास्थ्य सम्बन्धी बातचीत के अतिरिक्त उसकी नातिन भी उससे संवाद कर पाने का कोई सूत्र क्यों नहीं तलाश पा रही है? पूरी कहानी सम्बन्धों की 'गाँठों' कितने तरीके से हमारे सामने पेश करती है। निचाट अपनाने भरा गद्य जीवन की उपस्थिति को जिस निर्मोही ढंग से हमसे बहुत कुछ कहता मिलता है यह प्रबोध कुमार की भाषा और 'अनुभूति' के अटूट नाते का भी दर्शन कराती है।

   

 

'सी-सा' कहानी इस संग्रह की केंद्रीय कहानी है। एक बालक हरी गेंद लिए' सी- सा' पर बैठा उसके उठे क्षोर को देख रहा है। कोई बैठता और खेल शुरू हो जाता। इस पार्क में दो बूढ़े हैं जो लड़कों क भविष्य के लिए बातचीत कर रहे हैं। कुछ युवा रेलवे मजदूर हैं जो अलग गोल बना कर हँसी ठठ्ठा कर रहे हैं। अंधियारा घिरते समय एक दक्षिण भारतीय महिला के साथ पुरुष है जो कोई कोना तलाश रहे हैं। लेकिन 'सभी थके लग रहे थे, जिसका कारण गर्मी भी हो सकती थी। कभी-कभी वे हँस  भी पड़ते ..।' बच्चे के लिए उनकी उपस्थिति महज रिक्तता को भरने भर को थी। झूला झूलने की उनकी उम्र निकल चुकी थी। वह महज उन युवकों की हँसी के कारणों को जाने बगैर हँस रहा था। लेकिन वे सब बातें करते या या सड़क देख रह थे या पटरियाँ जो सीधे शमशान की दिशा में मुड़ गयी थी। निरर्थकता बोध भरी जिंदगी का दृश्य महज बच्चे के लिए अकेलापन लिए नहीं था बल्कि सबके लिए। लेखक यूं ही नहीं कहता है कि 'वे सभी बहुत अच्छे लोग रहे होंगे, लेकिन उनके चेहरों पर मूर्खता-मिली ऊब के कुछ ऐसे भाव थे, जिनसे मन में खीझ उठती थी। 'यह खीझ' 'अकेलापन' और 'ऊब' उस समय की विसंगतिपूर्ण जीवन स्थितियों की ही गवाही दे रही हैं। 

 

 

कथाकार प्रबोध कुमार 'ऊब' के पीछे मौजूद सपनों को आज के सामने ऐसे लाता है जिन्हें तर्कसंगत ढंग से व्याख्यायित करते हुए आप महज 'मूड' की बात कह सकते हैं। 'क्षोभ' कहानी एक बेहद मामूली प्लाट पर बुनी गयी ऐसी ही कहानी है। सपने में डूबा युवक टिकट चेकर से उन सपनों के बीच वापस जाने की गारंटी माँगता है। बहुत देर वाद-संवाद होने के बाद ऐसा लगता है यह 'क्षोभ' यह झुंझलाहट महज टिकट चेकर से नहीं अपने समय से है जो युवकों के सपनों से कोई परिचय नहीं रखना चाहते। जबकि ऊपर से देखते हुए महज 'ऊबे' युवक के खास मूड की ही अभिव्यक्ति दिखती है।

 

 

प्रबोध कुमार कहानी में घटना, औचित्य को साधने/ दिखाने की करते नहीं मिलते जबकि बेहद मामूली सी लगने वाली गतिविधि को दिखाते-दिखाते अपनी बात कहती मिलती है। 'सुख' कहानी में किशोर वय की ओर बढ़ते बच्चे विशु व मीरा की बालोचित अठखेलियाँ तो हैं ही साथ ही उन बालमन को पढ़ती दृष्टि भी दीख पड़ती है। हम पाते हैं कि उनकी कहानी पाठक को अपनी उपस्थिति दर्ज कराती मिलती है। आप किसी नाटकीय आरोह-अवरोह में या औत्सुक्य इंटेसिटी के चलते वहाँ उपस्थित जीवन के साथ बह नहीं जाते बल्कि लेखक के साथ पाठक बारीकी से देखे जा रहे वस्तुतथ्य को, उसके पीछे छुपी अर्थछवियाँ देखने लगता है। कभी-कभी हमारा ध्यान एक सुगठित मद्धिम  गद्य को गौर से पढ़ने में मुब्तिला हो जाता है। काव्यात्मक आस्वाद कराता कथाकार के गद्य का एक नमूना 'सफर' कहानी से आपके लिए उपस्थित है। यहाँ ' एक' अनाबाद ' राह में 'सफर ' को निकला युवक निपट अकेला है साथ चाहता है लेकिन किसी तरह से अपने 'अकेलेपन' में हस्तक्षेप नहीं चाहता। बेहद दार्शनिक किस्म की पर्देदारी से बुनी कहानी अपने पूरे विन्यास में जीवन की जो छवि पेश करता है वह कथाकार की कुशल भाषा सामर्थ्य का भी अन्यतम उदाहरण है –

 

 

"सामान उसके पास भी अधिक नहीं था लेकिन ऐसी बात न थी कि रोज काम आने वाली चीजों में से एक भी उस औरत की नजर से चूक गई हो। एक छोटी सी रंग-उड़ी पेटी के अलावा दो थैले थे जिनमें से तरह-तरह की चीजें एक के बाद एक बाहर निकल रही थीं। उनके पास एक लालटेन भी थी जिसकी चिमनी पर काफी कालिख जमी थी। थोड़े देर में दोनों थैले खाली हो गए। चट्टान पर अब छोटी-मोटी किराने की दुकान खुली पड़ी थी। उस आदमी ने अब पेटी खोल शीशा बाहर निकाला चट्टान के ऊपर छाए पेड़ से रिसती धूप उस पर पड़ करीब के एक तने पर चौकोर फैल गई। अपना चेहरा देखे मुझे काफी समय हो गया था। मैं देखना चाहता था कि मेरी नाक के बाल कहीं बाहर तो नहीं निकल आए हैं या दाढ़ी कहीं बेतरतीब ढंग से तो नहीं बढ़ रही है लेकिन उस आदमी से शीशा माँगना मेरे बस के बाहर था। अपने चेहरे के प्रति इस सजगता से हार अब मैं उस औरत को छिप-छिप कर देखने लगा। उसने गदलिया बिछा बच्चे को उस पर लिटा दिया था। वह सो गया था। उसके पतले ओठों के एक कोने पर थूक की फुटकियाँ जमा ह़ गई थीं। वह लाल छींट का झबला पहने था जिसने उसके फूले पेट के ऊपर सरक उसे बिल्कुल नंगा कर दिया था। वह किसी भी क्षण पेशाब करने की स्थिति में था। अपने नंगपन में वह बड़ा प्यारा लगा । हिम्मत होती तो यह बात उसकी माँ से  कहता। मैंने सोचा वह जागेगा तो उसकी माँ की नजर बचा दूर ही से पुचकारुँगा।" 

 

 

 

प्रबोध कुमार की कहानियों में बचपन की उपस्थिति उस भाव को बचाये रखने की उपस्थिति की कोशिश लिए मिलता है। जीवन के वास्तविक अनुभव बिना किसी रागात्मक भाषा विन्यास के हमसे इस तरह मुखातिब होते हैं कि हम उन 'अनुभूति' के क्षणों को वहीं ठिठक कर पढ़ने की कोशिश करते मिलते हैं। कथा प्रविधि में यह परिवर्तन जीवन को देखने की परिवर्तित दृष्टि का नतीजा है। और यही परिवर्तित दृष्टि, भाव बोध  नयी भाषा में संवलित हो कर प्रबोध कुमार की कहानी को नया करता है। यह  नयापन  शिल्प, बुनावट या नयी विषयवस्तु की खोज का रूप लेकर नहीं आया है वह अपने साथ' भोक्ता ' की उपस्थिति भी लेकर आया है शायद इसीलिए प्रबोध कुमार की आत्मपरक गद्यात्मकता जीवन के निकट होते हुए भी जीवन के  स्वर को अलग से देखने की माँग करती है। कवि-चिंतक कमलेश प्रबोध कुमार की कहानियों को 'कैवल्य का संगीत' कहते हैं। क्या कैवल्य या निर्लिप्तता की दृष्टि लिए प्रबोध कुमार की कहानियां हैं। क्या जीवन के प्रति नि:संग भाव लिए कोई कथाकार जीवन के प्रति ममत्व को इतने तटस्थ भाव देख सकता है। लालटेन की दूर होती रोशनी में वह अपने को बियाबान राह में अकेले नहीं रह जाना चाहता । "मैं स्वयं को बुरी तरह कोसने लगा लेकिन फिर जब उससे ऊब गया तो लालटेन की धीरे-धीरे कम होती रोशनी में अँधेरे से डरता किसी ऐसे मुसाफिर की राह जोहने लगा जो लाख मना करने के बावजूद मुझे जबरदस्ती अपने साथ इस बियाबान जंगल से निकाल ले जाएगा ।" ('सफर' कहानी से)

 

 

 


सम्पर्क

आशीष सिंह

ई-2/653

सेक्टर-एफजानकीपुरम लखनऊ-226021

मो - 08739015727

टिप्पणियाँ

  1. आशीष इधर लगातार बढ़िया काम कर रहे हैं।प्रबोध कुमार की कहानियों पर उन्होंने अच्छा लिखा है।आखेट कहानी की उस ज़माने में अच्छी -खासी चर्चा हुई थी।

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    1. जी ।उत्साहवर्धन के लिए आपका आभार

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  2. अपने समय की चर्चित पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियों के अल्पज्ञात कहानी कार के कृतित्व पर बढिया आलेख। और विस्तार से, काम करके, लिखे जाने की ज़रूरत है।

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    1. जी । प्रबोधकुमार और प्रबोधकुमार जैसे कहानीकारों पर सचमुच विस्तार व विधिवत काम करने की जरूरत है ।यह आलेख महज परिचयात्मक है प्रबोधकुमार जी पर जल्दी ही विस्तार से आपको पढ़ने को मिलेगा ।आपका आभार -- आशीष सिंह

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  3. अच्छा आलेख ।अलक्षित प्रबोधकुमार जी की कहानियों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी ।कहानियां पढ़ने की उत्सुकता जगी ।ऐसे कई कथाकार अलक्षित रह गए
    आपको साधुवाद। -----सत्यनारायण

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  4. चढ़ते-बढ़ते हुए चमक रहे सूरज और उसके चमकते-दमकते प्रकाश को देखने तथा उसे देख रही दृष्टियों तक के अस्तित्त्व तलक ही महदूद रहना ही हिन्दी में 'साहित्य-जगत' है। मैं बेहिचक इसको 'साहित्य में अपने-अपने सीमान्त' कहता हूँ।
    युवा आलोचक आशीष सिंह का प्रबोधकुमार और उनकी कुछ कहानियों पर लिखा यह लेख 'हिन्दी साहित्य मे अपने-अपने सीमान्त' तक महदूद रहने की जड़-प्रवृति को आइना दिखाते हुए 'नयी कहानी आन्दोलन' की घेरे बन्दियों को बेलौस मुँह चिढा़ते अन्दाज़ में हाथी की तरह आगे अपनी राह बढ़ जाने का भी उल्लेखनीय उदाहरण हैं।
    साठोत्तरी कहानीकारों में खास प्रबोधकुमार पर आशीष सिंह का यहाँ चर्च्य-लेख भले कुछ ही कहानियों का संस्पर्श करते हुए लिखा गया है किन्तु;जिस तरह से आगे बढ़ता जाता है,वह हमको 'महत्त्व प्रबोधकुमार' का बोध कराता है।
    कहानीकार प्रबोधकुमार हिन्दी में प्रायःबिसरा दिये गये हैं। प्रबोधकुमार के बारे में आशीष सिंह का यह आलेख पढ़ते हुए प्रेमचन्द के छोटे बेटे अमृत राय याद आते हैं,जिन्होंने क्षोभ के साथ लिखा भी और बहुत बार कहते भी रहे हैं: 'लोग आखि़र मुझे प्रेमचन्द के बेटे के तौर पर ही क्यों पहचानते और जानते रहते हैं?बतौर लेखक मैंने भी हिन्दी में लिखा है,वह लोगों को क्यों नहीं दिखता?'
    प्रबोधकुमार,प्रेमचन्द की सबसे बड़ी सन्तति 'कमला श्रीवास्तव' के बड़े बेटे थे। मेरे संज्ञान में तो उनका यह मलाल कहीं भी नहीं है कि उन्होंने कभी अपने को प्रेमचन्द का नाती (दौहित्र) होने का सन्दर्भ भी दिया हो।
    हाँ,मैंने कहीं यह अवश्य पढा़ है-'प्रबोधकुमार; शिवरानी देवीजी यानी अपनी नानी के साथ काफी समय तक बनारस में रहे हैं और शिवरानी देवीजी ने अपनी लिखी प्रेमचन्द की जीवनी "प्रेमचन्द घर में" के दूसरे संस्करण में छपने के निमित्त संशोधन और संवर्द्धन प्रबोधकुमार से ही कराये थे!'
    यह कहना तो कठिन है कि प्रबोधकुमार द्वारा शिवरानीजी ने 'प्रेमचन्द घर में' जो संशोधन कराया था,वह संशोधित-पाठ किस प्रकाशक ने छापा है?
    परन्तु विचित्र होते हुए भी यह 'ध्रुव-सत्य' हरेक को जान व गाँठ बाँध लेना चाहिये कि "प्रेमचन्द घर में",शिवरानीजी की लिखी जीवनी उनके दोनों बेटों ने नहीं छापी क्योंकि;शिवरानीजी ने प्रेमचन्द के बारे में उनके छवि-भंजन की कुछ बातें जितना खुलकर और बेबाकी से लिख दी थीं,उसके इस जीवनी में सार्वजनिक किये जाने से अमृत राय व श्रीपत राय,दोनों बेटे असहमत ही नहीं,अत्यधिक क्षुब्ध भी थे!- ---बन्धु कुशावर्ती

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  5. आशीष सिंह ने जिस तन्मयता से प्रबोध कुमार जी की कहानियों के शिल्प और कथ्य की मार्मिकता का विश्लेषण किया है, वह उन्हें देवीशंकर अवस्थी जैसे आलोचक की पंक्ति में बैठाने की माँग करता है। बहुत दिनों बाद किसी कहानी संग्रह की ऐसी समीक्षा पढ़ी।हार्दिक साधुवाद।। --/ उद्भ्रांत शर्मा

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