स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख केदार नाथ सिंह की कविता के उदगम स्थल
केदार नाथ सिंह हिन्दी कविता की दुनिया का ऐसा नाम जिन्होंने महानगर में रहते हुए भी अपने ग्रामीण परिवेश को बनाए बचाए रखा। अत्यन्त साधारण सी चीजों पर भी उन्होंने साधिकार कलम चलाई। केदार जी मूलतः गीतों की दुनिया से आए हुए थे इसलिए उनकी कविताओं में एक सहज रागात्मकता मिलती है। कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने केदार जी को अपने एक संस्मरणात्मक आलेख में शिद्दत से याद किया है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख 'केदारनाथ सिंह की कविता के उदगम स्थल'।
केदार नाथ सिंह की कविता के उदगम स्थल
स्वप्निल श्रीवास्तव
हम सभी जानते है कि जीवन का अंत मृत्यु है। और यह भी कि किसी प्रिय का जाना किसी दारूण दुख से कम नहीं है। केदार नाथ सिंह मेरे प्रिय कवि हैं। उनकी कविताओं में मैं खुद अपना चेहरा देखता हूं। उनकी कविताओं में मुझे अपना गांव नदी पोखर और परिंदे दिखाई देते है। 19 मार्च-18 उनके जीवन की आखिरी तारीख थी। उसके बाद वे पूर्वज कवि बन गये है। पडरौना से ले कर दिल्ली तक उनकी तमाम यादें बिखरी हुई है। पडरौना – जहां के डिग्री कालेज में वे हिन्दी के अध्यापक थे। इस कस्बे से 15-20 कि. मी. दूर मै एक कस्बे रामकोला के इंटर कालेज में पढ़ रहा था। मेरे हिंदी के अध्यापक रामसिंह अनिल केदार जी को अपना बड़ा भाई मानते थे। हमे हिंदी पढ़ाते हुये वे केदार जी के गीतो की चर्चा करते थे – उनके गीतों में ताजगी और लोकरंग था। मुझे उन गीतो की याद है।
झरने लगे नीम के पत्ते, बढ़ने लगी उदासी मन की।
दूसरा गीत था –
धान उगेगे प्रान उगेगे हमारे खेत में, आना जी बादल जरूर।
मैं गांव से मिडिल पास कर इस कस्बे में आया था और अपने गांव से बड़ी जगह पर रह रहा था। इंटर में मुझे साहित्य के प्रति रूचि जगाने वाले अध्यापक राम सिंह अनिल मिले थे। केदार जी कालेज में राम सिंह सर के नाते आते रहते थे। उनके गीतों में मेरी दिलचस्पी जग चुकी थी। उस उम्र में गीत अच्छे भी लगते थे। उनके साथ देवेंद्र कुमार, शम्भु नाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह के गीतो की धूम थी। कवि सम्मेलनों गीत पढ़े जाते थे। केदार जी और देवेंद्र जी गीतों के बाद कविता की दुनियां में दाखिल हुए और कविता में अपने गीति तत्व को सुरक्षित रखा। केदार जी सर के बुलावे पर कालेज में आये हुये थे। सम्भवत: अपने कुछ गीत सुनाये थे। वे सफेद कुर्ते–पैजामे में थे। उनके पैजामे की मोहरी चौढ़ी थी। गौर वर्ण – बात-बात पर वे मुस्कराते रहते थे। मैं पहली बार मैं किसी कवि को देख रहा था। लोग बचपन में मुझे बताते थे कि कवि लम्बे–लम्बे बाल या दाढ़ी रखते है, शराब इत्यादि पीते है। कई स्त्रियों से प्रेम करते है। लेकिन केदार जी को देख कर मेरी अवधारणा बदल गयी थी। वे उसके बरक्स शिष्ट और शालीन दिख रहे थे। मेरी यह इच्छा हुई कि मैं उनसे बात करूं लेकिन साहस नहीं हुआ। गांव का आदमी शहर में पहुंच कर संकोच में पड़ जाता है। धीरे धीरे उसकी भटक खुलती है।
मेरे इंटर के इंतहान का सेंटर पडरौना पड़ा हुआ था। सोचा इस बार जरूर केदार जी से मिलूंगा। मैं पडरौना में अपने पिता के मित्र के यहां डेरा डाले हुआ था – उन्हें प्रेम से चाचा कहता था। सोचा एक दो पर्चे और बीच में कुछ दिन का गैप मिल जाय तो चाचा से केदार जी के बावत पूंछू – वरना कहेगे – कविता – वबिता के फेर में पड़ोगे तो इंतहान क्या दोगो। पिता से नालिश का डर अलग था। मुझे कविता लिखने का रोग लग चुका था। पिता मेरी कविताई को लेकर धमकी दे चुके थे।
फिलहाल वक्त देख कर चाचा से पूछा – चाचा क्या आप केदार नाथ सिंह को जानते हैं – वे बड़े कवि हैं। चाचा उनका नाम सुन कर मुस्कराने लगे। क्या काम है? वे बोले
बस मिलने की इच्छा है – मैंने जबाब दिया।
वे रोज इसी बिल्डिंग में लडकियों से मिलने आते हैं। मिलने – शब्द पर उन्होंने ज्यादा जोर दिया और कहा कि शाम को उन्हें आते–जाते देख लेना। वैसे मेरी राय है कि ऐसे लोगों के चक्कर में मत पड़ो, अपनी पढ़ाई पर दिल लगाओ।
चाचा की इस बात से मेरे मुंह का स्वाद बदल गया और सोचा इस आदमी की सोच कितनी दकियानूसी है। मैं उन्हें जबाब नहीं दे सका। मैं केदार जी को इस बिल्डिंग में आते–जाते देखता रहता था। आते समय वह खुश दिखते थे लेकिन जाते समय ज्यादा खुश दिखाई देते थे। मै सोचता धन्य हैं वे लडकियां जिन्हे ऐसे कवि के सान्निध्य का सुख मिला हुआ है। लेकिन हमारे छोटे शहरों में लड़के और लड़कियों के आपसी सम्बन्धों को सहज नहीं माना जाता, उसे संदेह की नजर से देखा जाता है। पडरौना मारवाड़ी बहुल शहर था। उनका समाज हर तरह से समृद्ध था लेकिन वे लोग मानसिक रूप से बहुत पिछड़े थे। ऐसी स्थिति में लड़कियों से उनका मिलना–जुलना अच्छा नहीं माना जाता था। केदार नाथ सिंह की कविताएं स्त्रियों में लोकप्रिय रही है। दिल्ली आने के बाद इस लोकप्रियता में अपार वृद्धि हुई थी।
पडरौना प्रवास के तमाम बिम्ब और लोग उनकी कविताओं में मिलते हैं। मेरे ख्याल से वह उनकी कविता का उदगम स्थल था – जिसकी सीमायें बलिया से ले कर गोरखपुर तक लगती है। यह भोजपुरी इलाका है, जिसकी बोली–बानी अलग है। यहां भिखारी ठाकुर गाये जाते हैं। तमाम तरह की लोकपरम्परायें निभायी जाती हैं। यह भोजपुरी गीतों की जमीन है – जहां मोती बी ए जैसे प्रसिद्ध गीतकार पैदा हुए हैं। भोजपुरी ऐसी बोली है, जिसमें हमारे दु:ख-सुख शिद्दत से व्यक्त होते हैं। इस बोली का मुहावरा अलग है। इसे करोड़ो लोग बोलते है। केदार नाथ सिंह अपने मित्रों से इसी भाषा में बात करते थे। केदार नाथ सिह की कविताओं के शब्द इन्ही इलाको से आते हैं।
......
गोरखपुर से पढ़ाई के दौरान वे परमानंद श्रीवास्तव के यहां दिखाई देते थे तो कभी गोरखपुर के हिंदी विभाग में। कई बार उनके साथ एक ठेठ देहाती आदमी उनके साथ लगा रहता था – जिसे मैं उनके अनुकूल नहीं समझता था। परमा नंद जी ने बताया कि ये कैलाश पति निषाद है। जब उनका कविता संग्रह ‘यहां से देखो’ का प्रकाशन हुआ था तो यह देख कर दंग रह गया कि यह संकलन कैलाश पति निषाद को समर्पित है। तब हमें निषाद के महत्व का पता चला। निषाद सी. पी. आई. के कार्यकर्ता थे। वह जनता के बीच काम करते थे। जुलूस आदि निकालते थे। उन्होंने निषाद को ले कर – एक ठेठ देहाती कार्यकर्ता के प्रति – कविता लिखी है। इस कविता की कुछ पंक्तियां देखे –
उसकी सायकिल में हवा
हमेशा कम होती है
हमेशा बगल में होता है
कोई और चेहरा
जिसे थाने मे बुलाया गया है
मुझे थाने से चिढ़ है
मैं थाने की धज्जियां उड़ाता हूं
मैं उस तरफ इशारा करता हूं
जिधर थाना नहीं है
जिधर कभी पुलिस नहीं जाती
मैं उस तरफ इशारा करता हूं।
यह कविता किसी सामान्य व्यक्ति पर लिखी कविता नहीं है। इसके अर्थ व्यापक हैं। इस कविता के बहाने केदार नाथ सिंह व्यवस्था की धज्जियां उड़ाते हैं। उनकी कविता में यह प्रतिरोध लाऊड नहीं होता – जैसा कि उनके समकालीनों के यहां मिलता है। कैलाश पति निषाद के मृत्यु के बाद लिखी एक अन्य कविता बीच में याद आती है – जो उनके संकलन , टालस्ताय और सायकिल में शामिल है –
सिर्फ एक गमछा भी
हो सकता है आदमी का सबसे बड़ा मित्र
एक सायकिल भी उतनी निष्ठा
और उतने ही ताप से निभा सकती है प्रेम
इस कविता के बाद पुराने दिनों की कविता पर लौटते हैं। कविता का शीर्षक है – छाता। सोचिए क्या छाता भी कविता का विषय हो सकती है। केदार नाथ सिंह ने मामूली विषयों पर कविता लिख कर काव्यात्मक बना दिया है ..
बीस बरस बाद
छाता लगाये हुए
पडरौना बाजार में मुझे दिख गये बंगाली बाबू
बीस बरस बाद मै चिल्लाया
बंगाली बाबू! बंगाली बाबू
देखा बस इतना
कि मेरी आंखो के आगे
चला आ रहा है एक छाता
सोचता हुआ
मुस्कराता हुआ
ढ़ाढ़स बंधाता हुआ
बोलता बतियाता एक छाता
कविता की दुनियां से अनजान एक कस्बे में, वे बेहद लोकप्रिय थे। उनके छात्र उन्हें बहुत पसंद करते थे। मुझे उनसे पढ़ने का अवसर नहीं मिला। मैं इंटर के बाद आगे की पढ़ाई के लिये गोरखपुर चला आया । लेकिन पिता की नौकरी तक रामकोला कस्बे में मेरी आवाजाही बनी रही। मेरे साथ के दोस्त पडरौना के कालेज में पढ़ने चले गये। वे मुझे केदार जी के पढ़ाने की कला के बारे में बताते थे। वे अच्छे कवि नहीं एक बेहतर अध्यापक थे। उनकी स्मृतियां अब भी उनके छात्रों के बीच बिखरी हुई है – जिसे दोस्त मिलने पर साझा करते रहते हैं। उनके एक स्मृत्ति–लेख ‘कब्रिस्तान में पंचायत’ में उनकी लोकप्रियता का प्रमाण मिलता है। कब्रिस्तान की जमीन को लेकर जब दो समुदायों मे विवाद हुआ तो उसके निपटारे के लिये दोनो पक्षों ने उनके नाम को चुना। उन्होंने जो भी फैसला किया, वह दोनो को मान्य हुआ। लेकिन जब उन्हें उस कालेज का प्राचार्य बनाया गया तो यह उनके जीवन की मुश्किल घड़ी थी। वह इस पद के योग्य नहीं थे। इस पद के लिये जो राजनीति और तिगड़म की दरकार होती है – वह उनके पास नहीं थी। किसी कवि के पास इस तरह की प्रतिभा नहीं होती कि वह किसी कालेज के प्रबंधन को संभाल सके। हिंदी के कवि मान बहादुर सिंह को इस पद के लिये अपनी जान देनी पड़ी। इसके पहले कि इस पद पर रहते हुए उनकी अप्रियता बढ़ती – वह अपना पथ बदल कर जे. एन. यू. जा चुके थे। इस तरह वह संकट से बाल–बाल बच गए। राजधानी में पहुंच कर उनकी प्रतिभा को नये आयाम मिले। जो कविता का बीज कोठार में था – वह अपने कैद से निकल कर पानी और धूप में पुष्पित और पल्लवित होने लगा। लेकिन इस जमीन से उनका सम्बंध बना रहा। दिल्ली से ऊब कर वे इस पुरवियां इलाके में आते रहते थे। वे मूलत: गांव के आदमी थे। ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के बाद बी. बी. सी. से इंटरव्यू देते समय उन्होंने कहा था- लेकिन जो कुछ मैं लिखता हूं, उसमें गांव की स्मृतियों का ही सहारा लिया है – क्योकि मैं गांव से आया हुआ हूं और ग्रामीण परिवेश की स्मृतियों को संजोये हुये दिल्ली जैसे महानगर में रह रहा हूं (21 जून 2014)
दिल्ली उनके जीवन का दूसरा समय था। हिंदी के बहुत सारे कवियों ने रोजी-रोटी और महत्वाकांक्षाओ के लिये स्थान–परिवर्तन किये गये और इसके प्रभाव भी कविताओं में देखे जा सकते हैं। वे खुद नहीं बदले है, उनकी भाषा और कथ्य में बदलाव लक्षित किये जा सकते हैं। कारण यह है कि महानगरों के चकाचौध ने उनसे उनकी भाषा छीन ली है। केदार नाथ सिंह इसके अपवाद हैं। दिल्ली में रहते हुये वे अपनी मूल जमीन से जुड़े हुए थे। रूढ मुहावरे में कहा जाय तो वे जड़ों से वाबस्ता थे। वे अपनी कविता के जरिये अपनी मातृभाषा में लौटने का उपक्रम करते रहते है। वे अपनी कविता मातृभाषा में कहते हैं ..
ओ मेरी भाषा
मैं लौटता हूं तुममें
जब चुप रहते- रहते
अकड़ जाती हैं मेरी जीभ
दुखने लगती है मेरी आत्मा
अस्सी के आस-पास उनका दूसरा संग्रह ‘जमीन पक रही है’ का प्रकाशन हुआ। यह उसी दौर में उदित हो रहे कवियों का रोलमाडल बना। इस संग्रह की शब्दावली अलग थी। इस संग्रह में सूर्य, रोटी, जमीन, बैल, धूप में घोड़े पर बहस, सन् 47 को याद करते हुए, मैदान में बच्चे- जैसी महत्वपूर्ण कविताएं संकलित थी। आगे चल कर उनके अन्य संग्रह – यहां से देखो, अकाल में सारस, टाल्स्टाय और सायकिल, उत्तर कबीर तथा अन्य कविताएं, सृष्टि पर पहरा – जैसे संग्रह प्रकाशन में आये इन संग्रहो में पानी मे घिरे हुये लोग, टूटा हुआ ट्रक, टमाटर बेचने वाली बुढ़िया, माझी का पुल, बाघ, बुनाई का गीत, मंच और मचान जैसी यादगार कविताएं हैं। अकाल में सारस पर उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान मिला और अंत में ज्ञानपीठ से विभूषित किये गये। मंगलेश डबराल ने अपने एक लेख में लिखा है कि वे नागार्जुन के बाद सबसे लोकप्रिय कवि थे। उनकी कविता को देश भर के पाठक मिले। यश भी कम नहीं मिला। विदेशों में उनकी कविता पाठ के आयोजन हुए। इस तरह उनकी कीर्ति की खुशबू देश के बाहर फैली। वे जिस सहज भाषा में कविताएं लिखते थे, वहां सम्प्रेषण को ले कर कोई समस्या नहीं थी। वे गीतकार से होते हुए कवि बने थे, इसलिए उनकी कविता में रवानगी थी। बिम्ब सीधे दिल को छूते थे। वे डूब कर कविता पाठ करते थे।
वे आलोचना के कम शिकार नहीं हुए। कुछ लोगों की आपत्ति थी वे वे यथार्थ को व्यक्त करने के लिये जिस तरह की सुकोमल पदावली का उपयोग करते हैं, उसमे यथार्थ प्रकट नहीं होता बल्कि उसका जादुईकरण हो जाता है। हिंदी के वे आलोचक जो कविता को क्रांति का हथियार मानते हैं – उन्हें केदार जी की कविता नहीं भाती। कुछ तो इतने कटु हो गये है कि वे उनकी मृत्यु के बाद उन पर हमलावर हो गये है। कई तो व्यक्तिगत आक्षेप पर उतर आये हैं। जीवित या मृत कवि या लेखक की आलोचना होनी चाहिए इससे आलोचना का सम्यक विकास होता है लेकिन निंदा प्रस्ताव या उनके कवि कर्म को जान-बूझ कर मलिन करने की योजना आलोचना का हिस्सा नहीं है। लेकिन जब हम उनकी कविता के भाव में उतरेंगे तो उनकी कविता के मर्म को समझ सकेंगे। उनकी कविता माझी का पुल पढ़ते हुए हम लोक जीवन की उस कथा में उतर सकते हैं – जो सिर्फ केदार नाथ सिंह की कविता में मिल सकता है। उनकी कविता – पानी से घिरे हुए लोग – की कुछ पक्तियां देखें –
पानी में घिरे हुए लोग
प्रार्थना नहीं करते
वे पूरे विश्वास से देखते
हैं पानी को
और एक दिनदिन
बिना किसी सूचना के
खच्चर बैल या भैस की पीठ पर
घर असबाब लाद कर
चल देते हैं कहीं और
यह कितना अदभुत है
कि बाढ़ चाहे जितनी खतरनाक हो
उन्हें पानी में
थोड़ी सी जगह जरूर मिल जाती है।
यह कविता मनुष्य की जिजीविषा को प्रकट करती है। केदार नाथ सिंह की कविताओं में यह भाव प्रबल है। कविता हमे जीने की ताकत देती है। हमारी सम्वेदना का विस्तार करती है। यही कलाओं का उद्देश्य है। वह बाहर की क्रांति से ज्यादा भीतर के परिवर्तन पर यकीन करती है। उनकी कविता, सृष्टि पर पहरा में – उन्होंने लिखा है –
कितना भव्य था
एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर
महज तीन-चार पत्तों का हिलना
उस विकट सुखाड़ में
सृष्टि पर पहरा दे रहे थे
तीन –चार पत्ते।
इस कविता को पढ़ कर सहज ही ओ हेनरी की कहानी – लास्ट लीफ की याद आती है। किसी कवि की कविता के लिये दो जरूरी शब्द हैं – जिजीविषा और उम्मीद।
......
बहुत कम लोग जानते होंगे कि केदार जी कुशीनगर में बसना चाहते थे। कुशीनगर पर उन्होंने कई कविताएं लिखी हैं। जैसे बुद्ध से कविता, कुशीनगर की एक शाम, बुद्ध की मुस्कान, मंच और मकान। मंच और मकान कविता कुशीनगर के चीना बाबा पर है – जो वृद्ध चीनी भिक्षु थे। एक बरगद के पेड़ पर उनका घर था। बरगद के बोझ से स्तूप टूट रहा था। इसलिए उसे काटने के आदेश दिये गये। वे लिखते हैं –
बरगद से नीचे उतारा गया भिक्षु को
और हाथ उठाए – मानो पूरे ब्रह्मांड में
चिल्लाता रहा वह
घर है.. ये ..ये.. मेरा घर है।
घर के लिये यह तड़प उनकी कविताओं में बार बार आती है। क्या दिल्ली में उनका घर घर है या आवास। या उनके लिये कुशीनगर में बनाया जाने वाला घर होता। हमारे जीवन की स्थितियां भिन्न होती हैं। हम विस्थापन को घर कहने के लिये अभिशत होते हैं। दिल्ली जैसे महानगर की जिंदगी जीते हुए – वे उन इलाको से मानसिक रूप से कभी दूर नहीं हुए। ये इलाके उनकी कविताओं के उदगम स्थल थे।
रोजी रोटी और महत्वाकांक्षाएं हमे अपने उदगम स्थल से दूर ले जाती है। केदार नाथ सिंह को पडरौना छोड़ना पड़ा। कबीर बनारस रहना चाहते थे लेकिन उन्हें मगहर उनका मुक्ति स्थल बना। केदार जी उन जगहों पर बार-बार लौटते थे – जहां उनकी जड़े थीं। वे दिल्ली में नहीं दिल्ली के बाहर अपने आप को रिचार्ज करते थे। पडरौना के बाद उनकी मनपंसद जगह गोरखपुर थी। तब तक मैं इस सूबे के कई जिलो में घूम-घाम कर गोरखपुर आ चुका था। केदार जी मेरे प्रिय कवि हो चुके थे। मै उनका स्नेहभाजन था। गोरखपुर की मित्र मंडली देवेंद्र कुमार –(जिन्हें वे मुनिवर कहते थे) हरिहर सिंह –जो उनके हमवतन थे , परमा नंद श्रीवास्तव मुख्य रूप से थे। वे अक्सर हिंदी विभाग की अध्यक्षा डा. शांता सिंह या हरिहर सिंह के यहां अपना डेरा डालते थे। यहां प्रसंगवश यह बता दूं कि हरिहर सिंह रचना नाम की महत्वपूर्ण पत्रिका निकालते थे। उसके सम्पादक मंडल में उनके साथ राम सेवक श्रीवास्तव , मेरे अध्यापक राम सिंह अनिल शामिल थे। बाद में राम सेवक दिनमान में चले गए। इस पत्रिका में हिंदी के महत्वपूर्ण लेखक प्रकाशित हुए थे। मेरी स्मृति अगर धोखा नहीं दे रही है तो उस पत्रिका में मुक्तिबोध का लेख प्रकाशित हुआ था। खैर यह सब इतिहास का हिस्सा बन चुका है। केदार जी जब भी गोरखपुर आते तो उनकी महफिल सजती थी। दिल्ली से आने के बाद मुझे फोन करते। कभी वे मेरे आवास पर आ जाते, कभी हरिहर सिंह या सुरेंद्र काले के यहां रूकते। हरिहर सिंह उनके मानस के ज्यादा निकट थे। उनसे वे भोजपुरी में बात करते थे। उनके पास दुनियां –जहान के किस्से थे और उनकी बतकही में जादू था।
जब कभी आते तो मेरे साथ देवेंद्र कुमार के यहां जरूर जाते और कहते यहां पहुंच कर मुझे दारूण प्रसंग याद आता है। दरअसल उनकी पत्नी जब गम्भीर रूप से बीमार हुई थीं, देवेंद्र कुमार के यहां ठहरी हुई थीं। बाद में उनकी मृत्यु हो गयी। पत्नी की 28वी पुण्यतिथि पर उनकी कविता देखें।
पहले वह गई
फिर बारी बारी चले गये
बहुत से दिन
और ढेर सारे पक्षी
और जाने कितनी भाषाएं
कितने जलस्रोत चले गये दुनियां से
जब वह गयी
उनके जाने के बाद यह कविता उनके संदर्भ में पढ़ी जाय तो उनके जाने की वेदना समझी जा सकती है। कविताएं किसी व्यक्ति पर नहीं समय पर लिखी जाती है। निराला ने सरोज स्मृति – अपनी बेटी सरोज के निधन पर नहीं उस समय और समाज पर लिखी थी। मुझे यह भी लगता है कि हर कवि अपने जीवन काल में अपने ऊपर श्रद्धांजलि लिख कर जाता है। केदार नाथ सिंह के अकेलेपन पर उनके साथी आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी का लिखा हुआ संस्मरण याद आता है।
.... व्यक्तिगत जीवन में वह बहुत अकेले थे, बेहद तन्हा। इस महानगर में हमारे जैसे मित्र थे, लेकिन हमारा घर दूर दूर था – इसलिये ज्यादा मिल नहीं पाते थे। पत्नी की कमी की भरपाई न तो शराब से हो सकती है और न ही प्रेमिकाओं से। कभी कभी जब हमारी महफिल जमती थी और खाने–पीने के बाद वह जाने लगते थे तो उनको जाते हुए देखना बहुत ह्रदयविदारक लगता था।
केदार जी का जाना एक जीवंत कवि का जाना है – जो अपनी कविता और जीवन में बेहद जिंदादिल थे। वह हमारे पास अपनी कविताओं का अकूत खजाना और स्मृतियां छोड़ गये हैं –जिसका व्याज निरंतर बढ़ता जायेगा। अंत में उनकी छोटी सी कविता के साथ उन्हें विदा।
मैं जा रही हूं – उसने कहा
जाओ – मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है।
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सम्पर्क
स्वप्निल श्रीवास्तव
510 – अवधपुरी कालोनी – अमानीगंज, फैज़ाबाद -224001
मोबाइल – 09415332326
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