कमलजीत चौधरी का आलेख पाँच पढ़ी औरत का बी. ए. पास कवि : सुरेश सेन निशांत
सुरेश सेन निशांत |
सुरेश सेन निशांत का नाम आते ही एक ऐसे कवि की तस्वीर हमारे जेहन में उतरती है जो साफगोई से कविता में अपनी बातें रख देता है। निशांत कविता लिखते ही नहीं उसे जीते थे। इसीलिए समवेदनात्मक स्तर पर वे कविता से गहन रूप से जुड़ जाते थे। वे लोक के ऐसे कवि थे जो विद्रूपताओं को उदघाटित करने से नहीं हिचकते थे। युवा कवि कमलजीत चौधरी ने निशांत के कविताओं की एक निष्पक्ष पड़ताल की है। यह पड़ताल इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि निशांत उनके प्रिय कवि हैं। और प्रिय कवि पर तटस्थता के साथ लिखने को बेहतर तरीके से निभाया है कमलजीत ने। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं कमलजीत चौधरी का आलेख 'पाँच पढ़ी औरत का बी. ए. पास कवि : सुरेश सेन निशांत'।
पाँच पढ़ी औरत का बी. ए. पास कवि : सुरेश सेन निशांत
कमलजीत चौधरी
निशांत जी
से मैं कभी नहीं मिला फिर भी बहुत मिला। उन्हें पहली बार शायद 2007 में
वागर्थ के एक पुराने अंक में पढ़ा था। इस पाठ के बाद उनका नाम याद रहा। उसके बाद
जहाँ भी उनकी कविताएँ मिलीं, ज़रूर पढ़ीं। इस बीच 2013 में
राज्यवर्द्धन द्वारा संपादित कविता संग्रह 'स्वर एकादश' छपा, जिसमें
सुरेश सेन निशांत समेत ग्यारह कवियों के साथ मेरी कविताएँ भी शामिल
की गई थीं। इस एक जिल्द में रह कर हम सभी
ने एक दूसरे को पढ़ा। पढ़ने के इस उपक्रम में निशांत मुझे नितांत चुप्पे, सहज और
सीमांत परम्परा के कवि लगे। उनकी एक आत्मीय छवि बनी, जो कभी धूमिल नहीं हुई। उसके बाद मैंने
उनके दोनों संग्रह पढ़े। मुझे उनकी इससे आगे की कविता अभी पढ़नी थी। यकीनन यह इंतज़ार
अधिक सुखद होता।
कवि नहीं
दिखते सबसे सुन्दर
मग्न मुद्राओं
में
लिखते हुए
सेल्फ पोट्रेट पर कविताएँ
स्टडी
टेबलों पर
बतियाते
हुए प्रेमिका से
गाते हुए
शौर्यगीत
करते हुए
तानाशाहों पर तंज
सोचते हुए
फूलों पर कविताएँ
वे सबसे
सुन्दर दिखते हैं
जब वे बात
करते हैं
अपने
प्रिय कवियों के बारे में
प्रिय
कवियों की बात करते हुए
उनके बारे
में लिखते हुए
दमक जाता
हैं उनका चेहरा
फूटता है
चश्मा आंखों में
हथेलियां
घूमती हुईं
उंगलियों
को उम्मीद की तरह उठाए
वही क्षण
है
जब लगता
है
कवि अनाथ
नहीं हैं।
मेरी नज़र
में प्रिय कवि होने की पात्रता सिर्फ कविताएँ ही तय नहीं करतीं। कवि व्यक्तित्व
यानी उसकी जीवन के प्रति निष्ठा, ईमानदारी, प्रतिबद्धता
और पक्षधरता भी प्रिय होने के प्रतिमान हैं। कविता के प्रति पूर्णकालिक समर्पण के
आधार पर सुरेश सेन निशांत मेरे प्रिय कवि ठहरते हैं। उन पर बात करते हुए मैं पहले
से भी सुन्दर लग रहा हूँ और यक़ीनन मेरा प्रिय कवि अनाथ नहीं लग रहा। प्रिय पाठको, आत्मीयता, सम्मान और
प्रियता अपनी जगह है। भरोसा रखें, मूल्यांकन में कोरी भावुकता बिलकुल
नहीं आएगी।
सुरेश सेन
निशांत कागज़ और अभ्यास पर विश्वास करने वाले कवि हैं। वे जन्मजात
प्रतिभा को ले कर पैदा नहीं हुए। उन्होंने कविताई अपने लोक से अर्जित की
है। वे कालजयी रचनाओं के नहीं समकाल के कवि हैं। वे व्यवस्था जनित विद्रूपताओं को
दर्शाने वाले कवि हैं। उनके यहाँ एक ओर आस्था और विश्वास हैं तो दूसरी तरफ
शिकायतें और प्रतिक्रियाएँ हैं। यह ध्यातव्य है कि उनकी नाराज़गी निजी पद-प्रतिष्ठा या पुरस्कार के लिए नहीं है।
वे अपने लोक के लिए चिंतित हैं। प्रकृति के साथ मानव के बदलते क्रिया कलापों को वे
आहत माँ समान हृदय से अभिव्यक्त करते हैं। वे छोटी-छोटी कथाओं के कवि हैं। इन कथाओं में
जीवन का ताप, जिजीविषा
और सौन्दर्य देखा जा सकता है। इनकी कविताओं में एक दोस्त, एक बुद्ध, एक औरत, एक पिता, एक बच्चे, एक वृक्ष
और पानी का दिल निरंतर धड़कते हुए देखा जा सकता है। उदासी, दु:ख, करुणा, सहभाव और संघर्ष इनके केंद्र में हैं।
जब वे लिखते हैं-
'हमारे पास
ठोकरें थीं
हमारे पास
पहाड़ की पीड़ा थी
हमारे पास
पहाड़ सा हौसला था'
(पृष्ठ-101 कुछ थे जो कवि थे)
तो इस
हौसले में पहाड़ का दु:ख एक
विराट चेतना के समान लगता है। यह चेतना विश्वव्यापी है। दु:ख के पहाड़ पूरी दुनिया में हैं। अगर आम
आदमी के सामने दु:ख के पहाड़
हैं तो उसके पास पहाड़ जितने मजबूत पाँव और सामूहिक संस्कृति भी हैं। राजनीति में 'विश्वबंधुत्व' और 'वासुदेव
कुटुम्बकम' भले एक
नारा हो पर साहित्य में यह एक भाव है। मुक्तिबोध कृत 'जन जन का
चेहरा एक' कविता इसी
भाव को ले कर लिखी गई है। वे लिखते हैं-
'एशिया की, यूरोप की,
अमरीका की/ गलियों की धूप एक।
कष्ट दु:ख संताप की,
चेहरों पर
पड़ी हुई झुर्रियों का रूप एक!
जोश में
या ताकत में बंधी हुई
मुट्ठियों
का लक्ष्य एक।'
इसी भाव
को ले कर सुरेश सेन भी लिखते हैं। लिखते ही नहीं इसे जीते भी हैं। वे अपने कवि
मित्रों के साथ कविता के छाते को ताने हुए दु:ख की बारिश में खड़े हैं-
'दूर थे
हमारे घर
अलग अलग
सूबों में
पर इतने
नज़दीक
एक ही
छाता था कविता का
जिसके
नीचे खड़े थे हम भीगते हुए
दु:ख की इस बारिश में'
(पृष्ठ- 93; वे जो लकड़हारे नहीं हैं)
कविता
क्रांति नहीं ला सकती पर यह दु:ख में
सामूहिक छाते की तरह तानी जा सकती है, इसके सानिध्य और स्निग्धता से
प्रतिकूलताओं की बारिश में भीगते हुए हम सतत परिष्कृत हो सकते है। निशांत इस बारिश
का स्वागत करते हैं।
दोस्तों पर लिखी इनकी कविताएँ दूसरों के दिलों में बैठकर ज़िंदा रहना सिखाती हैं। अपने खेतों से प्यार करने वाला, बैलों से बातें करने वाला और पगडंडियों पर चलने वाला धूल को छू कर उदास क्यों हो जाता है? पहाड़ बुरी तरह त्रस्त हैं। तथाकथित विकास की धूल ने कवि से उसकी सुन्दर स्मृत्तियों को छीन लिया है। वे लिखते हैं-
'क्या किसी
सूखी नदी के तट से
उड़ती हुई
आ गई है एक बवंडर का रूप धरे
और फैल गई
है मेरे कस्बे में
आतंक की
तरह?
यह जो धूल
है
इसे छू कर
क्यों हूँ मैं उदास?'
(पृष्ठ- 81, कुछ थे जो कवि थे)
कवि पाठक को उस त्रासद समय में ले जाता है जहाँ एक बच्ची पहाड़ का चित्र नहीं बना पा रही। वृक्ष, चिड़िया, सूरज, बादल, नदी आदि उसकी कल्पनाओं में नहीं आ पा रहे। वह उसकी आत्मा बनाना चाहते हुए भी टावर, बांध और नंगे पहाड़ बना देती है। अब पहाड़ी बच्चे सीमेंट की फ़ैक्टरियाँ, टनल, बाँध और कंक्रीट का जंगल देखने को विवश हैं। यह विकास नहीं प्रकृति का दोहन है। आज मानव की कल्पना और संवेदना को कुंद किया जा रहा है। सारी दुनिया को होटल, रेस्तरां, शॉपिंग माल में बदल दिया जा रहा है। मरुस्थल, समुद्र और पहाड़ व्यापार और मुनाफे के साधन मात्र समझे जा रहे हैं। पहाड़ों में होटल, शोरूम और फलों के बगीचों के मालिकों को छोड़ दें तो आम आदमी बेरोज़गारी और गरीबी से त्रस्त है। हिमाचल प्रदेश यानी आलोच्य कवि की कर्मभूमि एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। पर्यटक मुख्य-मुख्य जगहों पर घूमते, अच्छे होटलों में रहते हुए यही सोचते हैं कि यह लोग कितने समृद्ध और सुखी हैं। जबकि इनकी कविताओं में आए भिखारी, किसान, मज़दूरी करते बच्चे, गड़रिये, घास काटती औरतें, वन माफिया के लिए पेड़ काटते लाचार लकड़हारे, हादसों में मरते लोग, बाहरी राज्यों से आए हुए श्रमिक, दूसरे राज्यों में काम करने गए पहाड़ी लड़के कवि की कोरी कल्पना नहीं स्वानुभूत यथार्थ है।
बर्फ़
पर्यटकों को बहुत लुभाती है। पहाड़ पर रहने वालों के लिए बर्फ एक फ़ाहे के
साथ-साथ ज़ख्म
की तरह भी है। इसकी परिभाषा ट्रैवल एजन्सियों से परे है। इस संदर्भ में 'पहाड़: एक' और 'पहाड़: दो' कवितायें देखी जा सकती हैं-
'तस्वीर
में तुम
कितने
अच्छे लगते हो पहाड़
हज़ारों दु:खों से दूर
शांत बर्फ़
से ढके हुए।
देह को
बर्फ़ सी सुइयाँ चुभोता
गरीब आदमी
का
एक दु:ख नहीं दिखता।'
(पृष्ठ- 16; कुछ थे जो कवि थे)
यह कितना
अश्लील है कि पहाड़ सलीब पर टंगा है और हम हँस हँस कर उसके फोटो ले रहे हैं। पहाड़
शराब पीने और मौज मस्ती करने आए किसी पर्यटक को याद नहीं करना चाहते, वे तो
रोज़गार के सिलसिले में तपते शहरों में बूढ़े होते अपने नवजवानों को पुकारते रहते
हैं।
आलोच्य
कवि की कुछ कवितायें गुम हो गए लोगों की तसदीक़ करती हैं। जंगल में कवि को बचपन में
गुम हुए भाई की याद आना, लापता हुए
श्रमिक परिवार के लिए तड़पकर यह कहना-
'रास्तों
में बिखरे
बीज भी
नहीं थे वे
कि चुग
गया होगा उन्हें
चिड़ियों
का डार'
(पृष्ठ- 52; वे जो लकड़हारे नहीं है)
और माँ की
कोख में ही किसी दूसरी अँधेरी दुनिया के लिए रुखसत कर दी गई लड़कियों के लिए यह
पूछना-
'सुई जितनी
छोटी तो नहीं थीं
कि खो
जाने पर नहीं मिलतीं।'
(पृष्ठ- 45; वे जो लकड़हारे नहीं है)
'उतना ही
डरा हुआ
उतरा था
जब पहली पहली बार
नदी के जल
में
दोस्तों
का हाथ पकड़े
हलक में
अटकी थी साँस।'
(पृष्ठ- 32; कुछ थे जो कवि थे)
'ऐसा कौतुक
औरत ही रच
सकती है
जो ईश्वर
को स्वर्ग से उतार कर
एक वृक्ष
की आत्मा में बसा दे'
(पृष्ठ- 14; वे जो लकड़हारे नहीं हैं)
यहाँ
औरतों का संसार कितना शाश्वत और सनातन है। औरत इनकी कविता में सहभाव लेकर आती है।
इनकी कविता स्त्री के होने में है। यह होना धरती को सुन्दर बनाने का दायित्व है।
चिरकाल से एक औरत धरती पर पोंछा लगा रही है और एक आदमी गंदे पाँव लेकर उस पर चला
आता है। वह डांटती है। कवि इस डांटने का स्वागत करते हुए कहता है-
'धरती को
सुन्दर बनाने के लिए
बहुत
ज़रूरी है तुम्हारा इस तरह डाँटना
कवियों को
तुम्हीं से सीखना होगा
धरती को
सजाने का हुनर।'
(पृष्ठ- 67; कुछ थे जो कवि थे)
'सोई रहो
सखी
बहुत
सालों बाद
हुई है नसीब
तुम्हें यह
इतनी गहरी
मीठी नींद'
(पृष्ठ- 86; वे जो लकड़हारे नहीं हैं)
'क्योंकि
देश कोई रिक्शा तो नहीं
जो फेफड़ों
की ताकत के दम से चले
वह तो
चलता है पैसों से।'
(पृष्ठ- 38; वे जो लकड़हारे नहीं हैं)
कुछ अन्य जगहों पर निशांत दिल्ली पर तंज़ करते हैं या इससे मोहभंग दिखाते हैं। यह दु:खद सत्य है कि आज दिल्ली के बाहर भी अनेक दिल्लियां हैं। दिल्ली से लड़ने वाले आलोचकों को इन दिल्लियों को भी रेखांकित करना होगा। कुछ भावों को लेकर आलोच्य कवि दोहराव के शिकार हुए हैं। दरअसल वे अपने लोक के दु:ख, संघर्ष और रिश्तों को लेकर बहुत अधिक प्रतिबद्ध हैं, उनकी यह विशेषता उनकी सीमा भी है। वे अपने अंचल का अतिक्रमण नहीं कर पाते। ‘चालीस पार जाती हुई औरतें’, ‘कोक पीती हुई भिखारिन लड़की’, ‘प्रेम’, डूबी हुई दिल्ली के बारे में’, ‘राजधानी की सड़क’, ‘पच्चीस की उम्र’, ‘किराये का कमरा’, ‘तस्वीर में माँ’ जैसी कविताओं में; वे जब अपने इलाके से बाहर जाते हैं तो उनकी लोक-लय भंग होती है, तब उनके यहाँ स्वभाविकता न रहकर एक फैशनेबल तर्ज दिखायी देने लगती है। दूसरी ओर 'पिता का गमछा', 'पिता की छड़ी' हिन्दी में मौलिक विषय नहीं हैं फिर भी इन पर इन्होंने अच्छी कविताएँ लिखी हैं। निशांत की मुखरता उनकी नीरवता में भी बची रहती है। इसी नीरवता में हौले से; वे आम आदमी को मधुमक्खी के शहद और उसके ढँक और पत्थर सा दर्शाते हैं। यानी इनकी कविताएँ आम आदमी के श्रम और आत्मरक्षा में किए जाने वाले विरोध की अभिव्यक्ति हैं। वे प्रतिरोध रचते हुए जीवन के हक़ में की जा रही प्रार्थना के कवि हैं। ‘हम’ और 'हमारे बारे में' शीर्षक कविताएँ इसी कोटि की सुन्दर कविताएँ हैं। श्रम का सम्मान इनकी कविताओं की विशेषता है। वे प्रकृति से सीखते हैं, जैसे वे पेड़ से तपती धूप में जीवन का उम्दा पाठ सीखते हैं। कवि सीख चुका है कि-
'कैसे किसी
की थकान में
उतरा जा
सकता है
नींद की
झपकी बन कर'
(पृष्ठ- 90; वे जो लकड़हारे नहीं थे)
'जरा हौले
से ठकठकाना
उसके घर
का द्वार
इतने सूखे
मौसमों को झेलने के बाद
पता नहीं
कितने अर्से बाद
अभी अभी
हुई है यह बारिश
उस किसान
की नींद में'
(पृष्ठ- 36; परस्पर अंक तेरह, दिसम्बर 2010)
सभी पहाड़ी किसान सेब, अखरोट और लीची के बगीचों के मालिक नहीं हैं। यहाँ ज़्यादातर किसान गेहूं, मक्की, बाजरे और धान की खेती करते हुए कमरतोड़ मेहनत करते हैं। इनके अभाव और संघर्ष को निशांत ने अपनी कविता में पर्याप्त स्थान दिया है। निशांत ने 'शाम की धूप' श्रंखला से दस सुन्दर कवितायें लिखी हैं। इन कविताओं में एक कोमल हृदय धड़कता मिलेगा। धूप से संवाद करता कवि बेटा, कभी पिता और कभी आत्मीय दोस्त प्रतीत होता है। यहाँ सुन्दर बिंब और प्रकृति चित्रण ही नहीं बल्कि भूखे बंदरों और ठिठुरते गरीबों के लिए चिंता भी है। एक मार्मिक कविता पढ़ें-
'शाम की
धूप ने
सेब बेचती
उस अधेड़ औरत की
टोकरी के
सेब गिने
और गिनी
चेहरे की उदास झुर्रियाँ
फिर उसकी
बगल में बैठ गई
करती रही
पथिकों से
सेब
ख़रीदने की गुजारिश
लगाती रही
ऊँची हाँक।
देखते ही
बनता था
बेटी सा
मोहक
धूप का यह
रूप भी।'
(पृष्ठ- 61; कुछ थे, जो कवि थे)
'स्वर्ग
सिधारे पुरखों से
माँगता
हूँ
धरती के
चेहरे पे फैली
विवाइयों
के लिए माफी।
(पृष्ठ- 108; वे जो लकड़हारे नहीं हैं)
निशांत
पूर्वजों की भाषा में सीखते हैं कि अपना घर, गाँव और खेत बिना लड़े नहीं छोड़ देने
हैं। लड़ने की यह प्रेरणा लोक और कविता के लिए सुखद है।
'दु:ख - एक' और 'धूर्तता' कविताओं में आलोच्य कवि सत्ता की
चालाकियों और शोषण की दारुण कथा को अभिव्यक्त करता है। 'दुख- एक' अति मार्मिक कविता है। 'धूर्तता' हमारे समय
की राजनीति को बखूबी दर्शाती है। इस भाव का विस्तार मंगलेश डबराल की 'नए युग
में शत्रु' कविता में
देखा जा सकता है। यह 'धूर्तता' से कहीं
आगे की पड़ताल करती है। 'धूर्तता' कविता के
अंत में धूर्तता का यह कहना-
'पर फिर
मायूस हो जाती
कि आम
आदमी अब भी
नहीं करता
है उसे पसन्द।'
(पृष्ठ-52; कुछ थे जो कवि थे)
इस कविता को कमज़ोर करता है। क्या धूर्तता को कोई पसन्द करेगा? धूर्त ही करेंगे। ज़्यादातर दुनिया धूर्त हो जाए तो भी कविता उसी अपवाद के साथ खड़ी रहेगी, जो धूर्त का विरोध करेगा।
सुरेश सेन कहीं-कहीं वैचारिक सरलीकरण, अंतर्विरोध, पूर्वग्रह के शिकार होते हैं। इस संदर्भ में 'अयोध्या', 'भीख', 'कविता के संग कवि की फोटू', 'वे जो लकड़हारे नहीं हैं', 'कुछ थे जो कवि थे', 'झूठ का सिक्का' आदि कविताएँ उनकी सीमा तय करती हैं। 'अयोध्या' कविता में जब निशांत कहते हैं-
'काश
अयोध्या में होते हमारे यह पहाड़
तो शायद
बचा रहता इनका हरापन
बची रहती
इनकी यह धज
जिसे हर
रोज़ लूटते जा रहे हैं
कुछ लालची'
(पृष्ठ-112; वे जो लकड़हारे नहीं थे)
इनकी 'छंटनी' नामक कविता पढ़ते हुए गोरख पांडे की 'वे डरते हैं' ,'पहुँचना' पढ़ते हुए लीलाधार जगुड़ी की 'मैं आऊँगा' , 'काम पर लड़की' पढ़ते हुए राजेश जोशी की 'बच्चे काम पर जा रहे हैं', 'पिता' पढ़ते हुए कुमार विकल की पिता पर लिखी हुई एक कविता याद आती है। इन सभी कविताओं का याद आना पाठक की चेतना में कुछ नया नहीं जोड़ पाता। लेकिन यह कविताएँ कवि को अपने अग्रज कवियों से जोड़ती हैं, किसी भी तरह से उन्हें कम नहीं करती हैं। इसी तरह से आलोच्य कवि की 'मुड़ा तुड़ा नोट' नामक कविता प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'ईद का त्योहार' के हामिद और अमीना की याद दिलाती है। एक गरीब माँ द्वारा अपने बेटे को दिए हुए एक रुपये से इनकी कविता मेले में चिमटा नहीं खरीदती, खाली लौट आती है। दरअसल यह एक रुपया बचा कर वापस ले आना कविता का दायित्व है।
निशांत
कविता लिखते हैं यही इनका वैचारिक अथवा पॉलिटिकल स्टैंड है। पहाड़ के
इस कवि को मुक्तिबोध के शब्दों में यह नहीं पूछा जा सकता-'पार्टनर तुम्हारी पॉलटिक्स क्या है?' इसलिए
नहीं पूछा जा सकता क्योंकि वह यह भी
लिखते हैं-
'बंदूक
हमेशा ग़लत हो
और कविता
ठीक
ऐसा नहीं
होता हर बार'
(पृष्ठ- 101; वे जो लकड़हारे नहीं हैं)
निशांत को किसी वैचारिक वाद के साँचे में फिट नहीं किया जा सकता। उनके लिए इतना ही कहा जा सकता है कि कविता लिखते हुए वे बहुत कुछ और हो जाने की अपेक्षा मूलतः कवि ही रहते हैं, जो कि आसान नहीं हैं। वे साधारण में असाधारण ठहरते हैं। इनकी कविता हमारे इर्द-गिर्द के देखे हुए पेड़ों, नदियों, पक्षियों जैसी है । वे कंटेंट या शैली से कहीं भी चौंकाते नहीं हैं। दुरूह और दिखावटी बिंबों से उन्हें कोई मोह नहीं है। बिलकुल आम भाषा में अपने लोक की चौपाल सजा लेते हैं, जहाँ हम पहाड़ी लोक की बोली-वाणी और पानी को संवाद करते हुए देख सकते हैं। जब भी हाशिए अथवा सीमांतों की कविता का मूल्यांकन होगा, जब भी लोक अथवा हिमालयी कविता की बात चलेगी, इस 'पाँच पढ़ी औरत के बी० ए० पास कवि' की बहुत याद आएगी।
सन्दर्भ :
वे जो
लकड़हारे नहीं हैं- संस्करण, जनवरी 2010, अन्तिका
प्रकाशन,
कुछ थे जो कवि थे- संस्करण, जनवरी 2015, अन्तिका प्रकाशन
(आलोचना, अंक-67 में पूर्वप्रकाशित)
सम्पर्क :
गाँव व डाक- काली बड़ी,
तहसील व जिला- साम्बा - 184121
(जम्मू-कश्मीर)
मोबाइल नम्बर: 9419274403
निशांत हिंदी का मासूम कवि था ,दंद फंद नही जानता था । मुझसे हिंदी कविता में हो रहे गड़बड़ियों के बारे में बात करता था ,मैंने कई बार मना किया कि इस सब को नजरअंदाज करते हुए खूब अच्छा लिखो । कुछ साल पहले हिमाचल गया था ,उसका प्रेम देखकर मेरा परिवार चकित था कहां मिलता है ऐसा प्रेम । उसकी मृत्यु की सूचना से घर में सन्नाटा छा गया था जैसे परिवार का कोई आदमी चला गया हो । बार बार उसकी स्मृति आती है ।
जवाब देंहटाएंखूब अच्छा
जवाब देंहटाएंवाह बहुत ही खूबसूरत और सटीक विश्लेषण किया है भाई बधाई
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