यतीश कुमार की कहानी 'वो लड़का'
दुनिया में जीवन से बड़ा कुछ भी नहीं। लेकिन अपने आप में यह जीवन खुद क्षणभंगुर होता है। जीवन और मौत में बस एक महीन सा फासला होता है। आत्महत्या इस जीवन के लिए एक बड़ी त्रासदी है। एक खास मनोवृत्ति वाले लोग इसे गले लगाते हैं। किसी भी कीमत पर इसे जायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन दुनिया के तमाम लोग हार थक कर इसे ही गले लगाते हैं। यतीश कुमार ने अपनी इस कहानी वो लड़का में धनंजय नामक पात्र के जरिए कई महत्त्वपूर्ण बातें की हैं। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं यतीश कुमार की कहानी 'वो लड़का'।
वो लड़का
यतीश कुमार
बात 2015 की है मैं पटना में
संयुक्त सचिव (सामान्य प्रशासन) के पद पर था। जवाहर लाल नेहरू मार्ग (बेली रोड)
अपने आवास से ऑफ़िस जाना मेरे रोज़
की दिनचर्या का वो हिस्सा था जिसे या तो फ़ोन पर अपने दोस्तों से बातें करने में
या गाने सुनने में निकाल देता था पर आज स्मृतियों की ऐसी छलांग लगने वाली है इसका इलहाम
तक नहीं!
शहर को फ़्लाइओवर का फंदा लगने की पूरी तैयारी चल रही थी ट्रैफ़िक की उनिंदी से परेशान मेरे पास मोबाइल में खोने के सिवाय कोई बेहतर विकल्प नहीं था। मोबाइल में झाँकते ही जिस पहली खबर ने चौंकाया वह एक जाने माने युवा अभिनेता की आत्महत्या की थी।
आज
सिनेजगत की एक उभरती हस्ती ने पँखे से लटक कर आत्महत्या कर ली। पैंतीस के आसपास की आयु को अल्पायु ही
कहेंगे। अभी दो चार उड़ान ही भरी थी और यह दहला देने वाला हादसा। ग्लैमर के साथ
घातक अवसाद सिक्के का दूसरा पहलू है। कोई न कोई मानसिक पीड़ा जरूर रही होगी जो प्रबल अवसाद में उफ़ान
मारती होगी। एकांत, उफ़ान को ज्वार में कब बदल
देता है यह उस इंसान को भी नहीं पता होता। क्या चमकते सितारे ही ज्यादातर टूटते
हैं या सड़क पर दर-ब-दर घूमते लोग भी सितारे बिना बने
टूट जाते हैं?
क्या
पता! शोबिज़
इंडस्ट्री... यहाँ की दुनिया
दूर से जितनी चकाचौंध और ग्लैमर से भरी नज़र आती है, पास से यह उतने ही अकेलेपन और
दुख-दर्द से भरी है। यहाँ हर कोई अपनी जिंदगी की रफ्तार में खोया है। एक-दूसरे
की किसी को परवाह नहीं। उगते सूरज को ही सलाम किया जाता है। एक के बाद एक
सूइसाइड के मामलों ने ग्लैमर इंडस्ट्री के घुप अंधेरे वाले कमरे के दरवाजे खोल दिए
हैं। शोबिज़ की दुनिया के बाहर की आत्महत्याओं की चर्चा तक नहीं होती!
इसी
ऊहापोह में गाँधी मैदान कब पार कर गया पता ही नहीं चला। मेरा ऑफिस सचिवालय में है
और अभी मैं आराम से अपनी गाड़ी के एक्स्ट्रा स्पेस वाली पिछली सीट पर पैर फैलाये लेटा हूँ। एफ. एम. रेडियो पर गाना चल रहा है, "लिए सपने निगाहों में चला
हूँ तेरी राहों में, ज़िन्दगी
आ रहा हूँ मैं"।
ड्राइवर
अशोक गाने सुनते हुए धुन पर बस अपनी मुंडी
हिला रहा है। उसका उन्मुक्त
हो कर गाने का मन तो बहुत कर रहा होगा मेरी
तरह ही, पर साहब पीछे बैठे हैं तो तत्काल मुंडी
हिलाने से काम ले रहा है और मैं इतनी अकड़ में हूँ कि चाहते हुए भी मुंडी नहीं
हिला पा रहा हूँ।
गाना
खत्म होते-होते सचिवालय आ गया, गाड़ी पोर्टिको में लगते ही अर्दली ने बाएँ हाथ से दरवाज़ा खोला और एक कदम पीछे हट कर
जोरदार सलाम मारा।
मेरी
रीढ़ थोड़ी और अकड़ गई।
फ़ाइलों
का अंबार लगा पड़ा था और मैं था कि काम
में जी ही नहीं लगा पा रहा था। एक चिड़चिड़ापन सा दिन भर तारी रहा और सालता रहा कि कैसे, आख़िर क्यों? वो भी आत्महत्या! मौत
को गले लगाने को तत्पर एक मनुष्य की ज़िंदगी के प्रति वो उदासीनता विचलित करने वाली
होती है। खबर सुन कर एक ही बात ज़हन में गूंज रही है कि जो लोग मौत को गले लगाने का इरादा कर
लेते हैं, उनके अंदर क्या-क्या
चल रहा होता है!
शाम को ऑफिस से निकला तो मन में आया गाड़ी को पॉल रेस्टोरेंट की तरफ घुमा लिया जाय, वैसे भी घर में इन दिनों अकेले ही हूँ, पत्नी का मायका जाना आज से पहले इतना नहीं खला कभी। ड्राइवर अशोक ने थर्ड गियर पर गाड़ी डाली। 5-7 मिनट में ही गाड़ी रेस्टोरेंट के सामने खड़ी थी। जाने क्या मन में आया और मैंने अशोक को कहा, - ‘भाई आज यहाँ नहीं बैठूँगा जा कर दो चिल्ड बियर की बोतल ले आओ। कुछ मूंगफली, दालमोठ जो भी मिले ले लेना।’ अशोक ने सर हिलाया और तेजी से बाहर निकला और बार के फ्लाई ऑफ शॉप की कतार में खड़ा हो गया। मेरी नज़रें कतार में लगी सभी शक्लों में कुछ ढूँढ रही थीं। मुझे लगा कि जैसे सभी के चेहरे पर अदीठ अवसाद जमा हुआ है। आने-जाने वाले लोग कतार में लगे लोगों को देखते जा रहे थे और मैं सोच रहा था कि शमशान और शराबखाना दोनों की क़तार ऐसी है कि कम ही नहीं होती! तभी आँखों के सामने अशोक आ कर खड़ा हो गया अपने दायें हाथ में किसी तरह से दो बोतलों को पकड़े और बाएँ हाथ में चिप्स और बादाम लिए हुए। एकबारगी हाथ बढ़ा कर उसके हाथ से बियर का बोतल थामना चाहा तब तक वह विंडो से आगे की सीट पर बादाम और चिप्स फेंक कर दोनों हाथ में एक-एक बोतल ले कर ड्राइविंग सीट की तरफ बढ़ गया, बियर की बोतल को सीट पर रखे टॉवेल से लपेट कर रखा और स्टीयरिंग पकड़ गाड़ी स्टार्ट करते हुए मुड़ कर मुझे देखा। मुझे लगता है पत्नी और माँ के बाद ड्राइवर है जो आपकी आधी बात बिना कहे समझ लेता है! गाड़ी पटना कॉलेज के पीछे वाली गंगाघाट पर आकर रुकी। बिना पिए कदम बोझिल थे और अशोक इन सभी सामानों के साथ मुझे एक साया में तब्दील होते देख रहा था।
समझ
में मुझे भी नहीं आ रहा था कि साधारणतः शराब नहीं पीने वाला मैं, ऐसे किस अवसाद
में आ गया कि बेवजह दो-दो बोतलें हाथ में
लिए पच्चीस साल पहले के छात्र जीवन से कदम मिला रहा हूँ। शराब पहले दिमाग खराब करती
है और फिर अवसाद का खतरा बढ़ाती है। हर साल कई लाख लोग आत्महत्या करते हैं, हम
उससे उतना आहत नहीं होते जितना कि ग्लैमर की दुनिया ....आप स्क्रीन पर जब इन
कलाकारों को देखते हैं तो लगता है कि इनकी दुनिया कितनी हसीन है... ये लोग कितनी
शानो-शौकत वाली जिंदगी जीते हैं। रुपया-पैसा, लग्जरी, रुतबा.. हर चीज़ तो इनके पास होती है,
पर सच का अंदाज़ा लगाना हमेशा की तरह मुश्किल!
मैंने कहा न बातें इतनी सरल होती नहीं जितनी दिखती हैं। खुद के भीतर क्या घुमड़ रहा है यह सही-सही सामान्य मनःस्थिति में नहीं पता चलता, कभी-कभी कुछ भीतर तरल डालना पड़ता है तभी तली में चिपका समय, उस और अवसाद से लथपथ स्मृतियाँ सब सतह तक उठ पाती हैं। जैसे-जैसे बियर मेरे हलक में उतरती गई मेरा चित्त लहरों सा डूबने-तरने लगा। कुछ ऐसे मानों स्मृतियाँ पनकौये सा डुबुक डुबुक कर रही हों और फिर उन्हीं लहरों पर तिरती जा रही हों, बही जा रही हों। घाट पर चल रही मस्त हवा मुलम्मे का अहसास दे रही थी। देर तक लहरों को देखता रहा। दो नाव दरिया के बीचोंबीच टिमटिमाती हुई, लहरों के परावर्त में झूमती हुई ज़ाम की तरह टकरा रही हैं। ऐसे नज़ारों को निहारते हुए ज़ेहन में एक साथ कई पहचानी शक्लों की आवाजाही जारी रही। अन्यमनस्कता में उठा, चाहा बहाव को और क़रीब से देखूँ! मैं घाट की आखिरी सीढ़ी पर बैठ गया। कहीं दूर से भोंपू की आवाज़ सुनाई पड़ी, लौटने की याद भी आई। किधर लौटना है स्मृतियों के विशाल घेरे में या चुपचाप बिस्तर के आग़ोश में! उठने से पहले पता नहीं क्यूँ लगा दो नाँव जो अभी-अभी देखी उसमें से एक डूब रही है, स्क्रीन झिलमिलाई और लगा मतिभ्रम है दोनों नाँव तो वहीं साथ-साथ हैं अपनी जगह एक दूसरे से चिपके।
गाड़ी में दोबारा वापसी हुई और थके कदम और
शरीर की टूटन को बैठते ही ढीला छोड़ दिया। नशा अकड़ पर भारी पड़ता है जबकि मन और
देह दोनों ढ़ीली-मुलायम। आत्महत्या का सम्मोहन शायद नशे से बढ़ कर होता होगा, क्या
मरने के बाद मरने वाला उन तमाम पलों को याद करता है, जो उसने उस भयानक रात को गुज़ारे... और फिर उसे एहसास होता होगा कि मर जाना भी उतना ही निरर्थक है, जितनी कभी-कभी ज़िंदगी...।
गाड़ी
अपनी सामान्य गति से घर की ओर बढ़ने लगी। आँखे
धीरे-धीरे शून्यता में गुम होने ही वाली थीं कि मुझे लगा अशोक नहीं मेरा कोई
हमशक्ल गाड़ी चला रहा है। मेरा
शरीर नशे में मुर्दे की तरह स्थिर था बस आँखें जिंदा थीं जो देख रही थीं गाड़ी
हमशक्ल नहीं दरअसल मैं ही चला रहा हूँ। ये क्या हो रहा है मुझे रह-रह कर बीस साल
का रिवर्स गियर लग जाता है। धीरे-धीरे वर्तमान नेपथ्य में चला जाता है। फ़्लैशबैक का फ़्लिप-फ़्लॉप हावी हो रहा था ......।
हाँ, सच है कि मैं बीस बरस पहले इसी शहर में रेलवे के एक अधिकारी की गाड़ी चलाता था। शर्मा जी वरिष्ठ वाणिज्य अधिकारी
दानापुर मंडल में पदस्थापित थे और उनका घर पटना के मछुआ टोली में था। दो प्यारी
बेटियाँ थीं। पत्नी और माँ के साथ रहते थे। उनके पिता जी की मृत्य के तुरंत बाद कोलकाता से अपना ट्रांसफर पटना करवाया था। माँ
ज़िद पर अड़ी थीं कि इतने साल पटना में ही बिताया है तो यहीं से बैकुंठ धाम की
यात्रा करेंगी। पैतृक भूमि से लगाव एक उम्र के बाद बढ़ ही जाता है।
शर्मा
जी घर वालों के लिए तो जरूरत से ज्यादा ही
सज्जन थे। पत्नी स्वाति उत्तर प्रदेश की, सुंदर-सुशील गुणी, छोटी बेटी चुनमुन 13 साल की गुड़िया जैसी गोल मटोल और बड़ी
बेटी सोलह की ग्यारहवीं में पटना वुमन्स कॉलेज की छात्रा। नाम रेखा जिसकी कोई रेखा नहीं। उन्मुक्त जिंदगी, बेलौस
जुबान, फिक्र उससे
कोसों दूर... कुल मिला कर घर की सबसे बड़ी चिंता का सबब!
बहरहाल
शर्मा साहब का काम एक गाड़ी से नहीं चल सकता था। आफिस की गाड़ी का ड्राइवर मैं था
और घर क़ी गाड़ी का ड्राइवर राम सिंह, दो दिन पहले ही गाँव भाग गया था। जाते जाते उसने मुझे कहा था किसी दिन
रेखा बीबी पिटवा देंगी, साहब
को बताना मुश्किल है इसलिए मैं कोई और नौकरी ढूँढ़ लूँगा पर अब यह नौकरी न हो पाएगी। मैंने हँस कर पूछा था राम सिंह ऐसी भी क्या समस्या है तो उचकते हुए जवाब दिया था
रोज़ गाड़ी में नया दोस्त बैठता है फिर उसके घर चली जाती हैं। लौटने का कोई समय नहीं, साहब हमारे गौ टाइप हैं। इत्तो न
सोचते जवान बेटी को थोड़ा बाँध कर रखा जाय, इत्ता ढ़ील ठीक नहीं!
राम
सिंह के जाने से मेरी जान पर बन आयी। मैं
इग्नू (IGNOU) से
पढ़ाई कर रहा था और पहले
मैं साहब को ऑफिस में पहुँचा कर इत्मीनान से अपनी पढ़ाई करता रहता। साहब का पूरा
समय दानापुर डीआरएम ऑफिस में कटता। शाम को घर लौटने पर उनके
ही आउट हाउस में एक ही कुकर में चावल-दाल-चोखा का आधे घंटे का काम और आधे घंटे
में खाना खाना और फिर से पढ़ाई। मेरी दिनचर्या में यह कार्यक्रम इस तरह घुल गया था
कि राम सिंह का जाना मेरे लिए दोहरी मार साबित हुआ। अब
मुझे साहब को ऑफिस छोड़ कर घर, स्कूल और रेखा बेबी की अतिरिक्त सेवा में ऑफिस
से लौटने के बाद भी लगा रहना पड़ता। रात होते-होते देह इतनी चूर हो जाती कि ख़ाली सत्तू पी कर भूख मिटानी पड़ती
पर मैं इसके बावजूद सुबह उठ कर
पढ़ता। मैं
लगातार मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करता कि कोई भी नया ड्राइवर अगर साहब को मिल
जाये तो मुझे राहत मिले और फिर से मैं अपनी पढ़ाई जारी कर सकूँ। मेरे पास बिहार के
गाँव से पटना आए अन्य लड़के की तरह और कोई विकल्प नहीं था। लक्ष्य बिल्कुल साफ था पढ़ाई
करनी है और साहब की तरह ही बड़ा आदमी बनना है।
बड़ा आदमी बनना महज एक ख़्वाब नहीं था बल्कि मेरी वापसी का रास्ता भी था। सात साल की उम्र में जिस जगह से मैं भागा था वह अवचेतन में हमेशा मेरे साथ रही। जगह भूल भी जाता पर माँ को कैसे भूल पाऊँगा। एक दिन दानापुर स्टेशन पर भटकते हुए बबलू मिला और पता चला माँ आज भी अकेली बड़हिया में जमींदार के घर के बर्तन बासन में लगी हैं।
पिता
सरकारी प्राथमिक स्कूल में चपरासी का काम करते थे। एक दिन स्कूल के हेडमास्टर राम
चरन सिंह ने लकड़ी की टूटी-फूटी कुर्सी-टेबल
को गोदाम से गायब करवाया और बाद में हल्ला
होने पर सबसे कमजोर आदमी पर इल्ज़ाम भी लगाया। पिता को इलहाम तक नहीं था कि बिना
जाँच-पड़ताल के उन्हें अविलम्ब निलंबित कर दिया जाएगा। इस आक्षेप का असर पिता के
मानसिक संतुलन पर पड़ा। जो लोग जानते थे वे भी चुप बैठे रहे। पिता की हरकतों में एक अजीब सा परिवर्तन दिखने लगा।
अन्यमनस्क रहने लगे। धीरे-धीरे पत्नी और बेटे
को भी भूल गए। कहीं भी बैठ जाते, दिन भर गांव की चौकड़ी में घूमते रहते।
प्रलाप करने लगे। मुझे कई बार खोजने के लिए दिन भर भटकना पड़ता। मैं उसी स्कूल
में पढ़ता था और ‘चोर का बेटा
चोर’ सुनते सुनते
अब कान बोथरा गया था।
बहुत
जल्द उन्हें लोग पगला बाबा कहने लगे। एक दिन अचानक पगला बाबा बौरा गए और पोखर में
तैरते हुए पाए गए। मरने वाला आदमी जीने की जद्दोजहद में लगी दुनिया को मूर्ख
समझने लगता है। उसे लगता है कि कितने बेवक़ूफ़ हैं ये लोग, जो ज़िंदगी जैसी ‘फ़ालतू’ चीज़ के मोह में पड़े हैं। उसे ख़ुद
के फैसले पर गर्व होता है कि उसने बेवक़ूफ़ होना कबूल नहीं किया। बल्कि इस सबको
ठोकर लगाने का जिगरा है उसके पास।
असल
में उनकी लाश उल्टे मुँह थी और उनके सर पर कौआ अपना आहार चुग रहा था। बंशी काका एक
मात्र आदमी मिले जिन्होंने पानी से लाश को खींच कर निकालने में माँ की मदद की। जब
बाबा को देखा तो मुँह दोगुना फुला हुआ था और सिर पर बहुत सारे चोंच मारने के छेद
थे। पता नहीं क्यों
मैं उस उम्र में भी रो नहीं सका और बाद
में यह लत ऐसी लगी कि तब से ऐसी कोई परिस्थिति नहीं आई जो मुझे रुला सके। माँ ने
वहीं नदी के किनारे लकड़ी इकट्ठा की। कमल के ढेर सारे जड़ और लता वहीं सुख रहे थे। मैंने सबको समेटा और पिता को धूं धूं जलते देखा। माँ रो तो रही थी पर कई घंटे पलक
नहीं गिरी, शायद इसी को
पत्थर होना कहते हैं।
दूसरे
दिन भोर पहर ही मैंने एक पत्थर का ढेला हेडमास्टर राम चरन सिंह के सिर पर दे मारा। सिर फट गया और खून बिलबिला कर सफेद
कुर्ते पर भारत के मानचित्र जैसा फैल गया। सब लोग ढूंढ रहे थे किसने चलाया पत्थर और
मैं सबकी नज़रों से दूर पहली ही रेलगाड़ी, पटना किउल पैसेंजर के पायदान पर
बैठा था। मेरी साँस उसाँस हुई जा रही थी। बस माँ को दो लाइन लिख कर घर से निकला आया
था कि लौट कर आऊँगा ‘जिंदा रहना’।
ट्रेन
पटना पहुँचते ही बिना टिकट यात्रा के जुर्म में पकड़ा गया और टी. टी. के लाख पूछने पर जब एक शब्द मुँह से नहीं निकला तो
मुझे स्टेशन मास्टर के कमरे के बाहर आर.पी.एफ. के हवाले कर दिया गया। संयोग से
शर्मा जी जो उस समय सहायक वाणिज्य प्रबंधक, दानापुर के साथ स्टेशन अधीक्षक के अतिरिक्त प्रभार होने के
कारण स्टेशन निरीक्षण के लिए आए हुए थे उनकी नज़र मुझ पर पड़ी और मेरी मासूम
शक्ल ने जाने क्या जादू चलाया कि वो मुझे लिए अपने कक्ष में घुस गए। आराम से
बिठाया, खाना मंगवाया
और फिर पूछा क्यों बिना टिकट के यात्रा कर रहे थे? कहाँ से आ रहे हो?
मेरे चेहरे पर भय नहीं था जो उनकी उत्सुकता को गुनाबद्ध किये दे रहा था। मैंने बड़ी मुश्किल से जवाब दिया "पढ़ना" है। ऑफिस स्टाफ को बुलाया गया और रजिस्टर से मेरा नाम काट दिया गया। तब से मैं शर्मा साहब के सर्वेंट क्वार्टर में रह रहा हूँ।
पढ़ने की कभी कोई कमी शर्मा साहब ने नहीं होने दी, उनके यहाँ मैं नौकर कम और परिवार का
सदस्य ज़्यादा बन गया था। हालांकि मेरी पढ़ाई वाली बात कुछ सालों तक उनके ज़ेहन
से उतरी रही। मेरे सामने देखते-देखते उनकी शादी हुई, दो बच्चे हुए और दोनों को पालने में
अपनी अल्पायु के बावजूद मैंने स्वाति मैडम का हाथ बँटाया। उनके खेलने का घोड़ा, गधा, पंचिंग बैग सब मैं ही था। शर्मा साहब के साथ कलकत्ता, धनबाद, आसनसोल हर जगह की खाक छानी। देर से
ही सही उन्होंने मेरी पढ़ाई की व्यवस्था भी करवा दी। कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर
उन्होंने मुझे पढ़ने नहीं दिया होता तो मैं
भी आज बबलू की तरह रिक्शा चला रहा होता।
अररर्र
लो ये क्या! मैं तो आपको अपनी आपबीती सुनाने लगा जबकि कहानी कुछ और ही है, तो कहाँ था मैं, हाँ ड्राइवर राम
सिंह के जाने का ख़ामियाजा अपनी
पढ़ाई की क्षति से उठाना पड़ रहा था। अर्जुन
सा ध्येय लिए अब तक जीने के बाद हार तो नहीं ही माननी थी।
तीन
दिन बीत चुके थे और
शरीर
की स्थिति चरमराती खटिए सी हो गयी थी जिसका अस्थि पंजर ढीला हो चुका हो और फिर भी रोज़ाना
उपयोग की जा रही हो। इस लगातार की डबल ड्यूटी
से पूरी तरह टूट गया था और मेरी पढ़ाई का हरजाना भरपाई के कोई आसार
नहीं नज़र आ रहा था, इसके
बावजूद शर्मा साहब से एक भी शब्द कहने की
इच्छा और हिम्मत दोनों ही नहीं थीं। उनके सामने तो मैं नज़र भी नहीं उठाता और वे
तो वैसे ही सारी बातें नज़र गिराए आँखों में भी पढ़ लेते, तो इस बार देर क्यों? एक दिन ऑफिस से लौटते वक्त साहब
थके मन से कह रहे थे रेखा बड़ी हो रही है। ड्राइवर देख कर रखना, सब तुम्हारी जैसी नज़र
वाले नहीं होते। सुन कर एहसान के साथ-साथ उनके भरोसे तले थोड़ा और दब गया। शर्मा
साहब बात तो ठीक ही कह रहे थे, मैंने अपने आपको दिलासा दिया।
साहब
ने दानापुर से अचानक लौटते वक्त कहा चलो स्टेशन का औचक निरीक्षण कर लेते हैं। बहुत
शिकायत मिल रही है साफ सफाई की। रेल मंत्री भी पटना से ही हैं कभी भी स्टेशन पर आ
जाते हैं। उनके पास उनका अपना ही तंत्र है जानकारी इकट्ठा करने का। कई बार प्यार
से बात करते-करते गाली-गलौज पर उतर आते हैं। खैनी खाते-खाते आपको सरकारी अधिकारी से
बड़ा बाबू बना देते हैं। राजनीति की अपनी मजबूरियाँ और अपने खेल होते हैं।
मैने
स्टेशन के भीतर वाले हिस्से में गाड़ी ले जाने के ख्याल से गोल चक्कर लिया तो शर्मा
साहब ने वहीं हनुमान मन्दिर के पास गाड़ी खड़ी करने को कहा। कहा, अगर गाड़ी देख
लेंगे तो सब सतर्क हो जाएंगे। हम लोग गाड़ी को मंदिर के पास ही लगा कर पैदल स्टेशन
की ओर चल दिये। नज़ारा बिल्कुल
भिन्न था। शाम की बेला ठसाठस
उमड़ी भीड़ पटना स्टेशन पर रेंग रही थी, कागज़ भर की दूरी नहीं आदमी-आदमी के बीच,
मर्द औरत सब बस एक दूसरे को ठेलते हुए निकलते जा रहे हैं। मैंने साहब की ओर
प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हुए कहा साहब ऐसे में कैसे सफाई और कैसे निरीक्षण होगा? कैसे मशीन
चलेगी! पैर रखने की
जगह जहाँ नहीं हो वहाँ डोलची ले कर कौन गंदगी बीनेगा।
पर
साहब को पता था औचक निरीक्षण कैसे करना होता है। स्टेशन मास्टर के कमरे में नहीं
जा कर सीधे हेल्थ इंस्पेक्टर के कमरे में घुस गए। उन्हें असमय सामने देख कर हेल्थ
इंस्पेकटर सिया राम महतो ऐसे अकबका गया
मानो सांप सूंघ गया हो। सबसे पहले रोल कॉल किया। एक एक आदमी का नाम बैज कपड़े का
रंग सब मिलाया।
आठ
लोग नदारद, चार के बदले उनके
रिश्तेदार और उप
अधीक्षक भांग चढ़ाए। बस साहब का पारा आसमान
पर, बदहवासी महतो के चेहरे पर भी थी। दो चार लोगों को अविलम्ब छुट्टी पर भेज दिया
गया और जिनके रिश्तेदार काम कर रहे थे, उन्हें निलंबित करते हुए सतर्कता विभाग को
जाँच के आदेश दे दिए गए। पूरे
स्टेशन पर अचानक सन्नाटा छा गया। लग ही नहीं
रहा था कि भीड़ कहाँ गुम हो गयी। अपने आप आर.पी.एफ. वाले प्रकट हो गए। लोग
क्रमबद्ध चलने लगे, अनाउन्स्मेंट
दुरुस्त हो गया। देखते ही देखते चूहे की तरह बिल से सौ से ज्यादा कर्मचारी प्रकट
हो गए।
स्टेशन
मास्टर हरी ओम दुबे ने रोनी सूरत बनाते हुए कहा सर आप महीने में एक दो दफा आ जाया
कीजिये। मैं तो खेत की मूली हो गया हूँ कोई सुनता ही नहीं मेरी। शर्मा जी ने
बिल्कुल ठंडी सांस छोड़ी तो स्टेशन मास्टर को लगा मामला शांत हो गया है फिर गंभीर
आवाज़ में साहब ने बिल्कुल पास जा कर दुबे जी को कहा भाई अगली बार तो तुम तैयार रहना। क्योंकि
कोई भी गड़बड़ मिली तो सबसे पहले तुम्हें दबोच लूँगा। बोलते वक़्त शर्मा साहब भूखे
शेर ज्यादा लग रहे थे। इतने गाय जैसे आदमी को शेर बनते हुए देख मुझे भी गर्व हुआ
कि मैं इनके ही सान्निध्य में रहता हूँ। फिर दोनों स्टेशन मास्टर के कमरे में चले
गए और मैं बाहर ही खड़ा रहा। चपरासी ने याचक दृष्टि से देखते हुए अपनी छोटी
सी टेबल पर बैठने का अनुग्रह किया तो मैंने
कहा, नहीं काका आप ही बैठिए, पर वो बिना कुछ बोले भीतर चाय-पानी देने चला
गया। अब मैं चैंबर के बाहर और सब मुझे ऐसे घूरे जा रहे हैं जैसे साहब को स्टेशन
पर लाने का पाप मैंने ही किया है। तभी मेरी नज़र बगल में ही मोटे से रस्से में बंधे एक 18 साल के युवक पर पड़ी। बेहद सुंदर, गोरा, बाल लंबे, कपड़े फटे हुए पर साफ ,चंचल आँखें! उसे देखते ही मुझे अपना
पुराना दिन याद आ गया। 7-8 साल का बच्चा ही तो था मैं। तब न चाहते हुए भी मैं उसमें
खुद को देखने लगा और स्वतः उसकी ओर खिंचा चला गया, पूछ बैठा कैसे? कब? कौन लाया यहाँ तुमको?
बगल में सुरती झाड़ते सिपाही ने कहा डब्लू. टी. है। अभी केस बनेगा। साहब चले जाएँ तो जेल भेज देंगे साले को। बिना पूछे रहा नहीं गया तो उसने बताया कि नाम धनंजय है। जीरो माइल का रहने वाला है। अनाथ है और नौकरी के चक्कर में पटना आया है। मैंने तपाक से पूछा ड्राइवरी जानते हो तो वो मुस्करा दिया और सिर खुजलाते हुए हाँ में दो तीन बार पूरा चेहरा ऊपर नीचे हिलाया। तभी मेरी नज़र उसके सिर पर लगी चोट पर गयी, पूछने पर बताया पटना आउटर पर ट्रेन से हड़बड़ी में कूद गए थे। सीधे पोल से टकराए, हल्की-फुल्की मामूली चोट है कोई बड़ी बात नहीं है।
मैंने
राहत की साँस ली और दरवाज़ा नॉक करते हुए चैम्बर के भीतर घुस गया। दुबे जी को डांट पड़ रही थी। शर्मा
साहब थोड़ा अचकचा गए मुझे इस तरह भीतर आते देख कर, जिसका मुझ पर कोई असर नहीं पड़ा, मेरे सिर पर कुछ और ही सवार
था। मैंने दुबे जी को बस एक मिनट वाला इशारा किया कि साहब से एकांत में जरूरी बात करनी है। दोनों के चेहरे का भाव खिन्न कुपित सा हो
गया था पर शर्मा साहब ने दुबे जी को इशारा किया कि आप सोफे पर जा कर बैठ जाइए मैं
इसकी बात सुन लेता हूँ।
मैंने
फुसफुसाते हुए साहब को कहा कि नया ड्राइवर मिल गया है, सुन कर पहली प्रतिक्रिया मुस्कराने
की थी पर अगले पल बोले- ‘कहाँ
है’?
मैंने
तपाक से जवाब दिया- ‘बाहर
ही बैठा है अनाथ है। टिकट नहीं था उसके पास।’
साहब
बोले –‘तुम कैसे जानते
हो’?
मैंने कहा – ‘बस अभी बात हुई बाहर।
‘उमर क्या है?’ - साहब बोले।
मैंने
कहा – ‘18-19’
‘तब तो अभी-अभी
ड्राइवर बना होगा।’
मैंने
कहा - ‘नहीं ! 14 साल की उमर से गाड़ी चला रहा है
हमको बताया है सब। बाकी मैं उसे सिखा दूंगा, खाना रहना सोना सब मेरे साथ।’
पर
उनकी आंखों में प्रश्न बना रह गया। शायद उसकी उमर को ले कर वे बिल्कूल सहज नहीं थे।
मुझे भी सहसा आवाज़ सुनाई पड़ी कि सब तुम्हारी नज़र वाले नहीं होते।
तपाक
से मैं बोल पड़ा-
‘साहब
सब जिम्मेदारी मेरी, मैं सब सिखा दूँगा।’
थोड़ी देर के लिए चुप रहे, फिर कहा बाहर
इंतजार करो। मैं बाहर आया, मानो धनंजय की नज़रें मेरा ही इंतज़ार कर रही थीं। मेरी
आँखों की चमक को उसने पढ़ लिया, उसके चेहरे की उद्विग्नता कम होने लगी। तभी
अर्दली ने मुझे और धनंजय को अंदर बुलाया। चेहरे पर एक भोलापन था पर उसकी आँखों
के भाव पल-पल में बदल रहे थे। सलोने युवा को देख कर साहब मेरी तरफ मुख़ातिब हुए ही
थे कि धनंजय रो पड़ा और अब मेरे लिए कुछ भी कहने को शेष नहीं बचा।
शर्मा
साहब थोड़े अनमने ढंग से सिर्फ यही बोल पाए "ठीक है-ठीक है"!
मेरी
तो बल्लियाँ उछल पड़ीं। सिर्फ इसलिए नहीं कि मुझे दोहरे काम से छुटकारा मिला बल्कि
इस बात के लिए भी कि धनंजय जेल जाने से बच गया। वहाँ से वह हमारे साथ ही बंगला पर
आया और मेरे साथ सर्वेंट क्वार्टर में ही रहने लगा। विश्वास जमाना कोई दही जमाने
जैसा नहीं होता कि तुरन्त भरोसा जीत लिया जाए, वक़्त चाहिए होता है। मुझे घर की
ड्यूटी पर और धनंजय को ऑफिस की ड्यूटी पर
लगाया गया। कुछ दिन सब सामान्य रहा पर शहर का पूरा ज्ञान नहीं होने के कारण शर्मा
साहब को एक दो मीटिंग में देर हो गयी। तदुपरांत ही वह घर की ड्यूटी बजाने लगा और मैं
फिर से अपनी रोजाना की ड्यूटी पहले की तरह बजाने लगा। मेरी पढ़ाई फिर से पटरी पर वापस आ चुकी थी।
धनंजय
की पढ़ने लिखने में कोई रुचि नहीं थी। फिल्मों
में बहुत मन रमता उसका,
रह-रह कर रस भरे गाना गाने लगता, ज्यादातर प्रेम गीत। मन भोला था। फिल्मी
और भावुक बातें ज्यादा करता। धीरे-धीरे गाड़ी चलाने के साथ-साथ घर के काम में भी
हाथ बंटाने लगा। कभी सब्जी ले आता और कभी सब्जी काट भी देता। जरूरत पड़ने पर
बर्तन बासन भी कर देता। स्वाति मैडम उसे अब बहुत मानने लगीं और साहब से छुपा कर कुछ रुपये भी
पकड़ा देतीं।
साहब
जब ऑफिस से लौटते तो बिना समय गवाएं मैं अपनी पढ़ाई में लग जाता जबकि धनंजय साहब के
जूते साफ करता और उनकी मालिश बजाता। एक महीने में ही उसने, सिवाय रेखा बेबी
के, सबका दिल जीत लिया। वह जितनी भी
कोशिश करता रेखा उसे उतना ही दुत्कार देती। क्या समस्या थी उन दोनों के बीच यह
मेरी समझ से बाहर था। मेरे लिए भी धनंजय का आना ऊपर वाले के वरदान से कम नहीं था।
वह समय निकाल कर मेरे लिए भी सब्जी बना देता, चावल हम में से जिसे भी समय मिलता
गरम-गरम पका लेते। माड़-भात उसे बहुत पसंद था और अब मुझे भी! रविवार के लिए अंडा
करी मेनू का फ़िक्स आइटम हो चुका था। दरअसल जिस चीज में समय बचे और मेरी पढ़ाई में
सहायक हो वो मुझे वैसे भी पसंद होती थी।
तीन
महीने बीत चुके थे, घर पूरी तरह धनंजय पर आश्रित होने लगा था। काम में इतनी
फुर्ती थी कि आश्चर्य होता एक साथ इतने सारे काम कैसे कर लेता है। कपड़े धोने वाली
जमुना काकी की छुट्टी कर दी गई। उसके पैसे भी धनंजय की तनख्वाह में जुड़ गए। स्वाति
मैडम की विशेष अनुदान राशि और धनंजय की ख़ुशी दोनों में इज़ाफ़ा होता गया। रेखा के
गुस्से का कोई भी असर उस पर नहीं पड़ता। कमल का पत्ता था कोई तरल उस पर टिकता ही नहीं और रोज
सवेरे वह उतना ही खिला हुआ नज़र आता। कुल मिला कर कहें तो घर के लिए हर मर्ज़ की एक
दवा, हर समाधान का मरकज़ एक यानी कि धनंजय।
रविवार
का दिन था, मैंने उससे यूँ ही पूछ लिया बीती
जिंदगी के बारे में। पहली मुलाकात में तो उससे जो भी
व्यक्तिगत अंतरंग बातें हुईं वो इतनी हड़बड़ाहट और जल्दबाज़ी में हुई थी कि 'अनाथ’
शब्द से ज्यादा आगे हम बढ़ ही नहीं पाए थे। मैं भी उसको अपने छोटे भाई की तरह मानने लगा था। इसलिए जिज्ञासा और बढ़ती जा रही
थी। उसे जानने और ज़्यादा से ज़्यादा समझने की, हमें अभी लंबे समय जो साथ रहना था।
वह अपने बारे में कुछ भी बताने से कतराता रहता था पर आज मेरी नज़र की ईमानदार
गुज़ारिश देख कर शायद उसको मुझ पर प्यार आ गया।
चमकती
हुई आँखों ने गहरी आवाज़ में डूब कर अपनी आपबीती सुनानी शुरू की, - ‘भैया दरअसल मेरी माँ बचपन में मर गई
थी और मेरे बाप ने दूसरी शादी कर ली। इतना कह कर ही उसने सच्चाई को एक झटके से निरावृत कर दिया था। वो
बिना रुके एक साँस में अपनी कहानी परतों में अनावृत किए जा रहा था ............।
दरअसल
दोनों की उम्र में बहुत अंतर है और आज भी मेरा बाप जिंदा है। जीरो माइल में रिफाइनरी के बाहर चाय की दुकान चलाता है। मेरे बाप ने मुझे कभी पढ़ने नहीं दिया। हमेशा ज़िद करता रहता चाय की दुकान पर काम
करो, पीछे पड़ जाता और नहीं जाने पर बहुत मारता। साथ में शुद्ध देशी गालियों की
बौछार! ऐसी विषम स्थिति से मेरे मामा हमेशा मुझे बचा कर ले जाते। वे भी वहीं रहते
हैं। दरअसल मामा ने ही वो दुकान खुलवाई थी जब माँ ज़िंदा थीं, पर जब से मेरे बाप
ने दूसरी शादी कर ली, मामा
ने आगे की मदद से मुँह फेर लिया। शरीर उस
घर में रहता था, मैं नहीं। बचपन से मामा-मामी
के घर में ही मेरा ज्यादा समय बीतता। ममेरी बहन है एक, प्रिया, कोलकाता में काम
करती है, बचपन से ही मुझे बहुत मानती रही है। इस बात से भी मेरे बाप को नाराज़गी
रहती।
धनंजय थोड़ी देर तक स्मृति शून्य रहा। मानो वह जीरो माइल से वापस लौटते हुए कहीं रास्ते में खो गया हो। मैंने उसके कंधे पर स्नेह भरा हाथ रखा। उसका कंठ बार-बार सूख रहा था। थोड़ी साँस और थोड़ा पानी स्मृति के अगले गोते के लिए काफ़ी था।
धनंजय ने फिर से कहना शुरू किया – ‘मैं पंद्रह साल का हो चुका था। पिता
बाहर रहते, उनकी पत्नी और मैं घर पर रहते। मेरी कोशिश रहती उनसे जितना दूर रह सकूँ
रहूँ। वो ख़ुद बहुत ही गरीब घर से थीं। उनके पिता ने मेरे 43 साल के मेरे बाप के
साथ सुनयना जी को 16 साल की उम्र में ही बाँध दिया था, जबकि मेरी उम्र 12 की
रही होगी उस समय। वह मुझसे बात तक नहीं करतीं बस जब भी खाना देना हो तो कुछ
फुसफुसाहट सी सुनाई पड़ती जिसे बेआवाज़ी ही कहा जाये तो बेहतर है। एक कमरा और उसके
ओसारे में हम सब बँटे हुए थे। बाप मेरा
चाय बेचता और दारू पीता, घर
लौटता तो कभी खाना खा कर, तो कभी बिना खाए ही लुढ़क जाता। जिस दिन वो
खाना खाता सुनयना जी उसके साथ ही खातीं। पर जिस दिन वो बिना खाए लुढ़क जाता उस दिन
मुझे खिला कर ही खातीं। गरम
चपाती देते वक्त गरम सिसकती साँस की अनकही भभकी भी मेरे पास घुली हुई रहती। वह शायद ही बात करतीं मुझ से। सिर
हिलाना हम दोनों के बीच की बातचीत का पर्याय
था। कभी-कभी मेरा बाप रहे दोपहरी घुस आता और दरवाज़ा बंद कर लेता। सुनयना जी की
अजीब सी घुटी आवाज़ मेरे बाप की हिचकी जैसी आवाज़ में मिल कर आती। अजीबोग़रीब गडमड
आवाज़ें मुझे वितृष्णा से भर देतीं। बाहर खटिया पर लेटे हुए कान बंद कर लेता! पर
जब कान खोले रखता तो ऐसा लगता मेरे माथे के ठीक बीचो-बीच ओखल से सीधी टप-टप बूंदे
गिर रही हैं और स्थिति ऐसी कि सिर को मैं हिला भी नहीं पा रहा। आवाज़ दर आवाज़
बूँदे माथे में कीलित होती हुई प्रतीत होतीं। मैं भाग कर पोखर में छलांग लगा देता
और घंटों तैरता। जब थक जाता तो भीगा-भागा खटिया पर ही
सो जाता। कपड़े वैसे ही पड़े-पड़े सूख जाते। एक दो बार वहाँ सूखा गमछा
पड़ा हुआ मिला, जाहिर है मेरे
बाप ने तो नहीं ही रखा होगा।
इन्हीं
घुटी हुई आवाज़ो से डर कर घर से बाहर काम ढूँढने लगा ताकि घर और पिता की नज़र से
दूर रह सकूँ।चौदह साल की ही उम्र से ईंट ढोने का काम करने लगा। जो भी पैसा
कमाता चुपचाप उसे रसोई में ले जा कर रख देता। धीरे-धीरे मामा के घर भी जाना बंद हो
गया। धनंजय ने बताया- ‘ईंट
ढोते-ढोते ट्रैक्टर वाले से दोस्ती हो गई और अगर एक बार आपने ईंटों से भरा ट्रैक्टर चला लिया तो कोई भी गाड़ी चलाना आसान
है। चौदह-पंद्रह की उम्र में मैं ड्राइवर बन गया और फिर इसी क्रम में ट्रेकर मिल गया चलाने को। सब कुछ तेज़ी से बदल रहा था।जीरो माइल से बड़हिया और बरौनी का रोज
का राउंड ट्रिप। कभी-कभी अशोक धाम का भी ट्रिप मिल
जाता तो मैं वहीं रात को रुक जाता। बाबा के पास इतनी शांति मिलती कि बता नहीं सकता। मुझे बताया गया कि वो शिवलिंग तीन फ़ीट का है और रावण ने जमीन पर रखा तो
यहीं रह गया।’
धनंजय की बात सुन कर मैंने सोचा कि इतना बड़ा शिवलिंग उस सुनसान में किसने स्थापित किया होगा, रावण सुन कर तो मेरी हँसी ही छूट गई। इस देश में हर दंत कथा के साथ दो तीन जगह का नाम जुड़ा हुआ होता ही है।बाद में पता चला 7 अप्रैल 1977 को अशोक नामक एक लड़के ने जमीन के नीचे विशालकाय शिवलिंगम की खोज की जब वो गिल्ली डंडा खेल रहा था। कभी-कभी लगता है हमारे देश के पुराण मिथक अफवाहों के पैरहन पहने घूमते फिरते रहते हैं तो कभी मिथक और साक्ष्य के द्वंद में पैरहन के चिथड़े मिलते हैं।
धनंजय बोलता जा रहा था- ‘अशोक धाम में साधुओं के साथ अब गांजा भी पीने लगा, वहाँ पर मैं उसी अशोक से भी मिलता जिसने गिल्ली डंडा खेलते समय इस शिवलिंग को खोजा था। मंदिर में अब मैं ज्यादा रहने लगा और मालिक को मैंने समझा दिया कि गाड़ी अब अशोक धाम-लखीसराय-बड़हिया-जीरो माइल के रूट में चलाऊँगा। मालिक राजू यादव को सिर्फ पैसे से मतलब था और उसका समय के साथ मुझ पर भरोसा भी बढ़ता जा रहा था। रविवार को जब पैसे मालिक को देने आता तो, घर में भी जाता! रविवार को सुनयना जी हमेशा कुछ अच्छा बना कर रखतीं, उन्हें पता था मुझे इचना मछली बहुत पसंद है। धीरे-धीरे वो मेरी हर पसंद को समझने लगी थीं जबकि संवाद के तरीक़े में कोई बदलाव नहीं आया था। बदलाव बस इतना था कि जब भी मेरा बाप घर पर नहीं होता और मैं घर आता तो उस मौन में कई उफानी आवाज़ें आतीं। मैं जब मगन हो कर इचना का मज़ा लेता रहता तो वे दूर से ही देख तृप्त हो रही होतीं और जब गरम भात परोसा जाता तो उसमें ऐसी खुशबू होती जैसी पारिजात में होती है या शायद चमेली और हरसिंगार बारी-बारी से मेरे साँसों में उतर रहे होते। जिसे मैं बस महसूसता, पहचान नही पाता और मुग्धता में हर बार बचे पैसे वहीं अंधे कमरे में छोड़ निकल आता।
धनंजय
अपनी आपबीती सुनाते हुए खुद भी थोड़ी देर के लिए अंधे कमरे में खोया रहा। बातचीत
करने के दौरान मैंने चाय बना ली थी। उसके हाथ में कप देते हुए पूछ डाला कि – ‘पिता से मुलाकात नहीं होती थी’?
‘रविवार को विरले
ही ऐसा होता जब वो घर पर मिलता, शायद वो ताड़ी मार कर वहीं ताड़ीखाने में सो जाता
होगा जबकि रिफाइनरी रविवार को बंद रहती, पर कभी-कभी तो उस मनहूस की शक्ल देखनी पड़ ही जाती। जैसे-जैसे दिन बीते मेरा घर लौटना
और कम होता गया। अब मेरे बाप का पचासा लगने वाला था और मेरी उम्र अठारह की हो गई
थी। खैनी, गांजा, सिगरेट, तम्बाकू, भांग या ताड़ी ऐसी कोई भी चीज़ नहीं
बची जो अशोक धाम में रहते हुए नहीं पी मैंने। बस शराब ने मुझे बख्श रखा था। कम
उम्र में पैसा हाथ लगे और कोई रोकने-टोकने वाला न हो, तो सारी सीमाएँ आसानी से
टूटती चली जाती हैं और बने बाँध भी ढहने लगते हैं।
अब
अशोक धाम मेरा घर बन चुका था और सिर्फ रविवार को जीरो माइल में एक या दो घंटे
दोपहर के खाने के लिए जाता। अब मैं पूरी तरह शिव भक्त बन गया था। चार बजे सुबह
ही उठ कर शिवलिंग के आसपास की सफाई करता। सारे बेलपत्र और दूध के छींटे साफ करता।
कुएँ से रोज कम से कम चालीस-पचास बाल्टी पानी भरता, सभी कहते सूक्खड़ हो कर भी इतना काम
कैसे करता है तो मैं कहता सब भोले की कृपा है।
एक
दोपहर यूँ ही गाड़ी के मालिक राजू भैया को महीने का हिसाब दे कर बाकी पैसे सुनयना जी
को देने चला गया। उन्हें कैसे पता चल
जाता है कि आज मैं आने वाला हूँ। इस पूर्वाभास की गुत्थी को आज तक मैं समझ नहीं
पाया। दरवाजा खुला तो इस बार पहली बार अदीठ घूंघट से कोई झाँकने की कोशिश कर रहा
था। पहले होंठ दिखे फिर पृथुल नयन और फिर फैली मुस्कराहट।
हाथ
पैर धोया तो चाय आ गई। पीछे
से इचना के भुनने की सुगंध, जो सरसों से लिपट कर बावली हो रही थी, मिर्च और काली
मिर्च, नमक और हल्दी से लिपट कर हवा में तीखा झांस फैला रही थी। इस बार अनायास मैं
पहली बार पूछ बैठा आपको पता कैसे चलता है मैं आने वाला हूँ या आप रोज़ इचना बनाती
हैं? असमंजस में डूबी एक मीठी सुरीली आवाज़ तैरती हुई गुजर गयी ‘आप अगर रोज़ आएँगे
तो इचना रोज़ ही बन जायेगा’।
इस
उत्तर ने मेरे प्रश्न की भूख को शान्त नहीं किया, शायद पहला संवाद जरूरी होता है उसके
बाद तो जैसे बांध ही टूट जाता है। हम घंटो बात करते रहे, फिर भूख ने बातों के क्रम को तोड़ा, अब मैं ओसारा से भीतर कमरे में आलथी-पालथी मार कर खाने का आसन बना चुका
था। सुनयना जी बहुत
स्नेह से खाना परोस रही थीं, प्याज के दो फांक और दो आँखे संतुष्टि भरीं, माछ-झोर और भुजा-माछ दोनों थाली में
आ चुका था। उसना चावल
देकची से सीधे मेरी थाली में आते ही मैं टूट पड़ा खाने पर और मुझे देख रसोई से कोयल
और बुलबुल की मिली हुई हँसी खिलखिलाती हुई गूँज गई। मैं खाने में मगन था और वो
मुझे देखने में! वो ऐसे देख रही थी कि मानो मैं सरसों माछ नही, कृष्णा माखन खा
रहा होऊं!
हंसते
हुए उन्होंने कहा ‘क्या पूरे मुँह पर
सरसों लगा लोगे। आराम से खा लो’! खाने में क्या हड़बड़ी! मैंने अनायास बस इतना ही
कहा - भात और चाहिए,
वो
देकची ले कर इतनी तेज दौड़ी कि देकची का पूरा चावल मेरी थाली के बाहर और मेरे आलथी-पालथी
पर भी बिखर गया। हड़बड़ाहट में बिखरे चावल समेटने लगी, भात बिल्कुल ख़ौला हुआ था जिसके
कारण मैं थोड़ा डर भी गया था। ज़मीन पर बिखरे भात उठाते हुए उसके हाथ जल रहे थे पर
उसे कोई ख़बर नहीं थी। वे हाथ मिट्टी-भात में लिपटे मेरे पैरों को भी साफ़ करने लगे, उन्हें मना करने के चक्कर में मैं अचानक से उठने लगा। आलथी-पालथी में जो दोनों पैर आबद्ध थे वो उठते समय लड़खड़ाने में सहायक साबित
हुए और मैं पीठ के बल गिरने लगा। मुझे गिरते हुए देख सुनयना ने हाथ के चावल फेंक
अपनी दोनों बाँहें मेरी बाज़ू पकड़ने के लिए फैलाते हुए लपक कर बढ़ाई पर मेरे भार
को संभाल नहीं पाई और ठीक मेरे ऊपर ही गिर
पड़ीं। मेरा सिर पलंग
के पाए से ज़ोर से टकराया, चोट तो लगी पर होश किसे था।
उभरे
गदराते ऊष्मित वक्ष मेरी छाती पर अपना दवाब बना रहे थे। आब-सिक्त चंद्रमा मेरे चेहरे के ठीक
ऊपर था, मेरा शरीर चोट के बाद भी हल्का महसूसने लगा। ऐसा लग रहा था तपती हुई रस्सी
मुझसे लिपट गई है और मेरे पूरे शरीर को पिघला रही है। मेरी गर्दन पर दो चाँद के
उबले फाँक पड़े और मेरे अंदर तूफान भर दिया। चार होंठ एक दूसरे में गूँथ गए। सरसों और माछ पूरे चेहरे पर अपनी
कहानी गुन रही थीं और उस पल
मिर्च से लिपटे चुम्बन भी दुनिया के सबसे मीठे चुम्बन बन गए। सोंधे पसीनों का
फव्वारा फूट पड़ा। मदहोश बादल का कुनबा उस छोटे से कमरे में अटता चला जा रहा था और
स्त्री पाश का कसाव इतना बढ़ता जा रहा था कि साँस उखड़ जाती पर उस पल साँस उखड़ने में
भी स्वर्गिक आनंद की अनुभूति हो रही थी।
दो बरसाती नदियाँ पहाड़ में पहली बार बेरास्ता बही
जा रही थीं। पहाड़ी उरेजों से फिसलते हुए
यूँ लग रहा था रेगिस्तान से टकरा गयीं हैं जो सोखे चला जा रहा है पूरी की पूरी नदी
को। जैसे अनंत रेत में नदी अपना वजूद भूलती जा रही हो। अचानक एक बिजली कड़की और
दो दाँत गर्दन पर चुभे और कपोत की गर्दन की नसों की तरह फड़फड़ाई वह और फिर शांत हो
गई, जिबह किए गए परिंदे की तरह!
धीरे
धीरे आंधी तूफान, रेत, नदी सब वसन्त की पुरवाई में बदल गईं। एक सर्प जैसे अपना पाश शुरू में धीरे-धीरे
और फिर अचानक शरीर पर सिहरन छोड़ता निकल गया। एक मछली अभी अभी तड़पी और समुंदर पी कर सुस्ताने लगी।
जब
होश आया तब निर्वसन एक दूसरे को उतने ही प्रेम से देख रहे थे जैसे चंद्रमा सागर को। बाढ़ आ कर झरोखे से निकल गई। सरसों और भात में साथ-साथ सने हम उस ख़ून में भी सन
गए थे जो गिरते समय मेरे सिर के पिछले हिस्से से अभी भी बह रहा था और हम दोनों में से किसी को इसका
इल्म तक नहीं था। हद और अनहद के बीच उसके सारे पहलू मेरे पहलू में सिमट आये थे।
अंतःसलिला कल-कल नाद बन गयी जिसकी आँखों से अबाध प्रेम नीर बन कर झर-झर बह रहा था। शाम ढ़लने वाली थी। हम दोनों ही की आँखों में अद्वितीय संतुष्टि थी। अचानक मैं उठा और एक दीप्त बोसे के साथ बाहर निकल गया। होंठ अलग होते समय जो टीस के स्वर थे उसने अलविदा कहा था, उसकी आँखों में धन्यवाद और सम्पूर्ण तृप्ति का जवाब था। वो मुस्कुरा रही थी और बहते आँसू दोनों ही तरफ अपनी व्यथा कहे जा रहे थे।
आवेश
गुजर चुका था, अब मैं अकेला गाँव के बाहर शिव मन्दिर के प्रांगण में पोखर के
चबूतरे पर बैठा था। अकस्मात की आँधी गुजर चुकी थी, अब दिमाग की तरंगे स्वयं में एक
भंवर बनाने लगी। रिश्तों के बोझ का दबाव बढ़ने लगा। जितनी बार सोचता उतनी ही तीव्र
वितृष्णा से छटपटा जाता। इस नए समीकरण को न और हाँ कहने के बीच मेरा मन इसी जाल
में उलझा जा रहा था कि वो तो पिता की पत्नी है। धीरे धीरे हीनताबोध मेरे अन्दर
भरता जा रहा था। एकबारगी सारी उलझनें उकता कर मेरे उपर हावी होने लगी। अचानक तैश
में पानी में उतर गया। मैं पानी में डूबता जा रहा था, अचानक लगा किसी ने गर्दन में
जलकुंभी की लड़ी डाल दी है। दम घुटने लगा। छटपटाहट और भय से पैरों को ऊँची जमीन की
ओर ले जाने लगा। जैसे तैसे वापसी की रास्ते तलाशा। हाँफते हुए पोखर से बाहर निकला।
उपर आ कर चबूतरे पर लेट गया।
अभाव में जीते हुए, रग-रग टूटे शंकाओं को ले कर
जाता भी तो कहाँ? चरित्र को
सामाजिक नैतिकता की कसौटी पर नहीं परखा जा सकता है। चरित्र व्यापक प्रसंग है। समाज
उसे देखने से मतलब नहीं रखता है। ये तो तय था कि समाज उस साझा आत्मीय मिलन को पाप की
नज़र से देखेगा। इस खुरदरे
ज़ख़्म के साथ यहाँ रहा नहीं जा सकता जबकि मरने की आकांक्षा भी दम तोड़ चुकी थी। मेरे
पास बस अब एक ही चारा बच गया था। यह समझ आ चुका था जिस आत्मीय सुख सागर में
हम दोनों ने गोते लगाए हैं उसके मंथन से अमृत नहीं विष की बारिश होगी, समाज की
परिपक्वता पर प्रश्न चिह्न लिए मैं पटना आ गया जहाँ दूसरे दिन आप से मुलाकात हो
गयी।
धनंजय
एक सपने से जागा था और उसने मुझे भंवर में
उतार दिया। मैं सोचने लगा इतने खुश मिज़ाज़ शख़्स की ऐसी दास्तान भी हो सकती है! मेरे
आगे सारे दृश्य एक-एक
करके विस्मृत होते हुए अवचेतन में बसने लगे। छोटी उम्र की गरीब लड़की की शादी अक्सर बड़ी
उम्र के आदमी से कर दी जाती है, अक्सर ही एक समय के बाद इस तरह के संबंध बन जाते हैं।
इस उधेड़बुन ने मुझे अलग ही सोच में धकेल दिया, मेरा समाजशास्त्र आइने सा सम्मुख खड़ा था! समाज में संवेदनशील; राजनीति, धर्म और यौनाचार का त्रिक सर्वाधिक विद्यमान है। यह संवेदनशीलता अपने चरम पर ग्रामीण पृष्ठभूमि और संस्कृतियों वाले विकासशील देशों में पहुँचती है जहाँ सामंती रिश्ते प्रचंड रूप से प्रभावी होते हैं। यूरोप की औद्योगिक, तकनीकी और वैज्ञानिक प्रगति ने वहाँ की जन-संस्कृति को धर्म और यौनाचार के जीर्ण-शीर्ण मूल्यों और सामंतवाद के ताकतवर प्रभाव से आजादी दिलाने में बड़ा योगदान दिया है। हम आज भी यौन संबंधों को ले कर रुढ़िवादी हैं। कई तरह के सामाजिक–सांस्कृतिक वैचारिक स्तर की व्याख्या मेरे अंदर पनपने लगी। पर मुझे लगा यह यौन सम्बंध भर नहीं बल्कि तिश्नगी की सम्पूर्ण तृप्ति है जिसमें संगम जैसी पवित्रता की सुगंध मिली है। मैं एक सपने से बाहर आ चुका था... ...।
मेरी बी. ए. की परीक्षा में चार महीने बचे थे। ओपन यूनिवर्सिटी से परीक्षा थी। मैं उसकी तैयारी में दिन-रात
मेहनत करने लगा। उधर धनंजय इस परिवार का अभिन्न हिस्सा बन गया। रेखा की किरकिरी आज भी वैसी ही थी। उसके हर गुस्से का एक ही जवाब होता
धनंजय की मुस्कराहट। सब कुछ इतना सामान्य चल रहा था कि
कभी-कभी भ्रम होने लगता कि यह कुछ ज्यादा बुरा होने के पहले की शांति तो नहीं। कई बार मुझे यह भी लगता कि धनंजय के
आने बाद शायद मेरी जरूरत ही नहीं रही। लेकिन
मैं अपने लक्ष्य को साधने में इतना मगन था कि इस ओर ध्यान ज़्यादा देर तक टिकने ही
नही देता और ईमानदारी से यह बात भी
स्वीकार करना चाहूँगा कि कई बार धनंजय और उसके पिता की पत्नी के संबंध की कहानी
जानने के बाद अवचेतन में धनंजय का चरित्र काफी दिनों तक संदिग्ध रहा था।
मेरी
परीक्षा हो चुकी थी और परिणाम के इंतजार में था, साथ ही संघ लोक सेवा आयोग की
तैयारी भी करनी थी। रेखा का देर से लौटना और धनंजय का भी उसके साथ देर हो जाना, यह
लगभग रोज़ की दिनचर्या में शुमार हो गया था। पूरे घर की चिंता अब रेखा ही थी। किसी की बात का कोई असर नहीं। हर बार शर्मा जी को दिलासा देती अब
किसी लड़के से दोस्ती नहीं। पर हर बार सारे वादे टूटते। शर्मा साहब अब किसी भी हालत में जल्दी
से जल्दी उसके लिए लड़का देखना चाह रहे थे और इसी संदर्भ में दो तीन घरों में बात
चलनी शुरू भी हो गई थी।
समय तेजी से बदल रहा था।
वैसे भी उदारीकरण ने पश्चिमी संस्कृति को फैलने का अवसर दिया था। यूथ कल्चर बदलने लगा था। पुरानी पीढ़ी इसे आवश्यक बुराई के
अलावा कुछ मानने को तैयार नहीं थी।
समाज का दोहरा मानदंड आगे भी चलते रहने वाला था। उदारीकरण से लोग लाभ भी कमाना
चाहते थे और उसके साथ आने वाली सांस्कृतिक चेतना को स्वीकार भी नहीं करना चाहते थे।
एक
दिन धनंजय मुझे ले कर मोना सिनेमा गया उसके पास तीन टिकट थे। थोड़ी देर में ही एक प्यारी सी
बंगाली लड़की ने आते ही नमस्ते किया। अपने
चिरपरिचित अंदाज में उसने कहा, -‘यह मेरी होने वाली पत्नी है नंदिता पॉल’ और बिना मेरे किसी जवाब का इंतजार किये उसका हाथ पकड़े आगे बढ़ गया। मुझे कुछ समय के लिए लगा मैं कोई
सिनेमा ही देख रहा हूँ। मुझे
पीछे वहीं खड़ा देख वो दौड़ता हुआ वापस आया और कहने लगा दादा सब समझा दूंगा। अभी
फ़िल्म चलते हैं। मैं दंग था। मेरे बाद वह आया और किस तरह उसने
अपनी एक दुनिया तैयार कर ली।
मैं खुद थोड़ा सा पिछड़ा महसूस करने लगा।
"क़यामत
से क़यामत तक" फ़िल्म देखते हुए अंत में हम तीनों को अफ़सोस हो रहा था। क्यों
आखिर क्यों हँसती खेलती जोड़ी ने आत्महत्या कर ली। फ़िल्म देख कर हम लोगों ने पॉल रेस्टॉरेंट में खाना खाया और
मैं चुपचाप लौट आया।
पहली
बार ऐसा हुआ कि मैं धनंजय को देख कर जलने लगा। मेरे बाद शहर आया और सब कुछ सेट कर लिया! जीवन को ले कर कोई कैसे इतने में
संतुष्ट हो सकता है।
एक डर था कि उसने मुझसे ज्यादा घर में जगह बना ली है। साहब से ले कर रेखा तक सभी उसी पर
निर्भर हो गए। मैं पुराने
सिक्के सा प्रचलन से बाहर था।
कई बार अब मैं खीझने लगता।
कई बार मैं अपने काम से ज्यादा उसके काम पर नज़र रखने लगा था। किस्मत तो देखिए नंदिता जैसी
लड़की भी उसी नामुराद को नसीब हुई।
धनंजय
कभी-कभी अपनी पिता की पत्नी को ले कर बातें करता था। उसके चेहरे पर वितृष्णा की झलक
साफ दिखाई पड़ जाती, लेकिन नंदिता के मिलने के बाद से वह मानो अपने जीवन से वह
हिस्सा काट चुका था। अतीत पीछे रह गया और वर्तमान उसके भविष्य का सपना बन गया। नंदिता
थी भी खूबसूरत। नंदिता की आँखे इतनी बड़ी थीं कि आंखों से नज़र नहीं हट पाती। साधारण
ऊँचाई, दुबली, बाल बहुत लंबे घुटनों तक, सांवली पर सुंदर। थोड़ी बातूनी और धनंजय की तरह
फिल्मी भी। बात बात पर
कसम खाती। उसने बताया कि उसकी माँ घरेलू स्त्री
है और पिता कपड़ों की दुकान पर अकाउंटेंट हैं और जैसा की ज्यादातर बंगाली परिवार
में होता है वो माँ बाप की इकलौती संतान
ही थी। मैं अब यह
सोच नहीं पा रहा था कि कैसे ये लड़की धनंजय के चक्कर में फंस गई। लेकिन प्रेम है, कहीं भी कभी भी
घट सकता है। जलन तो होना
लाज़िमी है। एक सामान्य
मानवीय क्रिया से मैं भी खुद को नहीं बचा सका। वह प्यार में पागल प्रेमी की तरह हर वक़्त
नंदिता के ख्यालों में खोया रहता। यहाँ तक की एक दो बार गाड़ी ठोकते-ठोकते बचा। अब वो घर के काम को जल्द से जल्द निबटा कर हमेशा बाहर भाग जाना चाहता।
कुछ
दिन बाद पता चला नंदिता लगभग चालीस पचास मीटर की दूरी पर ही रहती है। सब्जी मंडी के पास ही उसका घर है। सब्जी खरीदने के लिए रोज़ वो वहीं
जाता था। उसी बाज़ार में
नज़रें चार हुईं और दो तीन महीने एक दूसरे को समझने के लिए दिये और उसकी माँ को
धनंजय पसंद आ गया। पिता जी से
अभी तक उसकी मुलाकात नहीं हो पायी थी पर बताया गया था कि उस परिवार में माँ की ही
चलती है।
सिनेमा
वाली घटना के चार महीने बीत चुके थे। मेरी परीक्षा का परिणाम आ चुका था और शर्मा
साहब बहुत खुश हुए। तीन-तीन विषय में मेरी डिस्टिंक्शन जो आयी थी। सर्वेंट
क्वार्टर में लिट्टी चोखा बना और सारे परिवार की पार्टी हुई। नंदिता और उसकी माँ को भी धनंजय
ने निमंत्रण दिया था पर दोनों में से कोई नहीं आया। धनंजय से आज मुझे चिढ़न नहीं हो रही
थी। वह भी बहुत खुश था और
चाहता था कि मैं उसकी और नंदिता की शादी की बात साहब से करूँ।
उस दिन मैंने शर्मा जी को धनंजय के इस ओर बढ़े कदम से अवगत कराना सही समझा। साहब बहुत खुश हो कर बोले मेरा कोई बेटा नहीं है। बेटियाँ तो अपने-अपने घर चली ही जाएँगी। तुम लोगों को ही हमारे साथ रहना है। उन्होंने यहाँ तक कह डाला कि कुछ समय तो दो इस रिश्ते को, ताकि तुम दोनों एक दूसरे को ठीक से समझ लो, उसके परिवार को समझ लो। वो तुम्हें समझ लें फिर सब धूम धाम से हो जाएगा। वे खुद शादी की सारी व्यवस्था करेंगे। एक और खुशी की खबर ये थी कि रेखा की शादी पटना में ही कंकड़बाग में एक रेल अधिकारी के बेटे से तय हो गयी। लड़का बंगलोर में सॉफ्टवेयर इंजीनियर था। हम सब उस दिन इतने खुश हुए कि लिट्टी चोखा की पार्टी सूपर हिट साबित हो कर हमारे यादगार लम्हों में दर्ज हो गई।
अगले
ही दिन अपने एक पास के ही छोटे से प्लाट, जिसमें घर का काम शुरू हो रहा था शर्मा जी ने
उसकी रजिस्ट्री धनंजय के नाम कर दी। उनका
मानना था बहू आएगी तो सर्वेंट क्वार्टर में कैसे रहेगी। उस रात धनंजय साहब से लिपट कर खूब
रोया, रोते-रोते उनके चरणों में गिर पड़ा और कहने लगा,- ‘अपने बाप को तो कभी पिता नहीं बना
पाया और आप ही मेरे सब कुछ हैं’। उस पल दोनों की आँखें डबडबा गईं थीं।
समय
बीतता गया और चीजें सुलझती दिख रहीं थीं। यूपीएससी और बिहार पब्लिक सर्विस दोनों की प्रिलिमिनरी
लिस्ट के बाद लिखित परीक्षा में भी मेरा नाम आ गया था। इंटरव्यू नज़दीक था और शर्मा जी ने पूरी
तरह तैयारी करने के लिए मुझे छुट्टी दे दी थी। धनंजय दोहरी ड्यूटी कर रहा था जब
से शादी तय हुई थी रेखा का बाहर जाना लगभग बंद था उन दोनों में भी एक अबोली सुलह सी हो
गयी थी।
मैंने
ध्यान नहीं दिया पर धनंजय बीते कुछ दिनों से कुछ अधिक उदास रहने लगा था। पैसों की उसकी बढ़ती ज़रूरत एक
अनसुलझा मसला बनता जा रहा था मेरे लिए। कई बार मुझसे पैसे मांगता। मैंने किताब छोड़ कर कभी किसी चीज़
का हिसाब नहीं रखा। एक
महीने से भी कम इंटरव्यू के बचे थे जो मेरी घबराहट रेल के इंजन की तरह धकधका रही
थी। हालांकि धनंयज को बार-बार पैसे को ले कर परेशान देख कर मुझे
गुस्सा भी आ जाता। लेकिन मेरे
जेहन में परीक्षा को ले कर ऐसा दबाव था कि मैं इसकी उपेक्षा करके अपने काम में लग
जाता।
स्वाति
मैडम एक दिन रेखा से बात करती हुई घर के पीछे, जिधर हमारा क्वार्टर था टहल रहीं थीं। थोड़ी परेशान भी थीं दोनों। उन्हें
इस तरह बार-बार तेजी से टहलते और इतना परेशान होते मैंने कभी नहीं देखा था। साहब के साथ धनंजय भी नहीं लौटा था। मुझे देखते ही मैडम बोल पड़ीं, तुम्हे कैसे बताऊँ रेखा की शादी के
जेवरों में सब से महँगा हार नहीं मिल रहा। अब हम उसे दुकान से लेते समय उठाना
भूल गए या कहीं रास्ते में गिर गया समझ में नहीं आ रहा। मैंने उनको आश्वासन दिया अभी साहब
को मत बताइये कल मैं खुद दुकान जाऊँगा रेखा के साथ। यह सुनते ही दोनों थोड़े निश्चिंत
हुए और वापस घर के भीतर चले गए। रात
को देर से धनंजय आया और मैंने उसे सारी घटना बता दी। वह वैसे भी थका था अब सिर पकड़ कर
बैठ गया।
अगले
दिन दस बजे सवेरे ही रसीद लिए रेखा और मैं वर्षा ज्वेलर्स पहुँच गये। उन्होंने आश्वासन दिया कि हमारे
यहाँ तो सीसी टीवी
कैमरा
है। आपको उस समय की फुटेज दिखा दी जाएगी। आप देख सकती हैं कि आपने ज्वेलरी
उठायी या यहीं छोड़ दी, बस
दो दिन रुकना होगा क्योंकि हमारा छोटा बेटा इसे ऑपरेट करता है वह परसों आ जायेगा। सुनते ही हम दोनों को थोड़ी राहत
महसूस हुई। हम दोनों ने आ कर स्वाति मैडम को सारा
मामला समझाया और कह दिया बस दो दिन में सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
साहब
को इन बातों की कोई ख़बर नहीं थी। वो पूरी तरह बेटी की शादी के सपनों
में डूबे हुए थे। रात सीसी टीवी कैमरे वाली बात मैंने धनंजय को बताई। सुन कर ज्यादा खुश नज़र नहीं आया, वो इतना थका आता कि कई बार बिना
खाये चारपाई पर गिर जाता। मैं जबरदस्ती कुछ खिलाता तो अब थोड़ा
नाराज़ भी होने लगा था।
शर्मा
साहब ने दूसरे दिन मुझसे मेरी तैयारी के बारे में पूछा, अब मैं अपनी घबराहट को उन्हें कैसे
समझा सकता था। दो-दो इंटरव्यू लगातार एक के बाद एक। उसके बाद साहब ने कहा यह धनंजय
क्यों उड़ा-उड़ा और परेशान रहता है, इन दिनों कुछ पैसे भी मांगे थे कि नंदिता के लिए
कुछ उपहार लेना है। ऐसा वह इस महीने तीसरी बार कर रहा था। उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा मैंने
तुम दोनों को कभी न नहीं कहा है पर तुम उसकी समस्या को समझने की कोशिश करो। उससे पूछो उसे समझाओ कि शादी से पहले अगर होने वाली
पत्नी पर इतना खर्च करेगा तो बाद में उसे ही तकलीफ होगी। आकांक्षाओं को अपने वश में नहीं
रखने से वे आपको निगल जाती हैं।
अचानक
मेरे ज़ेहन में एक बात कौंधी कि कहीं धनंजय शर्मा साहब की सदाशयता का ग़लत फ़ायदा
तो नहीं उठा रहा? उस रात मैंने
पिछली बार की तरह धनंजय से बात करने की ठान ली। लौटते ही उसे गरम चाय बना कर दी। उसके सिर पर हाथ फेरा ही था कि वो फफक कर रोने लगा। ऐसी परिस्थिति के लिए मैं बिल्कुल
तैयार नहीं था। मैंने उसे अपनी छाती में भींच लिया
और बड़े प्यार से कहा,- "समस्या
क्या है छोटे?
नहीं
बताएगा तो हम कैसे मदद कर पाएँगे?”
जो
उसने बताया वो बहुत अजीब था मेरे लिए। कहने लगा नंदिता बहुत प्यारी लडक़ी
है पर उसके घर में सिर्फ उसकी माँ की चलती है। मैं जितनी बार उसके घर जाता हूँ वो
कुछ शर्त रख देती है। मेरे
सारे पैसे उनकी फरमाइशों पर खर्च हो रहे हैं। आपके भी पैसे मैंने वहीं खर्च किये। नंदिता कुछ भी नहीं कह पाती। बस कहती है एक बार शादी हो जाये तो सब ठीक हो
जाएगा।
उसने कहा,- ‘भैया अब जितनी जल्द हो मेरी शादी करा दो। आज सुबह ही मैंने पास के एक विवाह मंडप को बुक किया है’। साहब ने अपने सहायक से बोल कर उसके भुगतान की व्यवस्था कर दी थी। सहानुभूति की ठंडी साँस भरी मैंने और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बाहर निकल गया।
वर्षा और
मैं ज्वेलरी के सीसी टीवी कैमरे की फूटेज देखने के लिए गए। दुकानदार ने भी कहा,- ‘अब तो आपको तसल्ली हो गई कि आप लोग
ले गए हैं हार उन जेवरों के साथ’। मैं लौट कर सीधे क्वार्टर में आया और
गटागट दो तीन ग्लास पानी पी गया। मैंने धनंजय को बस बताया कि आज दुकान से फ़ुटेज देख कर आ रहा
हूँ पर उसका सूखा चेहरा देख कर कुछ और नहीं कह पाया! मैं अपने किताब में खो गया।
तभी वो मुझसे कहने लगा भैया आज साहब को तुम
लेते आओ ऑफिस से, मेरी तबियत अच्छी नहीं लग रही। उसे परेशान देख मैंने अपनी किताब
बंद कर दी और साहब को लेने निकल गया। लगभग सात बजे शाम हम लौट आये। रास्ते भर धनंजय हमारी बातों का
केंद्रबिंदु बना रहा। मैं सोचता रहा कितना प्यार करते हैं साहब-मेम साहब दोनों
उससे। जबकि मैं बचपन से हूँ इस घर में पर वे मान कर बैठे हैं कि मैं पढ़ लिख कर उन्हें
छोड़ कर कहीं दूर नौकरी करूँगा और वो ही उनके साथ रहेगा उनकी बुढ़ापे की लाठी बन कर।
यही
सब सोचते हुए मैं अपने कमरे की तरफ बढ़ रहा था, दरवाज़ा खोलते ही वहीं दरवाज़े पर
धम्म से गिर पड़ा। मेरे हलक से
दर्दविदारक चीख निकली थी, धनंजय
उस छोटे से घर के पंखे से यूँ लटक गया था कि मात्र एक उँगली का फासला रहा होगा
जमीन से। जीभ पूरी
बाहर, आँखों से कँचे
जैसे लटक कर गिर पड़ेंगे।
मेरी
चीख सुन कर मेम साहब,
साहब सब लपके और सबके सब विक्षुब्ध। मेमसाहब धड़ाम से बेहोश हो कर गिर पड़ीं। रेखा पत्थर थी और सबसे ज्यादा होश
में भी। लपक कर उसने ही माँ को संभाला, पिता थोड़ी देर सकते में थे कुछ बुदबुदा रहे थे लगातार पर अचानक उनके
अंदर का अधिकारी जाग उठा। फ़ोन-फ़ान होने लगा और कुछ ही समय में पुलिस
सुपरिंटेंडेंट तिवारी साहब उनके घर आ गए जिन्हें सबसे पहले फोन किया गया था। उन्होंने साफ शब्दों में कहा आप
अपना ख्याल रखें,
थानेदार
को कहे देता हूँ। बाकी कानून को जो सही लगेगा वही किया जाएगा।
थोड़ी
देर में राजेंद्रनगर थाने की टीम आई, शुक्ला जी थानेदार और चार सिपाही। आते ही पूछा फोन किसने किया, साहब ने अपना परिचय दिया और सभी उस
कमरे की ओर मुड़ गए।
लाश
अभी भी वैसी ही लटकी हुई थी। मेरी नज़र धनंजय के लटकते पैर पर
टिकी थी और बार बार यही विचार मुझे मथे जा रहा था कि जिंदगी और मौत के बीच उस एक अंगुल का फर्क है! बार-बार धनंजय की हरेक
बात मेरी स्मृति से बाहर चेतन में घुमड़ने लगी।
जिसे
भाई माना और आज सेहरा पहनाने की तमन्ना रखी, आज उन्हीं हाथों से उसे पंखे से उतार
रहा हूँ। कमरे की तलाशी ली गई, कुछ ज्यादा पुलिस को हाथ नहीं आ रहा
था पर मुझे ध्यान आया कि एक गंदी सी कॉपी में वो देर रात तक कुछ लिखता रहता था। मैंने त्रिपाठी जी को कहा एक बार
उसे भी देख लेते हैं। जल्दी ही उसकी कॉपी मिल गयी मेरी
किताबों के सबसे नीचे छुपा कर रखता था।
त्रिपाठी
जी ने मेरी ओर पैनी नज़र से देखा और पूछा कि तुम इसके साथ ही रहते थे! मैंने अपनी मुंडी बस हाँ में हिलाई। उन्होंने साहब और मुझे थाने चलने को कहा! बोले फॉर्मेलिटी है स्टेटमेंट तो
लेना ही होगा। बाकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट तय करेगी आगे क्या करना है।
रात
के आठ बज रहे थे। थाने पहुँचते
ही ड्राइवर यूनियन की पूरी फ़ौज थाने पहुँच चुकी थी और भद्दी-भद्दी गालियाँ साहब को
दी जा रही थीं। वो करीब 25-30
की उग्र भीड़ थी। बाहर से बस चीखने चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं। मैं रेलवे के इतने बड़े अधिकारी को
एक थानेदार के सामने शांत, विनम्र और गंभीर बैठे देख रहा था। तभी एक सिपाही दौड़ता हुआ आया कहने
लगा धनंजय के दो-तीन रिश्तेदार आये हैं एक लड़की है और उसके पिता जी भी।
उसने
यह भी कहा लड़की तो बस रोये जा रही है पर रिश्तेदार ऊल-जुलूल बातें कर रहे हैं कि शर्मा जी
घर का काम कराते थे, सरकारी नौकरी का
झूठा वादा किया था। भर
पेट खाना भी नहीं देते थे और
एक दो ने तो यहाँ तक कहा कि इनकी बेटी का कोई चक्कर है जिसकी वजह से इन दोनों ने
मिल कर उसकी हत्या की है। थानेदार को अब कुछ समझ में नहीं आ
रहा था वह तो अब तक इसे चुपचाप निबटाने का मामला समझे बैठा था। उसने उस वक्त सिर्फ इतना ही कहा
भगवान से मनाइए कोई लिखित शिकायत दर्ज नहीं हो। शर्मा जी ने कहा उस लड़की और उसके पिता को अंदर बुलवा लीजिये जिस
से इस बदनसीब की शादी होने वाली थी।
थानेदार
की भवें तनती जा रहीं थीं। मामला और पेचीदा होता जा रहा था, मामला सुलझने की बजाय गुत्थी और उलझती
जा रही थी। कई नजरें मुझे
भी इस तरह से घूर रही थीं कि जैसे लील ही जाएँगी, जैसे सारे प्रपंच के जड़ में मैं ही हूँ।
ड्राइवर जो कभी-कभी घर आये थे किसी और साहब को
ले कर या कभी कभार घर की ड्यूटी पर भी, वे रेखा के बारे में अनर्गल बातें कर रहे थे। क्या उसके चक्कर में धनंजय ने
फाँसी लगा ली, उसी को ले कर
घूमता रहता था,
देर
रात को लौटता था वगैरह वगैरह।
साहब की आँखों के आगे रेखा की शादी टूटने का अंधेरा छाने लगा और मेरे आगे पुलिस केस होने पर इंटरव्यू में छटाई का। डर आपके सोचने के सारे रास्ते बंद करते चला जाता है और निर्दोष चेहरा भी अपनी शक्ल में दोषी लगने लगता है। मेरा ख़ून मेरी धमनियों में जम सा गया था। गले से शब्द धकियाने से भी बाहर नहीं आ पा रहे थे। लग रहा था पहाड़ को धकियाने सा दुश्वार है यह अब। घबराहट में थानेदार के साधारण सवाल का भी जवाब ऊ..., मैं..., कैसे... में ही ख़त्म हो जा रहा था।
तब तक नंदिता पॉल और उसके पिता अंदर आ चुके थे। कुछ भी बोल सकने में असमर्थ नंदिता बस रोये जा रही थी। उसके पिता थोड़े सीधे और सज्जन लगे और आते ही सबसे पहले शर्मा साहब को नमस्ते किया। थानेदार को कहने लगे.- ‘साहब ही सब व्यवस्था कर रहे थे शादी की! बस दो महीने में हम विदा कर देते, दोनों कितने खुश रहते! नंदिता से साहब की बात हमेशा करता था धनंजय और उस ज़मीन और घर की बात भी जिसे साहब ने उसे दान दिया था। ऐसे लोग कहाँ मिलते है इस जमाने में’। मैं ध्यान से नंदिता के चेहरे को देख रहा था। एक उड़ती हुई सी बदहवासी साफ-साफ दिख रही थी। मेरा मन किया जाऊँ और उसके कंधे को जोर से भींच लूँ। मै रोना चाह रहा था। जब्त किये गए आँसू अवसाद की तरह जमा होते जा रहे थे और मेरे पास उसे पिघलाने का कोई चारा नहीं था।
अभी
इन बातों से थोड़ी राहत मिली ही थी कि तभी धनंजय का ममेरा भाई जिसके बारे में कभी
धनंजय ने कोई जिक्र नहीं किया वो दो लोकल नेता को ले कर अंदर घुस आया और त्रिपाठी
जी को रपट लिखाने को कहने लगा, उसके सारे
इल्जाम साहब की ओर इंगित थे जिसका जिक्र ऊपर हो चुका है। बहुत ही बदतमीज लोग थे। उनका मतलब सीधा साहब से पैसे ठगने का था। कुछ लोग
ऐसे होते हैं जिन्हें किसी के मरने-जीने से भी कोई फर्क नही पड़ता।
मुझे
यह सब देख शर्म आ रही थी कि इतने नेक इंसान को क्या-क्या नहीं सुनना पड़ रहा है। मैंने जैसे ही कुछ कहना चाहा तो इल्ज़ाम
मेरी ओर मुड़ गया कि तुम ही हो मेन खिलाड़ी, सारा गेम तुम्हारा फिट किया हुआ है। मैं खामोश रह गया। अंदर से तनाव बढ़ता जा रहा था।
मामला
बिगड़ता देख त्रिपाठी जी,
जो अभी तक साहब को अपने चैम्बर में बिठा कर बातें कर रहे थे एकाएक बोल पड़े सर आप
थोड़ा बाहर बैठिए और अपना स्टेटमेंट दे दीजिए। घंटी बजी एक सिपाही आया और हम दोनों
अब बड़ा बाबू के पास बाहर बैठे थे। साहब की नम्रता को देख कर मैं स्तब्ध था। चाहते तो पुलिस
कमिश्नर को फोन कर सकते थे पर वो हर चीज कानून के दायरे में करने वाले लोग
थे। नंदिता पिता के साथ हमारे पास ही खड़ी थी, साहब खुद अपना स्टेटमेंट लिख रहे थे
और बाहर मजमा बढ़ता ही जा रहा था।
उधर घर से ख़बर आई कि कुछ लोग गुस्से में वहां भी जमा हो गए हैं। मैडम और दोनों बेटियाँ अकेली हैं तब मैंने ही साहब के एक मित्र तिवारी जी को फ़ोन कर दिया, जो कि रेल पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी थे। उन्होंने सिपाही घर भेजने का भरोसा दिया तब जा कर थोड़ी राहत हुई। इन सारी घटनाओं के बीच त्रिपाठी जी ने चैम्बर में ही बैठे-बैठे वो पूरी कॉपी जो धनंजय की दैनन्दिनी जैसी थी, पढ़ डाली।
वहाँ
पहली पंक्ति में ही साहब को “मेरे भगवान” लिखा था और आगे यह भी लिखा था मेरे जाने
के बाद वो जमीन साहब को फिर से वापस मिल जाए। जब इंसान मरने की ठान लेता है, उसके दिमाग में एक समानांतर दुनिया
जन्म ले लेती है। एक और दुनिया! जहां सिर्फ मौत से जुड़ी चीज़ों के दृश्य
चलते रहते हैं। उसी से जुड़े ख़याल
ज़हन पर हावी रहते हैं।
कुछ भी कर रहे हो,
पृष्ठभूमि
में एक ही सीन चलता रहता है।
मौत का, उसे अंजाम देने
वाले संभावित पलों का।
नीचे
कुछ ऐसी बातें हैं जो मौत की राह का राही बनने के ख्वाहिशमंद शख़्स के दिमाग में
चलती रहती हैं। धीरे-धीरे
खुलासा हुआ कि नंदिनी की माँ ने उसका जीना हराम कर रखा है। बात-बात पर पैसे मंगवाती। जेवर
लत्ते सब। बहुत ही लोभी और नाटकबाज औरत है। हर बात के पैसे नंदिता के साथ घूमने जाने के, सिनेमा देखने के, घंटे के हिसाब हो जैसे, और सीसी टीवी के फुटेज में वो जेवर का थैला धनंजय ने ही उठाया
था और अब वो जेवर उसकी माँ के पास ही है। वो उसकी माँ के चंगुल में ऐसा फँसा
था कि चोरी करना भी शुरू कर दिया था। उसने मेरी जेब से, शर्मा साहब के पर्स से, मैडम के ड्रावर से सभी जगहों से
पैसे चुराए थे और सब कुछ प्रेम में अंधा हो कर नंदिता की माँ को अर्पण कर चुका था। लेकिन बात तब ज्यादा गंभीर हो गई जब नंदिता की
माँ ने वह जमीन अपने नाम करने को कहा जिसे साहब ने दिया था। वह शादी करवाने से
पहले जमीन का पट्टा मांग रही थी। धनंजय काफी परेशान हो गया। जिस विश्वास ने उसे आज
यह जीवन दिया वह उसे किसी भी कीमत पर तोड़ना नहीं चाह रहा था। लालच भूखी पस्त औरत
की तरह उसके गर्दन दबोचे बैठी थी पर वह नंदिता को भी खोना नही चाह रहा था। नंदिता
के साथ जीने की इच्छा उसके मरने की ग्रंथि को बार बार उभार रहा था। वह मुझे भी
परेशान नही करना चाहता था। और कोई था भी नहीं उसके पास। उसे लगने लगा कि शायद उसके
किए पाप की सजा उसे मिल रही है। एक-एक करके उसके सारे सपने दीवाल, छत और मकान
बनाना- वहाँ सारे सामान को करीने से सजाना और एक संपूर्ण घर या आदमी की दुनिया
बसाना.... सब ढ़हने लगे।
डायरी
में सिर्फ उसकी पीड़ा थी। उस पल एक अपराध बोध मेरे अन्दर भी जन्म ले रहा था, काश कि उसकी
आँखों में एक बार ठीक से झांक लेता, शायद उसकी पीड़ा को समझ
पाता। सपने टूटते हैं तो उद्वेग का ज्वार संभालना मुश्किल हो जाता है।
डायरी
के अंत में लिखा था मेरी मौत का इल्जाम किसी के ऊपर नहीं आये इसका जिम्मेदार मैं स्वयं
ही हूँ। शायद मेरी माँ से मुझे यह विरासत में मिला है। उसने भी आत्महत्या ही तो किया था।
मुझे समझ में आ गया है नंदिता के बिना मैं जिंदा नहीं रह सकता और उसकी माँ ज़िंदगी
भर मेरा ख़ून चूसती ही रहेगी और मैं वो
सारे गलत काम करूँगा।
फलस्वरूप
मेरे भगवान जैसे साहब परेशान होते रहेंगे।
अलविदा........
लालच को एक बार तुष्टि मिल जाए तो वह खूँख्वार वृत्ति को जन्म देती है। धनंजय उसी खुंख्वार वृत्ति के घेरे में मारा गया। उसने अपराध किया चोरी करने का, पर उस अपराध की सजा जान दे कर चुकाई। काश कि एक बार हमसे बात कर ली होती भाई!.......
थानेदार ने सांत्वना का हाथ साहब के हाथ पर रखा और आराम से घर जाने को कहा। कहा,- ‘अब आप निश्चिंत होकर जाइए। ये सब मेरे रोज के मामले हैं। हमें आता है इनसे निबटना.....।’ हम दोनों गर्दन झुकाए थाने से निकले। अब सिर्फ धनंजय की मौत का ग़म था।
तभी टायर की चीखती आवाज़ ने मुझे सपने से जगाया, अरे ये क्या मैं तो पीछे की सीट पर आराम से बीयर के नशे में सो गया था। मेरे बंगले का दरवाजा मेरा इंतज़ार कर रहा था। कमरे में जा कर मैंने अपने आपको फिर से अंधेरे के हवाले कर दिया, सपनों में न जाने कितनी सच्ची कहानियाँ मेरे इंतज़ार में थीं। कुछ अवसाद पिघल कर नशे में बह चुके थे। अचीती बारिश ख़त्म हो चुकी थी... ...।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)
सम्पर्क
साब इतनी बडी़ बात इतनी आसानी से कह पाना शायद किसी बादलों को ही हो सकती है। शुभ हो ।मेरी शुभकामनाऐं। बधाई। आखिर मेरे दिल ने आप में भगवान इसी तरह तो बनाया।मेरा प्रणाम स्वीकार कर अनुगृहीत करें। आपका भक्त सोमेश्वर झा
जवाब देंहटाएंशानदार कहानी है...
जवाब देंहटाएंइस कहानी को पढ़ते हुए मुझे बार- बार विमल मित्र की 'खरीदी कौड़ियों के मोल' याद आ रही थी।
बहुत बधाई सर
कहानी पढ़ते पढ़ते आंखे नम हुईं .
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी लेखनी। कितनी सहजता से complex human mind की गुत्थियों को खोला गया है ।
जवाब देंहटाएंबधाई।
चयनिका दत्ता गुप्ता
बेहद शानदार और मार्मिक कहानी।
जवाब देंहटाएंउपन्यास तैयार है अब लिख डालिए...
जवाब देंहटाएं