सेवाराम त्रिपाठी का आलेख आत्मालोचन: हरिशंकर परसाई  के  लेखन की ताक़त  

 



हरिशंकर परसाई का मानना था कि 'साहित्य के मूल्य जीवन मूल्यों से बनते हैं'। अगर जीवन कुछ और है तो लेखन में अनुभव की जगह केवल लेखकीय आदर्श तो वह महज आदर्श ही रह जाता है। ऐसा लेखन जीवन पर कोई छाप नहीं छोड़ पाता। लेखन वह क्षेत्र है जहां लेखक लाख अपने को छुपाने की कोशिश करे, अपनी हकीकत बयां कर ही देता है। अप्रतिम व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई अपने आत्मचिंतन, आत्माभिव्यक्ति, आत्मालोचन और आत्मान्वेषण के बहाने लेखक के मूल्यबोध और उसकी असलियत को उजागर करने की कोशिश करते हैं। इसीलिए उनके व्यंग्य इतने प्रभावी और मारक हैं। सेवाराम त्रिपाठी ने अपने इस आलेख में परसाई जी के इस आत्मालोचन को परखने की कोशिश की है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'आत्मालोचन : हरिशंकर परसाई के लेखन की ताकत'।



आत्मालोचन : हरिशंकर परसाई के लेखन की ताक़त  

                   

सेवाराम त्रिपाठी

      

          

आज का दौर एक तरह से आत्मालोचन का दौर नहीं है; बल्कि किसिम-किसिम के प्रलाप और अपने  गर्हित  संसार को  जबरन  थोक में थोपने का समय है। परसाई जी अपने आत्मचिंतन, आत्माभिव्यक्ति, आत्मालोचन और आत्मान्वेषण के बहाने लेखक के मूल्यबोध और उसकी असलियत उजागर करने की कोशिश करते हैं। मैंने उनके वक्तव्य, गर्दिश के दिन और आत्मकथ्य के बहाने उनके लेखक की वास्तविकता को थाहने की कोशिश की है। यूँ तो अपने अनेक व्यंग्यों में वे अपने आत्मसंसार की कुछ झलकियाँ भी देते हैं। परसाई कुछ छिपाते नहीं। वे दूसरे लेखकों की तरह नहीं है। माना कि कुछ लेखकों में कुछ गोपन होता ही है। जैसे कुछ लेखकों में उनके न चाहते हुए भी उनका हल्कापन और उनका यथार्थ बार-बार उसके लेखन में झाँक ही जाता है जाने-अनजाने। जाहिर है कि किसी भी लेखक का समग्र लेखन गाहे-बगाहे उसके लेखन-संसार में किसी न किसी तरह आ ही जाता है। इसे हमें किसी भी कीमत में भूलना नहीं चाहिए।   

       

परसाई जी से पहली बार मेरी मुलाकात 1971 में  हुई थी। मैंने उन्हें सतना कॉलेज के साहित्य परिषद के उदघाटन हेतु आमंत्रित किया था। प्रारंभिक दौर में उनसे डर लगता था; क्योंकि वे किसी अजनबी को जब देखते थे तो सहज ही विश्वास नहीं कर लेते थे मुक्तिबोध की तरह। जैसे-जैसे दूरियाँ मिटीं, आना-जाना, बतियाना तेज़ हुआ, उनसे अपनत्व की छायाएँ सघन हुईं। अनेक लोग ऐसे हैं जो अपने लेखन में खूब चहकते हैं; लेकिन अपने स्वयं के जीवन में, जीवन वास्तव में शेर की जगह रंगे सियार  की तरह ही होते हैं। परसाई इन वास्तविकताओं से अलग थलग हैं। परसाई जी ने लिखा भी है— "साहित्य के मूल्य जीवन-मूल्यों से बनते हैं।" यह द्वैत अनेक लेखकों में है। उनके लिखने और जीवन में बहुत बड़ी फाँक है। वे कह क्या रहे हैं और उनका लेखन कहाँ जा रहा है? उनकी बुनियाद ही नहीं है; जिस पर उनके लेखन का भव्य भवन निर्मित होना है। धुप्पल में लेखन नहीं होता। वह बेहद ज़िम्मेदारी का काम है। उसका सब कुछ पुख़्ता होना चाहिए। परसाई जी ने अपने जीवन की वास्तविकता को अपने लेखन में  लगातार प्रमाणित भी किया है। वे विश्वासों के जितने धनी हैं उतने ही पक्के विचारों के धनी भी हैं— एकदम फौलाद की तरह। उनका बाहर भीतर अलग-अलग नहीं है; बल्कि एक जैसा ही है। 

 

      

 

परसाई जी को जो कहना था,  डंके की चोट पर कहा; किसी दबी हुई जुबान में या फुसफुसाहट में नहीं। जाहिर है कि यदि लेखक आत्मश्लाघा करता है, चीजों को छिपाता है तो धीरे-धीरे सत्य को ही ओझल कर देता है। देखना होगा कि उसका रॉ मटेरियल यानी कच्चा माल कहाँ से आता है एवं जीवन का अधपके माल का स्रोत कहाँ से हासिल होता है और अपने अनुभव-संसार में उसे शामिल कैसे करता है? लेखन आकाश से नहीं उतरता। परसाई जी की राह इसी जीवन-जगत की ओर से धरती के विभिन्न रूपों, अवयवों से निर्मित होती है। परसाई जी ने मनोरंजन के लिए नहीं लिखा— "और चीजों की तरह मैं व्यंग्य  को उपहास, मखोल न मान कर, एक गंभीर चीज़ मानता हूँ।" हर जगह उनका आत्मालोचन बोलता है; उनकी दृढ़ता बोलती है; उनका साहस बोलता है। उनका आत्मकथ्य पढ़ेंगे तो आपकी आँखें खुली-की-खुली रह जाएँगी। वे किसी भी तरह द्वैत के लेखक नहीं हैं; बल्कि गहरे आत्मसाक्षात्कार और जीवन-साक्षात्कार के लेखक हैं; जो आज के दौर में बेहद कम हो चला है। जैसे सूपा बोले तो बोले  अब चलनी भी बोल रही है; जिसमें छत्तीस छेद हैं। सार्त्र का हवाला देते हुए परसाई जी ने लेखक के द्वैत को सामने रखा है। आजकल वे क्षमा प्रार्थी के रूप में भी घूमते हैं। वे वक्तव्य में लिखते हैं— "वे  उस मनुष्य के प्रवक्ता हैं; जिसे दूसरे की रोटी छीनने के केक मिलती है और जो केक खाकर-खाकर कहता है— मेन लिव्ज नाट बाई ब्रेड एलोन। असल चीज़ें हैं— प्रेम, मानव-बंधुत्व, मानव-गरिमा, उदात्त मानवीयता; जिन्हें मैं निभा रहा हूँ। मैंने इन बुद्धिवादियों को क्षमाप्रार्थी इसलिए कहा कि सार्त्र की तरफ़ से ये उसके मार्क्सवादी हो जाने के लिए क्षमा माँगते हैं।" हम सभी को सोचना-विचारना चाहिए कि यह ढोलम पोल क्यों है?

       

परसाई जी लिखते हैं— "जीवन जैसा है, उससे बेहतर होना चाहिए। तो फिर जो जीवन लेखक देखता है, उसमें कहाँ-कहाँ  खोट है, कहाँ-कहाँ एकदम परिवर्तन चाहिए। कौन-से मूल्य  गलत हैं और उन्हें नष्ट होना चाहिए। किन परंपराओं को हम कैंसर की तरह पाले हैं, कहाँ विसंगति, अन्याय, मिथ्याचार, शोषण, पाखंड, दोमुँहापन आदि है। मैं कोशिश करता हूँ कि इन्हें देखूँ, गहरे जा कर इनका अन्वेषण करूँ, इन्हें अर्थ दूँ, कारण खोजूँ। और फिर ऐसे अनुभव को विश्लेषित कर के, रचनात्मक चेतना का अंग बना कर, कुछ-कुछ इस तरह से कह दूँ कि एक तथ्य ताक़त के साथ उद्घाटित हो जाए।" (आत्मकथ्य) जाहिर तथ्य है कि परसाई जी ने व्यंग्य-लेखन की ठोस ज़मीन बनाई और अपना गहरा कमिटमेंट पेश किया। परसाई जी कोई बात हवा में नहीं उड़ाते; बल्कि उसके पुख़्ता साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं— "व्यंग्य अमानवीय होता है। सही व्यंग्य-लेखक में कटुता आ जाए, यह बात अलग है। एक सचेत लेखक यदि गलत और घातक व्यवस्था के प्रति कटु है तो यह कटुता पवित्र है। पर व्यंग्य-लेखक किसी व्यक्ति से नाराज हो कर उसे कलम से नहीं पीटता। …जहाँ तक मानवीयता का प्रश्न है यदि व्यंग्य-लेखक को मानव-जीवन से गहरा सरोकार न हो वह क्यों रोए कि मेरे भाई तुममें यह बुराई है। तुम अच्छे हो जाओ।" (आत्मकथ्य)    

        


 

 

हमारा सोशल मीडिया भी तरह-तरह के घमासानों में है। हम लड़ने-झगड़ने की बजाय हरिशंकर परसाई के जीवन, युग और उनकी रचनात्मकता को गंभीरता से समझने का प्रयत्न करें; क्योंकि परसाई जी व्यक्तिवाद के एकदम विरोधी थे; जब कि यह समय व्यक्तिवाद के चरमोत्कर्ष का अनुपम समय है और तानाशाही मनोविज्ञान का अद्भुत रणक्षेत्र। इसमें सब कुछ स्वाहा हो रहा है। 

         

परसाई जी का कृत्तित्व बड़ा है। हम उनके लेखन को ठीक ढंग से पढ़ कर, गुन कर और समझ कर ही उन्हें जान सकते हैं। उनकी असलियत जान सकते हैं, किसी धुप्पल में नहीं या किसी और तरीके से भी नहीं या किसी शार्टकट में भी नहीं।  परसाई जी ने युग के सत्य को कई तरह से देखा-भाला। वे हमेशा स्त्री-जीवन की समस्याओं को समझने का प्रयत्न करते रहे हैं और उसे अभिव्यक्त करने का काम भी। एक छोटा-सा उदाहरण है। अमृता प्रीतम पंजाबी और हिंदी की अत्यंत महत्त्वपूर्ण लेखिका हैं। वैसे तो उनकी अनेक कृतियाँ है; जैसे— काग़ज़ के कैनवास या पिंजर। पिंजर जिस पर हिंदी में फिल्म बनाई गई इसी नाम से और पाकिस्तान में घुग्घी नाम का एक सीरियल भी बनाया गया। भारत-पाक विभाजन की त्रासदी पर यह बहुत अद्भुत उपन्यास है; जो बेहद यथार्थपरक है।

        

रजनीश पर परसाई जी ने टार्च बेचने वाला लिखा है। वे उनकी प्रतिभा से परिचित थे। परसाई जी की एक पुस्तक का जिक्र कर रहा हूँ— 'हम इक उम्र से वाकिफ हैं।' किताब मैंने पढ़ रखी है और मानता हूँ कि यह संस्मरणात्मक आत्मकथ्य जैसा है। अपने अनुभव को ही नहीं, युग के विकट यथार्थ को भी वे इसमें रेखांकित करते हैं। उनके जीवन के विविध पहलू, जीवनानुभव इसमें हैं। साथ ही उनका आत्मालोचन और उनकी रचनात्मकता की तमाम रूपरेखाएँ भी। उनका एक कथन मुझे याद आया— "सचेत आदमी सीखना मरते दम तक नहीं छोड़ता। जो सीखने की उम्र में सीखना छोड़ देते हैं, वे मूर्खतावश व अहंकार के दयनीय जानवर हो जाते हैं।" यह वाक्य बहुत सारी चीजें उजागर करता है। 

   


 

 

इसी तरह उनका लेखन जुमलाबाजी किसी भी तरह नहीं है। सच तो यह है की जुमले-जुमले होते हैं और सच्चाई-सच्चाई। सूत्र और जुमले में फर्क है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूत्र शैली में जो बातें की हैं, क्या उसे जुमलेबाजी की श्रेणी में माना जा सकता है— जैसे - "बैर क्रोध का आचार या मुरब्बा है।" दूसरा - "भक्ति धर्म का प्राण है।" और तीसरा - "प्रेम में घनत्व अधिक है और श्रद्धा में विस्तार।" कुछ इसी अंदाज में परसाई जी ने सूत्रों में बातें कही हैं; जैसे - "बाँट कर खाने वाला कभी भी पकड़ा नहीं जाता।" दूसरा - "बाराती से ज्यादा बर्बर जानवर कोई नहीं होता है।" तीसरा - "भगवान को साक्षी करके अदालतों में जितना झूठ बोला जाता है.. उतना भगवान की पीठ पीछे नहीं।" इसी प्रकार, "किसी को यह अधिकार नहीं है कि जन्म के पहले वह अपना बाप चुन ले।" एक सूत्र और देखें - "प्रजातंत्र तो भेड़ों के झुंड का  नाम है।" और अंत में परसाई जी का एक सूत्र और - "जिसके हाथ में फिल्मी पत्रिका है। वह बगल में बैठे भगवान से भी बात नहीं करेगा।"

       

सूत्र ज़िंदगी से निकलते हैं। वे जीवन की विकट परिस्थितियों और हाहाकार को केंद्रित करते हैं। वे कभी भी आसमान से नहीं टपका करते। ये अनुभव के विराट रूपाकार हैं। मानता हूँ कि लोग प्रतिभा और विद्वता से जल्दी ऊब जाते हैं; लेकिन मूर्खता से नहीं। कुछ तो मूर्खता को ही अपना सर्वस्व बना लेते हैं। उसी तरह आत्मालोचन करने वाले ही अपनी वास्तविकता सही तरीके से समझ पाते हैं; जबकि मूर्ख और अहंकारी आकाश में टँग जाते हैं। एक तथ्य और - लेखक नया हो या पुराना वह, जब भी ठीक-ठिकाने से लिखता है, जज्बे के साथ लिखता है और ज़मीर के साथ लिखता है तो अच्छा लिखने के लिए हमेशा परेशान या बेचैन रहता है। बिना दर्द और बेचैनी के सही ढंग से लिखना संभव नहीं है। परसाई जी भी इस रूप में परेशान हुआ करते थे। सच तो यही है कि जो अपना आत्मालोचन करता है उसके लिए कोई भी विषय न तो अछूत होता और न अमहत्त्वपूर्ण। 

 


 

       

ज़िंदगी के अनंत रूपों को जिम्मेदारी के साथ परसाई जी लिखते हैं; आत्मालोचन और  आत्मदर्शन करते हैं; अपने को चुस्त-दुरुस्त करते हैं। वे  किसी तरह का सुचक्कन प्रवचन नहीं झाड़ते। मुझे लगता है कि लेखक की परेशानी का उन्होंने बहुत अच्छा रेखांकन किया है। परसाई जी को  लगता रहा है कि अच्छा क्यों नहीं लिख पाता; जितना मुझे लिखना चाहिए था। हर अच्छे और सच्चे लेखक को परेशानी होती है। उसे इसी रूप में समझने की कोशिश करनी चाहिए। कहना उचित होगा कि कोई भी लेखक ब्रेकडाउन या नर्वस डाउन में नहीं लिखता। वह ज़िंदगी के सच से मुठभेड़ करता है। अवसाद या दु:ख उसके भीतर अंदर तक बिंधे रहते हैं। परसाई जी की किताब हम एक उम्र से वाकिफ हैं— उसी तरह की किताब है; जिसमें उनके खरेपन का विराट अनुभव है।

          

परसाई जी ने अपनी ज़िंदगी से, अनुभवों से और जनजीवन की समस्याओं से बहुत कुछ सीखा। सीखने की प्रक्रिया के साक्ष्य उनके लेखन में अकूत हैं - "इतने ज्यादा बेचारों में मैं क्या बेचारा! इतने विकट संघर्षों में मेरा क्या संघर्ष!.. दु:खी और भी हैं। अन्याय-पीड़ित और भी हैं। अनगिनत शोषित हैं। मैं उनमें से एक हूँ। पर मेरे हाथ में कलम है और मैं चेतना-संपन्न हूँ।… कोई दिन गर्दिश से खाली नहीं है और न कभी गर्दिश का अंत होना है। यह और बात है कि शोभा के लिए कुछ अच्छे किस्म की गर्दिशें चुन ली जाएँ। उनका मेकअप कर दिया जाए, उन्हें अदाएँ सिखा दी जाएँ, थोड़ी चुलबुली गर्दिश हो तो और अच्छा और पाठक से कहा जाए - ले  भाई, देख मेरी गर्दिश।" (गर्दिश के दिन)    

          

मेरा मानना है कि हरिशंकर परसाई के पास बहुत बड़ी प्रतिभा रही है और उतनी ही बड़ी ही विट और जीवन-मूल्यों को समझने का माद्दा भी रहा है। कोई भी पद पा कर वे कभी भी इतराए नहीं और न भरमाए। कुछ भी मिलने के बाद भी वे न तो कभी गलत के किसी तरह पक्षधर  हुए; न गलतियों से आँखें बंद कीं। वे सच्चे प्रतिबद्ध आदमी रहे हैं। उनमें असमंजस थोड़ी देर के लिए भले हुआ हो; लेकिन निर्णय कभी भी गलत नहीं दिखे। मुझे नहीं मालूम कि उनमें कितनी मानवीय कमजोरियाँ रही हैं। हालाँकि संग-साथ से अनुभव किया है कि वे अपनी कमजोरियों से निरंतर संघर्ष करते रहे हैं। बिना संघर्ष किए कोई भी कमजोरियों से जीत हासिल नहीं कर सकता। परसाई अपने जीवन में बहुत स्वाभिमानी रहे हैं। 

          

परसाई जी के अनेक मित्र और सहयोगी रहे हैं और शुभचिंतक भी। अपनी जमीन भाषा और विश्वासों में अडिग होने के कारण उनके विरोधी भी रहे हैं। परसाई के भीतरी हिस्से को जानने के लिए मायाराम सुरजन का संस्मरण ज़रूर पढ़ना चाहिए— विषवमनधर्मी रचनाकर; तभी उनके अंदरूनी इलाकों को जाना-पहचाना जा सकता है। परसाई कभी किसी के दबैल बन कर नहीं रह सकते थे। मायाराम सुरजन का संस्मरण पढ़ कर उनकी पूरी हक़ीक़त समझी जा सकती है - "अपने निजी जीवन में परसाई शुद्ध रूप से धर्मनिरपेक्ष आदमी हैं। न तो वे किसी धार्मिक क्रियाकलाप में विश्वास रखते हैं और जात-पाँत में।…उनकी रचनाएँ हिंदुस्तान की सभी भाषाओं में अनूदित हुई हैं। दरअसल उनके लेखन ने उनको छोटे तबके का प्रतिनिधि बना दिया है। हिंदी में व्यंग्यकार होने का दावा बहुत  लोग कर सकते हैं; लेकिन परसाई के लेखन में लफ्फाजी नहीं है। उनकी हर रचना में एक उद्देश्य होता है और  कम शब्दों में ज्यादा सारगर्भित बात कह देने में उनका कोई मुकाबला नहीं है।"

         



 

हरिशंकर परसाई बडे़ आदमी कभी नहीं रहे। ज़िंदगी के घात-प्रतिघातों ने, उनकी अंतर्दृष्टि के विशाल फलक और सुचिंतित कहन ने उन्हें बड़ा बनाया होगा। परसाई पर  मुक्तिबोध की छोटी सी टिप्पणी स्मरण कर रहा हूँ— "श्री परसाई  कलात्मक दृष्टि से प्रगतिशीलता के क्षेत्र में, उनसे कहीं अधिक समर्थ हैं। परसाई जी बड़े आदमी नहीं हैं कि जिन्हें खुश करने के लिए यह लिखा जा रहा हो; किंतु उनकी कृतियों में प्रकाशित दिशाकाश की उपेक्षा नहीं की जा सकती।… किंतु कौन जानता है कि भारतीय धरती की उर्वरता श्री परसाई जी के कला-हृदय से फूटने वाली हो?.. परसाई जी का सबसे बड़ा सामर्थ्य संवेदनात्मक रूप से यथार्थ का  आकलन है; चाहे वह राजनैतिक प्रश्न हो या चरित्रगत।

           

परसाई जी की नजर चीजों के आर-पार देखती थी - उनका वस्तुगत जीवन-विश्लेषण करती हुई। असलियत की उन्होंने गहरी छानबीन की थी। वे यथार्थ और विट के साथ वस्तु-संसार को देखते थे। इसलिए वे सत्य और झूठ का गंभीर मूल्यांकन कर सके हैं। भोलाराम का जीव इसका उदाहरण है। नारद भोलाराम की पत्नी से पूछते हैं - "माता, भोलाराम को क्या बीमारी थी? क्या बताऊँ, गरीबी की बीमारी थी। पाँच साल हो गए, पेंशन पर बैठे। पर पेंशन अभी तक नहीं मिली। हर दस-पंद्रह दिन में एक दरख्वास्त देते थे, पर वहाँ से या तो जवाब आता ही नहीं था और आता तो यही कि तुम्हारी पेंशन के मामले पर विचार हो रहा है। इन पाँच सालों में सब गहने बेच कर हम लोग खा गए; फिर बर्तन बिके। अब कुछ नहीं बचा था। चिंता में घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड़ दिया।" (भोलाराम का जीव)  

 


 

          

परसाई जी जीवन की विराट सच्चाइयों को आत्मान्वेषण के विस्तृत फलक पर रख कर विचार करते थे। इस दौर में रामकथाक्षेपकों से उछल-उछल कर हिंदुत्व के शंखनाद के रूप में विकसित की जा रही है। चुनाव-पर-चुनाव जीतना है तो कुछ तो करना ही होगा? इसलिए जितना काला जादू, टोना-टोटका किया जा सकता है, उसके बिना कोई निस्तार नहीं। वे हनुमान चालीसा का अनुपम पाठ कर रहे हैं। परसाई जी ने जिस विट का इस्तेमाल किया है, वह नायाब तरीका है। परसाई जी का व्यंग्य रामकथा क्षेपक पढ़ना चाहिए। राम रावण-विजय के बाद अयोध्या पहुँचे। उन्हें मालूम हुआ कि इधर बड़ी पोल है। उन्होंने हनुमान को बुला कर कहा— "सुनो पवनसुत, युद्ध तो हम जीत गए लंका में, पर अयोध्या में हमें रावण से बड़े शत्रु का सामना करना पड़ेगा; वह है व्यापारी वर्ग का भ्रष्टाचार। बड़े-बड़े वीर व्यापारी के सामने परास्त हो जाते हैं। तुम अतुलित बल-बुद्धि निधान हो। मैं तुम्हें एनफोर्समेंट ब्रांच का डायरेक्टर नियुक्त करता हूँ। तुम अयोध्या पहुँच कर व्यापारियों की खाता-बहियों की जाँच करो और झूठे हिसाब पकड़ो। सख़्त से सख़्त सजा दो।" क्षेपक में बताया गया है कि व्यापारियों ने किसी सयाने से पूछ कर खाता-बहियों को लाल कपड़े में बाँध दिया। लाल रंग हनुमान जी के लंगोट का रंग हैं। हनुमान जी भी इस झाँसे में आ गए। 

     

अंत में यही कहा जा सकता है कि उनके हर व्यंग्य में उनकी जीवन-वास्तविकता के विविध रंग और आयाम हैं। हरिशंकर परसाई के समग्र लेखन में सक्रियता, आवेग, त्वरा, बांकपन तो है ही, तूफानी शक्ति, आक्रामकता, भाषा की विदग्धता, जीवन की अपार संभावनाएं, चिंतन मनन की प्रौढ़ता और  साहसिक ताकत है। मूल्यांकनपरकता उनके कंटेंट को नित नवीन और शक्तिशाली भी बनाता है। उनका गद्य विचार और जीवन का सुलझा हुआ गद्य है। जिसमें  मनुष्य की पक्षधरता का विस्तृत आकाश  और वैभव दोनों है। वे मनुष्य की दुर्दम आकांक्षा के एक निर्भ्रांत  दमदार लेखक हैं। वे एक पारखी और निष्णात लेखक हैं। ज्यों ज्यों समय गुजरेगा उनके लेखन की ताकत पाठक अनुभव करेंगे।

   

 

 

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