ललन चतुर्वेदी की कविताएं
(मूल नाम ललन कुमार चौबे)
वास्तविक जन्म तिथि : 10 मई 1966
मुजफ्फरपुर (बिहार) के पश्चिमी इलाके में नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में
शिक्षा: एम.ए. (हिन्दी), बी एड., यूजीसी की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण।
'प्रश्नकाल' का दौर नाम से एक व्यंग्य संकलन प्रकाशित
साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं में सौ से अधिक कविताएं प्रकाशित।
'रोशनी ढोती औरतें' शीर्षक से अपना पहला कविता संकलन प्रकाशित करने की योजना है।
संप्रति : भारत सरकार के एक कार्यालय में अनुवाद कार्य से संबद्ध एवं स्वतंत्र लेखन
लंबे समय तक रांची में रहने के बाद पिछले तीन वर्षों से बेंगलूर में रहते हैं।
आज हम एक अजीब से दौर से गुजर रहे हैं। यह वह दौर है जब हम कुछ भी आलोचनात्मक बोलने पर विरोधी की नज़र से देखे समझे जाने लगते हैं। अब 'निन्दक नियरे राखिए' का दौर नहीं है बल्कि 'प्रशंसक (चापलूस) नियरे राखिए' का दौर चल पड़ा है। ऐसे में कवि को असुविधा होती है कि वह क्या करे, क्या न करे? लल्लन चतुर्वेदी की कविताएँ पढ़ते हुए ऐसा नहीं लगा कि वे नए कवि हैं। उनकी भाषा में एक परिपक्वता दिखाई पड़ती है। उन्होंने अपनी अलग शैली भी विकसित कर ली है। उनके यहाँ विचार सहज ही कविताओं में ढल जाते हैं। कम छपना या न छपना बेहतर कवि होने का कोई मानक नहीं है। मानक है कविता की कसौटी पर खरा उतरना। लल्लन चतुर्वेदी इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। वे समय की नब्ज को पकड़ते हुए लिखते हैं : यह अनिर्णय का नहीं,असमंजस का दौर है/ जब हर विचारवान मनुष्य बोलने के पहले सौ बार सोचने लगा है/ आदमी एक दूसरे को संदेह से देखने लगा है/ अब मनुष्य कोई विश्वसनीय प्राणी नहीं रहा/ मालूम नहीं कब कौन बदल जाए इश्तेहार में।' आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं लल्लन चतुर्वेदी की कविताएँ।
ललन चतुर्वेदी की कविताएं
हम कब वह होते हैं जो होते हैं
कभी-कभी हम
वहां नहीं होते जहां हम होते हैं
जैसे लेह में
घुमते हुए हम अपने गेह में होते हैं
कभी-कभी हम
वही नहीं देखते जो देख रहे होते हैं
बड़े पर्दे पर
वाणी कपूर को देखते हुए हम अपनी प्रेयसी को भी देख रहे होते हैं
कभी-कभी फाइव
स्टार होटल में लेते हुए व्यंजनों का जायका
खाते रहते हैं
मां के हाथ से बने मकई की रोटी और सरसों का साग
कभी-कभी प्रेम
कविताओं में डूबे रहने के बावजूद
अपने ही लिखे
प्रेम पत्रों को बांच रहे होते हैं
हद तो तब होती
है जब अंतरंग क्षणों में अर्धांगिनी के संग होने के बावजूद
मेरी बांहों
में पूर्व प्रेमिका झूल रही होती है
अक्सर हम क्या से क्या हो जाते हैं
कि हमें पता
ही नहीं चल पाता
कि हम कब वह
होते हैं जो होते हैं।
अनुवाद मूल हो गया है
छोटे लोग हरदम
छोटी बातें नहीं करते
जैसे बड़े लोग
हमेशा बड़ी बातें नहीं करते
हां, छोटे लोग एक ग़लती करते हैं बार-बार
वे बड़े लोगों
की छोटी बात पर भी लगाते हैं जयकार
अलबत्ता बड़े
लोग जरूर रहते हैं सावधान
वे छोटे लोगों
की बात पर नहीं देते हैं कान
वे उनके बड़े
से बड़े विचारों की भी हत्या
कर देते हैं चुपचाप
और इन्हीं
विचारों को कालांतर में प्रस्तुत कर
बताते हैं
अपना मौलिक विचार
बड़े लोग अपने
ओछेपन को छिपाने की कला में
होते हैं
निष्णात
और इस तरह
इतिहास में हो जाते हैं सुख्यात
यकीन नहीं
करना है तो मत करिए
मगर इस सत्य
को महसूस जरूर कीजिए श्रीमान
दुनिया के
तमाम दार्शनिक सिद्धांत
हैं छोटे
लोगों की भावनाओं के अनुवाद
बड़े लोगों ने
इन्हें बहुत चतुराई से
अपने शब्दों
में इस तरह ढाला है कि
मूल पाठ कहीं
खो गया है
अनुवाद ही मूल
हो गया है।
सत्य
शरणार्थी है!
मैं विजेताओं के जुलूस में कभी
शामिल नहीं हुआ
पराजितों के शिविर में जा कर बैठ
गया
जो पराजित हुए वे पतित नहीं थे
जो पराजित हुए वे पापी नहीं थे
वे सच बोलने वाले थे
इसलिए धीरे धीरे उनकी तादाद कम
हो गई
उन्होंने जब भी सच बोलना चाहा
भीड़ के शंखनाद में उनकी आवाज
दब गई
वे भीड़ से छिटके हुए लोग थे
लिहाजा उन्हें अछूत समझा गया
उनकी गिनती कम थी
इसलिए उन्हें नगण्य समझा गया
और जहां संख्या ही सत्य का
पर्याय हो
वास्तव में सत्य वहां शरणार्थी
बन जाता है
वह हर देश में सरहद पर खड़ा
दिखता है
कोई उसे प्रवेश नहीं करने देता
अपनी सीमाओं में
सत्य हर देश-काल में बहिष्कृत
है
सत्य आज भी इतिहास से बाहर है
सत्य का कोई अपना भूगोल भी नहीं
सत्य आज भी तंबू गाड़ रहा है
कभी इधर, कभी उधर
कोई भी आ कर उसका तंबू उखाड़
सकता है
उसे अनधिकृत घोषित कर सकता है।
अमित्र होने पर
हॅ़ंस सकते
हो/ बोल सकते हो/
बतिया सकते
हो/ धकिया सकते हो/
मौका मिले तो
किसी को लतिया सकते हो
कितने ताकतवर
हो!
हां भाई!
तुम्हीं से कह रहा हूं
यह सुनने के
लिए कोई दुराग्रह नहीं है
तुम्हीं ने तो
भेजा था मित्रता-प्रस्ताव
और कुछ महीने
भी नहीं बीते कि
तू ने मुझे
अमित्र कर दिया।
अमित्र करने
से कोई दुश्मन नहीं हो जाता
और मित्र सूची
में शामिल होने से
कोई मित्र
नहीं बन जाता
यह एक आभासी
दुनिया है
और यहां सब
कुछ आभास है
न यहां पेड़
है, न छाया है
सच में सब कुछ
माया है
पर अमित्र
होने के बाद स्वयं में झांकने लगा हूं
चूक कहां हुई
यह आंकने लगा हूं
यह संयोग है
कि जेठ की इस दुपहरी में
तुम्हें याद
करते हुए
बैठा हूं पीपल
की छांव में
जबकि संवाद के
सारे विकल्प
तुमने कर दिए
है बंद
मेरी उदासी को
पीपल समझ रहा है
मैं जैसे ही
चलने को होता हूं तैयार
यह मुझे रोक
लेता है
और कहता है-दो
घड़ी और सुस्ता लो
मेरी छांव में
मन-प्राण जुड़ा लो
मैं मनुष्य की
तरह शक्तिशाली नहीं हूं
मैं अपनी छांव
समेट नहीं सकता
मैं किसी को
अमित्र कर नहीं सकता।
क्रूरताओं के बारे में
क्रूरताओं की
एक श्रृंखला होती है
बड़ी तेजी से
बढ़ती हैं और छा जाती हैं पूरे अस्तित्व पर
जैसे छा जाती है किसी तरु पर अमरबेल
तुम समझ नहीं
पाते कि ये कितनी संक्रामक होती है !
बहुधा, तुम इस मुगालते में रहते हो कि
कोई तुमसे
प्रेम कर रहा है
लुब्ध हो जाते
हो उसके स्नेहिल स्पर्श पर
पर वह धीरे
धीरे अपनी छद्म क्रूरताएं
तुम में
आरोपित करना चाहता है
वह चाहता है कि तुम क्रूर बन जाओ
पूरी दुनिया
के लिए
मगर उसके लिए
तो कभी नहीं
जब तक तुम
क्रूर नहीं बन जाते
वह प्रेम का
नाटक करता रहता है
जो काम नफरत
से नामुमकिन है
वह प्रच्छन्न
प्रेम से संभव बनाना चाहता है
प्रेम के पीछे
दबे पांव चलने वाली क्रूरताओं को कोई देख कहां पाता है
यह अजीबोगरीब
प्रकिया है
जहां तुम्हें
प्रेम तो मिल नहीं पाता
उलटे गंवा
देते हो अपने व्यक्तित्व को
तुम समझ नहीं
पाते
लोग तुमसे
बदलने की अपेक्षा रखते हैं
नहीं बदलोगे
तो बदला लेने से भी नहीं चुकेंगे।
ओ मेरी भाषा!
ओ मेरी भाषा ल!
जब-जब तुम
असहाय सी दिखती हो
घट जाती है
मेरी थोड़ी सी उम्र
मैं थोड़ी देर
के लिए मर जाता हूं
मुझे मालूम है
तुम कमजोर
नहीं हो
शोर में दब
जाती हो
और अपने अहं के उतुंग शिखरों पर आसीन
कोई तुम्हें
अनसुना कर देता है
तब तुम कातर
पुकार में बदल जाती हो
सब कुछ करना
पर भूल कर भी
अपनी शब्दावली में
उम्मीद को
शामिल मत करना
तब तुम्हें
लोग ध्यान से सुनेंगे
ओ मेरी भाषा!
बहुत ध्यान
रखना
स्वयं अपना मान रखना।
ठीक रहना पड़ता है
नमस्कार करने
पर भला ठिठक कर कौन देखता है थोड़ी देर पर वह बिल्कुल
ऐसा ही करते हैं
जैसे अभिवादन
करने वाले शख्स को ठीक से पहचान लेना चाहते हों
फिर दो बार
नमस्कार कर जवाब देते हैं नमस्कार का
हालचाल पूछो
तो हॅंस कर कहते हैं - ठीक रहना पड़ता है
और दोपहर में
जब भी पूछा - लंच किया साहब!
थोड़ी देर
खड़े हुए
फिर सोचकर बतलाया
-
खाना पड़ता है
बस इतनी सी
बातें ही होती रहीं रोज उनसे पूरे सेवा काल में
मैंने उन्हें
जीवन भर मित्रविहीन देखा
लेकिन किसी को
अपना शत्रु भी नहीं बनाया
फिर भी, कुछ लोग उनकी शिकायत करते पाए गए
उन्होंने
सरकारी सेवा की, औरों से थोड़ी बेहतर
गुस्साए कभी-कभार सिस्टम पर तो
खड़ी बोली से
अंग्रेजी तक का ही सफर पूरा किया
मैंने उन्हें
दोपहिया वाहन का इस्तेमाल करने के बजाय
अपने पैरों पर
ज्यादा विश्वास करते देखा
और देखा महीने
की आखिरी तारीख में
अपना पगार
पत्नी को खुशमिजाजी से सौंपते हुए
संगी- लसाथी
क्यों याद रखेंगे
उस आत्मलीन
शख्स को
जो अपने-आप का
ही गुमनाम दीवाना बना रहा
पर एक कवि
कैसे भूल सकता है हाइब्रू साहेब को
जिसने चार
शब्दों में हर रोज जीवन जीने का गुर सिखाया - ठीक रहना पड़ता है।
आदमी
कुछ बेतरतीब
बिखरे शब्द
और कोशकार ने
सजाए तो कोई क्रम बना
कभी भावों के
अनुसार
मात्रा बदली, अर्थ बदला
कभी कॉमा, विसर्ग, हलंत लगे
फिर भी पूरा
कहां हुआ
आदमी एक
अपूर्ण वाक्य है
जिंदगी भर
अर्थ की तलाश में भटकता हुआ।
नश्वर
नश्वर!
नश्वर!!
नहीं,नहीं!!
मुझे यह शब्द
बिल्कुल पसन्द
नहीं
मिट्टी में सुला कर आया हूं
जब नींद पूरी
हो जाएगी
वह उठ जाएगा
कच्ची नींद
में
सोते बच्चे को
जगाना उचित नहीं
यह किसी मां
के साथ किया गया अपराध है
जब तक एक देह
सस्वर है
दूसरी कैसे
नश्वर है?
ऊहापोह
कुछ भी खाता
हूं तो हाजमा खराब हो जाता है
खाने के पहले
सोचता हूं क्या खाऊं, क्या नहीं खाऊं
कुछ भी पढ़ता हूं
तो दिमाग खराब हो जाता है
सोचता हूं
क्या पढूं, क्या नहीं पढूं
बोलने के पहले
जीभ लड़खड़ाने लगती है
सोचता हूं
क्या बोलूं, क्या नहीं बोलूं
और लिखने के
पहले कलम थरथराने लगती है
सोचता हूं
क्या लिखूं, क्या नहीं लिखूं
वे कितने
बदरंग लोग हैं जो रंग को भी जोड़ देते हैं किसी खास पंथ-संप्रदाय से
सोचता हूं
क्या पहनूं, क्या नहीं पहनूं
यह अनिर्णय का
नहीं,असमंजस का दौर है
जब हर
विचारवान मनुष्य
बोलने के पहले
सौ बार सोचने लगा है
आदमी एक दूसरे
को संदेह से देखने लगा है
अब मनुष्य कोई
विश्वसनीय प्राणी नहीं रहा
मालूम नहीं कब
कौन बदल जाए इश्तेहार में
अचरज में हूं
कुछ लोग खूब बोलते हैं
और कुछ लोग
खूब लिखते हैं
ऐसा भी क्या
उतावालापन कि
खुद को उतार
दें विज्ञापन की दुनिया में
इतनी भी हया
बची रहे कि हो न जाएं निर्वस्त्र
स्वयं का
ढिंढोरा पीटते-पीटते
आदमी की कलई
खुल जाती है
प्रकट हो ही
जाता है रहस्य-भाषा का भेद
हद है, आज भी रची जा रही हैं फरमाइशी कविताएं
उन्हें शायद
थोड़ा सा भी भान नहीं
क्षण भर में
रचने की खुशी काफूर हो जाएगी
और उजागर हो
जाएगा अपना चरित्र
कविता लिखने
और बुलडोजर चलाने में
फर्क समझना अब गैरजरूरी समझा जाने लगा है।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व विजेन्द्र जी की हैं।)
संपर्क :
ई मेल : lalancsb@gmail.com
मोबाइल- 9431582801
महत्वपूर्ण टिप्पणी सहित कविताओं के प्रकाशन के लिए आभार!
जवाब देंहटाएंआपकी कविता को पढ़ना
जवाब देंहटाएंस्वयं से गुजरने जैसा लगता है
लगता नहीं कि कविता पढ़ रहा हूं
लगता है हर एक शब्द और उसकी संवेदना को जी रहा हूं जैसे
बहुत कुछ कटा फटा जा रहा
सी रहा हूं जैसे
यूं जी रहा हूं जैसे
पंकज पुष्कर
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंदुधारी तलवार है आपकी कलम !
जवाब देंहटाएं'प्रेम विषय पर भी कुछ लिखें ।
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