रणेंद्र का आलेख “सुन्नरि नैका” के पुनर्पाठ के बहाने




कहानीकार न केवल अपने समय और समाज को अपनी रचनाओं में दर्ज करता है बल्कि वह चर्चित लोक कथाओं और लोक कविताओं को भी अपनी रचनाओं में समेटने की कोशिश करता है। फणीश्वर नाथ रेणु हिंदी साहित्य के ऐसे कथाकार है जिन्होंने अपनी कहानियों में कई लोक गीतों और कथाओं को दर्ज किया है। फणीश्वरनाथ रेणु की “परती परिकथा”, (1957) में गुंफित कई लोक कथाओं, आख्यानों में एक आख्यान है “सुन्नरि नैका” का। कथाकार उपन्यासकार रणेंद्र ने “सुन्नरि नैका” के कथा सूत्रों को सुलझाने की एक बेहतरीन कोशिश की है। रणेंद्र का यह आलेख आलोचना के हालिया अंक में प्रकाशित हुआ है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं रणेंद्र का शोधपरक आलेख “सुन्नरि नैका” के पुनर्पाठ के बहाने।

 

“सुन्नरि नैका” के पुनर्पाठ के बहाने

 

रणेंद्र

 

कथा-सम्राट प्रेमचंद के बाद हिंदी कथा साहित्य के शीर्षस्थ कथाकारों में सर्वप्रिय कथा-गायक फणीश्वरनाथ रेणु की “परती परिकथा”, (1957) में गुंफित कई लोक कथाओं, आख्यानों में एक आख्यान है “सुन्नरि नैका” का। दरअसल ‘सुन्नरि नैका की गीति-कथा’ का मूलाधार हैं दंता सरदार और उसके साथी। किंतु रघ्घू रामायनी अपने कथा गायन में उसे ‘राकस’ कहते हैं। विप्र समाज ने ऐसा मानसिक अनुकूलन किया है कि उपन्यास के दलित समाज से आए पात्रों को भी उसे ‘राकस’ कहने पर कोई आपत्ति नहीं है और ना उपन्यासकार ही इस दानवीकरण को रेखांकित करता है। पांच रातों तक चलने वाली इस ‘गीति-कथा’ में दन्ता सरदार और उनके साथियों का अंत इतना बीभत्स  है कि वह मन में वर्षों  से कांटे-सा चुभता रहा है।


 

पहले संक्षेप में इस गीति-कथा के सारांश एवं इसके आयोजन के विवरण को देखें।  कथा का आयोजन उपन्यास के नायक जितेंद्र मिश्र कर रहे हैं। वैसे भी यह गीति-कथा लोरिक, विज्जे भान, सुरंगा सदाबृज, घुघली घटवार जैसी नहीं कि जिस दलित-पिछड़े समाज की कथा है उसी समाज का कथा-गायक गान करेगा। ‘सुन्नरि नैका’ की गीत-कथा का गायन रघ्घू रामायनी करेंगे जिन्हें जितेंद्र मिश्र ब्राह्मण और ब्राह्मणों में भी श्रेष्ठ कह रहे हैं।  पांच रात्रि चलने वाले इस अनुष्ठान की तैयारी का विशद् विवरण उसकी भव्यता को स्थापित करते हैं। सबसे पहले आधा मन शुद्ध घी की व्यवस्था की जा रही है क्योंकि गायन की शर्त है कि पांचों रात पाँच चिराग जलेंगे नैकाडीह पर, पांच दुलारीदाय के किनारे और पांचों कुंडों  के सामने। सुन्नरि नैका की गीति-कथा की अलौकिकता और दिव्यता स्थापित करने के लिए पाठकों को यह भी सूचित किया जाता है कि पच्चीस-तीस साल पहले रोशन बिस्वाँ के दरवाजे पर सुन्नरि नैका की अधूरी कथा सुनाई थी रघ्घू ने। कंजूसी की थी बिस्वाँ के बाप ने और पहली रात को आधी कहानी भी खत्म नहीं हुई थी कि दीप बुझ गए। “रघु ने गीत बंद कर दिया। उस की बोली ही बंद हो गई। इसके बाद, दूसरे महीने में ही उसको अर्धांग मार गया। आधी कहानी कह कर उठा हुआ गीत-कथाकार।” (परती परिकथा/पृष्ठ 139-140)
 

 

यह भी महत्वपूर्ण है कि उपन्यासकार रघ्घू  रामायनी को ऋषि-मुनि तुल्य चित्रित  करने पर तुला हुआ है, ”रघ्घू बूढ़ा नेम टेम करके व्यासगादी पर बैठेगा। कुंड में नहाने गया है।


 व्यासगादी सजी हुई -आसपास बलते दीपों की माला! सामने धूप दानी में धूप काठ  की घुंडी सुलग रही है।
                  

जीतन बाबू के  मन के पर्दे पर एक ऋषि की मूर्ति उभरती है और मुखर हो उठती है .......................... ग्राम्य गीति कॅथा के काव्य हिसाबे ग्रहण करिते गेले ताहार संगे संगे........................।

नहा धो कर, हल्दी से रंगा हुआ नया कपड़ा पहन आया है रघ्घू  रामायनी। जीतन बाबू ने हाथ का सहारा दे कर व्यासगादी पर बैठा दिया। गले में माला डाल दी। ...................... ललाट पर गोपी चंदन! पटसन की तरह सुफेद दाढ़ी! आधी देह अर्धांग की मारी हुई ! संतों की सी सूरत! अर्धांग वाली बाह से लटक रही है, छोटी सी सारंगी! आधे अंग की पूर्ति करती हुई, काठ और चाम की बनी सारंगी!” (परती परिकथा/पृष्ठ 141)



ऋषि की छवि, चंदन तिलकित भाल, सफेद दाढ़ी और व्यास गद्दी......... रघ्घू  रामायणी की भव्य छवि चित्रांकित करने में कोई कमी नहीं रहने देते हैं रेणु। यह भी सूचित किया जाता है कि साठ साल साधुओं के संगत में रह कर रघ्घू ने कथा-भाषा सीखी है और यह भी कि वेद आदि अपौरुषेय धार्मिक ग्रंथों की तरह ‘सुन्नरि नैका’ की कथा उसे कहीं लिखी-सुनी नहीं मिली थी बल्कि सपने में उसके गुरु ने उसे सिखाया था। 

 


पूर्णिया के जमींदार, मालिक लोग ‘सुंदरी नायिका की गीति-कथा’ का भव्य आयोजन करते रहे होंगे जिसे हमारे हिंदी कथा-साहित्य के सिरमौर रेणु जी ने अपनी गत्यात्मक-चित्रात्मक भाषा में हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है। इस तरह के आयोजनों को  धार्मिक अनुष्ठान सी पवित्रता और भव्यता प्रदान करने के पीछे दो बातें समझ में आ रही है। पहली बात तो यह कि जमींदार-मालिक-बड़े लोगों के आयोजन जब भी होंगे, जो भी होंगे, भव्य और बड़े ही होंगे। सबाल्टर्न इतिहासकार शाहिद अमीन और ज्ञानेंद्र पाण्डेय के शब्दों में, “औपनिवेशिक भारत में - और अन्यत्र भी - प्रभुत्व केवल आर्थिक दबाव के बलबूते पर ही कायम नहीं रहता। निम्न जन को उनकी गौणता का एहसास विविध प्रसंगों में रोजमर्रा तौर पर भी कराया जाता है। एक छोटे खेतिहर और एक भू स्वामी के बीच सिर्फ जमीन होने/ना होने का ही अंतर नहीं होता है - वेशभूषा, बोलचाल, घर -द्वार, जात-- पात, देवी- देवता -- सभी तो अभिजन के ऊंचे होते हैं: कपड़े उनके स्वच्छ, बोली उनकी साफ, अटरिया उनकी ऊंची, जात उनकी बड़ी, शिवालय उनके पक्के, देवगण उनके शक्तिमान, लठैत उनके बलवान! अभिजात अपने बड़प्पन की धाक सिर्फ लगान- पोत के समय ही नहीं जताते, अपना हिस्सा लेने तक ही जमींदार का हक सीमित नहीं रहता है। या यूं कहिए कि यह सिर्फ नगदी तक ही सीमित नहीं रहता - कृषक  जीवन के सभी पहलुओं पर जमींदार का दखल होता है।” (निम्न वर्गीय प्रसंग भाग 1, प्रस्तावना, पृष्ठ 10)

 


इस आयोजन की भव्यता और दिव्यता के पीछे दूसरी रणनीति यह काम कर रही है कि इस कथा में दंता सरदार और उनके एक हजार साथियों को जिंदा जला कर मारने के प्रसंग की बीभत्सता को गौण किया जा सके। जबकि दंता नायक और उनके साथियों के अथक परिश्रम से ही सुन्नर नायक और सुन्नरि नैका का इलाका अकाल-मुक्त होता है, जल के पाँच-पाँच कुंड लहलहाते हैं। उसके बदले में जो उनसे वादा किया गया था, जो उनका प्राप्य था, उसे न दे कर उनका नरसंहार किया जाता है। अग्नि-बाण मार कर जिंदा जला दिया जाता है। कथा क्रम में इसे गौण करने, इस अन्यायपूर्ण, नृशंस हिंसा को ढकने या लोकमानस को अनुकूलित करने के लिए दंता सरदार और उनके साथियों को राकस कह कर उनका दानवीकरण और मिथकीकरण किया गया है। यह भारतीय परंपरा में होता रहा है। वेदों से ले कर पुराणों तक गैर-आर्यों को राक्षस, दैत्य, दानव आदि कहने की परंपरा रही है। पौराणिक कथाओं में नायकों/देवों ने कथित दानवों-राक्षसों को ठगने-धोखा देने का पराक्रम भी उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया है चाहे वह अमृत मंथन की कथा में मोहिनी रूप धारण कर धोखा देना हो या दैत्य राज शंख चूर्ण को परास्त करने के लिए वेश बदल कर उनकी पत्नी तुलसी का सतीत्व हरण करने की कथा। दक्षिण भारत, विशेषकर केरल में अब भी सर्वमान्य बलि राजा को वामन रूप धारण कर उनका सर्वस्व लूटने में भी कोई नैतिक बाधा नहीं आई। जब सर्व शक्तिमान विष्णु भगवान को ही धोखा देने या ठगने में झिझक नहीं हो रही तो इस गीति-कथा के सुन्नर नायक को ही क्यों संकोच हो? 



परती परिकथा वर्णित इस आख्यान में सुंदर नायक खुलेआम अपने छल-प्रपंच की बात स्वीकार करता है। कथा गायक के शब्दों में, “................सुंदर नायक ने जिला-जैवार के लोगों से कहा - हो,  पंचो! मोरी बहिनियाँ सुंदरी नैका ने किया है एक उपाय! दंता राकस को फुसला कर प्रेम की डोरी में बांधा है। इस इलाके के एक सहस्त्र सुंदरियों में सुंदरी नैका मोरी बहिनियाँ - एक! भगवान उसकी रखें टेक! भला, उसको राकस-कुल में जाने दूंगा? पाँच रात में पाँच कुंड बनवाएगी, पाँच महापोखरों से पुरइन मँगवाएगी, पाँच  महानदियों की मछलियां। सहस्त्रों पुरइन फुल में से एक पर आकर बैठेगा कोई देवपुत्र। उसी देव के साथ मेरी बहिनियाँ ब्याही जाएगी हो ओ पंचो!


..............राकस-कुल में नहीं जाने देंगे बहिनियाँ को। धोखा से काम लेंगे। पहले, दंता राकस को प्रेम के बज्जर-बांध में फंसने तो दो! इसलिए, कुछ देखो भी अपनी आंख से तो मेरी बहिनियाँ का कुचाल मत मानना हो लोगों। ...........फँस गया दंता सुंदरि नैका के फाँस  में!” (परती परिकथा, पृष्ठ 142-143)


सदियों से वर्णवादी सामाजिक व्यवस्था में सामंजित जन-गण का मानस इतना अनुकूलित कर दिया गया है कि उसे मालूम है कि नायक या देवता राक्षसों को तो ठगते ही रहते हैं। इसलिए यह गीति-कथा या आख्यान पूर्णिया के गाँव-जवार में बिना किसी प्रतिकार के नैरन्तर्य पाता रहा है।

 

सीमांत क्षेत्रों, व्रात्य प्रदेशों, आटविक (आदिवासी) राज्यों में ग्राम-भूमि दान पाए ब्राह्मण-देवताओं का युगों-युगों से मुख्य कर्तव्य रहा है वर्चस्वशाली-वर्णवादी व्यवस्था को कायम करने हेतु हर संभव प्रयास करना। पूजा-पाठ ,यज्ञ-हवन, भव्य अनुष्ठान, कथा पाठ/गायन आदि उसी प्रयास के हिस्से रहे हैं। समुद्रगुप्त के विजय अभियान को वर्णित करने वाला 380 ईस्वी का चंद्रगुप्त द्वितीय द्वारा निर्मित इलाहाबाद का 35 फीट ऊंचा प्रस्तर स्तम्भ की 21 वीं पंक्ति में वन क्षेत्रों के सारे राजाओं का उल्लेख है (सर्व आटविक राजस्य)। जिन्हें विजित कर परिचारक की हैसियत दी गई, (परिचारकीकृता)। पहली बार इन गुप्त राजाओं ने ही विजित आटविक राज्यों में ब्राह्मणों को भूमि दान दे कर बसाया गया। फिर यह परंपरा चल निकली। इसलिए पूर्णिया जिले के मालिकों और अनुकूलित मानस वाले ग्रामीणों की बात समझ में आती है कि वे ब्राह्मण-देवता के पाठ में दंतागढ़ के राजा दन्ता ‘सरदार’ को राकस कहने पर आँख-कान मूँद कर राक्षस ही मान लें और उनकी नृशंस हत्या पर भी मुदित हों, ताली बजायें। किंतु दिक्कत यह है कि हमारे सिरमौर कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु भी इस कथा में वर्णित घृणित नरसंहार को ढकने के लिए गढे गए इस दानवीकरण को डिकोड नहीं कर पाते हैं।


जबकि इस कथा में दंता सरदार के उपनाम ‘सरदार’ तथा उनका राज्य, दंतागढ़ पर ध्यान देने से ही कई बातें स्पष्ट हो जाती है। ‘सरदार’ उपनाम भूमिज, हो, पहाड़िया आदिवासी समुदायों में रहा है।

 


 


मोरंग क्षेत्र में आदिवासी राजवंश


वैसे भी हम सब इस तथ्य से परिचित हैं कि नेपाल की तराई क्षेत्र का विस्तार कभी पूर्णिया जिले के बड़े हिस्से तक रहा है जो मोरंग कहलाता था जो कई आदिवासी समुदायों का निवास स्थल रहा है। समाजशास्त्री प्रो० हेतुकर झा के अनुसार, “इस इलाके का नाम लिम्बू आदिवासी राजा मावरोंग मूंग हांग के नाम पर पड़ा था जिन्होंने 7वीं सदी के प्रारंभ में मोरंग राजवंश की स्थापना की थी। उसके बाद इंग राजवंश, सेन राजवंश और खेबाङ राजवंशों ने 1774 तक शासन किया। तत्पश्चात् गोरखा राजवंश के राजा पृथ्वी नारायण शाह ने इस तराई इलाके को जिसकी चौहद्दी पूर्व में कोशी नदी और पश्चिम में मावा नदी तक थी, विजित कर नेपाल के अपने राज्य क्षेत्र में सम्मिलित कर लिया। (झा, हेतुकर: पेपर्स ऑफ डब्ल्य. जी. आर्चर : अन अकाउंट ऑफ मुसहर मूवमेंट ..............ए इन्ट्रोडक्शन, पृष्ठ-13) 

 
आज भी इस क्षेत्र के आदिवासी समुदायों को सामूहिक रूप से ‘किरात’ कहकर पुकारा जाता है। इनमें से अधिकांश साइनो-तिब्बतन भाषा परिवार के सदस्य हैं जिनमें लिंबू, लेपचा, सुनुवार, याखा, राई, वहिंग, चामलिंग, कुलुंग आदि प्रमुख हैं।


वैसे कुमार सुरेश सिंह के चेरो राजवंश से संबंधित आलेख में हम यह देखते हैं क्षत्रियकरण की प्रक्रिया में चेरों शासक अपना संबंध च्यवन ऋषि से जोड़ते हैं और मोरंग क्षेत्र को ही अपना मूल स्थान मानते हैं। (इंडियन सोसाइटी: हिस्टोरिकल प्रोलोन्ग, “ए स्टडी इन स्टेट फाॅर्मेशन एमन्ग ट्राइब्ल कम्युनिटीज,/पृ. 318-319)



पहाड़िया राजा (सरदार) : कुछ ऐतिहासिक तथ्य


वैसे यह भौगोलिक और ऐतिहासिक तथ्य है कि पुराने पूर्णिया जिला जिसमें कटिहार भी अनुमंडल के तौर पर शामिल था, उसकी सीमा गंगा को छूती थी जिसके पार पहाड़िया लोगों का इलाका था। हो सकता है इस आख्यान के गढ़ने के काल तक पहाड़िया मोरंग क्षेत्र में भी रहते हो । बुकानन एवं ओल्डहम के दस्तावेजों के आधार पर सुख चंद्र झा ने अपनी पुस्तक ‘रूलिंग डायनेस्टी ऑफ झारखंड’ के ‘पहाड़िया राज ऑफ संकरा’ में पहाड़िया राजवंश का विवरण दिया है। ध्यातव्य है कि फ्रांसिस बुकानन ने भागलपुर जिले का 1910-11 ईस्वी में सर्वेक्षण किया था और डब्लू. बी. ओल्डहम भागलपुर जिला के कलेक्टर हुआ करते थे। 1855-56 के संताल हूल के पूर्व तक आज के संताल परगना का अधिकांश क्षेत्र भागलपुर जिले का ही हिस्सा था। सुख चंद्र झा के शब्दों में, “बुकानन यह सूचित करते हैं कि दनरपाल पहाड़िया, माल पहाड़िया समुदाय में एक शासक वर्ग की तरह थे। वे राजा थे और अपने को ‘सिंह’ कहते थे और अन्य पहाड़ियों की बेटियों से शादी नहीं करते थे। ऐसा लगता है कि बीरभूम के हिन्दुओं के सामीप्य/सान्निध्य के कारण उन्होंने वहाँ से कई परम्पराओं को अंगीकार किया और अपने प्रधान को ‘सरदार’ या ‘राजा’ की उपाधि दी। बुकानन यह भी सूचित करते हैं कि ‘कुमारपाल’ सम्भवतः पहाड़िया समुदाय के प्रथम राजा के भाई के वंशज थे। यहाँ ‘कुमारपाल’ की हिन्दू राजाओं के छोटे भाइयों ‘कुँवर’ या ‘कुमार’ से समतुल्यता या सदृश्यता देखी जा सकती है। ‘संकरा’ के पहाड़िया शासक के सदस्य अपने को कुमार भाग पहाड़िया कहते थे और अपने को दुमका अनुमंडल (उस वक्त वीरभूम जिले का हिस्सा) के माल पहाड़िया समुदाय से सम्बद्ध मानते थे जिनके यहाँ उनके कई वैवाहिक आदि सम्बन्ध थे।

 


फ्रांसिस बुकानन और डब्लू. बी. ओल्डहम की सूचनाओं के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि माल पहाड़िया प्रधान (जो दनरपाल कहलाते थे) की एक लघु शाखा के वंशजों ने समयावधि में अपना नियंत्रण सुल्तानबाद के उत्तर के पहाड़ी क्षेत्रों, यथा; संकरा पहाड़ी, दीघी पहाड़ी, पुन्सिया पहाड़ी और सिंघिन पहाड़ी पर कायम कर लिया। वे वहाँ ‘प्रधान’ की तरह स्थापित हो गए और अपने को ‘कुमारपाल’ या ‘राजकुमार वंश’ कहा और अपना उपनाम ‘सिंह’ या ‘राय’ रखा।

 


बुकानन ने यह पाया कि पहाड़िया प्रधान काफी शक्तिशाली थे। वे गाँवों में ग्राम-प्रधान ‘माँझी’ को मनोनीत करते। हालांकि यह गाँव के विशिष्ट परिवारों के सदस्यों में से ही मनोनीत होते किन्तु उन्हें पदावनत करने हेतु सम्पूर्ण ग्राम से सर्वसम्मति से सहमति प्राप्त की जाती। पहाड़िया सरदार/राजा अपनी सैन्य टुकड़ियों को अनुशासित रखने के लिए फौजदार की नियुक्ति करते जो उनके प्रसादपर्यन्त अपने पद पर बने रहते। उन्होंने अपने दीवान की भी नियुक्ति की। रैयत अपनी फसल का एक हिस्सा, बकरा, मधु और रस्सी का बंडल शुल्क के रूप में ‘माँझी’ को सौंपते जिनका एक हिस्सा राजा तक पहुँचाया जाता। कालावधि में बीरभूम के राजा असद-उल-जमाँ (1751-1777) ने कुमारपाल वंश के राजा जय सिंह को संकरा राज, लखीराजी अधिकार दान के रूप में सौंप दिया। इस संरक्षण से पहाड़िया राजा जय सिंह काफी शक्तिशाली हो गया। यह अधिकार दान प्रदान करने की घटना 1751-65 के मध्य घटित हुई होगी क्योंकि राजा असद-उल-जमां को बीरभूम की गद्दी 1751 ईस्वी में प्राप्त हुई थी। हालांकि इस लखीराज दान प्राप्त करने के बाद राजा जय सिंह की हैसियत पहाड़िया राजा/सरदार से बीरभूम के राजा के ताल्लुकदार का हो गया।” (रूलिंग डायनेस्टि आफ झारखंड/पृ. 268-269)
 

 

इस ऐतिहासिक उद्धरण से यह स्पष्ट है कि यथार्थ में दंता सरदार पहाड़िया या अन्य किसी आदिवासी समुदाय का प्रधान या किसी जमींदारी या राज्य का राजा रहा होगा। लेकिन जब हमारा मानस एक बार अनुकूलित हो जाता है तो उसे आदिवासियों और राकस में फर्क महसूस नहीं होता। इसलिए हमारी संवेदना को उनके प्रति की गई कोई अन्याय पूर्ण घटना, नृशंस हत्या या नरसंहार प्रभावित नहीं कर पाते। नतीजन जिस कथाकार की संवेदना दंता सरदार और उसके एक हजार साथियों के जिंदा जलाए जाने की कथा रूप में वर्णित घटना से द्रवित नहीं होती हो, उसे 22 नवंबर, 1971 के चंदवा-रूपसपुर नरसंहार में दिन के उजाले में गोली मार कर या जिंदा जला दिए गए संतालो की लाशों से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। उसके आलेखों या टिप्पणियों में भी चंदवा-रूपसपुर नरसंहार के उल्लेख नहीं मिलते। दिक्कत यह है की आदिवासियों को ‘अन्य’ या ‘हम’ से भिन्न कोई कमतर इंसान मानने के पूर्वग्रह की जड़ें इतनी गहरी हैं कि रेणु के बाद भी कम से कम दो दर्जन बड़े साहित्यकार इस क्षेत्र से निकल कर हिंदी साहित्य में स्थापित हुए। चाहे वे पुरखे/वरिष्ठ साहित्यकार मधुकर गंगाधर या चंद्र किशोर जायसवाल या रामधारी सिंह दिवाकर हों या दिल्ली-पटना जैसी राजधानियों में बसे हुए सम्मानीय कथाकार, कवि, पत्रकारगण किन्हीं  की लेखनी ने आज तक पूर्णिया में हुए इन आदिवासी बटाईदार किसानों के संघर्ष और परिणामस्वरूप सामंती ताकतों द्वारा बार-बार किए गए नरसंहारों  पर लेखनी चलाने की तकलीफ नहीं की है।

 


यह अलग बात है कि साहित्यकार के रूप में थोड़े कम किन्तु जसम के साथी के रूप में ज्यादा प्रसिद्ध सुरेंद्र स्निग्ध के उपन्यास ‘छाड़न’ में चंदवा -रूपसपुर का नरसंहार अपनी व्यापक पृष्ठभूमि और बीभत्स स्वरूप के साथ प्रस्तुत हुआ है किंतु संताल बटाईदारी आंदोलन के कर्ता-धर्ता दुल्ला टुड्डु  और  धतूरानंद चौधरी यहां भी अनुपस्थित हैं। 

 


 



समाजशास्त्रीय अध्ययन में आदिवासी किसानों की अनुपस्थिति


अगर केवल साहित्यिक रचनाओं में पूर्णिया के आदिवासी बटाईदारों के संघर्ष और उनकी शहादतों की उपेक्षा होती और कृषि आंदोलन के समाजशास्त्रीय पुस्तकों या जातीय नरसंहारों से जुड़ी राजनीतिक पुस्तकों में उनके संघर्ष, उनके नरसंहार-उनकी हत्याएं दर्ज होती तो पीड़ा कुछ कम हो गई होती। किंतु हम देखते हैं कि चाहे, आर. देसाई (एग्ररियन स्ट्रगल इन इन्डिया आफ्टर इन्डिपेन्डेन्स) हों या फिर अरविंद एन. दास (एग्ररियन मूवमेन्टस इन इन्डिया : स्टडीज आन ट्वीटिन्थ सेन्चुरी बिहार) दोनों की कृषि आंदोलन से संबंधित पुस्तकों में आदिवासी बटाइदारी के आंदोलन दिखाई नहीं पड़ते। उसी प्रकार बिहार के राजनीतिक-सामाजिक हलचलों से जुड़ी पुस्तकों यथाः बिहार में सामाजिक परिवर्तन कुछ आयाम (प्रसन्न कुमार चौधरी, श्रीकांत), बिहार में निजी सेनाओं का उद्भव और विकास (कुमार नरेंद्र सिंह), बिहार के धधकते खेत -खलिहान की दास्तान (सी.पी.आई.एम.एल. का दस्तावेज), हिंसा का लावा (उदयन शर्मा), बिहार का सच (उर्मिलेश) आदि में भी मुख्य रूप से मध्य बिहार के संघर्ष-आंदोलन-शहादतें छाईं हुईं हैं। यहाँ तक कि सहजानंद सरस्वती की किसान सभा की गतिविधियों से जुड़ी किताबों में भी मध्य बिहार के किसान आंदोलन की घटनाओं के ही विवरण हैं। आदिवासी बटाईदारों - किसानों के आंदोलन की चर्चा वहां भी नहीं मिलती जबकि हम इस तथ्य से परिचित हैं कि संताल शिक्षक दुल्ला टूड्डू एवं उनके साथी धतूरानंद चौधरी के नेतृत्व में चल रहे आदिवासी बटाईदारों के आंदोलन को समर्थन देने सहजानंद सरस्वती ने 1 फरवरी 1936 फिर मार्च 1938 में पूर्णिया के धमदाहा की यात्रा की थी। उसी क्रम में बनमनखी में सहजानन्द सरस्वती एवं जयप्रकाश नारायण की जमींदारी उन्मूलन के सवाल पर एक बड़ी सभा भी संपन्न हुई थी। लेकिन राजधानियों में बैठे लेखकों को इन आदिवासियों के आंदोलनों को रेखांकित करना उचित नहीं लगा।

 

जीतू संताल की शहादत
 

अगर इतिहासकार तनिका सरकार ने निम्न वर्गीय/सबाल्टर्न इतिहास लेखन के तहत मालदा के 1924 से 1932 तक चले जीतू संताल के आंदोलन का जिक्र न किया होता तो यह बटाईदारी आंदोलन भी समय के अंधेरे में कहीं गुम गया होता। सबाल्टर्न स्टडीज के खंड-4 में शामिल अपने आलेख ‘जीतू संताल’स् मूवमेंट इन मालदा, 1924-1932: ए स्टडी इन ट्राइबल प्रोटेस्ट’ में तनिका सरकार हमें बताती हैं कि 1855-56 के संताल हूल के बाद जब ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने उसे कुचलने के लिए मार्शल लॉ लागू किया तो संताल परगना से संताल परिवारों ने गंगा नदी पार कर मालदा जिले में आ कर आश्रय लिया। उन्होंने जंगल और झाड़ को साफ कर के खेती प्रारंभ की किंतु मालगुजारी वसूली के एजेंट के तौर पर पधारे दिक्कुओं ने धीरे-धीरे उन्हें जमीन मालिक से बटाईदार बना दिया। फिर संताल किसानों को यह लगा कि धीरे-धीरे बटाईदारी के हक से भी उन्हें बेदखल किया जा रहा है। ऐसे में संताल किसानों-बटाईदारों को मालदा जिले के कोचा कांदर गाँव के जीतू संताल का नेतृत्व मिला। जीतू संताल स्थानीय स्वराजवादी नेताओं के संपर्क में था। मालदा के बगल के जिले दिनाजपुर के काशीश्वर चक्रवर्ती स्वराजवादी थे और सन्यासी बाबा के नाम से लोकप्रिय थे। उन्होंने जीतू संताल को अपना स्थानीय प्रतिनिधि बना रखा था। संताल समुदाय की पीड़ा और स्वराजवादियों के समर्थन को आधार बना कर जीतू संताल और साथियों ने बटाईदारी और किसानी के अधिकारों  के लिए आंदोलन की शुरुआत की। उनकी गिरफ्तारियों से भी आंदोलन रुका नहीं। तनिका सरकार यह बतलाती हैं कि स्वराजवादियों के कारण बंगाली भद्रलोक की भी सहानुभूति जीतू संताल एवं उसके साथियों के आंदोलन के साथ थी। सुश्री सरकार के शब्दों में, “जब जीतू और कुछ साथी 1928 ईस्वी में फसल लूट के आरोप में गिरफ्तार हुए तो उस आनन्द बाजार पत्रिका (एक राष्ट्रवादी क्षेत्रीय दैनिक) ने, जिसने राज्य में चल रहे अनगिनत कृषक आन्दोलन की अनदेखी की थी, थोड़े रोष के साथ टिप्पणी कि, शहर में प्रबल उत्तेजना फैल गई है क्योंकि आम जन इस गिरफ्तारी के कारणों से अपरिचित हैं। यहाँ आगे यह विवरण है कि चूँकि ये गिरफ्तार संताल हिन्दू धर्म मानने वाले संताल हैं ....... इसलिए जनता तभी संतुष्ट होगी जब पदाधिकारी इस गिरफ्तारी के कारणों को अभिव्यक्त करें।” (जीतू संताल‘स मूवमेन्ट इन मालदा, पृ. 139)


 

हालांकि इस आंदोलन का भी हश्र वही होता है जो सारे निम्न वर्गीय आंदोलनों का होता रहा है। 16 दिसंबर 1932 के द स्टेट्समैन अखबार के समाचार के हवाले तनिका सरकार हमें बताती हैं कि किस प्रकार जीतू और उसके साथियों को गोलियों से भून दिया गया। सुश्री सरकार के शब्दों में, “3 दिसम्बर 1932 को जीतू ने अपना अन्तिम युद्ध लड़ा। 1926 से प्रारम्भ अपनी लड़ाई से सम्बद्ध अपने संताल साथियों की बड़ी टुकड़ी के साथ उसने ऐतिहासिक नगर पंडुआ की यात्रा की। वहाँ उन लोगों ने एक भग्न मस्जिद में आश्रय लिया। जीतू, जो अपने को गांधी कहता था, उसने ब्रिटिश राज के अन्त और अपनी सरकार उसके प्रारम्भ की मस्जिद से घोषणा की। जब मस्जिद को घेरे हुए ब्रिटिश सशस्त्र बल के कहने पर जीतू और उसके साथियों ने बाहर आने से इन्कार कर दिया तो फायरिंग प्रारम्भ कर दी गई। जीतू अपने साथियों के साथ उस युद्ध में कूद पड़ा। नतीजन जीतू सहित तीन संताल शहीद हुए जबकि एक कान्स्टेबल की मृत्यु जहरबुझे तीर से हुई।” (जीतू संताल‘स मूवमेन्ट इन मालदा, पृ. 138)

 


 



सैनी मुसहर और संत-सती के आन्दोलनों से हमारा अपरिचय


पूर्णिया जिले के गजेटियर और समाजशास्त्री आनंद चक्रवर्ती, क्रिस्टोफर वी. हिल, स्टीफन हेनिंघम के 80 के दशक में इकोनामिक एंड पॉलीटिकल वीकली में छपे शोध आलेखों से हम इस तथ्य से परिचित होते हैं कि कोसी नदी के पश्चिम की ओर खिसकते जाने के कारण जो जमीन उसकी पेटी से निकली उसे कृषि योग्य बनाने के लिए संथाल, मुसहर और गंगोता लोगों को वहां बसाया गया। कथा गायक रेणु ने कम-से-कम ‘मैला आंचल’ में संतालों और उनके संघर्षों की थोड़ी सुध ली है। किंतु किसी साहित्यकार या समाजशास्त्री ने लगभग उसी कालावधि (1936-38) में चल रहे मुसहरों के आंदोलन की कोई खोज खबर नहीं ली। अगर इकोनोमिक एंड पॉलीटिकल वीकली के 4 जुलाई 1981 के अंक में स्टीफन हेनिंघम का शोध आलेख ‘ऑटोनॉमी एंड ऑर्गेनाइजेशन: हरिजन एंड आदिवासी प्रोटेस्ट मूवमेंट्स’ प्रकाशित नहीं हुआ होता तो ‘संत और सती’ के नेतृत्व में चले मुसहरों का नील के कारखानों में मजदूरी-वृद्धि के आंदोलन से हम परिचित भी नहीं हुए होते। प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत की प्रसिद्ध पुस्तक “स्वर्ग पर धावा बिहार में दलित आंदोलन 1912-2000” के अध्याय पाँच में “संत और सती: उत्तर बिहार का  मुसहर आंदोलन,  1936- 38” में वर्णित तथ्य हेनिन्घम के उसी आलेख से लिए गए हैं। लेकिन हेतुकर झा के संपादन में प्रकाशित “पेपर्स ऑफ डब्लू. जी. आर्चर: एन अकाउंट ऑफ मुसहर मूवमेंट इन नॉर्थ बिहार बिफोर इंडिपेंडेंस” से यह पता चलता है कि ‘संत और सती’ के नेतृत्व में आंदोलन शुरू होने के पहले ही सैनी मुसहर के नेतृत्व में एक धार्मिक आंदोलन उस समुदाय में प्रारम्भ हुआ था। 1938 में पूर्णिया जिला के कलेक्टर रहे डब्लू. जी. आर्चर के दस्तावेजों से यह पता चलता है कि सैनी मुसहर और उनके समर्थकों के धार्मिक आंदोलन को किस प्रकार षडयंत्रपूर्वक अपराधिक जाति के डकैती के अभियान में एक थाना प्रभारी द्वारा बदल दिया गया। हालांकि हेतुकर झा अपनी संपादित पुस्तक की भूमिका में ‘सैनी मुसहर के आंदोलन’ को प्रकाश में लाने का श्रेय सुश्री वेंडी सिंगर को देते हैं जिन्होंने 1997 प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘क्रिएटिंग हिस्ट्रीज, ओरल नरेटिव्स एंड पॉलिटिक्स ऑफ हिस्ट्री मेकिंग’ में सैनी मुसहर के धार्मिक आंदोलन और रामानंदन मिश्र के खादी आंदोलन की तुलनात्मक वर्णन किया है। हेतुकर झा के शब्दों में, “वेंडी सिंगर यह वर्णित करती है सैनी किस प्रकार अपने देवताओं (मुसहरों के) दीना और भद्री से प्रकट हुए निर्देशों का पालन और प्रचार-प्रसार करते धार्मिक नेता के रूप में मान्य हो गया। उसकी धार्मिक गतिविधियों और मझौलिया (दरभंगा) के आश्रमवासियों की बैठक में निर्धारित गतिविधियों में समरूपता देखी जा सकती थी। साथ ही खादी-आन्दोलन के कार्यक्रमों के अनुकरण की छाप भी सैनी मुसहर के आन्दोलन पर रेखांकित की जा सकती है। अतएव, यह वेंडी सिंगर ही थीं जिन्होंने सैनी मुसहर के आन्दोलन को प्रकाश में लाया।” (झा, हेतुकर, पेपर्स ऑफ डब्लू. जी. आर्चर/पृष्ठ 17)


 

नेपाल तराई के निवासी संत दास भगत और उनकी पत्नी बेलसंड थाना अंतर्गत कोटा गांव के मुनर मुसहर की बेटी कमलावती (जो अपने समर्थकों के द्वारा सती जी पुकारी गई) के नेतृत्व में अप्रैल-मई 1936 से अक्टूबर 1937 तक चलने वाले नील के कारखानों में मजदूरी बढ़ाने का आंदोलन संचालित हुआ। प्रारंभ में हरिसिंहपुर की नील कोठी के अंतिम यूरोपियन प्लांटर ने उनकी मांगे मान ली। किंतु यह जब आंदोलन बाबू रामाश्रय प्रसाद चौधरी जैसे स्थानीय जमींदारों कि नील फैक्ट्री तक पहुंचा तो किस प्रकार इन जमींदारों ने पुलिस प्रशासन के सहयोग से मुसहरों के शांतिपूर्ण आंदोलन को बर्बरतापूर्वक कुचल डाला यह एक अत्यंत त्रासदी पूर्ण आख्यान है।



आखिर क्यों संताल शिक्षक, नेतृत्वकर्ता दुल्ला टुड्डु, सैनी मुसहर और संत-सती किसी भी साहित्यिक रचनाओं में स्थान नहीं  बना पाते? यह एक यक्ष प्रश्न है जो सदियों से उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है। मुझे वही अन्यत्व की सैद्धांतिक ही समझ में आती है। बिहार का वर्चस्वशाली तबका आज भी आदिवासियों और  मुसहरों को गैर, अन्य और कमतर मान रहा है।
 

 

झारखंड-कैमूर के पहाड़ी क्षेत्रों में घटवार-टिकैत की भूमिका निभाने वाला मुसहर समुदाय धान के खेतों के आकर्षण में 12वीं सदी में मैदानी इलाके में उतरा। तब से बिहार-उत्तर प्रदेश के भू-पतियों की बंधुआगिरी कर रहे मुसहरों को मूलतः अपराधी (चोर) मानने का पूर्वाग्रह इन इलाकों के लोगों के मानस में जड़ जमाये हुए है। इनकी घुमन्तू प्रवृत्ति के कारण अंग्रेज बहादुरों ने ही इन्हें अपराधिक जनजाति के रूप में चिन्हित किया था। हेतुकर झा के शब्दों में, “मुसहरों को अपराधिक जनजातियों की सूची में 1871 ईस्वी में सम्मिलित किया गया। मीना राधाकृष्ण के अनुसार, दी सीटीए (क्रिमनल ट्राइब्स एक्ट, 1871) 1911 से प्रभावी हुआ................. कतिपय आदिवासी समुदायों की ‘घुमन्तु प्रवृति’ के तथ्य को उनके अपराधी होने के प्रमाण के रूप में स्वीकृत किया गया।” (झा, हेतुकर: डब्लू. जी. आर्चर पेपर्स/पृ. 10)


 

कुमार सुरेश सिंह, हेतुकर झा और बद्री नारायण की माने तो मुसहरों  का मूल भी आदिवासी समुदाय से जुड़ता है। संजय कुमार और हेमंत जोशी द्वारा संपादित पुस्तक  ‘असर्टिंग वॉइसेस, चेंजिंग कल्चर, आईडेंटिटी एंड लाइवलीहुड ऑफ दी मुसहर इन द गंगेटिक प्लेंस’ में प्रकाशित अपने आलेख ‘मुसहर कम्युनिटी, कॉन्टेक्स्ट एंड इक्वलिटी’ में कुमार सुरेश सिंह मुसहर समुदाय को द्रविड़ भाषा-भाषी परिवार का मानते हैं और उनके कई गुणों यथा भोजन संग्रहण, शिकार करना, भविष्य के लिए एकत्रीकरण करना आदि के कारण उन्हें मूलतः आदिवासी मानते हैं। डॉ कुमार सुरेश सिंह के शब्दों में, “इस विशिष्ट सन्दर्भ में मुसहर एक महत्वपूर्ण समुदाय है। उनकी जनसंख्या मुख्य रूप से मध्य बिहार में झारखंड और कैमूर की पहाड़ियों के निकटवर्ती जिलों में केन्द्रित है। स्वाभाविक रूप से मुसहर समुदाय के कई गुण/फीचर आदिवासी समुदायों से समतुल्य जान पड़ते हैं। आदिवासी समुदायों की तरह ये भी भोजन-संग्रहक हैं। वे आज भी संग्रहण करते हैं। वे शिकारी भी हैं और आज भी शिकार करते हैं, जंगली-पशुओं को पालतु बनाने के क्रम में वे आज भी सुअरों को पालते हैं। उनमें संग्रहण की प्रवृति नहीं है। ये ऐसे तथ्य या तत्व हैं जो इनका सम्बन्ध/मूल आदिवासी समुदाय से जोड़ते हैं। किसी काल में यह समुदाय झारखंड और उसके समीप के भू-भाग से मध्य बिहार और उत्तर बिहार तक फैल गया। उत्तर बिहार में मुसहरों को धांगड़ भी कहते हैं जो कि एक द्रविड़ भाषा-भाषी परिवार की कुडु़ख भाषा बोलने वाला समुदाय है। वे वहाँ से नेपाल की तराई तक फैल गए। बंगाल, त्रिपुरा और मिर्जापुर मुसहर समुदाय पर कई अध्ययन हुए हैं। बंगाल और त्रिपुरा में रहने वाले मुसहर बिहार से वहाँ गए हैं इसलिए वे वहाँ हिन्दी बोलते हैं और मजदूरी से जैसे-तैसे जीवन निर्वहन करते हैं। लेकिन मिर्जापुर के मुसहर एक अलग समुदाय हैं। स्थानीय भाषा में उन्हें ‘वनमानुष’ कहा जाता है यानी वनों के निवासी। यह ऐसा आदिवासी समुदाय है जो कभी शिकार करता रहा था और जंगल से फल-फूल संग्रहित करता था। वे आज भी मधु-संग्रहण करते हैं और मुसहर समुदाय पहाड़ से कभी पहाड़ों से उतर कर बिहार के कृषि-मैदानों में पहुँचा जहाँ वे मजदूर बन गए। उन्होंने भूमि या अन्य संसाधनों पर कोई दावा नहीं किया। इसलिए या भूमिहीन समुदाय ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा बन गई।” (एर्सेटिंग वायसेज/पृ. 139)


प्रो. हेतुकर झा रिजले के सन्दर्भ से मुसहरों को भूईयाँ द्रविड़ आदिवासी समुदाय का घोषित करते हैं, यथा; “रिजले मुसहर को बिहार का द्रविड़ समुदाय का कृषक-श्रमिक समुदाय मानते हैं जो छोटानागपुर के भुईंया समुदाय की ही एक उपशाखा है जो यहाँ आ कर अपने से शक्तिशाली समुदायों की अधीनस्थ हो गई जबकि इन्हीं र्भुइंया समुदाय की एक उपशाखा जो उड़ीसा की ओर गई वहाँ कुशल सैनिक के रूप में मान्य हुई। बिहार में भुईंया समुदाय की इस उपशाखा ने हल न छूने वाले सवर्ण हिन्दू मालिकों के खेतों में भूमिहीन मजदूर की तरह काम किया। इनके मालिकों ने इनके गैर आर्य गुणों यथा खेतों के चूहों को भोजन के रूप में ग्रहण करते देख ‘मुसहर’ नाम दिया। भोजन की अपवित्रता को मुख्य रूप से ध्यान में रखते हुए अस्पृश्य तबके में इनका स्थान निर्धारित किया।” (झा, हेतुकरः पेपर्स आफ डब्ल. जी. आर्चर पृ 11)


बद्री नारायण मुसहरों की मिथ कथा के आधार पर उनका मूल चेरों आदिवासी राजवंश से जोड़ते हैं। (बद्री नारायणः  मिथ, कल्चर एंड डेमोक्रेसीः द मार्जिन लाइन्ड सेल्फ/पृ. 64-65)
 

तात्पर्य यह कि आदिवासी मूल के समुदाय की शिकार की प्रवृति को चूहा मारने तक सीमित कर ‘मुसहर’ नाम देने और जंगली पशुओं के घरेलु बनाने की प्रवृति को सुअर पालने तक न्यून कर ‘अन्य’ से घृणा करने के आधार को मजबूती प्रदान की गई। बिहार-उत्तर प्रदेश का समाज इनके घुमन्तुपन को आज भी अपराधी-प्रवृति से जोड़ता है। इस प्रकार इन समुदायों से दुर्भाव और घृणा बदस्तुर जारी है।

 


 


अदृश्यीकरण (अनदेखी) की अबाध परम्परा
 

साहित्यिक और सरकारी दस्तावेजों में इन आदिवासियों, दलितों के आंदोलनों और उनकी शहादतों को अदृश्य रखने में अद्भुत समानता देखी जा सकती है। जैसा कि मैंने अपने पूर्व के आलेख (रेणु के कथागायन का सौन्दर्य और सीमाएँः आलोचना, जनवरी-मार्च, 2021) में भी इस बात का उल्लेख किया है कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की अगस्त क्रांति में पूर्णिया जिले के विभिन्न थानों में संताल किसानों ने बढ़ चढ़ कर भूमिका निभाई। बड़ी संख्या में शहादतें भी दी। किंतु आजादी के बाद बनी शहीदों की सूचियों में उनका नाम अनुपस्थित था। हालांकि कथागायक फणीश्वरनाथ रेणु ने इसी अगस्त क्रान्ति के दौरान कटिहार सदर थाने पर तिरंगा फहराने में शहीद हुए बंगाली किशोर ध्रुव कुण्डू की शहादत की स्मृति में ‘कितने चौराहे’ उपन्यास की रचना करते हैं किन्तु अनदेखे रह गए उसी अगस्त क्रान्ति के संताल शहीदों की याद कोई रचना कब आयेगी, उसकी प्रतीक्षा है। अनदेखेपन की यही स्थिति हम 1857 की क्रांति में शहीद हुए दलितों और अन्य श्रमजीवी वर्गों के शहीदों के संदर्भ में देख सकते हैं। बद्री नारायण की पुस्तक दलित वीरांगना एवं मुक्ति की चाह से हमें यह पता लगता है कि बहुजन आंदोलन ने अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति में किस प्रकार दलित नायक नायिकाओं यथा बल्लू राम मेहतर, उदया पासी, चेतराम जाटव, बांके चमार, गंगा बख्श, वीरा पासी, मक्का पासी, मातादीन भंगी, झलकारी बाई, उदा देवी, अवंती बाई, पन्नाधाय, महावीरी देवी आदि की भूमिका को रेखांकित किया। उसी प्रकार चैरा चैरी कांड में शामिल रहे दलित और श्रमजीवी वर्ग के शहीदों के नाम को  धुंधला करने की कोशिश रही है जो अभी भी बंद नहीं हुई हैं। श्रमजीवी समुदाय को कमतर इंसान, या अनदेखा किए जाने लायक एक अदृश्य अस्मिता मानने की परम्परा का नैरंतर्य अबाधित रहा है। जनतांत्रिक मूल्य, समतावादी बोध हमारे सामंती मूल्यों को प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। यह केवल राजनीतिक सत्ता द्वारा उपेक्षा किए जाने भर का मामला नहीं है। समाज का मानस भी वही है। अगर हमारे नगरों-महानगरों में सारे मेहनत के काम कुशलतापूर्वक अंजाम देने वाले चार करोड़ श्रमशील नागरिक मार्च 2020 में लॉक डाउन की घोषणा के पहले सत्ता प्रतिष्ठान के ध्यान में नहीं आये तो यह आश्चर्य करने वाली कोई बात ही नहीं थी। क्योंकि शहरी समाज अपने दूधवाले, सब्जी वाले, धोबी, आया, गार्ड, रिक्शा वाले-ड्राईवर आदि से व्यक्तिगत रूप से परिचित नहीं था और वैश्विक महामारी की त्रासदी के बाद भी नहीं है। वह उनके सुख-दुख का भागीदार बनने के मानस में नहीं है। नतीजन नगरों-महानगरों से इन श्रम वीरों का पलायन की त्रासदी देश के विभाजन के बाद की त्रासदी से बड़ी बनी। रेलवे लाइनों पर या पुलिस से बचते हुए कच्ची सड़कों पर हजार हजार किलोमीटर चलते हुए, जो हमारी नजरों में कमतर इन्सान या अदृश्य लोग शहीद हुए न जाने कब किस सरकारी दस्तावेज या साहित्यिक दस्तावेज में उन्हें जगह मिल पाएगी।


 
सन्दर्भ ग्रन्थ-आलेख सूची


1. रेणु, फणीश्वर नाथ ः  परती परिकथा: राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.


2. रेणु, फणीश्वरनाथ ः तदैव


3. अमीन, शाहीद, पाण्डेय, ज्ञानेन्द्र ः निम्नवर्गीय प्रसंग, भाग-1, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. 1995


4. रेणु, फणीश्वर नाथ ः परती परिकथा: राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.


5. झा, हेतुकर ः पेपर्स आफ डब्लू. जी. आर्चर : एन एकाउन्ट आफ मुसहर मूवमेन्ट इन नाॅर्थ बिहार बिफोर इन्डीपेन्डेन्स : महाराजधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन दरभंगा।


6. सिंह, कुमार सुरेश : इंडियन सोसाइटी: हिस्टोरिकल प्रोलोन्ग, “ए स्टडी इन स्टेट फाॅर्मेशन एमन्ग ट्राइब्ल कम्युनिटीज।


7. झा, सुखचन्द्र ः रूलिंग डायनेस्टिज आफ झारखण्ड एंड देयर इन्टर एंड इन्टरा-डायनेस्टिक रिलेशन्स: अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली।


8. सरकार, तनिका ः जीतू संताल‘स मुवमेन्ट इन मालदा 1924-32: ए स्टडी इन ट्राइब्ल प्रोटेस्ट: सबाल्र्टन स्रडीज प्ट आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस


9. सरकार, तनिका ः तदैव


10. झा, हेतुकर  ः पेपर्स आफ डब्लू. जी. आर्चर: एन एकाउन्ट आफ मुसहर मुवमेन्ट इन नाॅर्थ बिहार बिफोर इन्डीपेन्डेन्स: महाराजधिराज कामेष्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन दरभंगा


11. झा, हेतुकर ः तदैव


12. सिंह, कुमार सुरेश ः मुसहर: कम्युनिटी  कॅान्टेक्स एंड इक्वलिटी, इन: एसर्टिंग वाॅयसेज: चेंजिग कल्चर, आरडेन्टिटी एंड लाइवलीहुड आफ दी मुसहर इन दी गेंगेटिक ब्लेन्स, एडी. संजय कुमार एंड हेमन्त जोषी: देषकाल: नई दिल्ली, 2002


13. झा, हेतुकर ः पेपर्स आफ डब्लू. जी. आर्चर: एन एकाउन्ट आफ मुसहर मुवमेन्ट इन नाॅर्थ बिहार बिफोर इन्डीपेन्डेन्स: महाराजधिराज कामेष्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन दरभंगा


14. बद्री नारायण ः मिथ, कल्चर एंड डेमोक्रेसीः द मार्जिन लाइन्ड सेल्फ

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।) 




                   

सम्पर्क

 

नारायण इन्क्लेव,

ब्लाक- ए, 2 सी, ‘घरौंदा

हरिहर सिंह रोड, मोराबादी,

राँची – 834008

(झारखण्ड)


मोबाईल : 9431114935


ई मेल : kumarranendra2009@gmail.com

                                 



टिप्पणियाँ

  1. डॉ कुमारी उर्वशी30 मई 2022 को 10:48 am बजे

    मैंने इस आलेख को 'आलोचना' में पढ़ा। बहुत शोध किया है लेखक ने। कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु की रचनाओं के बहाने से रणेंद्र जी ने उन सवालों को उठाया है जो आज तक कहीं दबे पड़े थे।

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  2. शोधपूर्ण आलेख . रणेंद्र जी ने रेणु के बहाने कई अछूते एवं विस्मृत कर दिए गए पहलुओं को उजागर किया है. बिहार के दलित आन्दोलन को रेखांकित करते इस महत्वपूर्ण आलेख के लिए धन्यवाद.

    जवाब देंहटाएं
  3. आलोचना में प्रकाशित रणेन्द्र जी के परती परिकथा के एक हिस्से के पाठ पर/

    परती परिकथा एक कालजयी क्लासिक रचना है और उस पर रणेन्द्र जी के कमेंट से लगता है एक साज़िश के तहत लेखन की स्थापित प्रतिमाओं रचनाओं पर कालिख पोतने की कोशिश वर्तमान हिंदी जगत के मुर्दा लेखन को camouflage करने के लिये हो रही है।
    आज साहित्य का मुख्य काम मौलिक क्रिएशन नहीं बल्कि धुर एक्टिविज्म हो गया है और जिसे समन्वय कारी होना चाहिए था वह विघटन की नई नई परतें खोल रहा है ।जाति ,धर्म,दलित,स्त्री, आदिवासी का विमर्श समाज में राजनीति और एक्टिविज्म तक के लिए तो ठीक था पर साहित्य में उसका कोई रोल न है न होना चाहिए।
    इस एक्टिविज्म से हिंदी मैं प्रतिभाविहीन औसत अमौलिक लेखकों की एक फौज खड़ी हो गई है जिसका मुख्य अस्त्र कुतर्क है।
    इसी फौज के एक सिपाही अगर परती परिकथा में नैसर्गिक रूप से गुंथी हुई लोक संस्कृति और स्मृतियों को ब्राह्मण ,दलित ,आदिवासी --- शोषकों और शोषितों में बांटकर उस अंचल के मीठेपन में कड़वाहट घोलने का प्रयत्न करते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं। सैकड़ों सालों से चली आ रही परम्परा, मिथकों, कहानियों को जो पूर्वजों द्वारा सौंपी गईं हैं झुठलाना वैसा ही है जैसे कोई अपने माँ बाप को बदल लें। ऐसा गैर ईमानदार विश्लेषण यह दिखाता है कि विचारधारा की लीक को पीटते हुए लेखक कितना दयनीय और हास्यास्पद हो सकता है।
    लोक परम्परा ,संस्कृति और मान्यताओं का मखौल उड़ा कर एक आयातित अपीरिक्षित विचारधारा को जबरन जनता के गले में ठूंसने के कारण देश में वाम दल राजनीतिक पटल से तो लुप्तप्राय हो चुके हैं।( यूँ भी पूरी दुनिया में वामपंथ कभी भी लोकतांत्रिक तरीके से न आया न आ सकता है। इसे जबरन ही थोपा गया है).
    अब इसी विचारधारा को लादकर फार्मूलाबद्ध लेखन करते जाना भले ही एक दूसरे की पीठ ठोक कर जुगाड़ से एक दो पुरुस्कार दिला दे अंततः हिंदी के बौद्धिक भी वाम दलों की तरह अप्रासंगिक होने की कगार पर हैं।कुछ ही समय में गायब होते लेखक होंगे।

    जवाब देंहटाएं

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