कैलाश बनवासी की कहानी 'उन आंखों में अब कोई सपना नहीं है'
कैलाश बनवासी |
आज की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य नौकरी
प्राप्त करना है। नौकरी दिलाने के लिए बड़े शहरों में कोचिंग सेंटर तमाम लुभावने दावे करते दिखाई पड़ते
हैं, जिस भ्रमजाल में चाहे-अनचाहे प्रतियोगी
छात्र फंस ही जाते हैं। एक दबाव हमेशा इन बच्चों के मानस पर रहता है कि किसी भी कीमत पर इन्हें सफलता प्राप्त करनी है। माँ पिता भी अपने इन
बच्चों से एक उम्मीद लगाए रहते हैं। ऐसे में यह अक्सर दिखाई पड़ता है कि दबाव का सामना न कर पाने वाले छात्र-छात्राएं आत्महत्या कर लेते हैं।
इसी को विषय बना कर कैलाश बनवासी ने एक कहानी लिखी है जो हमें सोचने के लिए विवश करती है कि हमारा अपने
बच्चों पर यह दबाव बनाना क्या उचित है। आखिर
हम अपने सपनों का बोझ अपनी पीढ़ियों पर क्यों डालना चाहते हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है कैलाश बनवासी
की कहानी 'उन आंखों में अब कोई सपना नहीं है'।
उन आँखों में अब कोई सपना नहीं है
कैलाश बनवासी
उस शाम स्कूल से लौटने के बाद, रोज़ की तरह पत्नी की बनाई अदरक वाली
काली चाय पी लेने के बाद, श्याम लाल सिन्हा
गुरू जी जिन्हें स्कूल में शार्ट में एस. एल. सिन्हा कहा
जाता है, ने जब बहुत एहतियात से बेटे अरुण को फोन लगाया तब उनका दिल बहुत ज़ोरों से
धड़क रहा था। उन्हें पता था, GATE का नतीजा आज निकला है। जिसे ले कर उन्हें
ऐसी गहरी जिज्ञासा थी मानो इसी पर उनका
भविष्य टिका हो। कि इस बार के ‘गेट’ में बेटे का
क्या हुआ? और इस बार यह अनुमान और उत्साह तो था ही कि ख़बर अच्छी मिलने वाली
है, कुछ आशंकाओं के बावजूद।
“पापा, इस बार भी मैं ‘गेट’ क्वालिफाई नहीं कर पाया... वेरी सॉरी
पापा...” अरुण कह रहा है।
पर सिन्हा जी को लगा, उधर से आवाज़ आनी सहसा बंद हो गई है, और उसकी जगह
घनी और कठोर चुप्पी की सिर्फ़ सनसनाहट उनके कानों में बज रही है... जैसे रात के
सन्नाटे में झिंगुरों की किर्र-किर्र... कि धीरे-धीरे वे डूबते जा रहे हैं... ठण्डे पानी के गहरे समुद्र में...।
बेटा जबकि आगे कह रहा है, “मेरे स्ट्रीम में कट-ऑफ 37.8 गया है और
मेरा 37.33 आया है... पता नहीं पापा, इतना कम कैसे हो गया... इतना कम एक्स्पेक्ट
तो मैंने भी नहीं किया था..। शायद कुछ क्वेश्चंस में गड़बड़ी हो गयी...”। दिल्ली से
आती बेटे की आवाज़ में एक थकान सी थी, जैसे इस सच को स्वीकार कर लिया हो। क्योंकि
इसके अलावा फ़िलहाल वह कर भी क्या सकता था।
पर सिन्हा गुरू जी अपने उत्साह के चरम के बावजूद जानते थे, यह परिणाम
इतना अप्रत्याशित भी नहीं है। कॉम्पीटीटीव एग्ज़ाम्स आज जिस कठिन रूप में है, उसे
‘क्रैक’ कर पाना बेहद मुश्किल हो गया है। उन्होंने ख़ुद पर संयम बरता, और इस बात का
सबसे ज़्यादा ध्यान रक्खा कि उनकी किसी बात से बच्चा ‘हर्ट’ न हो जाय...। वे अख़बार
नियमित रूप से पढ़ते हैं, दुनिया-जहान की ख़बर रखते हैं, जिससे उन्हें मालूम है कि इस बरस कोटा में या और कहीं,
दसियों होनहार किशोरों ने असफल होने पर आत्महत्या कर ली हैं...। कुछ इंजिनयरिंग
के, कुछ मेडिकल स्टूडेंट्स ने... इसलिए अरुण से वे सीधे-सीधे कुछ कह नहीं सकते थे।
उन्होंने सोचना चाहा, कि ऐसा केवल उन्हीं के साथ नहीं है, बल्कि बहुतों के साथ
है...। डेढ़-दो लाख में से बस कुछ हज़ार ही तो क्वालिफाई कर पाते हैं!... उसका
रिज़ल्ट आज ही आया है। फिर वह ख़ुद भी कम निराश नहीं होगा। मगर...
इस सच को बहुत मुश्किल से स्वीकारते हुए उन्होंने पूछा, “तू तो 55 के
आसपास एक्स्पेक्ट कर रहा था न..?”
“हाँ, इतना तो एटलिस्ट सोचा ही था, पापा। पर क्या कर सकता हूँ। अपनी
तरफ से कोशिश तो पूरी किया था।”
“और तेरे रूम-मेट का क्या हुआ, गौरव और सचिन...?”
“सचिन का रैंक अच्छा आया है--49, और गौरव का—249। पर गौरव कह रहा है
वो फिर से ट्राई करेगा। इतने कम रैंक में तो कहीं कोई पूछने वाला नहीं है... मैं
देखता हूँ पापा, घर आके जॉब के लिए ट्राई करूँगा..। CAT का भी फ़ार्म भर दूंगा, वो
नवम्बर में होता है, अगले साल ‘गेट’ का फिर भर दूंगा...क्या करूंगा? ‘डिप्रेस’ हो कर
बैठने से तो कुछ नहीं होगा। कोशिश तो किया था...” उसकी हताशा अब खीझ में बदल रही
थी।
उनके रूम-मेट के रिज़ल्ट जानकार वे और अपनी अन्यमनस्क हो गए थे, “ठीक
है। कल फिर बात करता हूँ.” कह कर उन्होंने फोन काट दिया।
उन्हें अभी भी ठीक-ठीक समझ नहीं आ रहा था कि बेटे के दूसरी बार की इस
असफलता को वे कैसे लें। लग रहा था, परीक्षा बेटे ने नहीं, उन्होंने दी है, और इस
समय वे अपने बेटे से भी ज्यादा निराश हैं, सचमुच। घर को कितनी उम्मीदें थीं, खुशियों
के कितने सारे सपने थे जो गाहे-बगाहे बीच-बीच में आसमान में बादलों की तरह उड़ने
लगते थे। बेटे के सुनहरे भविष्य का सपना पिछले कुछ सालों से चुपचाप उनके अंतस में
पलने लगा था। जैसे हर माँ-बाप अपने बच्चों को ले कर देखा करते हैं। यह दूर था, लेकिन
इतना भी नहीं कि पा न सको। क्योंकि बेटा शुरू से पढ़ाई में तेज़ रहा है। कि वह कोई
बड़ा अधिकारी होगा... किसी सरकारी या गैर सरकारी कम्पनी में..। और उसमें पद के
अनुरूप मिलने वाली तमाम सुख-सुविधाएं... यह स्वप्न चाहे-अनचाहे उनके सामने अक्सर
लहरा जाता था। क्योंकि बेटे की तैयारी को देखते हुए उन्हें पूरी उम्मीद थी...।
...पाँच साल पहले उन्होंने उसका एडमिशन दक्षिण के एक प्रतिष्ठित
प्राइवेट टेक्निकल यूनिवर्सिटी में कराया था। वहाँ की महंगी फीस के बावजूद ...उनके
रिटायरमेंट के तब छह साल बचे थे। वहाँ का
इन्ट्रेंस एग्ज़ाम अरुण ने अच्छे रैंक के साथ निकाला था। अरुण जो अब 22 का हो चुका
है, ने पिछले साल ही केमिकल इंजीनियरिंग में अपना बी.टेक. पूरा किया है। 9.1 ग्रेड
ले कर! यह विश्वविद्यालय इंजीनियरिंग कोर्सेज के लिए देश में प्रसिद्ध है, जिसकी
एकेडमिक लेवल पर टॉप टेन में गिनती होती है। इसी के साथ यहाँ का प्लेसमेंट रिकॉर्ड
भी 100% रहा है, जिसके चलते घर-बाहर सबको उम्मीद थी कि उसकी पढ़ाई पूरी होते न
होते, उसे किसी न किसी बढ़िया कम्पनी में जॉब मिल ही जायेगी। और अरुण भी तो अपनी
पूरी क्षमता से पढाई में लगा हुआ था। हर साल उसका स्कोर 9 पाइंट को छू रहा था। वह
अपनी क्लास में टॉप फाइव का रैंक मेंटेन कर रहा था। उसे भी उम्मीद थी कि उसके
अंतिम सैम के समय कोई न कोई प्रतिष्ठित कम्पनी उसे अपाइंट कर लेगी।
लेकिन यह सिर्फ कोरा अनुमान साबित हुआ। दुर्भाग्य से नोट-बंदी के चलते
उस साल युनिवर्सिटी में कोई ‘कैम्पस’ नहीं हुआ, जिसमें तमाम बड़ी-छोटी कम्पनियां
स्टूडेंट्स को अपने लिए सिलेक्ट करती हैं।
इस बीच देश के छोटे-मोटे उद्योग-धंधों की तो कौन कहे, बड़ी-बड़ी कम्पनियों की हालत
खराब हो चुकी थी। देश में मंदी का दौर आ गया था, जहां, नयी नौकरियों की तो छोड़ो,
जो नौकरियां थीं, उसमें छंटनी चालू हो गई थी। हर तिमाही में नौकरियों से हटाये
जाने वाले लोगों के आंकड़ों का ग्राफ चढ़ता ही जाता था। कभी चालीस हज़ार, कभी पचास
हज़ार। आई. टी. सेक्टर्स को सबसे ज़्यादा धक्का पहुंचा था। इस समय तक आते-आते
इंजीनियर्स के जॉब का जो बूम मार्केट में पाँच-सात सालों से पकड़ा था, सहसा वह से
नीचे आ गिरा था। ख़ुद उनके क्षेत्र भिलाई में, जिसे राज्य का एजुकेशन हब कहा जाता
है, जहां, देखते-ही-देखते धनपतियों, नेताओं, और बाज़ार-चतुर लोगों के पंद्रह-बीस
प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज धड़ाधड़ खुल चुके थे, सब इस मंदी से एकाएक गहरे संकट में
आ गए थे। जॉब नहीं होने के कारण इंजीनियरिंग की सीटें आधी से भी ज़्यादा खाली जा
रही हैं, उनके स्टूडेंट को दिए जाने वाले तमाम लालच और सुविधाओं के लटके-झटके दिए
जाने के बावजूद।
यहाँ बी. ई. का स्तर घट कर अब
जैसे हिंदी के बी. ए. के बराबर आ गया है। आसपास के कल-कारखानों में मामूली तनख्वाह पर काम
करना इन इंजीनियर्स की मजबूरी हो गई है।
ऐसे समय में उनके बेटे का बेहतर रैंक भी रोज़गार के लिहाज से कोई मदद
नहीं कर रहा था।
बी. टेक. पूरा
करने के बाद उसने कई जगह अप्लाई किया। कई जगह इंटरव्यू भी
दिया, लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी। घर में रह कर वह
नौकरियों के तमाम वेब-साइट छान मार रहा था। उसके
साथ पढ़ने वाले कुछेक दोस्तों ने किन्हीं छोटी-मोटी कम्पनियों को ज्वाइन कर लिया
था, जहां दस से बारह घंटों का काम लिया जाता है। अरुण इसमें नहीं जाना चाहता था। वह
अपने स्ट्रीम केमिकल में ही जॉब चाहता था। उसका कहना था कि अपने ब्रांच में जॉब
करने से जॉब में स्थिरता रहेगी, नहीं तो कभी भी निकाल बाहर करेंगे।
उसके टीचर्स भी उसे सलाह देते, ‘जॉब को लेकर ज्यादा परेशान मत होओ, आज
नहीं तो कल मिल ही जाएगी। पहले अपनी पढ़ाई पूरी कर लो’। और वह भी इस लाइन को ही सही
मानता था। हालाँकि उसने पिछले साल अपने अंतिम सैम के दौरान ‘गेट’ दिया था, लेकिन
नहीं निकाल सका। तब उसका ज़्यादा ध्यान अपने कोर्स पर था।
जब अपनी पढ़ाई पूरी करके घर आ गया अरुण तो उसके शिक्षक पिता--जिन्हें
अगले साल रिटायर होना है-- के लिए उसके आगे
का भविष्य सबसे बढ़ कर हो गया। इस पढ़ाई में उसके बारह-तेरह लाख लग चुके थे, जो उन
जैसे आर्थिक स्थिति वाले व्यक्ति के लिए एक बड़ा खर्चा था। हालाँकि जब वे अपने
स्टाफ़, जिनमें अधिकाँश महिलाएँ थीं, या अन्यों से भी उनके बच्चों की पढ़ाई का खर्चा
सुनते तो उनका मुँह खुला का खुला रह जाता—तीस
लाख! चालीस लाख! पचास लाख! पढ़ाई अब पूरी तरह रोज़गारमूलक निवेश में
बदल चुकी थी। उनके स्टाफ की किसी मैडम का बेटा मेडिकल की पढ़ाई कर रहा है, तो किसी
का बेटा पायलट बनने की तैयारी में लगा है, तो किसी की बेटी एम.बी.ए.।
सुनकर, जान कर अपना यह देश ही उन्हें एकबारगी ‘एलिस इन वंडरलैंड’ की
तरह लगने लगता है।
अरुण को घर की तीन-चार महीने की बेरोजगारी में जब कुछ हासिल नहीं हुआ,
तब उसने तय किया कि ‘गेट’ की तैयारी के लिए दिल्ली जाएगा। वहाँ किसी बेहतर कोचिंग
इंस्टिट्यूट में पढ़ाई करेगा। छह महीने की उनकी फीस अस्सी हजार। रहना-खाना अलग। हर
महीने के दस-बारह हज़ार वो पकड़ लो।
जैसी परिस्थितियाँ थीं, उसमें उन जैसा व्यक्ति कर ही क्या सकता था। इस
आर्थिक बोझ को उनके पास चुपचाप सह जाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं था। फिर
इसी से उन्हें एक चमत्कारी आशा भी थी, कि
क्या पता, इसी तैयारी से बेटे की क़िस्मत चमक जाए! होनहार तो वह है ही। फिर आजकल
‘गेट’ क्वालिफायर को ही देश की बड़ी-बड़ी सरकारी कम्पनियों के ऑफर मिलते हैं। जिसे
ये लोग अपनी भाषा में पी.एस.यु. कहते
हैं। यानी पब्लिक सेक्टर यूनिट।
बेटे को फिर कुछ समय के लिए बाहर जाना पड़ रहा था।
पढ़ाई के सिलसिले में उसके लगातार यों बाहर रहने से उनकी पत्नी कहने
लगी है, ’अजी, हमारे बेटे को तो ऐसे बाहर-बाहर रहने के कारण बाहर की तो छोड़ो, घर-परिवार
के बहुत से लोग भी नहीं जानते। सब कहते हैं, अरे, हमने तो उसको देखा ही नहीं!! और
अब फिर बाहर...?
पिछले साल अगस्त में सिन्हा जी बेटे को ले कर पहली बार दिल्ली गए थे। बल्कि
यह कहना ज़्यादा सही होगा कि बेटा ही उनको ले कर दिल्ली गया था। जैसा कि अब
डिजिटल-युग में होने लगा है, बच्चे अपना सारा इंतजाम ऑनलाइन ख़ुद कर लेते हैं। नए
समय का हिसाब-किताब और चाल-चलन भला उनकी पुरानी पीढ़ी को कहाँ से आए? वे तो अपना
एंड्राइड मोबाइल ही ठीक से ऑपरेट नहीं कर सकते, तब ये होटलों की ऑन लाइन बुकिंग
वगैरह कहाँ से कर पाते? जिसके चलते तुमको रेलवे स्टेशन में उतरते ही ऑटो-टैक्सी
वालों की होटल-बुकिंग की कमीशनखोरी की आपसी खींचतान का सामना नहीं करना पड़ता। जैसा
कि उन्होंने पाया, छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से निज़ामुद्दीन स्टेशन पर रात नौ बजे उतरते
ही वे घेरने लगे थे। वे देख रहे थे, चार-पाँच टैक्सी वालों में से एक अधेड़ टैक्सी वाला
तो उनके पीछे ही पड़ गया था, होटल तक पहुचाने का दो सौ रुपये! अरुण ने उसे जम के
झिड़क दिया था, क्या लूट मचा रक्खे हो! ‘ओला’-‘उबर’ वाले सौ-सवा सौ में ड्रॉप कर
देंगे। हम सौ देंगे! जमता हो तो चलो नहीं तो..। इसके बावजूद वह बिलकुल ढिठाई से
उनके पीछे-पीछे स्टेशन के बाहर चला आया-- ‘डेढ़ सौ दे देना..। डेढ़ सौ से कम में कोई
टैक्सी वाला नहीं लेके जाएगा, सर..’.और उसकी ऐसी दशा देख कर गुरू जी का मन ज़रा
पिघल गया था, बेचारा, पचास रुपये ही तो ज्यादा मांग रहा है, पर अरुण अड़ा रहा, पापा,
आप इन लोगों को जानते नहीं, अनाप-शनाप चार्ज करते हैं...। होटल मुश्किल से तीन
किलोमीटर है, मैंने ऑनलाइन सब पता कर लिया है।
टैक्सी वाले को हार कर बेटे की बात माननी पड़ी थी। वह ले गया सौ रुपये
में ही। लेकिन पूरे रास्ते वह उनको यह समझाने बल्कि बरगलाने की कोशिश करता रहा, कि
ऑनलाइन बुकिंग अच्छी बात है, पर उससे होटल की लोकेलिटी का पता थोड़ी चलता है! कैसी
घटिया जगह में आप लोगों ने होटल बुक करवा लिया है, कि वो जगह फैमिली वालों के लिए
ठीक नहीं है,कि रेड-लाइट एरिया है, नशेड़ियों का अड्डा है, आए दिन उधर लूट-पाट होता
रहता है, आप उसको कैंसिल कर लो। मैं आपको उसी रेट में उससे अच्छा होटल दिलवा देता
हूँ...। क्या चार्ज है उसका... ’अरे ये देखो’, उसने रास्ते में पड़ने वाले किसी
होटल के सामने टैक्सी रोक दी थी, ‘ये आपको उससे भी कम में पड़ेगा... और उससे बहुत
अच्छा...’।
“तुम हमको सीधे होटल ले जाते हो कि उतर जाएँ?” उनके बेटे ने जब सख्ती
से उसे डपटा, तब कहीं उसको समझ आया, कि ये अपना मन बदलने वाले नहीं हैं।
अगली सुबह सराय काले खां एरिया के उस कोचिंग सेण्टर में बेटे का
एडमिशन कराया, जिसका कुछ एडवांस अरुण ऑनलाइन पे कर चुका था। कोचिंग सेण्टर के
रिसेप्शन के गद्देदार सोफ़े में बैठे-बैठे सिन्हा जी दीवाल में जहां-तहां लगे उनकी
उपलब्धियों के वहाँ लगे ब्रोशर, पोस्टर ध्यानपूर्वक देखने लगे। जाने क्यों में
उनकी उपलब्धियों के इन रंगीन, चिकने और चमकदार ब्रोशरों, पोस्टरों को देखकर उनके
मन में सहसा ख़ुशी की एक तरंग इधर की उदासियों के बाद जागी थी। पोस्टरों में पिछले
एक-दो साल के मेधावी किशोर-किशोरियों के हँसते, मुस्कुराते चेहरे थे, जिनके AIR
यानि ‘आल इंडिया रैंकिंग’ पहली से बीस के भीतर थे। उन्हें तुरंत लगा, अगले साल
इनमें एक फोटो उसके बेटे की भी रहेगी। और भला क्योंकर नहीं रहेगी? यह मेधावी है, मेहनती
है, बाकी कसर यह इंस्टिट्यूट कर देगा, जिसका देश भर में इतना बड़ा नाम है!
उनकी ख़ुशी तब और बढ़ गयी, जब रिसेप्शन में बैठी एक स्मार्ट लड़की ने बेटे के परसेंटेज देख कर
कोचिंग सेंटर के नियमानुसार फीस में 10% छूट देने की बात कही। फीस किश्तों में या
एकमुश्त जमा करने की सुविधा थी। उन्होंने एकमुश्त राशि का चेक दे दिया।
फिर उसके रहने के लिए कमरे की तलाश शुरू हुई, जो यहाँ सिर्फ़ एजेंट्स
के मार्फ़त ही संभव हो पाता है। आसपास कुछ एरिया में देखने के बाद कटवारिया सराय
--जहां ऐसे बहुतेरे पी.जी.बिल्डिंग हैं— में एक कमरा पसंद किया—8000.00 रूपए महीना।
एजेंट का अपना चार्ज हुआ 2000.00 रूपए।
इस तरह बेटा कुछ महीनों के किए ही सही दिल्ली वाला हो गया। घर में
बेटे का फोन आता रहता। वह नियमित क्लासेस अटेंड कर रहा था। मेट्रो या सिटी बसों
में कोचिंग क्लास उसका आना-जाना। अरुण सब रिपोर्ट बराबर देता रहता, कौन सर कैसा
पढाते हैं, किसका क्या नजरिया है...। कोचिंग के दक्ष मेधावी सर हर तरह से उनकी
प्रॉब्लम सॉल्व करते हैं और कम समय में कैसे किन-किन फार्मूलों से शीघ्र उत्तर
लाया जा सकता है, इसका पैटर्न बनाते-बताते है। बताता कि ऐसे प्रतियोगी परीक्षाओं की
पढ़ाई यूनिवर्सिटी की उस बेसिक डिग्री पढ़ाई से बिलकुल अलग है, जिसे बिना कोचिंग के
निकाल पाना नामुमकिन सा है। बेटे की पढ़ाई दिन-रात कई-कई घंटे चल रही थी। कड़ी सर्दी
रात में भी तीन बजे के बाद ही सो रहा है। उसे यों दिन-रात खटते पा कर अक्सर
पति-पत्नी का मन भर आता। वे दुखी हो जाते, कि बच्चों को काम्पीटिशन के नाम पर किस
कदर खटना पड़ रहा है। दुनिया-जहान भूल कर उन्हें अपनी सारी एनर्जी सिर्फ़ और सिर्फ़
नम्बरों के लिए लगानी पड़ रही है! एक-एक नंबर की नहीं, यहाँ तो एक-एक पाइंट की
प्रतियोगिता है! कि उन्हें इस प्रतियोगिता में सफल होने के अलावा दूसरा न कुछ
देखना है ना सोचना। ज्यों कोल्हू के बैल बना दिए गए हैं! या जिस तरह टाँगे में
जुते घोड़े की आँख पर पट्टी बाँध दी जाती है कि वह सिर्फ़ सामने ही देखे, लगता है
कुछ वैसी ही पट्टी मानो इनके दिल-दिमागों में बाँध दी जाती है, और वे इसे सहर्ष
बांधे रहते हैं। कि इसी बात पर उनका भविष्य निर्भर है...।
सिन्हा जी को अपने स्कूल-कॉलेज के दिन याद आ जाते। उन्होंने भी अपने
समय में प्रतियोगी परीक्षाएं दी थीं, लेकिन हाल तब ऐसा भीषण और बदहाल नहीं था। वह
प्रतियोगी समय ज़रूर था, लेकिन ऐसी त्रासद जानलेवा स्थितियाँ नहीं थीं। एक प्रश्न
उनके मन में अटक जाता है, क्या यह ठीक हो रहा है? भीतर से तुरंत जवाब आता कि नहीं।
लेकिन इसके अलावा फ़िलहाल अपना भविष्य बेहतर बना सकने का कोई फौरी रास्ता भी उनके
सामने नहीं था। खासकर उन जैसे लोग, जिनके पास कोई पुशतैनी मिलकियत नहीं है।
लेकिन वहीं, ऐसी कठिन तैयारी के बरक्स,दूसरी तरफ, देश की ज़मीनी हक़ीक़त
कुछ और ही कहानी कह रही है। कि आर्थिक मंदी के कारण रोज़गार लगातार घट रहे हैं, जिसके
चलते इन बच्चों के बड़ी नामी-गिरामी मल्टिनेशनल कम्पनियों या लाखों के पैकेज के
सपने हवा हो गए हैं। इनका टारगेट भी अब थोड़े ठीक-ठाक सेलेरी दे सकने वाली
कम्पनियाँ ही हो गई हैं, यही सबसे बढ़ कर हो गया है कि किसी तरह मुकाबले में रहा जा
सके...।
रात में एक सवाल उन्हें रह-रह कर कांटे की तरह गड़ रहा था, --बेटे की
इतनी तैयारी के बाद भी...?
उनकी आँखों से नींद गायब है.बिस्तर पर पड़े हैं बेचैन करवटें बदलते। तरह-तरह
की आशंकाओं और अनिश्चिंतताओं के प्रेतों ने उन्हें सहसा घेर लिया था। वे इस बात पर
गहराई से सोचने लगे कि क्या बेटे ने अपना पूरा प्रयास नहीं किया? क्या उसने इसे
किसी आम परीक्षा की ही तरह ले लिया? नहीं! पहली ही बार में भीतर से विरोध फूट पड़ता
है। पर अब क्या हो सकता है? जहां से चले थे, वहीं के वहीं खड़े रह गए? साल ख़राब हुआ
सो अलग।
फिर एक दूसरी ही बात अब उन्हें परेशान करने लगी। स्टाफ में सभी को
मालूम है, सिन्हा सर का बेटा होशियार है, और ‘गेट’ की तैयारी के लिए दिल्ली में पढ़
रहा है। सबको उसके सफलता की उम्मीद है। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि ऐसी निराश करने
वाली सूचना को वो उनसे कैसे शेयर करेंगे? उन्हें इसका तो खूब पता है कि सफल होने
पर उनकी सामाजिक साख में कैसे गुणात्मक बढ़ोतरी हो जाती। उन्होंने अनुभव किया है, स्टाफ
में जिनके बच्चे अच्छी सेलेरी में हैं, या, विदेशों में हैं, या ऐसे किसी
प्रभावशाली जगहों में हैं, तो सहसा उनके प्रभामंडल में कितना चमत्कारिक इजाफा हो
जाता है! फिर उनके स्टाफ में तो अधिकाँश के बच्चे बड़ी कम्पनियों में हैं...। पंद्रह
लाख, बीस लाख के पैकेज में, या मेलबोर्न, लंदन, या, केलिफोर्निया में। सफलता के
झूले की ऊंची पेंगे लेते इन लोगों के बीच नहीं चाहते हुए भी उन्हें शर्मिंदा होना
पड़ेगा। फिर, ज़रा अन्दर की ‘अनकही’ बात ये रहेगी कि उनके प्रतिभाशाली बेटों जैसी
हैसियत पा पाना या बराबरी कर पाना ‘इनके जैसों’ के बूते के बाहर की बात हैं, ये
चाहें कितनी ही कोशिश क्यों न कर लें...और तब वे अपने उसी गुमान-गौरव से फिर भर
जायेंगे...।
एक दिखावटी औपचारिक अफ़सोस के लिए वे खुद को तैयार करने लगे, भीतर छुपी
अनकही पीड़ा के साथ।
दूसरे दिन सुबह अखबार में, जो कि इधर ज़्यादा ही होने लगा है, बच्चों
के उज्जवल भविष्य बनाने का दावा करने वाले कोचिंग सेंटर्स के बड़े-बड़े विज्ञापन छपे
थे, जिनमें ‘गेट’ में इधर टॉप करने वाले स्टूडेंट्स की हँसती-मुस्कुराती तस्वीरें
छपीं हैं। उनके इंटरव्यू छपे हैं। कोई भारत के प्रतिष्टित संस्थान में जाना चाहता
है, तो कोई इसरो में, तो कोई मल्टिनेशनल कम्पनियों में। स्वाभाविक था कि सुबह-सुबह
उनका मन फिर निराशा और अवसाद से भर गया, जिससे कल रात वो जूझते रहे। रह-रह कर ख़याल
आता कि उनके बेटे के सफल होने पर कितनी चर्चा और वाह-वाही होती... गली-मुहल्ले से ले कर शहर भर में यह
चर्चा का विषय बन जाता। और अनायास ही लोगों की नज़रों में उनका सम्मान बढ़ जाता, और
अपने पड़ोसियों-परिचितों के लिए एक नजीर भी, कि देखो, साधारण शिक्षक होते हुए भी
उनके बच्चे आज यहाँ आ पहुँचे हैं। वगैरह-वगैरह...
उन्होंने सोचा था, बेटे की सफलता पर वे भी दूसरों की तरह इसे
सेलिब्रेट करने मिठाई का डिब्बा ले कर स्कूल पहुंचेंगे, और सबकी बधाइयां
लेंगे...पर...?
उस दिन स्कूल में उन्होंने जानबूझ कर इसकी चर्चा भी किसी से नहीं की। जाने
क्यों उन्हें लगता रहा, अपने बेटे की असफलता पर मुँह उन्हें छुपाना पड़ रहा है। एक
संकोच और दूरी और एक पिछड़ापन सहसा उनके भीतर अपने आप पनप आया है..।
यह खीझ श्याम लाल सिन्हा उर्फ़ एस. एल. सिन्हा
गुरू जी अपने भीतर से मिटा नहीं सके थे। इसीलिए शाम को उन्होंने बेटे को फोन किया।
जो अब घर आने की तैयारियों में जुटा हुआ था।
इसे एकदम सीधे-सीधे बेटे से कह पाना भी उनके लिए मुश्किल था। यों ही
बातचीत में वे पूछने लगे, किस पोर्शन के कारण पेपर बिगड़ गया.. या क्या उसमें क्या
कोचिंग वाले अच्छे से तैयारी नहीं करवा पाए थे.?
अरुण जवाब दे रहा है, “सब सर कह रहे हैं, पेपर इस बार बहुत हार्ड आया
था। बता रहे हैं, इस बार गौहाटी आई.आई.टी.वालों ने तैयार किया था। जनरली, पेपर
इतना हार्ड नहीं आता। यहाँ सर लोगों को भी मेरे क्वालिफाई नहीं होने का दुःख
पहुंचा है। वे तो कह रहे थे, हम तो तुमको अंडर 50 में मान के चल रहे थे।”
“चाहे जो हो, ये तेरा दूसरा अटेम्प्ट था, और हम लोग उम्मीद कर रहे थे।”
सिन्हा जी ने स्वर भरसक सख्त ही रखा।
“अब कोशिश तो पूरी किया था, पापा...”
“पर आखिर क्या वजह है जो क्लियर नहीं हो पा रहा?” उन्हें अब अपने को
रोक पाना कठिन हो गया था, जोर-जोर-से कहने लगे, “कुछ क्वेश्चन जो नहीं बनते थे छोड़
के आगे निकल जाना था। इस टाइम-बाउंड पेपर में समय ख़राब होना भी रीजन है। खैर, अब
जो हुआ सो हुआ, आगे के लिए अच्छे से तैयारी कर। कोई कसर मत छोड़ना... खासकर अपने
कमजोर सेक्शन में ज्यादा ध्यान देना!” ..उनके भीतर का गुरू जी अब हावी हो कर बेटे
को उपदेश देने लगा था, जैसे इनको सुनने के बाद सचमुच कोई बड़ा परिवर्तन उसमें हो
जाएगा।
“हाँ, मैं अपनी लैकिंग सुधारने की कोशिश करूंगा। एक साल ख़राब हुआ है, इस
बात को समझता हूँ।”
आज उन्होंने खुद को रोका नहीं, और जो जी में आ रहा था, कह दिया। इस
बहाने, छुपे स्वर में ही सही, वे उसे अहसास करा देना चाहते थे कि बेटा, तुम भी
जानो कि तुम्हारी पढ़ाई के पीछे घर का कितना खर्च हो रहा है, और बदले में कुछ भी तो
नहीं मिल पा रहा..?
नहीं चाहते हुए भी आज उनकी मानसिकता पढ़ाई को भविष्य का निवेश समझने
वाली मानसिकता में आ गई थी। और लगा था, कि इसका गहरा अहसास बेटे को होना ही
चाहिए!... और एक सच्चाई यह भी है इस डांट से उनके भीतर के ‘पिता’ को एक संतुष्टि
सी मिली थी।
लेकिन उनकी नींद रात में सहसा खुल जाती है, चौंक कर उठ बैठते हैं, ...और
ध्यान फिर बेटे की ओर चला गया है। एक ठंडी सिहरन और घबराहट से वे भर गए हैं - क्या
मेरा बेटे को यों डांटना सही था?? या यह कहीं उसको और हताश करने वाला तो नहीं हो
गया? अब उन्हें अहसास हो रहा था कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। ऐसी परीक्षाएं
किन्हीं फौरी नैतिकताओं से, भावनात्मक मूल्यों या मानसिक दबावों से पार नहीं पाई
जा सकतीं। यह कोई स्कूली संकल्प ले लेने का मामला नहीं है, जैसा अक्सर उन्हें अपने
स्कूल में आए दिन बच्चों से किसी न किसी बात का संकल्प शासन के निर्देशों पर रूटीन
ढंग से करवाना पड़ता है, कभी, गली-मुहल्ले
को स्वच्छ रखने का तो कभी साम्प्रदायिक सौहार्द्र बनाये रखने का, तो कभी सभी के
मतदान करने का... जबकि इन परीक्षाओं का सम्बन्ध तो विषय की गहराई, फैलाव, और उसके
जटिल संरचनात्मक अवधारणाओं को बखूबी समझने का और उस पर कमांड पाने का है, न कि यों
राह चलते बोल देने से हो जाने वाला। यही नहीं, सिर्फ ज़िद कर लेने से भी इसमें आप
सफल नहीं हो सकते।
..और फिर कौन सी ऐसी परीक्षा है जिसमें सब सफल होते हैं? हर बच्चे की
अपनी मानसिक क्षमता, दक्षता होती है और इसकी सीमाएं भी। इसलिए वस्तुस्थिति को
स्वीकार कर लेना ज्यादा श्रेयस्कर है,। भाई,
परीक्षा जीवन का एक हिस्सा है। पूरा जीवन नहीं। जीवन में परीक्षा की सफलता ही सब कुछ
नहीं है। उसके पार भी जीवन है। लेकिन हम लोगों की आँखों में सफलता की यही एक पट्टी
बाँध दी गयी है। हमारी पूरी सोच इन्हीं से संचालित हो रही है। और इसे बदल पाना भी
फिलहाल संभव नहीं। देखा जाय तो ये परीक्षाएं उनके लिए वरदान कम अभिशाप ज़्यादा बनती जा रही हैं। दूसरी तरफ, स्थितियां
भी बहुत भयंकर और विकराल हैं। क्योंकि बेरोज़गारी इस क़दर है कि कुछ पोस्ट निकले
नहीं कि हज़ारों-लाखों की तादाद में बेरोज़गारों की फ़ौज टिड्डी दल की तरह चली आती है।
देखते नहीं, परीक्षा की तिथि वाले दिन कैसे स्टेशन या बस स्टैंड से ले कर हर
चौक-चौराहे पर पीठ पर बैग लटकाए युवाओं की भीड़ नज़र आती है.. सबपे यह दबाव की उसका
सलेक्शन हो के रहे।
...सोचते हुए पाया, उनके भीतर
करुणा-ममता की कोई धार अनायास बह रही है, और वे भीग रहे हैं।
कुछ दिनों बाद जब अरुण लौटा, तो सिन्हा गुरू जी को साफ़ लगा कि वह बदल
गया है। ‘गेट’ में क्वालीफाई नहीं कर पाने की बात उसके मन में नहीं चाहते हुए भी
किसी दंश की तरह चुभती हुई बनी रहती है। घर में अब ज़्यादातर वह ख़ामोश रहता है गंभीर।
ज़रुरत होने पर ही बात करता है। अपनी छोटी बहन से भी अब वैसी चुहल या छेड़-छाड़ नहीं
कर रहा जो वह हमेशा करता रहा है। बल्कि चेहरे पर एक कठोरता रहने लगी है। वह अपनी
पढाई में लगा रहता है। अगले सप्ताह उसे गौहाटी जाना है, असम के नुमालीगढ़ रिफाइनरी
में इंजिनियर के 21 पोस्ट निकले हैं। वह उसी की तैयारी में जुटा है। घर में नहीं
चाहते हुए भी एक अदृश्य तनाव बना रहता है। वे कोशिश करते हैं कि यह कुछ हल्का हो। लेकिन
यह भी जानते हैं ऐसी परीक्षाओं को हल्के में नहीं लिया जा सकता। एक पुरानी कहावत
बार-बार उनके सामने आ जाती है-- कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है...।
आज अरुण चला गया है गौहाटी।
पढ़ाई का इतना दबाव उन्हें खुद को असहनीय लगने लगा है। आजकल उन्हें यह
बहुत शिद्दत से लगने लगा है कि हम माँ-बाप अपनी महत्वाकांक्षाओं को बच्चों पर थोप कर
सुख के किसी नकली स्वर्ग में रहना चाहते हैं। कि वे ख़ुद भी इसी मानसिकता के गहरे
शिकार हैं, कि वे भी अंततः एक लालची पिता हैं, जो बेटे से कुछ बड़ी उम्मीदें पाले
हैं। ऐसे दौर में ऐसी उम्मीदें पालना क्या उनके प्रति गहरी मानसिक हिंसा नहीं है?
अपने सोशल-स्टेटस के लिए या चार समाज में वाह-वाही के लिए जिन्हें मोहरा बनाया जा
रहा है। और ऐसा करते हुए कोई शिकन तक तुम्हारे माथे पर नहीं है, बल्कि ख़ुशी है, उसके
उजले भविष्य की। एक सपना तुम चुपचाप पाले हुए हो कि बेटे का सलेक्शन हो जाए तो तुम
उनके बीच पार्टी करोगे जो अपने बच्चों की सफलता को सेलिब्रेट करते रहे हैं, कि
जैसे तुम भी उनको बता देना चाहते हो...।
लेकिन किस कीमत पर? बच्चे को यों यातना शिविर में डाल कर? उनकी सारी
स्वाभाविकता को कुचल कर?
उस दिन सिन्हा जी स्कूल में अपनी क्लास के बच्चों की कापियां जाँच रहे
थे। दोपहर का 12.30 बजा रहा होगा।
उनके मोबाइल की घंटी बजी।
उधर अरुण था, गौहाटी से, “पापा, अभी एग्ज़ाम हाल से बाहर निकला हूँ। पेपर
बहुत अच्छा बना है।”
उन्होंने महसूस किया कि बेटे की आवाज़ में एक उत्साह है, आत्मविश्वास
है, खुशी है; किसी किस्म का नैतिक या पैतृक दबाव नहीं, बल्कि एक खुलापन है खुले
मैदान सरीखा। इसके बावजूद, न जाने क्यों उन्हें लगा, कि क्या बेटे की नज़र में मैं
इतना स्वार्थी हो गया हूँ जो अपने लाभ-पक्ष को तत्काल जान लेने को इतना उतावला
रहने लगा है कि उसे एग्ज़ाम हाल से बाहर निकलते ही मुझे फोन करना पड़ रहा है...?
वे कल्पना में देख रहे हैं कि अरुण सड़क पर चलते-चलते तेज़ी से उन्हें बता
रहा है।
“पापा,गेट’ सिलेबस से 80, जी. के से 10 और एप्टीट्युड टेस्ट के 10
क्वेश्चन थे। लगभग सभी बनाया हूँ। जी.के और एप्टीट्युड के 3-4 आंसर गलत हो सकते
हैं, लेकिन इसमें माइनस मार्किंग नहीं था.. बाकी पेपर बहुत बढ़िया बना है...।”
उन्हें ध्यान नहीं कि उनके मुँह से ‘ठीक है’ जैसा कुछ निकला भी था या
नहीं।
दरअसल इस समय उनके भीतर एक गीलापन तिर आया था, और ये उनकी आँखें थीं
जो अचानक नम हो गयी थीं। और उन आँखों में अब कोई सपना या आकांक्षा नहीं है। ना
उनमें कोई ख़ुशी है ना ही किसी किस्म का मोह। बस एक निर्दोष उजलापन है जो चमक रहा
है... स्वच्छ... पारदर्शी..।
(पहल से साभार)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र
जी की हैं।)
सम्पर्क
कैलाश बनवासी
41, मुखर्जी नगर,
सिकोलाभाठा, दुर्ग (छ.ग.)
मो 9827993920
सभी पिता पुत्रों की कहनी ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएंधन्यवाद
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27.8.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
समय की क्रूर स्पर्धा और व्यक्ति का संघर्ष ।सब कुछ छीन लेने को आतुर समय।
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