आशीष कुमार तिवारी की कविताएँ


आशीष कुमार तिवारी

आज जब कविताओं से प्रकृति लगभग नदारद दिख रही है, आशीष की कविताएँ हमें भरोसा दिलाती हैं कि कविता कभी प्रकृति से विहीन हो ही नहीं सकती। प्रकृति एक तरह से प्रतिरोध का प्रतीक भी है। वह लाखों सालों से खुद बनती संवरती रही है। तमाम प्रतिकूलताएँ उसने झेली हैं और खुद को बचाया है। प्रकृति है तो पृथ्वी का यह सब कुछ है जिससे यह आज भी इतनी खूबसूरत दिखती है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है आशीष कुमार तिवारी की कविताएँ।


आशीष कुमार तिवारी की कविताएँ


सबसे बड़ी महामारी से लड़ती दुनिया



सभ्यताओं के चेतने का दौर होती हैं
बीते समय की छलनाएं उसकी पायदान बनती हैं


धरती पर पहली महामारी जब भी आई होगी
वह – भूख रही होगी
भूख का स्थायी इलाज़ आज तक न मिला
न ही उचित प्रबंध


भूख को छला गया
ये महामारी धरती से मिटी नहीं
इससे होने वाली मृत्यु के आंकड़े कहीं भी दर्ज़ नहीं
किसी पोस्टमार्टम हाउस में ऐसी लाशों का परीक्षण नहीं हुआ 
यदि किया गया होता तो शायद भूख के बिलबिलाते कीड़े निकलते
कहते हैं पेट में भूख के कीड़े नहीं,
भारी-भरकम नरभक्षी चूहे होते हैं
ये चूहे अंतड़ियों को चबा जाते हैं


अब जब भी कोई नई महामारी आती है
इन चूहों का खेल शुरू हो जाता है
तय करना कठिन होता है – पहले किससे मरेंगे

दूसरी बड़ी महामारी नफरत और भेदभाव 
इसके कीड़े पेट में नहीं,
दिमाग में पनपते हैं
इस महामारी में खून सड़कों पर बहता है
हाथ,पांव, गर्दन कटे मिलते हैं
भयावहता यह कि इसमें घर-मकान,दुकान जलते हैं
औरतों की इज्जत लूटी जाती है
बच्चे अनाथ होते हैं
हंसते-खेलते परिवार तबाह हो जाते हैं
और यहीं से बात फिर भूख पर लौट आती है
इस माहौल में पीड़ित कई दिन भूखे रोते-तड़पते रहता है

कई महामारियां भटक रहीं गलियों में
अगर भूख और दिमाग की महामारी जीत ली गई होती
तो शायद हम अन्य से बेहतर ढंग से लड़ पाते



मूर्खता को राष्ट्रीय विवेक घोषित किया जाना चाहिए


राष्ट्र विपत्ति में हो 
तो निवासियों का विवेक उसकी पूंजी होती है
महामारियां आती हैं और मानवता को त्रस्त करती हैं
पर मूढ़ता जब दबे पांव विवेक का हरण कर ले
तो राष्ट्र की रक्षा संभव नहीं


मूर्खता महामारियों का वैधानिक सत्यापन 
राष्ट्र के माथे पर करती है
पर इससे पहले की प्रक्रिया है,
मूर्खता को राष्ट्रीय विवेक घोषित किया जाना।


ये दोहरी आपदा है मानवता पर
जब, उसके पास न राष्ट्र होगा, न विवेक।


मूर्खता शोक को हास्य में परिवर्तित करना चाहती है
मूर्खता को मूर्खता करने के लिए भी 
थोड़ा बहुत विवेक तो चाहिए ही…
वह नहीं जानती
शोक को हास्य में बदलने की कोशिश में पागलपन पैदा होता है


यह महामारी के विस्तार का सुंदर समय होता है
तल में महामारी और सतह पर मूर्खता का फेन
जो राष्ट्र इसमें फंसा, 
वहां बस पीड़ा बचेगी
मृत्यु बचेगी।


इस तरह कोई भी महामारी दोमुंही होती है।



विपदाएं नया रच कर जाती हैं


इन दिनों अनेक दृश्य मौजूद हैं
ये दृश्य किसी को प्यारे नहीं हैं
पर सभी मजबूर हैं इन अप्रत्याशित दृश्यों की नियति से


क्या कभी आठ साल का बच्चा
आठ सौ मील की यात्रा पैदल तय करेगा..?
वो उसे ज़ाहिल भले कह लें
पर क्या गर्भवती स्त्री भरी कोख़ और खाली पेट
पैदल एक राज्य से दूसरे राज्य जा पाएगी..?
पर…
वो जाएगी और जीवट को जन्म भी देगी


कितना कुछ रच कर जाएंगी ये विपदाएं
विपदाएं अनजाने में क्षमताओं को रच जाती हैं
बाढ़ से उपजी विपदा विशाल बांधों की ओर,
सूखे की विपदा गहरे कुओं की ओर।


समुंदर उस पार के देश में जलता चूल्हा
इस पार के चूल्हे में आग भले न जला सके
पर घर जरूर जला सकता है।
जैसे विपदाएं आयीं और सब तक पहुंची
वैसे सब अपने घरों तक क्यों नहीं पहुंचे..?
विपदाओं की गति तेज है,
समाधान ठेलने पर भी न पहुंचेगा।


जब सब कुछ असंगत है
तो क्या जरूरी है कि मेरे सारे सवाल संगत ही हों..?
मन करे तो खारिज़ कर देना।




तुम्हारी ही सभ्यता में बचपन औंधे मुंह मरता है न..?



ऐ भाई!
औंधे मुंह मृत पड़ा था एक बच्चा सीरिया की तबाही में
समुंदर के पानी से उसकी लाश फूल कर कुप्पा हो गई थी।
एक बच्चा फिर औंधे मुंह लटका है,
साइकिल के हैंडिल पर
लेकिन मरा नहीं है
मरने की दशा में है


ऐ भाई ! 
तुम ऐसा क्या करते हो जिससे ये बच्चे
तुम्हारी सभ्यता की चौखट पर औंधे मुंह
मरे पड़े मिलते हैं..?
बोलो ना भाई !
क्या अब तुम्हारे यहां बचपन औंधे मुंह लटक कर पैदा होता
और जिंदा रहता है..?


एक बच्चा विश्व के किसी कोने से
तुम्हारी क्रूरता की शिकायत ले कर
नियामक के पास जाने की
रुआंसी धमकी दे रहा


तुम इतने क्रूर हो भाई..?
बच्चे के कत्ल का बयाना तुम्हारी कोट में क्यूँ मिलता है..?
उसके गायब खिलौनों के टुकड़े,
तुम्हारे जूतों के नीचे दबे मिलते हैं


भाई ! जब तुमने एक बच्चे के चेहरे के घाव छुआ
तो उसने क्यूँ थूका तुम्हारे चेहरे पर..?
तुमने जब उसे हंसाने की कोशिश की,
उसे खिलौने देख कर बहलाने की कोशिश की,
तो क्यूँ नहीं हँसा वो..?
स्तब्ध क्यों था.?
तुम्हें पास देख कर सहमा भी नहीं
ऐसा क्यूँ..?


कहीं तुमने उसे युद्ध के अनुभवों से बूढ़ा तो नहीं कर दिया..?
चार-पांच साल की उम्र में 
कहीं तुमने उसे भूख और युद्ध तो नहीं थमा दिया..?
सच-सच बताना भाई 
तुम्हें देखकर उसकी आँखों में क्यूँ भयानक आंधी बस जाती है


कहीं तुम्हीं तो वो नहीं हो
जिसकी सभ्यता में बचपन औंधे मुंह मरता है..?



जब दुनिया ठीक हो जाए


फूलों से लदा कोई पौधा, कोई पेड़
किसी कागज़ को रंगते रंगीन ब्रश की तरह
रंग रहा होता है
थोड़ा सा आसमान,
थोड़ी सी ज़मीन


इस रंगाई में कितना रंग खर्च होता होगा
इसका अंदाज़ा लगाना कितना मुश्किल है
ऐसे फूल किस चित्रकला शैली से बनते होंगे
कौन इनका चित्रकार है
इनकी महक किस नाम से जानी जाती होगी
ऐसा कुछ निश्चित नहीं


इंसानों की दुनिया जब हताश है
बचने-बचाने की कोशिशों में जुटी है
तब भी सूरज अपने वक्त पर उग रहा है
भोर की आहट पा कर अब भी चिड़ियों की चटकार फूट रही
मंथर गति की हवाएं अब भी सुकून दे रहीं


इन लदे भार फूलों ने अपनी महक से
दुनिया को सुगंधित करना जारी रखा है
सब मिल कर दुनिया को रंगीन और सुगंधित कर रहे हैं
उम्मीद की डोर मजबूत कर रहे सभी
फिर दुनिया डोलेगी
और इन पौधों और फूलों की भूमिका को याद रख कर
भविष्य के संकटों से इन्हें भी बचाने का प्रण लेगी


ये निभा रहे अपना दायित्व
उम्मीद है,
दुनिया ठीक हो जाये तो लोग भी निभाएं इनके साथ वफादारी।





जीवन का व्याकरण


पूरा रेगिस्तान झोंक देना चाहता हूं कविता में
ज्वार-भाटा समेत पूरा समुंदर उलीच देना चाहता हूं उसमें
बादलों को हिला-हिला कर सारा पानी गिरा देना है
भयंकर हवाओं को पुकारना है
दहकता सूरज भी उड़ेल कर देखूंगा
एक बूंद अश्रु-कण के निर्माण के लिये
ताकि शिकायत न रह जाए कि
कविता अप्रासंगिक हो रही इस ठोस समय में


तब भी आंखों से अगर पीड़ा की एक बूंद न निकली
तो हे जीवन!
नतमस्तक  होगी भाषा 
तुम्हारे व्याकरण को धारण करने के लिए
तुम्हारी ध्वनियों को भाषा में स्थान देने के लिए।


तुम्हारा दिया तब शायद लौटा पाऊंगा



हम मिट्टी के बने हैं साथी
इस बात को मैं बखूबी जानता हूँ
पर मैं अपनी मिट्टी की खराबी
तुम्हारी मूर्ति से मिट्टी ले कर दूर करता हूँ


मुझे सुघड़ बनाने में तुम्हारी मिट्टी,
तुम्हारी मूरत से दिनों दिन कम होती जा रही
मैं बन रहा हूँ साथी
दिनों-दिन बन रहा हूँ,
सुघड़ भी होता जा रहा हूँ,
यह जाने बिना कि
तुम कैसी हो,
तुम कितनी बची हो,


मैं अपनी मूरत से निकलने वाले धेले, कंकड़, पत्थर निकाल कर,
तुम्हारी मूरत में दिन रात खोंस रहा हूँ
और मिट्टी निकालता जा रहा हूँ
कई दिन से देख रहा हूँ
तुममे केवल कंकड़, पत्थर और धेले ही नजर आने लगे हैं


मैं दिन-रात अपनी सुघड़ता पर गर्व करता जा रहा हूँ
तुम मुझे देख कर मुस्कुरा रही हो
और कह रही हो कि तुम्हें ये सारे पत्थर बहुत पसंद हैं
जो मैंने तुम्हारे दिल में चुभोये हैं


मैं बन रहा हूँ साथी!
दिनोंदिन बन रहा हूँ
पर तुम मुझे बनाते-बनाते कितना बचोगी
ये मैंने कभी नहीं सोचा


मैं देख रहा हूँ साथी!
तुम्हारी मिट्टी कम पड़ रही तुम्हें बचाने में
रुको!
मैं ला रहा हूँ कुछ फूल के बीज, तुलसी का पौधा
तुम्हारी उस थोड़ी बची मिट्टी को खूबसूरत करूंगा
फूल खिलेंगे, महक उठेगी
तुम पूरी बाग हो जाओगी
कभी लौट के मेरी मिट्टी 
तुम्हारे बगीचे तुम्हारा कर्ज़ अदा करे
यही सबसे बेहतर लौटाना होगा तुम्हारे लिए!





अदृश्य दुनिया की दोस्त


एक अदृश्य दुनिया से हो तुम 
मेरी दोस्त!
कभी तुमसे मिला नहीं,
न कभी तुम्हें नजदीक से देखा


तुमसे पहली बार जब बातें हुईं 
तब मौसम सर्द था,
बातें केवल शब्दों से हुई,
पर उन शब्दों का जादू ऐसा था
कि उनसे रुई की तरह सफेद बर्फ़ झड़ रहे थे


ये अजीब बर्फबारी 
केवल तुमने और मैंने देखा और महसूस किया था
ये ऐसे समय में हुई जिसे किसी और की नज़रों ने नहीं देखा


न जाने क्या मतलब था उस बारिश का
न जाने बर्फीली सर्द हवाएं क्या इशारा कर रही थीं


पर जो भी था,
एक रिश्ता दे गया दोस्ती का


कई साल बीत गए मेरे दोस्त
जिस दुनिया से तुम्हारी आवाज सुनी थी
तुम उसी दुनिया से रह-रह कर 
अपनी याद जिंदा किये जाती हो


मैंने तुम्हारा चेहरा देखा है
पर सर्द हवाओं में उसकी ठिठुरन देखना चाहता हूं,
धरती पर तुम्हारे कदमों के निशान नहीं मिले
पर तुम चल रही हो
धरती को गुदगुदाती हुई


तुमने कुछ फूल अपनी दुनिया में छुए होंगे
हवाओं संग उन फूलों की खुशबू में तुम्हारी भी खुशबू महसूस करता हूँ


चाहता हूं जब कभी आसमान में चाँद देखूं
तो वो तुम्हारी बिंदिया जैसी लगे
और नीचे आने पर तुम्हारी आंख तारों से सजी रहे


दोस्त कभी तुम उस अदृश्य दुनिया से चल कर
इस धरती पर अपने निशान बना जाओ
और मैं उन्हें देख सकूं।


देह की मिट्टी बचाने के लिए


वे जब पैदा हुए तो घर मिट्टी का बना था


मिट्टी में ही खेले
मिट्टी में ही पले-बढ़े
कभी-कभी शौक़ से मिट्टी खाई भी


उन्हें लगा कि मिट्टी ही सब कुछ है
मिट्टी के चूल्हे,
मिट्टी के बर्तन,
मिट्टी के खिलौने
और घर की दीवारें भी मिट्टी की थी


उन्हें लगा कि मिट्टी ही सब कुछ है
इसीलिए खेतों की मिट्टी से उन्हें प्यार था
पूरा परिवार चारों ऋतुओं में मिट्टी को चूमता रहता था
मिट्टी उनके लिए सब कुछ थी


जब सभ्यता ने खुद को आधुनिक घोषित कर दिया
मिट्टी का मोल मिट्टी बराबर साबित किया जाने लगा
और 
मिट्टी को मिट्टी के मोल खरीद कर
भट्टों में महंगे ईंटें बना दी गईं


उनसे मिट्टी का भरोसा छीन लिया गया
नम मिट्टी को ठोस ईंटों में बदलने का काम जारी था
ये मिट्टी के बने इंसान
अपनी मिट्टी को ईंट बनता देख कर निस्सहाय हो चुके थे


उनके पाँव तले की मिट्टी दिनोंदिन खिसक रही थी
अब वे अपने शरीर की मिट्टी को 
गलने से बचाने के लिये 
ईंट के भट्ठे में अपने पूर्वजों की मिट्टी को 
झोंक रहे थे।


खुशबू और भी हैं


खुशबू केवल बाग-बगीचे के फूलों से नहीं आती
खुशबू केवल इत्र की शीशियों में नहीं कैद होती


किसी की खूबसूरत बातों की खुशबू भी भीतर तक उतरती है
माँ के हाथ की बनी रोटियों की सोंधी खुशबू
इकलौती खुशबू है
जिसे याद करने भर से भूख मचल उठती है


किसी के सांसों की खुशबू से कहीं बेहतर
किसी का स्नेह-स्पर्श है
जो रफ्तार से नस-नस में उतर जाती है


ऐसी कई खुशबू है
जो अब तक अपरिभाषित है
तुम्हारी आँखों का एकटक मुझे देखना
मैं उसे भी खुशबू कह दूंगा
उसे आंख बंद करके महसूस करना...




(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)




सम्पर्क

आशीष कुमार तिवारी
शोधार्थी, हिंदी विभाग
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी
अलीगढ़

मोबाइल : 96969994252

टिप्पणियाँ

  1. बहुत आभार सर 'पहली बार' में कविताओं को सहेजने के लिए। सादर प्रणाम🙏

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  2. लाजवाब अभिव्यक्ति खासकर मूर्खता को राष्ट्रीय विवेक घोषित किया जाना चाहिए

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