प्रतिभा चौहान की कविताएं

 
प्रतिभा चौहान

 

 

परिचय 



नाम :-                    प्रतिभा चौहान

जन्म तिथि:-            10 जुलाई 

शिक्षा :-                  एमo o ( इतिहास), एल-एलo बीo (उत्तर प्रदेश)

विधा:-                    कहानी, कविता, लेख  


रचना कर्म :-    

        

प्रकाशन -  वागर्थ, हंस, निकट, अक्सर, जनपथ, आजकल, साक्षात्कार, अंतिम जन, इंडिया टुडे, आउट्लुक, विभोम स्वर,  शिवना साहित्यिकी, इंद्रप्रस्थ भारती, इंडिया इन्साइड, शीतलवाणी, अक्षर शिल्पी, अक्षर पर्व, छपते-छपते, चौथी दुनिया, कर्तव्य-चक्र, जागृति, यथावत, गौरैया, सरिता, वाक्-सुधा, साहित्य निबन्ध, जनसत्ता, पंजाब टुडे, सृजन पक्ष, दैनिक भास्कर, हिंदुस्तान, अमर उजाला, प्रभात खबर, दैनिक जागरण आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित।

 

शब्दांकन, जानकीपुल, लिटरेचर प्वाइंट, कृत्या, मीडिया मिरर, गर्भनाल, प्रतिलिपि ब्लाग्स में कवितायें।

"कविता कोश" ‘‘हिंदी समय’’  में कुछ कवितायें।

आजकल, अंतिम जन, विकल्प है कविता, इरावती, चौथी  दुनिया, संवेदना एवं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की संचयिका एवं जर्नल में लेख।



प्रकाशित कृतियां:-

 

चुप्पियों के हज़ार कंबल’’ (प्रकाशाधीन)

 "पेड़ों पर मछलियाँ" कविता संग्रह  

"स्टेटस को" कहानी  संग्रह  शीघ्र प्रकाश्य 

 माँ बाल कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य 

देश की विभिन्न भाषाओं में कविताओं का अनुवाद। राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय सेमिनार में सहभागिता और पत्र वाचन।

 


पुरस्कार/ सम्मान -     

 

1. लक्ष्मीकान्त मिश्र राष्ट्रीय सम्मान, 2018   

2. राम प्रसाद बिस्मिल सम्मान, 2018 

3. स्वयंसिद्धा सृजन सम्मान, 2019  


संप्रति -   न्यायाधीश, बिहार न्यायिक सेवा



परिवर्तन प्रकृति का नियम और उसकी नियति भी है। यदि यह परिवर्तन सकारात्मक दिशा में होता है तो एक बेहतर भविष्य हमारे सामने होता है। लेकिन जब यह परिवर्तन नकारात्मक दिशा में होता है तो भविष्य के लिए सवाल खड़े होने लगते हैं। विज्ञान ने हमारी दुनिया को पूरी तरह बदल कर रख दिया लेकिन दूसरी तरफ इसने पर्यावरण को जो क्षति पहुँचायी उसने कई जीव जंतुओं, कई वनस्पतियों के अस्तित्व के लिए संकट खड़ा कर दिया। बदलते समय के साथ नैतिकताओं का भी क्षरण हुआ और सामाजिक व्यवस्थाएँ छिन्न भिन्न हुईं। प्रतिभा चौहान ने अपनी कविताओं में इस विरोधाभास को उभारने की सफल कोशिश की है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है प्रतिभा चौहान की कविताएँ।



 

प्रतिभा चौहान की कविताएं


 



बंटवारा


 

दीवार उठी 

पक्के मकान में 

दिलों के भीतर की कच्ची कोठरी ढह  गई

मुकदमा चला 

वकील 

दलील 

फैसले ने कच्ची कोठरी के मलबे पर मोहर लगाई ... 

 

 

 

डरावना परिवर्तन 



एक डरावना परिवर्तन 

हँसता है मुझ पर 

वह हरे रंग को धीरे-धीरे काला करता है 

और नमी  को शुष्कता में बड़ी शिष्टता से बदल देता 

हाथों में थमा देता है धीरे से अशांत झुनझुने 

मेरे बच्चों को 

जिनकी कहानियों की परियाँ डर से दुबकी पड़ीं हैं 

बारूद से बनाना सिखाता है खिलौने

इस तरह 

वह हमारी सभ्यता और संस्कारों की नसों में 

भर देता है बाजार और व्यापार  

बड़ी अजीब बात! 

कि हम ऑक्सीजन की तरह इसे अपनी साँसों में  पी लेते हैं 

और हमारी चेतना को 

तनिक भी भनक नहीं लगती...

 

 

 

मरता हुआ मौसम 


 

क्या आपने 

कभी मरता हुआ मौसम देखा है?

 

 

जी हां 

मरता हुआ!

 

 

जब चलते हुए पांव के छाले 

मुट्ठी में मजबूरियों का एक पहाड़ लिए 

धुंध  में डूबे हुए सूरज से सवाल नहीं कर सकते 

और 

समुद्र की लहरें अपनी दबी हुई चीखों  के साथ 

बार-बार छलतीं  है किनारों को,

फूल सूख जाते हैं 

बिना सुगंध और खूबसूरती बिखेरे ही  

तुम्हारी सांसों में जीवन नहीं भरता ब्रह्मांड 

दुखों  के साथ जीने की कला सीखने के लिए

कोई बुद्ध  नहीं जन्मता तुम्हारे सीने में 

और 

जब मां के आँसू, पिता का अपमान,

पुत्र के कुपुत्र हो जाने का दंश 

घोंट देते हैं ममता का गला 

कोई वृक्ष लिपटी हुई बेलों को उतार कर फेंक देता है  

बेसहारा 

 

 

तो यकीनन 

यह मरते हुए मौसम का चित्र है...




रिश्ते 


 

दुनिया को 

एक रिश्ते में  पिरो  देती है 

विश्वास की एक आवाज 

समर्पण का कलावा 

रख देता है अपनेपन की बुनियाद 

खिले हुए रंगों 

और अतीत के रहस्य पर लिखी गईं हैं बड़ी-बड़ी भूमिकाएं

एक प्रतीक्षा की कलम से 

तो दूसरी यादों की  स्याही से 

और तीसरी समुद्र की गहराई के माफिक 

उमड़ती हुई भावनाओं की जंजीरों से ... 


 

 

 

तहों के भीतर

 

इन लहलहाती फसलों में 

भूख झटपटाती है 

ज्यों बादलों में बूँद

धमनियों में आह

आँखों की कोर पर टिका आँसू

और 

किसी विरहणी के मन की सात तहों के भीतर यादों की थाह



 

इन पर्वतों की ऊँचाइयों में 

बसतीं हैं नम झीलें 

ज्यों आँखों में हूक का सैलाब

समुद्र के भीतर छुपे तूफ़ान 

बिखरी यादों के सिलसिले

और 

हवाओं की सिलवटें रेगिस्तानी अन्दाज़ में 



 

रात के बंद दरवाज़ों में रखीं हैं 

उजालों की पोटलियाँ

ज्यों शरीर के भीतर आत्मा का सूरज 

मरुस्थलों के बिस्तर पर पानी का लहलहाता अबशार

ज्वालामुखी के गर्भ में कसमसाता हुआ लावा

और 

दलदल में छुपी अतृप्त गहराइयाँ






 

एक नदी 

 

गहराइयों में उतरती गई हमारे दिलों तक 

एक ऊंचा सा पर्वत 

मस्तिष्क की नसों में था विद्यमान 

और अंतरिक्ष सिमट चला मुठ्ठियों  में 

यह जीवन 

बृहद दृश्य  है 

मुट्ठी भर सपनों के बिखर  जाने से 

थोड़ी सी चमक के खो जाने से 

क्या कभी ठहरता है जीवन 

खतरनाक और खामोश किनारों पर... 



 

सवाल

 

वे 

आँखों में लिए सपने

करते हैं मंज़िलों  का सफ़र

रास्ता जो चुना गया

या 

थोपा गया था उन पर

चलने से पूर्व

वे एक रास्ते से गुज़ारे गये...

 

राह उतनी भी आसान नहीं 

जितनी बतायी गयी

मंज़िल वह थी ही नहीं 

जो दिखायी गयी

दोहराए गये इतिहास की चौखट पर

बार-बार

क्यों कुचले गए उनकी मुट्ठियों में बंद सपने ...

 

एक सवाल

उफनती नदी सा

उफनता है बार बार




(इस पोस्ट मे प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)

 

 

 

संपर्क-

                     

 

मोबाईल – 9470415802


                              

ई मेल -  cjpratibha.singh@gmail.com

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