प्रेमनन्दन की कविताएँ


प्रेम नंदन




प्रेम नंदन

(परिचय)
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जनपद फतेहपुर (0प्र0) के एक छोटे से गाँव फरीदपुर में को जन्म.

शिक्षा एम0 0 (हिन्दी), बी0एड0, पत्रकारिता और जनसंचार में स्नातकोत्तर डिप्लोमा.

लेखन और आजीविका की शुरुआत पत्रकारिता से. दो-तीन वर्षों तक पत्रकारिता करने तथा तीन-चार वर्षों तक भारतीय रेलवे में स्टेशन मास्टरी और कुछ वर्षों तक इधर-उधर भटकने के पश्चात सम्प्रति अध्यापन.

कविताएं, कहानियां, लघुकथाएं, समीक्षा, लेख आदि का लेखन और हिंदी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं, -पत्रिकाओं एवं ब्लॉगों में नियमित प्रकाशन.

दो कविता संग्रह 'सपने जिंदा हैं अभी'
और 'यही तो चाहते हैं वे' प्रकाशित




समय का ऐसा दबाव है कि कवियों की कविताओं से प्रकृति नदारद होती जा रही है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि हम अपनी प्रकृति से लगातार कटते से जा रहे हैं। पर्यावरणीय बदलावों से भी उस प्रकृति के सामने संकट खड़ा हो गया है जो हम सबके लिए माँ के गोद जैसी है। प्रेमनन्दन युवा कविता के आश्वस्तकारी स्वर हैं। अपनी कविता 'यह पृथ्वी बच्चों की खोई हुई गेंद है' में प्रकृति को शिद्दत से रेखांकित करते हैं। उनकी राजनीतिक कविताएँ युवा कवि के दायित्वों को निभाने वाले कवि की कविताएँ हैं। मजदूरों का पलायन देख कर यह कवि खुद को असहाय पाता है और मुक्तिबोध के हवाले से कहता है 'धँसता जा रहा हूँ/अंधे इतिहास के/ रक्त, मांस, पीब के दलदल में/ जिससे निकलना/ अब सम्भव नहीं लगता।' आज पहली बार पर प्रस्तुत है प्रेमनन्दन की कविताएँ।
 



प्रेमनन्दन की कविताएँ



ऐसी सरकार को स्थगित कर देना चाहिए


शहरों से भाग रहे
प्रवासी मजदूरों के घिसटते शरीरों के
ताजे, हरे जख्मों से
रिसते हुए खून से
लहूलुहान हो रही हैं
पूरे देश की सड़कें

रोजी-रोटी की तलाश में
अपने घरों को छोड़कर
शहर आई
मजदूरों की भीड़
भूखी-प्यासी भागी जा रही है
अपना और अपनों का
बोझ लादे कन्धों पर
उन महानगरों से
जिन्हें बरसों सींचा है
अपने खून-पसीने से

कोई बैल सा-जुता है
बैलगाड़ी में
कोई सूटकेस को ही
गाड़ी बनाकर
अपने जिगर के टुकड़े को
खींच रहा है
कोई बूढ़ी माँ को गोद में उठाए
कोई बीमार पत्नी को कंधों पर
लादे
भागा जा रहा है
हजारों कोस दूर
अपने गाँव-देस
अपने घरों की ओर

घर पहुँचना
सबके नसीब में नहीं
रास्ते ही बन रहे
बहुतों की क़ब्रगाह

कुछ रौंद गए गए रेल की पटरियों पर
कुछ की जान ले ली
खूंख्वार ट्रकों ने
कुछ को मार डाला
भूख और प्यास ने
कुछ को पैर के
सुलगते हुए छालों ने

ऐसे क्रूर समय में
अपनी जनता को
उसके हाल पर छोड़
सरकार
आराम कर रही है
अपने वातानुकूलित शयनकक्षों में

इससे पहले कि
अपनी जनता की देखभाल
करने में असफल, निर्लज्ज सरकार
अपनी कमियां छिपाने के लिए
जनता को ही स्थगित कर दे
जनता को तुरंत ही
ऐसी सरकार को
स्थगित कर देना चाहिए।


इस विकराल समय में


इस विकराल समय में
मुक्तिबोध का 'ब्रम्हराक्षस' हो गया हूँ मैं
'अँधेरे में' चक्कर लगाता हुआ


महानगरों से
अपने गाँवों की ओर
भागती-घिसटती
भूखे-प्यासे मजदूरों की भीड़ देख कर
किताबों में सिर पटकते हुए
छुप जाना चाहता हूँ उनमें
किताबें धिक्कारती हैं
कहती हैं-
जो अपने समय की इबारत नहीं पढ़ सकता
वह खाक पढ़ेगा हमें
कायर कहीं का!


सड़कों पर बिखरी पड़ी
मजदूरों की लाशें
लिपटी जा रही हैं
पैरों में मेरे


उनसे बचने के लिए
बेतहाशा भागना चाहता हूँ मैं
मजदूरों के खून से लथपथ
सड़कों पर फिसल-फिसलकर
गिरता हूँ - भागता हूँ
भागता हूँ - गिरता हूँ


उनकी थकी हुई
निराश, रूखी आँखे
धँस जाती हैं
मेरी पनीली आंखों में

मैं बंद कर लेना चाहता हूँ
अपनी आंखें
ताकि दोबारा देखने पड़ें
मुझे ऐसे दृश्य


कि तभी
'दिमाग़ी गुहान्धकार का ओराँगउटाँग'
सन्दूक से निकल कर
मेरे पीछे-पीछे
दौड़ा रहा
अपने बड़े-बड़े जहरीले नाखूनों की
तीक्ष्ण धार को
और तीक्ष्ण करते हुए
सामने खड़ा होता है


उससे बचने के लिए
नजरें चुराते हुए
मैं अपने आप से
घुस जाता हूँ
बजबजाते समय के
गहरे सुरंगनुमा अंधे कुएँ में
और सिर पटकते हुए
लहूलुहान कर लेता हूँ
 

चक्कर लगाते हुए निरन्तर
धँसता जा रहा हूँ
अंधे इतिहास के
रक्त, माँस और पीब के दलदल में
जिससे निकलना
अब सम्भव नहीं लगता!





बहुरूपिया सरकार


उंगली कटा कर
शहीदों की सूची में
नाम लिखवाने की
पुस्तैनी परम्परा को
आत्मसात किए हुए
आपदा में अवसर तलाशती सरकार
दुनिया की सबसे विचित्र और बहुरूपिया सरकार है


भूखे, गरीबों, मजदूरों के
खाली कटोरों में
चवन्नी उछालती है सरकार
और उस चवन्नी की मरियल छनछनाहट को
अपने ध्वनिविस्तारक यन्त्र जैसे
सुरसामुखी मुख से
गुंजायमान कर देती है
धरती-आसमान


वाहः वाहः करती
बिकी हुई मीडिया
और भक्तों की कीर्तन मंडली की
क्रूर जुगलबंदी
भूख की जगह
ठूँस देना चाहती है
भूखे-प्यासे पेटों में
चवन्नी की छनछनाहट के
गगनभेदी शोर


भूखे, प्यासे, नंगे सिकुड़े
पीठ से चिपके हुए पेटों का झुंड
इस शोर के जवाब में
टूटे-फूटे बर्तनों को पीटते हुए
भूख का कोरस गाता है


क्रूर, निर्दयी, असंवेदनशील सरकार सुन!
बहुत कर ली तूने
अपने 'मन की बात'
अब जरा सुन ले
हमारे 'मन की बात'


यदि तुम्हारे लिए
हम 'जनता' नहीं
केवल 'मतदाता' हैं
हमारी पहचान मात्र
हमारा वोटरकार्ड है
इससे ज्यादा कुछ नहीं
तो हम भी अब तुम्हें
एक कुर्सी से ज्यादा
कुछ नहीं समझते
लात मारेंगे-
और कुर्सी भरभरा गिरेगी
मुँह के बल!


अब-
भूखे पेटों को
तुम्हारे आरामगाहों की
खर्राटों भरी नींद में
ढोल सा बजाते हुए


बेरोजगार हाथों को
सैन्यबलों से सुरक्षित
तुम्हारी हवेलियों में
झंडे सा फहराते हुए


रोटी की तलाश में
थके-मांदे पैरों को
तुम्हारे राजपथों पर
डंडे सा पटकते हुए
तुम्हारे जनविरोधी कार्यों और इरादों को रौंदने
और व्यवस्था बदलाव हेतु
सम्पूर्ण क्रांति का तांडव-नृत्य
शुरू होने ही वाला है!



रात के ठीक बारह बजे


अंग्रेजी में एक कहावत है-
'The king can do no wrong'
राजा कभी भी
गलत नहीं हो सकता
गलत सोच सकता है
गलत कर सकता है


राजा रात आठ बजे घोषणा करता है
कि अगले तीन घण्टे उनसठ मिनट बाद
यानी रात के ठीक बारह बजे से
सभी देशवासियों की जिंदगी
एक पिंजरे में बंद की जाती है
जिसकी चाभी
राजा तो राजा
उसके आकाओं के पास भी नहीं है



जनता जिए या मरे
राजा को इससे कोई मतलब नहीं
बस रात के ठीक बारह बजे से
जनता भेड़ बना दी जाती है
और हरकारा उन्हें बाँधकर- घेरकर
एक अँधेरी सुरंगनुमा
गहरी घाटी में झोंक देता है


याद रहे
ऐसा किसी भी दिन हो सकता है
कि रात के ठीक बारह बजे के बाद
यह देश
आपका रहे
राजा की मुट्ठी में
कैद हो जाए
और वाया राजा
उसके आकाओं की
हवेलियों में गुम हो जाए

चूंकि
राजा किसी भी देश का हो
किसी भी समय का हो
किसी भी स्थिति-परिस्थिति में हो
राजा होता है
इसलिए
उसकी नीतियों, निर्णयों
और कार्यों पर उँगली उठाना
सरासर देशद्रोह है।




मनुष्य से बड़ा कुछ भी नहीं


मनुष्य से बड़ा
कुछ भी नहीं
इस दुनिया में


देश
संविधान
राष्ट्राध्यक्ष


समाज
धर्म
ईश्वर


यदि मनुष्य की रक्षा नहीं
कर सकते ये सब
तो फेंक देना चाहिए इन्हें
समुद्र की अतल गहराइयों में


या फिर झोंक देना चाहिए
ब्रम्हांड के किसी ब्लैकहोल में!


अम्मा के शोकगीत


गीतों की बहती नदिया हैं अम्मा
हरदम गुनगुनाती हुई
कुछ कुछ गाती हुई


सपनीली आँखों से झरते
खारे, उदास आंसुओं का
दरिया हैं अम्मा


अम्मा रोते हुए गाती हैं
या गाते हुए रोती हैं
मेरे लिए आज भी
यह दुनिया का सबसे
खुफिया रहस्य है


अम्मा के गीतों में
चूल्हा-चौका, जाँत है
मूसर-कांड़ी है
खेत, खलिहान हैं


फूल हैं, तितलियां हैं
तालाब हैं, नदियाँ हैं
पेड़, पशु, पक्षी हैं
सूरज, चाँद, तारे हैं


राजा  हैं, रानियां हैं
उनकी कहानियां हैं
डायन हैं, परियाँ हैं
उनकी ऐय्यारियां हैं


दुनिया के सारे उदास लोकगीत
अम्मा की आंखों से
टपके शोकगीत हैं।





मछुआरा मन

मछुआरा मन
चाहे कुछ ऐसा...


खेतों, कछारों में
नदियों संग घूमें
झूमती-मचलती
हवाओं संग झूमें


बारिश की रिमझिम में
पेड़ हँसें, फूल खिलें
जीवन की सुविधाएं
सबको भरपूर मिलें


चिड़ियों को पेड़ मिलें
पशुओं को जंगल
आदमी को बस्ती मिलें
सबका हो मंगल

मछुआरा मन
चाहे कुछ ऐसा


देखना


पहले आदमी ने
दूसरे आदमी को गौर से
देखा
सिर से पैर तक
और मुँह फेर कर
आसमान ताकने लगा


दूसरे आदमी ने
पहले आदमी को घूर कर
देखा
पैर से सिर तक
और मुँह बिचकाकर
धरती निहारने लगा


कुछ देर दोनों के बीच
अजनबी, भयानक, स्याह सन्नाटा पसरा रहा

फिर दोनों पीठें
एक दूसरे को ताकती हुईं
देर तक
दूर तक घूरती रहीं!
 


यह पृथ्वी बच्चों की खोई हुई गेंद है


सूरज की धूप
तितलियों के रंग हैं
कलियों के चेहरे
इसके रूप-रंग हैं

मछलियों का मस्ती
चाँद की शीतलता है
भोर की लाली
इसकी निर्मलता है


जुगनुओं की चमक
तारों की टिमटिम है
झूमती बदलियाँ
बारिस की रिमझिम है
 

चिड़ियों का कलरव
पेड़ों की हरियाली है
पशुओं की चहलकदमी
फसलों की खुशहाली है


इठलाती नदियाँ
पर्वतों की रुनझुन हैं
बच्चों की उछलकूद
धरती की धड़कन हैं


फूलों में रची-बसी
ओस की बूंदों से
धुली हुई यह पृथ्वी
बच्चों की खोई हुई
प्यारी सी गेंद है।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)




पता- 

शकुन नगर, सिविल लाइन्स,
फतेहपुर (0प्र0)


मोबइल – 09336453835 
ईमेल - premnandanftp@gmail.com

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