कुमार मंगलम की कविताएं
कुमार मंगलम |
कुमार मंगलम की कविताएं
न मिला विसाल-ए-यार, न वह
जिसकी जुस्तजू थी
रह
जाता
कहीं
अवचेतन में ही
एक
अकेले मुझ को कितनी जगह चाहिए थी
तुम्हारे
सम्पूर्ण अस्तित्व में
याद
आता
और
खटकता बुरी तरह
जैसे
रेगनी का काँटा
कि
जितना निकालने की कोशिश करो
धँसता
ही जाता भीतर तक
प्यार
करता
और
जी लेता थोड़ा
भले
की कड़वा निबौरी होता
मित्र
वह जो दुश्मन सरीखा
जिसको
पाने की जिद ने हत्यारा बनाया
और
रह गया अकेला
अभिशप्त
और बनावटी
चोरी
की
डाका
डाला
झूठ
बोला
घूँट-घूँट
मरा
हत्याएँ
कीं
और
पूछने पर बताता रहा
कि
बा-रोजगार हूँ
बे-रोजगार
नहीं
पर
बता नहीं पाया
किसी
को, ना खुद को कि
क्या
करता हूँ इन दिनों।
रह जाऊंगा थोड़ा
मरता
हूँ गोया
आज
से
कि
अबतक किसी की स्मृतियों में था नहीं
मर
गया
और
सबकी स्मृतियों में
रह
गया
थोड़ा।
चाह
तुमसे
प्यार करते हुए
जितना
प्यार को जाना
उतना
ही जाना
करुणा
को
तिक्तता, विद्वेष, छल, कपट को भी जाना
उतना
ही तुमसे प्यार करते हुए
प्रिये!
तुम्हें
प्यार
करते हुए नहीं
तुम्हें
तुमसे
दूर जाते तुम्हें हुए जाना।
नाम, जो छूट
गए
कुछ
नाम थे, जिन्हें लिया गया
सशर्त
कुछ
नाम थे, जिन्हें छोड़ दिया गया
कुछ
नाम अक्सर छूट जाते हैं,
छोड़
दिये जाते हैं
अथवा
छोड़ देने का अभिनय करना पड़ता है
कुछ
नाम इतने सशक्त होते हैं कि
उन्हें
मजबूरन लेना ही पड़ता है
और
कुछ नाम इतने निरीह की
उन्हें
फ़र्क़ ही नहीं पड़ता
कुछ
लोग नाम को लेकर बहुत उत्साहित होते हैं
और
जो अलक्षित रह जाते हैं नामों से
वे
अधिक मानवीय और दयालु होते हैं
जिनका
भी नाम बार-बार लिया जाता है
उन
नामों के प्रति अधिक सशंकित रहता हूँ।
प्रगतिशीलों
के लिस्ट में त्रिलोचन का नाम नहीं था
भगवत
रावत, विनय दूबे, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह,
कुमार
विकल या वेणुगोपाल या मोना गुलाटी, राम खेलावन, रामआधार, रहमत, या रॉनी डिसूजा या और भी कई नाम हो सकते
हैं, जिन्हें लिया जा सकता
है अथवा छोड़ा भी जा सकता है, यह एक सुविधा मात्र है।
लेकिन
क्या सिर्फ नाम लेने से क्रमभंग हो जाता है
और
नहीं लेने से इन नामों की विश्वसनीयता संदिग्ध
दरअसल
जो
नामों की राजनीति करते हैं
वे
अनिवार्यतः कुछ नाम ले लेते हैं और कुछ नामों को छोड़ देते हैं
कुछ
नामों पर तो एकदम चुप्पी साध लेते हैं
ऐसे
में उन मुहावरों का क्या कि
नाम
में क्या रखा है
नाम
बड़े काम की चीज है
सिर्फ
एक नाम ही काफी है
नाम
लेते ही
एक
पूरे व्यक्तित्व की पहचान हो जाती है
और
नहीं लेने से उस व्यक्ति की राजनीति की।
बातचीत
ओ मेरी दिलफ़रेब बुलबुल
आओ
और गीत गाओ विरह के
आओ
और मार डालो
जिंदा लाशें सिर्फ बातें करती हैं।
उम्मीद में चलना कि सुबह होगी
हम
चले जा रहे थे
सड़क
पर
लहू
बोते
गलत
पते पर पहुँचने वाले चिट्ठियों की तरह
हमें
अपने गाँव से जीने की उम्मीद नहीं
अपने
माटी में मरने का सुख
लिए
जा रही थी
हमें बैरंग वापस नहीं लौटना था।
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अपनी
जमीन न सही
अपनी
जमीन से नजदीक होने
और
होते जाने के बीच
सारे
दर्द को भूल
भूख
से, उपेक्षा से, दुत्कार से
मर
जाना कहीं अधिक उपयुक्त लगा।
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जब
हम चले
तो
यह उम्मीद थी
कि
कोई तो हमें
इस
तरह देख घर पहुंचा ही देगा
कुछ
पैसों के साथ
पॉकेट
में अनिवार्यतः पता रख लिया था
जैसे
जैसे हम अपने घरों की दूरी
को
कम करते जाते थे
मौत
से भी दूरी कम होती गयी
जिंदा
तो हम वैसे भी घर नहीं पहुँचते
जिस
दिन डेरा छोड़ा था उसी दिन मर गए थे
वहाँ
पहुंचे सशरीर तो भी जिंदा ही होते बस
बेवश
और लाचार
आत्मा
मर चुकी थी
अच्छा
हुआ लावारिश समझ
रास्ते
में ही अंतिम संस्कार कर दिया
कोई
सहृदय, दयावान नहीं आया था
हममें से ही हमसा कोई राहगीर रहा होगा
वो
खुशकिस्मत जिन्हें अपने घर मिले
जिन्हें
अपना मुकाम मिल गया
हम
बियाबान में थे और घर में भी बहार नहीं आई थी
जब
हम मरें
हम
कदम बहुत थे
पासबाँ
कोई न था, दरो-दीवार न थी
बस
एक बेवश मौत थी
अंतहीन
रास्ता था
नींद
न थी।
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हम
मेहनतकश थे
सड़क
बना सकते थे तो
उस सड़क पर फूल भी खिला सकते थे
हमने
अपने लहू को रोपा
और
रक्तबीज सा
लाल
फूल खिला
जिसे
किसी अनुष्ठान में
किसी
नेता के सम्मान में
नहीं
चढ़ना था
बेहया
के फूल की मानिंद
इसे
भी उपेक्षित रहना था
आखिरकार
लाखों बलि चढ़े
तब
यह फूल खिले थे सड़कों पर।
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हम
सिर्फ आँकड़े थे
अथवा
एक पौव्वा और एक सौ रुपल्ली में
बदल
जाने वाले वोट भर थे
सो हमारे लिए योजनाएं और वादे सिर्फ कागजी थे
हकीकत सिर्फ एक
कभी
न समाप्त होने वाला
एक
असमाप्त दिशा भर
जिस
ओर हमारा घर था
और
हमें सबसे बेफिक्र होकर
उस
ओर चलते जाना था
जिसे
पूरब कहते हैं।
गलत पते की चिट्ठियां आख़िर जाती कहाँ है
मुझे
अब भी याद हैं वे पते
जिसे
एक सांस में सुना सकता हूँ
सुकांतोपल्ली.........पोस्ट
बॉक्स नम्बर, पिन नम्बर
जिला
या मेल आईडी आदि-आदि
वे
पते मेरी प्रेमिकाओं के हो सकते थे
या
मेरे दुश्मनों के
या
कोई सुरक्षित ठिकाना
या
मेरे अवसाद के दिनों का खोह
या
कोई विस्मृत चाह, जो कभी पूरी नहीं हुई
उस
जगह जाने की
अक्षर
को भुला जा सकता है
कई
बार संख्याएँ याद नहीं रहती
पर
तुम्हारा पता याद है अस्फुट ही सही
बहुत
बूढ़े होने पर जब
सड़क
किनारे बेचारगी में भूला हुआ मैं
अपने
बच्चों या बेटियों के यहां नहीं जाना चाहूं
तो
मुझे उन पतों के ठिकाने पर भेज दिया जाए
जहाँ
से कोई भी जबाब नहीं आया हो कभी
उन
चिट्ठियों का कौन हिसाब रखता है जो
चिट्ठी
कभी बैरन लौटी नहीं
और
जिसने पढा जबाब नहीं दिया अब तक
जबाब
का न आना भी तो जबाब है।
गलत
पते की चिट्ठी
वापस
वहीं जाती हैं
जहाँ
उनका अंतिम मुकाम होता है।
लौट जाओ
किसकी
हड्डियों के चूरमा से बना यह वज्र
जिसके
आघात से
विश्व
विजयी बना घूम रहा नर-इंद्र
किसके
कपालिक क्रिया से
वह
साधना कर रहा अघोर
कविता
की
किसके
प्यास पर
नशे
में लोटता है वह नशेड़ी
सत्ता-मद
में
उठो
पत्थर-हृदयों
यह
वक्त नहीं है सर्जना की
देव-दानव
युद्ध कब का खेत हो चुका
कपास
के खेतिहरों ने
अपने
लहू से सींच कर
श्वेत-पत्र
लहरा दिया है।
और
किसानों के कपालों से
फट
गया है सिर अघोरी का
प्यास कब की बुझ चुकी है।
लौट
जाओ! लौट जाओ! लौट जाओ!
अपने
घरों को।
परिभाषाएं
शहर
यहाँ
के मूल निवासी खो गए हैं
या
वे विस्थापित हो गए हैं
न
जाने कहाँ
यहाँ
जो रहते हैं
वे
भी विस्थापित हैं
एक
अनंत यात्रा के अनथक यात्री
सराय
है यह
यह
डेरा है
यहाँ
घर किसी का नहीं।
मजदूर
अपने
घरों को छोड़
डेरों
में रहने को अभिशप्त वह आदमी
जो
पैर को पूरा फैला दे तो
दीवाल
आड़े आ जाए
रोज
न्यूनतम कमा लेने की जद्दोजहद
जिससे
उनके परिवार की
जीने
की न्यूनतम शर्त बनी रहे।
जीवन
मंदिर
की सीढ़ियों पर
किसी
भक्त के आने के इंतज़ार में
पेट
को दबाए
बैठा
है कोई
सभी अपने घरों में कैद है
और
मंदिर के चिर स्थायी नागरिक
बेदखल
कर दिए गए हैं
उनके
लिए जीवन दो रोटी की कामना भर है।
गाँव
वह
स्थान
जहाँ
बूढ़े, बच्चे और स्त्रियां
ही शेष हों
जिसके
युवजन
किसी
त्योहार में अतिथि की तरह आते हैं
या
किसी महामारी के बाद
किसान
खेत
में पके फसल को
नहीं
काट पाने की
बेचैनी
में
करवट
बदलता जगन्नाथ
बेवस
है
अबकी
वह अपना भी पेट नहीं भर पायेगा।
मृत्यु
पैदल
ही चला था वह
एक
अनंत यात्रा पर
दुःख
और दुत्तकार के अद्वैत को ढोता
जब
थक गया
लोगों
ने कहा
मर
गया बेचारा
मैंने
कहा
इसे
किसने मारा
एक
सांस्थानिक हत्या
जो
लोकतंत्र के महाअरण्य में घटित हुआ है
इसे
किसी ने दर्ज नहीं किया।
आमुख
अचानक
याद आई तुम्हारी
देह
धनुष हुआ
एक
उसाँस निकली
जैसे
कुछ दबा हुआ बाहर आया
शरीर
नहीं स्मृतियाँ नीली पड़ गईं
बंधते
बंधते मुक्त हुआ कुछ
नए
अध्याय का आमुख
पुराने
का उपसंहार है।
सम्पर्क
मोबाईल 8840649310
उम्मीद में चलना,मजदूर व आमुख कविता अच्छी लगी।बधाई हो तुम्हें।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंbht sundar bhav,,, batchit ak. behtr bhav abhibyakti
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएं।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविताएँ।
जवाब देंहटाएंनाम जो छूट गए, उम्मीद में चलना, गलत पते की चिट्ठी और शहर कविता बेहद प्रभावी है मंगलम । बधाई
जवाब देंहटाएंइन ज़रूरी कविताओं के लिए कुमार मंगलम को मेरी बधाई पहुँचे। कवि को पुस्तक मेले में मिलता रहा हूँ, वे सजग व प्रखर पाठक भी हैं। बहुत अच्छा पाठक होना लेखन के लिए बड़ी चुनौती बन जाता है...
जवाब देंहटाएं...वे यहाँ प्रेम और सामाजिक सरोकारों को पूरी सघनता व संवेदना से अभिव्यक्त करते हुए कविताई की कसौटी पर खरे उतरे हैं। उन्हें आगे की काव्य यात्रा के लिए खूब खूब शुभकामनाएँ।
पहलीबार, धन्यवाद।
-कमल जीत चौधरी (जे&के)