अरुणाभ सौरभ की कविताएँ


अरुणाभ सौरभ


राजसत्ता अपने को मजबूत करने के लिए धर्मसत्ता का पुरातन काल से सहारा लेती रही है। आज भी यह गठजोड़ निरन्तर चल रहा है। भले ही हम इक्कीसवीं सदी में पहुँच गए हों लेकिन धर्मसत्ता के हाथों का खिलौना आज भी बने हुए हैं। धर्म के अंतर्गत तर्क की कोई परम्परा नहीं है। यह अपने बने रहने के लिए आस्था, समर्पण और भक्ति की बात करता है। यह उस काल्पनिक भय की बात करता है, जिसका कहीं अस्तित्व ही नहीं है। आज हमारी दुनिया जो इतनी खूबसूरत है, सभ्यता के चरम पर है, उनके पीछे विज्ञान की एक बड़ी भूमिका है। वह विज्ञान जो हमेशा से तर्क का पक्षधर रहा है। विज्ञान कहता है कि जो भी मन में सवाल जगे उसे पूछो। भले ही विज्ञान की अपनी सीमाएं हैं लेकिन तब भी वह जोख़िम लेने से बाज नहीं आता। आज मनुष्य अगर अन्तरिक्ष की दूरियां नाप रहा है तो उसके पीछे सदियों की तर्क की यह परम्परा ही है। यूक्लिड से होते हुए बरास्ते न्यूटन हम यूरी गागरिन की सफलता तक पहुँचे। यानी कि यह एक दिन में नहीं हुआ। इस सफलता में सदियों का ज्ञान समाहित है। यह विडंबनाआ ही है कि तर्क को नकारने वाला धर्म विज्ञान की मदद लेने में कभी नहीं हिचकता। पादरी हो, मौलवी या सन्यासी किसी का काम लक्जरी गाड़ियों और मोबाइल के बिना नहीं चलता। कवि धर्मसत्ता और राजसत्ता के इस गठजोड़ से बखूबी वाकिफ़ है। इसीलिए वह इसे उजागर करने से नहीं हिचकता। अरुणाभ सौरभ सामाजिक सरोकारों को समझते हैं और उस गठजोड़ का खुलासा करते हैं, जिनमें जनता लगभग मूकदर्शक बन जाती है। अरुणाभ ऐसे युवा कवि हैं जिन्होंने अपनी काव्य भाषा, शिल्प और कथ्य से प्रभावित किया है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है अरुणाभ सौरभ की कुछ नई कविताएँ।



अरुणाभ सौरभ की कविताएँ


जंतर-मंतर



लाल-दीवारों 
और झरोखे पर
सरसराते दिन में
सीढ़ी-सीढ़ी नाप रहे हो
जंतर-मंतर पर
बोल कबूतर



मैना बोली फुदक-फुदक कर
बड़ी जालिम है 
जंतर-मंतर
मांगन से कछु मिले ना हियाँ
बताओ किधर चले मियाँ



पूछ उठा कर भगी गिलहरी
कौवा बोला काँव-काँव 
लौट चलो अब अपने गाँव
टिटही बोलीं टीं…टीं..
राजा मंत्री छी….छी
घर घर माँग रहे वोट
और नए-पुराने नोट
       

2

झरोखे से झाँके 
इतिहास का कोना 
जीना चढि ऊँचे हुए 
चाँदी और सोना 
सूरज डूबन को तैयार 
ताड़ पेड़ के दक्खिन पार
पंछी नाचे अपनी ताल
जनता बनी विक्रम बैताल



झाँक लेना
लाल झरोखा
बोल देना गज़ब अनोखा



बच्चे फाँदे बने अनजान
धरने पर बैठे पहलवान ……


भविष्यत उचार  


इतिहास की किताब से निकल कर 
आता हुआ एक सुग्गा
भूत की स्याह गाथा गाने लगा 
''जिनके हाथों में सत्ता थी 
वहाँ वादे थे
या आश्वासन’’
धर्म-चक्र में 
बदलने लगा था
इतिहास-चक्र’’
और बदलता गया चक्र 
सुग्गे की बात को उसी तरह भुला दिया गया
जैसे भुला दिए जाते हों  गैरज़रूरी बातें तमाम 
उचार रहा था सुग्गा भविष्यत 
किसी और बहाने से
यह जानते हुए कि
भूत हो जाएंगी सारी बातें   


ये तब की बात है जब,
परिचार-मात्र 
या आदेश-पालन के लिए 
लिखी जाती थी - कविता 
और  न्याय-गुण
होती थी हिंसा 
अहिंसक या तो मार दिये गए 
या मस्तक पर
सड़े घाव का मवाद ले कर घूमते रहे 


विचारहीन  
तर्कहीन
दिशाहीन
सभ्यता का 
नग्न नर्त्तन होता रहा 
बहुत सारी
टिटही,
बटेर और
बुलबुल की चीखें 
इतिहास से वर्तमान तक  
गूँजती रही  
अब तो,
वे पंछी भी गायब हुए सारे 
विचारों की हत्याएँ होती रहीं 
राजसत्ता-धर्मसत्ता  
खेल चलता रहा  
हत्या का समाज बन कर 
खेल-खेल में हत्याओं की सत्ता बन गयी  
खेल-खेल में
षड्यंत्र का कोलाज रचा गया विराट कैनवास पर 
खेल-खेल में विचारों से  खेलती रही सत्ता 
खेल-खेल में बनती रही योजना
बिना किसी अमल के  
इस खेल से गायब रहा  जन 
एक देश बनने से पहले 
एक देश बनने के बाद  
एक देश में रक्तरंजित रहा  सब कुछ
इतिहास से वर्तमान तक
खूनी खेल में




चारण काल में एक कविता 


चू जाऊँगा
टपक कर जर्दालू आम की बूंद सा
टभक जाऊँगा
टाभ नींबू सा
खखोर कर फेंक दिया जाऊँगा पपीते के बीज सा 
उतार दिया जाऊँ 
लीची के छिलके सा
खोंट लिया जाऊँ
बथुआ साग सा
महाराज!


तुम्हरे द्वारे आनंद में भरथरी गाने आ जाऊँगा
मिरदंगिया बन जाऊँगा
झाल की तरह बजता रहूँगा
तुम्हरे द्वारे  हरि कीर्तन में
पमरिया नाच नाचूँगा मुड़े की छठी में


महाराज!
नौकरी बजा दूँगा द्वारपाल की
या बिछ जाऊँगा गलीचे सा तुम्हरे फर्श पर
महाराज 
तमस में हाथी से कुचलवा देना
रही जात से बार देना


महाराज !
काली किरिया
बरम किरिया
देब किरिया
बिसहर किरिया
चारण ना बनूँगा तुम्हरी ............


धरतीमाता-भारतमाता 
(लोहिया जी से क्षमायाचना सहित) 


एक दूसरे को काट कर बढ़ने के बीच 
मरघट से लाए नरकंकालों के ढेर
लंबी लाइन अस्पताल में 
बीमार, दमघुटाऊ दिल्ली में 
रेडियो, टीवी, अखबार की 
बिकी हुई खबरों के बीच
गौरव गान के बीच
कहीं धीमी रफ़्तार में रेंगती गाड़ियाँ
कहीं तेज रफ़्तार
इनर सर्किल की चकमक
आउटर सर्किल फुटपाथ पर
सपरिवार रहते असंख्य बेघर लोग
प्लास्टिक-तिरपाल में
कहीं झुग्गी-झोपड़ी में 


नॉर्थ अवेन्यू, साउथ अवेन्यू
लोकसभा-राज्यसभा
या,
सफर करते अनथक मेट्रो/बस यात्री 
किसी को मालूम है
इन बेघरों का नाम और अता-पता- नागरिकता ????
तरह-तरह की बातें और संदेह
ये बंग्लादेशी हैं, नहीं बिहारी हैं 
मुसलमान हैं, नहीं दलित हैं 
ये भीख मांगते हैं
इनका बहुत बड़ा गैंग है
ये भीख के पैसे से खरीदते हैं ड्रग्स
और महिलाएँ अपनी गोद में हमेशा सोए हुए
बच्चे को ले कर मांगती है भीख
बच्चा रोता नहीं कभी
जब भी रोता है लोग कहते हैं
माँ नश में सुई चुभो देती है


कुछ उसी फुटपाथ से सटे ठेके पर
दारू बोतल हटाने
बिखरे चखने पर झाड़ू लगाते
इसी फुटपाथ के टूटे नल पर
स्नान करती महिलाओं के अधखुले अंग
देखकर जागता  है हमारे भीतर का
ऋषि वात्स्यासन और कामाध्यात्म


तब जबकि मेरा देश आर्थिक विकास की नई ऊँचाईयाँ छू रहा है
तब जबकि मेरा देश सम्पूर्ण सांस्कृतिक राष्ट्र बनने की तैयारी में है
तब जबकि मेरा देश हर सच को झूठ और झूठ को सच बनाने में व्यस्त है
तब जबकि मेरा देश हर राजनेता को उम्मीद भरी निगाह से देखता है
तब जबकि मेरा देश सभ्यता की नई कथा कहेगा
देश के सभ्य नागरिकों चिपक जाओ टेलीविज़न से
कि समूचा दिन काट कर दफ़्तर से आ कर सुकून की तलाश में
बदलते रहो चैनल
झूठ-सच मिली खबरों के आधार पर
बनाते रहो धारणा
उन्मादी हवा की चपेट में तुम
भीड़ प्रायोजित हिंसा को सही-गलत ठहराते 
किसानों, नौजवानों की आत्महत्या का मूल कारण तक नहीं जानते 


मित्रों-सभासदों-मंत्रियों
बहुत अंतर है आरबीआई गवर्नर और अरुणाभ सौरभ के भारत में
बहुत अंतर है
देश और देस में 


नागरिक सभ्यता की माँग है कि
सिल दिये जाएँ बोलने वाले होठ
हर अनहोनी से पहले 
मेरे देश की प्यारी लड़कियों
लोहे के मुखौटे से ढक लो चेहरा
लोहे के हिजाब में लपेट लो देह 
कि किसी हमलावर के तेजाब से ना झुलसे
कि दरिंदों के हाथ ना नुचे तुम्हारे माँस का लोथड़ा 
आग होना है तुम्हें कि झुलस जाए
अनचाही छुवन से अपरिचित हाथ  


कुछ लोग गला फाड़ कर चीख रहे हैं कि फर्क मिट गया है
मनु के विधान और अंबेडकर के संविधान में
और हर राज्य में सताये जा रहे हैं अंबेडकर
असंख्य मनुओं द्वारा
रोज नई व्याख्या-रोज नया अर्थ
रोज नया राष्ट्रवाद-रोज नया राष्ट्रद्रोह


ओ भारतमाता
तुम्हीं कहो किससे पूछूँ
तुम्हारी परिभाषा
किस औरत की आत्मा में जा छिपी हो
ग्रामवासिनी माता
दिल्ली में रहती हो कि चिल्का में
दलाल स्ट्रीट में/नन्दन कानन में
बॉलीबुड में/नोएडा फिल्म सिटी में
मणिपुर में/दातेवाड़ा में
सिंगूर में, सेवाग्राम में या हम्पी मे 
सम्राट हर्षवर्धन की प्रेमिका हो
या सम्राट वृहद्रथ की व्याहता
पुष्यमित्र शुंग की पत्नी 
या राजेन्द्र चोल की
यत्र-तत्र-सर्वत्र 
तुम्हीं हो भारतमाता??
क्या सचमुच मेरी माँ तुम्हें
बौद्धों का कटा हुआ मस्तक प्रिय है
या पारिजात पुष्प या कौस्तुभ भूषण 


रात के तीसरे पहर में
हर घर में जाग रही सुबक-सुबक रोती  हुई भारत माता
तुम्हें मेरे पिता ने/मेरे भाइयों ने 
डाँटा है-पीटा है, प्रताड़ित किया है
कवि-कलाकार-चिंतक मारे जा रहे 
कलाहीन हो कर आर्त्तनाद करती हुई 
लुटी-पिटी-बिखरी 
धरती माता, मेरी माँ आओ
मंदिरों की भित्तियों, गवाक्षों-गर्भ गुहाओं से बाहर
कि, सेवालाल के घर दिवाली की मिठाई 
और ज़ाहिद के घर ईद की सेवइयाँ 
ठंडी हो रही 
आओ कि रामरतिया की थाली में भात बन कर छा जाओ 
परबतिया की दाल पर तड़का लगा जाओ 
आ ही जाओ माता 
कि हत्या और आत्महत्या से पहले 
बेरोज़गार के  घर 
उम्मीदों के दीये जलाना है 



गाँव की उदासी का गीत


कहीं चले गए हैं पेड़ की डाल से पंछी
उदास हो-हो कर
नहीं है बसेरा गिद्ध का ताड़ पर
बिज्जू आम की डाल से
टूट कर गायब हो चुका है
मधुमक्खी का छत्ता
और धूल भरे आसमान में
दोनों पाँव थोड़ा उचक गया है-गाँव


ऐसे बे-मौसम कैसे गायी जाए ठुमरी-कजरी
जब गाँव के किस्से-कहानी का
परान ले जाये कोई जमदूत
कि लोक गीत गाने वाली औरतों के सुर, लय, तान 
कंठ में छाले पड़ने से नहीं
अपने शरीर के क्षत-विक्षत होने के डर से
गुम हो चुके हैं


अब जब कि
मुखिया जी की मूछ में लगे घी से
और बाबू साहेब के स्कार्पियो के टायर से
नापी जा रही औकात, गाँव की
और सरपंच के घूसखोर, मुंहदेखुआ फैसले पर
टिका है गाँव का न्याय
तो क्या पंडित जी के ठोप-त्रिपुंड से
चीन्हा जाय गाँव का संस्कार


ऐसे समय में
जब हममें कोई संवाद लेने-देने का ढब नहीं बचा
मोबाइल पर अनवरत झूठ बोल कर
ले लेते हैं जायजा गाँव का


वही गाँव
जहां छल-छद्म-पाखंड और भेदभाव के बीच भी
पड़ोसी सिर्फ़ लड़ते ही नहीं थे
पड़ोसी के घर और अपने घर में अंतर
सिर्फ़ चेहरे से हुआ करता था
पड़ोसी के घर के बनने वाले
पकवान की गंध से ही
बरमब्रूहि-कह उठता था पेट
अपनी थाली में जिस समय
सब्जी के बदले रोटी पर
सिर्फ़ एक टुकड़ा अंचार था
पड़ोसी दादी दे जाती थी
गरमागरम माँछ-भात
अब तो पड़ोस में सड़ रही
लाश की गंध तक हमें नहीं आती
पड़ोसी की उदासी तो
हमारे लिए आनन्द है


सिर्फ़ पड़ोस ही नहीं/समूचा गाँव उदास है
गाँव की उदासी का गीत
कोई कलाकार नहीं
पाकड़, नीम, बरगद और पीपल गाते हैं
या गाते हैं वो सूखे तालाब
जिसके आस-पास नहीं मँडराते हैं-गिद्ध
या वो कुआँ जिसमें अब कछुवा नहीं तैरता
महीनों से सड़ रहा
आवारा कुत्ता गंधा रहा है


दुल्हिन नहीं गाती मंगलचार
अपने खून और किडनी बेच कर
सियाराम भरतार परदेस से
पैसे भेजते हैं गाँव
जो गाँव बच्चे-बूढ़े और विधवाओं की
रखवारी में है, जहाँ
हर मजूरिन उदास है खेत में; कि
धान की सीस में
बहुत कम है धान
खलिहान का जो हो
भूसखाड़ में सिर्फ़ भूसा बचेगा


उदास समय में
सिर्फ़ गाँव में उदासी है, कि
पेड़ उदास है
या मधुमक्खी का छत्ता उदास है
लोक कथाओं में उदासी है
या रो-रो कर मिट गया है लोक गीत
खलिहान में उदासी है
कि समूचा खेत उदास है
बिन पानी नहर उदास है
हार्वेस्टर-ट्रेक्टर उदास है
कि थ्रेसर की धुकधुकी उदासी का गीत गा रही है
और आटाचक्की ऐसे ही बकबका रही है


उदासी माँ की बूढ़ी आँखों में
छायी हुई दुख भरी नमी है
या आंसू की बूंद
या कच्चे जलावन से चूल्हे जलाने के बाद
आँख में लगे धूएँ का असर
इन सबका
हिसाब-किताब
मैं एक कविता लिख कर
कैसे लगा सकता हूँ....................??????


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र की हैं।)


सम्पर्क


डॉ .अरुणाभ सौरभ 
सहायक प्राध्यापक हिन्दी DESSH, 
एनसीईआरटी, क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान,
श्यामला हिल्स,
भोपाल, पिन- 462013 M.P ( मध्यप्रदेश) 


मोबाइल : 9871969360

ई मेल : arunabhsaurabh@gmail.com

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