हरबंस मुखिया का आलेख क्या विश्व सदैव "आधुनिक" नहीं था?

हरबंस मुखिया
 


इस विश्व में कौन ऐसा है जो आधुनिक कहलाया जाना पसंद नहीं करेगा। समय के संदर्भ में भी यही बात की जाती है। हर समय आधुनिक होता है लेकिन एक पल की ही तो देर होती है कि वह समय अतीत में तब्दील हो जाता है। इतिहास में आधुनिक शब्द को ले कर अनेक इतिहासकारों ने विचार किया है। आज हम जिस 21वीं सदी में रह रहे हैं उसे क्या 100-200 सालों के बाद भी आधुनिक माना जायेगा। प्रोफेसर हरबंस मुखिया ने इस आधुनिकता को ले कर द हिंदू में अंग्रेजी में एक आलेख लिखा था। हमारे अनुरोध को स्वीकार कर हरबंस जी ने पहली बार के लिये इस आलेख का हिंदी में अनुवाद किया है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है प्रोफेसर हरबंस मुखिया का आलेख क्या विश्व सदैव "आधुनिक" नहीं था

 

   

क्या विश्व सदैव "आधुनिक" नहीं था

 

प्रोफेसर हरबंस मुखिया


 

समय गया है कि  हम "आधुनिकता" और  उससे उत्पन्न हुई "प्राचीन" और "मध्यकालीन" की श्रेणी पर पुनर्विचार करें। बल्कि यह कहना उचित होगा कि इतिहास में समय विभाजन की संपूर्ण समस्या पर ही एक नज़र-ए सानी डालें। 

 

आज हम जिस विश्व के बाशिंदे हैं वह हर दृष्टि से आधुनिकता का शीर्ष है हालांकि अत्यंत प्राचीन काल के तत्त्व भी हमारे दैनिक जीवन का अटूट हिस्सा हैं। यह विचार का एक रुचिकर विषय है कि भविष्य में - बहुत दूर नहीं निकट भविष्य में ही, 22वीं या 23वीं शताब्दी में आज के इस इस काल को, 19वीं, 20वीं, 21वीं सदी को क्या संज्ञा दी जाएगी : "आधुनिक"? शायद ही संभव हो क्यूंकि "आधुनिकता" के गुण, परिभाषा और परिप्रेक्ष्य बहुत कुछ बदल जायेंगे। और प्राचीन या मध्ययुगीन तो बिल्कुल ही नहीं।  इसलिए समय   गया है कि  हम "आधुनिकता" और  उससे उत्पन्न हुई "प्राचीन" और "मध्यकालीन" की श्रेणी पर पुनर्विचार करें। बल्कि यह कहना उचित होगा कि इतिहास में समय विभाजन की संपूर्ण समस्या पर ही एक नज़र-ए सानी डालें। आधुनिकता को ले कर जो निश्चय क्रिस बेली के शब्दों में था कि यह तो "सर्व विदित" है (out there) जिस पर किसी को कोई संशय नहीं है, आज उस के तार तार हो चुके हैं। यह सब पिछले दो-तीन दशकों में ही हुआ है।

 

समयांतर के संकेत

 

यह कहा जा सकता है कि हर सभ्य समाज में हर समय अतीत और वर्तमान का आभास सामान्य था। यह मान्य होगा कि आज से 3000 वर्ष पूर्व के जन मानस को अनुमान होगा कि वह वर्तमान में जीवित हैं जो उनसे पहले के समय से अलग रहा होगा। कई एक  समाजों में वर्त्तमान को आधुनिक की संज्ञा भी दी गयी, दूसरे स्थानों पर अलग शब्द प्रयुक्त थे। बाल्मीकि की रामायण  में (जो आज के आंकलन में मौर्य काल से छह से तीन शताब्दी पूर्व काल की कृति है) जब राम वनवास जाने को तैयार हो रहे होते हैं तो लक्ष्मण, जो ज़रा उग्र स्वभाव के थे, उनसे अपने पिता के आदेश की अवज्ञा की सलाह देते हैं।  तब उन्हें राम समझाते हैं कि वह जिस समय में जीवित हैं उस समय (अध्यतन) और उस से पूर्व समय में बहुत अंतर है लेकिन बहुत कुछ सामान्य भी है इसलिए जो अब हो रहा है उस प्रकार की घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं। इस्लाम में सदा यह दुख व्यक्त होता रहा है कि समय कितना बदल गया है और पैग़म्बर और उनके पहले चार ख़लीफ़ाओं, जिन्हें पाक ख़लीफ़ा की संज्ञा जाती है हालाँकि इन में से तीन का क़त्ल हुआ था, के काल की शुद्धता भी उनके साथ ही ख़त्म हो गयी; उस के बाद तो केवल ह्रास का काल है।  अतीत के लिए तारीख़ शब्द इस्तेमाल होता है जिसका मतलब तिथि भी है और अतीत भी, जिसमें यह अंतर निहित है। यूरोप में वर्त्तमान के लिए "आधुनिक" शब्द सब से पहले पांचवीं और छठी सदी में प्रयोग में आता है यद्यपि इस में कोई मूल्य निहित नहीं है; यह केवल  वर्त्तमान को अतीत से  अलग करता है। 


 


इतिहास का विभाजन  

 

"आधुनिक" शब्द का मूल्य युक्त उद्भव पुनर्जागरण (Renaissance) के और विशेषकर  प्रबोधन (Enlightenment) के पश्चात हुआ जब यूरोप ने पहले अपने लिए एक विवेकपूर्ण (rational) समाज की छवि गढ़ी और फिर उसके विपरीत अपने ही अतीत को एक विवेकहीन समय या "अंधकार युगकी संज्ञा प्रदान की। यह निष्कर्ष भी प्रस्तुत हुआ कि विवेकशीलता अर्थात आधुनिकता केवल यूरोप की ही देन है और इसकी उत्पति लगभग 17वीं सदी से 19 वीं सदी में हुई; इससे पहले केवल यूरोप बल्कि पूरा मानव समाज अंधकार युग अथवामध्य युगमें ग्रस्त था। इस प्रकार "मध्य युग" का आविष्कार "आधुनिक" युग में हुआ।  "प्राचीन काल" का आविष्कार भी इसी काल और इसी सन्दर्भ में हुआ जिसे "अधुनिक" युग के प्राथमिक स्वरुप की तरह स्वीकार किया गया। यह सब स्पष्टतः "आधुनिकता" से व्युत्पन्न अवधारणाएं थीं। इन से उत्तर प्रबोधन यूरोप की विचारशील छवि को भी समर्थन प्राप्त हुआ। 1688 तक जर्मन इतिहासकार Cellarius के हाथों इतिहास का त्रिभागीय समय विभाजन औपचारिक हो गया यद्यपि इस प्रक्रिया का आरम्भ 16 सदी में क्रिस्चियन धार्मिक विवादों के सन्दर्भ में हुआ था। 18 वीं सदी में प्रत्यक्षवा (Positivism) के उदय ने विचारशीलता को एक वैज्ञानिक आधार प्रदान किया; इसे एक वस्तुपरक तथ्य होने की स्वीकृति प्राप्त हो गयी जो किसी मानवीय हस्तक्षेप द्वारा परिवर्तन से सुरक्षित था।


इस तरह हमें ऐतिहासिक समय के तीन आदर्श प्रारूप प्राप्त हो जाते हैं जिसमें प्रत्येक के गुण स्पष्टतः अंकित होते हैं यद्यपि इनका संप्रयोग केवल प्रादेशिक ही था अर्थात केवल यूरोप तक ही सीमित था।  जब यूरोप का पूरे विश्व में व्यापार और शस्त्र के साथ विस्तार हुआ तो उसकी शासन पद्धति के साथ-साथ उसकी बौद्धिक अवधारणाओं एवं परिकल्पनाओं ने भी विश्व की अन्य अवधारणाओं परिकल्पनाओं को विस्थापित कर दिया। भारत, चीन, जापान, अरब-मुस्लिम और अन्य सभ्य समाजों में प्रचलित ऐतिहासिक समय के विभाजन का स्थान अब यूरोप के इस त्रिभागीय विभाजन ने ग्रहण कर लिया और 19वीं सदी के उत्तरार्ध 20वीं सदी के प्रथम चरण में यह विभाजन विश्वव्यापी हो गया। एक खासे लम्बे समय तक पूरे "मध्य काल" के लम्बे अर्से को रूढ़िवाद निश्चलता का काल क़रार दे कर "आधुनिक" काल की रफ़्तार से बदलती अवस्था को -- जिस में विवेकशीलता, विज्ञान, तकनीक की भूमिका प्रमुख थी -- प्रज्वलित किया गया। जब लम्बे मध्य काल की निरंतर निश्चलता पर यूरोप में सवाल उठने लगे तो त्रिभागीय समय को संशोधित किया जाने लगा और उत्तर प्राचीन काल, पूर्व मध्य काल, उत्तर मध्य काल, पूर्व आधुनिक काल की परिभाषाएं उजागर हुईं। यह स्पष्ट हुआ कि समय का मूल त्रिभागीय विभाजन, जो समय को अत्यंत दीर्घ इकाइयों में बाँट देता है इतिहास और समाज में हो रहे परिवर्तन को नज़रअंदाज़ कर देता है और इतने लम्बे समय को किसी एक या दूसरी संज्ञा में क़ैद कर देता है। यह प्रक्रिया अन्य स्थानों पर भी शुरू हुई लेकिन हर जगह त्रिभागीय सरंचना क़ायम रही। 

 



आधुनिकता का विचार

 

आज जब पूरे विश्व में आधुनिकता पर चर्चा हो रही है और कई प्रश्न उठ रहे हैं तो ज़ाहिर है कि इस विषय पर और उससे प्रत्युपन्न श्रेणिओं पर  प्राप्त ज्ञान से असंतोष बढ़ता जा रहा है इसका एक बेहतरीन उदाहरण हमारे काल के शीर्ष बुद्धिजीवियों में से एक,  एस. एन. ऐज़ेनस्टाट (S N Eisenstadt), के दो बयान हैं जो लगभग 30 साल के अन्तर से दिए गए हैं: 1966 में उन्हों ने विश्वास से कहा "ऐतिहासिक रूप से आधुनिकीकरण वह प्रक्रिया है जो 17वीं शताब्दी से 19 वीं शताब्दी तक पश्चिमी यूरोप और उत्तर अमेरिका में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन ले कर आई है।" 1998 आते-आते उनका यह विश्वास तनिक क्षीण हुआ और उन्होंने कहा "यह समझना कि विश्व में केवल एक ही आधुनिकता है बिल्कुल ग़लत होगा"

 

आज इस मान्यता को स्वीकार करना मुश्किल होता जा रहा है कि विश्व को आधुनिकता एक सीमित क्षैत्र -- यूरोप -- की और एक विशेष समय कोष्टक -- 18 वीं  से 20 वीं सदी -- की देन है जिस के मुख्य लक्षण हैं उद्योग, चुनावी राजनीति, पूँजीवाद, धर्म निरपेक्ष राज्य, व्यक्तिवाद आदि। अब इतिहास का विषय विशेष  (discipline) इस निष्कर्ष तक पहुँच चुका है कि हमारा विश्व प्रत्येक समाज एवं सभ्यता के योगदान से विकसित हुआ है चाहे यह योगदान फ़सलों का हो या दस्तकारी का, व्यापार का या आवागमन के साधनों का, अवधारणाओं का या परिकल्पनाओं का, भाषाओँ का या संस्कृति का, या प्रशासन व्यवस्था का या सौंदर्य बोध का हो.... यह सूची तो अनंत है। और यह योगदान किसी समय सीमा में बद्ध नहीं है बल्कि जहाँ तक दृष्टि जाती है वहीँ से इस का प्रारम्भ है।

 

कल्पना कीजिये जब किसी ने पहिये का आविष्कार किया था तो संसार में क्रांति हो गयी; जब किसी समाज में पहली बार सिक्के बन कर क्रय-विक्रय का साधन बने या कोई नयी फ़सल उगाई गयी या कहीं प्रथम राज्य शासन व्यवस्था की स्थापना हुई; काग़ज़ या फिर बन्दूक का निर्माण हुआ या फिर चाय पी गयी; ईश्वर की परिकल्पना और धर्म का प्रकाशन हुआ। .... असंख्य आविष्कार निरंतर और हर समाज में होते आये हैं जिन्होंने इस संसार को विकसित किया है जिसे हम "आधुनिक" की संज्ञा से पहचानते हैं।

 

हम जब रोज़ शाम को समोसे के साथ चाय पीते हैं तो कभी ख़याल किया है कि समौसे में आलू, टमाटर, मिर्च में से कोई भी तत्त्व हमारे देश की पैदाइश नहीं है; इन सब का दक्षिण अमेरिका से लगभग 16 वीं सदी में भारत में आगमन हुआ है और समोसे का त्रिकोणीय आकार भी मध्य एशिया से आयात हुआ है और चाय तो विश्व को चीन की देन है। हमारी रोज़ाना ज़िन्दगी में ही विश्व के अनेक तत्वों का योग है और यह तथ्य विश्व के हर व्यक्ति के लिए सत्य है और इतिहास के लम्बे दौर से सत्य है।



 

आधुनिकता का एक विशेष गुण यह माना जाता है कि इस समय प्रगति या विकास की रफ़्तार मध्य युग की तुलना में बहुत तेज़ हुई है और इस से इन्कार करना आसान नहीं। लेकिन किसी भी समय-काल में प्रगति की रफ़्तार उस के पूर्व हुई प्रगति की उपलब्धियों के सामूहिक फलस्वरुप उभर कर आती है। हर समय-काल में अपने से पूर्व काल की तुलना में सिर्फ प्रगति का परिमाण और विस्तार अधिक होता है बल्कि उसकी रफ़्तार भी तेज़ होती है क्योंकि उस का आधार पूर्व में विकसित हो चुका होता है। आधुनिक प्रगति की तेज़ गति का तर्क इस तथ्य को भी नज़रअंदाज़ करता है कि विश्व के अलग अलग क्षेत्रों में आधुनिक काल से बहुत पूर्व ऐसे ऐसे आविष्कार होते आये हैं जिन्होंने पूरे मानव समाज के प्रत्येक पहलू को प्रभावित किया है। कुछ उदाहरण तो ऊपर दिये गए हैं।  दो और उदाहरण प्रस्तुत हैं : चीन में 9 वीं-10 वीं शताब्दी में विकसित कम्पास, बारूद और छपाई का आविष्कार हुआ और मानव इतिहास बदल गया।  यूरोप में  लगभग 12 वीं शताब्दी में खेत को तीन हिस्सों की जगह दो हिस्सों में बाँट कर एक हिस्से में जोत लगाने से अनाज के उत्पादन में दो गुना वृद्धि हुई जिस से वहां जनसंख्या में अपूर्व इज़ाफ़ा हुआ  जिस का गहरा और दूरगामी प्रभाव वहां की आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्थाओं पर पड़ा; इन में से एक दूरगामी प्रभाव था फ्यूडलिज़्म का  ह्रास ओर पूंजीवाद का प्रादुर्भाव। इन सब और बहुत कुछ अन्य आविष्कारों से विश्व का तेज़ गति से "आधुनिकीकरण" हुआ।  इस प्रकार के "आधुनिकीकरण" के कारक लगभग हर समाज में किसी किसी समय में विकसित होते आये हैं। आज के इतिहास लेखन से यह भी स्पष्ट है कि बाज़ार में बिकाऊ वस्तुओं के अलावा विचार, तकनीकी, अवधारणाऐं परिकल्पनाएं भी पूरे विश्व में कई सहस्र वर्षों से गति से सफर करते आये हैं जिसका श्रेय उन्हें नहीं मिला क्योंकि इससे मध्य युग की अंधकारमय और निश्चलता-पूर्ण छवि पर  प्रश्न लग जाता है। वास्तव में निरंतरता में ही परिवर्तन और परिवर्तन में ही निरंतरता निहित है।

 

तो आज जब इतिहास के परिप्रेक्ष्य पुनर्परिभाषित हो रहे हैं क्या हम पुराने समय-कोष्टक और उन्हीं समय-काल सूचकों को ले कर इस इतिहास को समेट पाएंगेयहाँ इस पर ज़ोर देना ज़रूरी है कि "आधुनिक" और उससे व्युत्पन्न श्रेणियों को किसी भी तरह से और कितनी ही बार संशोधित किया जाये उनमें निहित वह मूल्य जो उसे यूरोपीय सन्दर्भ से प्राप्त हुए थे उनसे दूर जाना संभव नहीं क्योंकि मूल्यों के बग़ैर वह समय कोष्टक उसी प्रकार केवल समय का विवरण रह जाता है जैसा कि प्राचीन का में था। विश्व के बाक़ी क्षेत्रों के लिए सिर्फ यह ही शेष रह जाता है कि वह इन मूल्यों से अपने इतिहास की तुलना यह मापने के लिए करें कि वह किस समय उन के कितने क़रीब या कितने दूर थे : वह फ़्यूडल थे या नहीं और विशेषकर उनमें पूंजीवाद के अंकुर मौजूद थे या नहीं। यह एक तरह का "मैं भी" वाद का संवाद था। हम इस जाल से कैसे निकल सकते हैं? यह तथ्य कि समय के त्रिभागिया विभाजन का जन्म कुछ ही सदियों पहले हुआ है और उस में निरंतर संशोधन हो रहे हैं इस सत्य को दर्शाता है कि यह विभाजन मूल रूप से अस्थायी है। एक दो सदियों में इस के स्थान पर इस विभाजन की कुछ अन्य इकाईयां विकसित होने की प्रचुर संभावनाएँ हैं जो इन मूल्यों से बोझित नहीं होंगी। शायद हम इस परिवर्तन का कुछ हद तक पूर्वानुमान लगा सकते हैं और इस के लिए वैचारिक आधार की तैयारी कर सकते हैं। एक विकल्प पर ग़ौर किया जा सकता है कि हम हर क्षेत्र के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक या सांस्कृतिक परिवर्तन का दशकों, शताब्दियों आदि में अध्ययन करें, जिस में मूल्य तटस्थ हों जैसे भारत की अर्थव्यवस्था 6ठी से 10वीं शताब्दी तक या मध्य एशिया 12वीं और 17 शताब्दी के दरम्यान आदि आदि। इस अध्ययन में मूल्य तटस्थता अर्थात मध्य युगीन, पूर्व आधुनिक आदि विशेषणों से मुक्ति -- जो अब यूँ भी विश्लेषण की श्रेणियों की जगह लगभग नारे बन चुके हैं -- कितनी अधिक सहायक होगी यह विचार योग्य तो हो ही सकता  है।

 

 

संपर्क-

हरबंस मुखिया
बी-86, सनसिटी, सेक्टर-54,
गुडगाँव, 122011,
(
हरियाणा)

ई मेल: hmukhia@gmail.com

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'