शाहनाज़ इमरानी की कविताएँ

शाहनाज़ इमरानी


समय हमेशा रैखिक गति से नहीं चलता। कभी वह अग्रगामी प्रतीत होता है तो कभी वह पश्चगामी। निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि आज का समय पश्चगामी समय है। कट्टरताएँ दुनिया भर में हर जगह फिर से सिर उठा रही हैं। दक्षिणपंथी पार्टियाँ सत्ता में आ रही हैं। ऐसा लगता है जैसे मध्यकाल फिर से जीवंत हो उठा हो। मानवता की जगह अब धर्म, जाति और वर्ग जैसी संकीर्ण परिधियों ने ले लिया है। कवि का दायित्व निभाते हुए शाहनाज़ इमरानी इस कट्टरता और संकीर्णता को अपनी कविता में साफगोई से इंगित करती हैं। अपनी एक कविता में शाहनाज़ लिखती हैं 'अनगिनत आवाजें हैं, मगर सुनाई बहुत कम देतीं/ और समझ उससे भी कम आता।' आज सचमुच ऐसा ही परिदृश्य है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है शाहनाज इमरानी की कविताएँ।



 

शाहनाज़ इमरानी की कविताएँ

मेरा ख़ौफ़ 

एक ही सिम्त में चलते दिन रात

उदासी एक गहरी नदी

जिसमे चेहरा भी उचाट नज़र आता

सुबह से शाम और शाम से रात तक 

नपे तुले क़दमों की हरकत   

बदलती दुनिया की हर चीज़ के बदलते मायने

शाम ढलते हुए काली रात में बदली 

चाँद के लम्बे हाथ

दरख़्तों के सर्द कंधो को छूते हुए

बादलों के समन्दर में डूबे

असमंजस की सीढ़ियों पर बैठे हुए  
सन्नाटे की आवाज़ें नींद और जागने के बीच 



नब्ज़ टटोलने पर साँसे किसी आशंका में उखड़ती

आती हुई बमुश्किल चंद सांसे

जिसमे उलझी एक पूरी दुनिया

उम्मीदों की खुली खिड़कियों से

खुलता आसमान मगर कुछ वक़्त के लिए

एक धूसर दुःख चुप्पी ओढ़ लेता

एक अजीब ख़ौफ़ सर उठाता

बावजूद इसके के मौत एक सामान्य सी बात है अब। 



हादसे के बाद


कितने लोग मेरी तरह 

सुबह उठ कर इस डर में


अख़बार पढ़ते या समाचार देखते होंगे 

कोई बम विस्फोट तो नहीं हुआ

आतंकवादियों ने किसी जगह

हमला तो नहीं कर दिया

हर हादसे के बाद 

बन जाती कुछ अदृश्य दीवारें



काले बादलों की तरह फ़ैलती ख़बरें

राष्ट्र्वाद के नाम पर लहराते झंडे

दूसरे देश भेजने के बुलंद होते नारे

गोली मारने की अपील

अनगिनत आवाज़ें हैं, मगर सुनाई बहुत कम देतीं

और समझ उससे भी कम आता


गहरे अँधेरे में दूर तक देखना मुश्किल हुआ

अब इंसानों के ख़ून से क़ौमे सींची जाती

कब किसकी जबान फिसल जाये

कोई नहीं जानता



संकरी सी गली जो खत्म होती अंधे मोड़ पर

घुटन सांस में ही नहीं पूरे वजूद में

दबे पाँव आता ख़ौफ़

अगर किसी दिन हिसाब देना हो मुझे  

उन नाकर्दा गुनाहों का

जो मज़हब के नाम पर किसी और से सर्ज़द हुए।


 

 

शिनाख़्त


क्या होगा

कुछ होने के बारे में 

ढेर सारे सवाल सामने खड़े

ग़लत जगह पर रखी सही चीज़ें

ग़लत उपयोग की आदी हो गयीं 

सुबह आईने में देखा 

रातों की स्याही आँखों के नीचे बैठी थी 

मुँह छुपाने पर अपनी ही 

हथेलियों के अंदर राहत नहीं मिलती 

मैं भी तो इसी मिट्टी की हूँ

पैबस्त है गहरे लफ़्ज़ों में नाम इसका

पुरातत्व के शिलालेख की तरह 

मगर कागज़ पर लिखे चंद शब्द सुबूत हुए

हर चेहरे पर मौजूद हैं उनके शुरूआत की जड़ें
आदमी की पूरी कहानी कहती हुई 

जड़ों से ही होता दरख़्त हरा 


 

जगह नहीं बदलते दरख़्त

ग़ायब हो जाती उनकी प्रजातियाँ

पहचान विस्मृत हुई और इतिहास भी

साथ छूट सकता है कहीं भी

हवा की तरह

पिता के हाथ की तरह 

रात के काले वर्कों पर सर्द सन्नाटा 

ठिठुरती हवा रूक रूक कर चलती 

यह न्याय और अदालत के सोने का वक़्त

 

देती हूँ ख़ुद को तसल्ली

बांधती हूँ नए सिरे से मुट्ठियां

अपने ही चेहरे में खुद को ढूंढ़ती हूँ 

ख़ुद के होने में ख़ुद ही को

मैं किसको पुरसा देती

मुझे ताज़ियत तो खुद से करना थी।






बी पॉज़िटिव

 

पहचानी हुई सी जगह पर मैं अकेली

मुझे पहचानने वाला कोई नहीं 

पहचान तो ख़ुदी से होती है, फिर अँधेरा हो या रौशनी 

सामने वाले बिस्तर पर रोती स्त्री के 

आँसुओं का गीलापन, ख़ुद की आँखों में महसूस होता

खिड़की से बाहर नज़र जाती

गली के नुक्क्ड़ पर लगा उदास लैम्प पोस्ट

शायद अब रौशनी नहीं देता

लोहे के जंगले पर फुदकती चिड़िया 

गमलों के मुरझाते फूल

बैचेनी हर चीज़ का रंग बदल देती 

कहीं बादलों के बीच "मैं" और कोई आवाज़ नहीं

एक निर्वात में खो जाती 

किताबों के नामकहानियों के किरदार

हादसों का बयानएथनाग्राफिक डिटेल्स

किसी मायावी घटना के घटने की उम्मीद 

मुझे छू कर निकल जाती

बिस्तर पर वापस

घुटने पेट की तरफ़ मोड़ते हुए

महसूस होताख़ालीपन कुछ कम हुआ 

"बी पॉज़िटिव" एक बॉटल ख़ून दौड़ने लगता नसों में।

 

त्रासदी

 

सफर की शुरूआत में 

पैरों ने महसूस किया 

ज़मीन का सक़्त हो जाना 

विपरीत दिशा में हवा का चलना 

उस एक पुरानी हवेली के दालान में 

कितनी झूठी कहानियां सुनी थीं मैंने 

कितने सच्चे अन्देशों को झूठा जाना था 

बहुत से सवाल ज़हन को झंझोड़ते रहे

सीखा नाइंसाफी को नाइंसाफी 

और ज़ुल्म को ज़ुल्म कहना 

पूछती हूँ सवाल मेरे पिता भी पूछे थे 

ज़िन्दगी जीना आर्ट नहीं

पतली रस्सी पर चलता नट का खेल हुआ  

कोई भी आदमी कभी भी 

अलग तरह से उजागर हो कर चौका देता

नहीं है आदमी के आकलन का कोई फार्मूला  

हर कोई आइसबर्ग की तरह 

दिखाता सिर्फ थोड़ा सा ही हिस्सा

एक मारक चाबुक की तरह 

बेआवाज़ घटित होता और छोड़ जाता निशान  

व्यक्ति को जानने का दावा खोखला हो चुका अब  

खंजर पर क़ातिल के हाथ के निशा नहीं मिलते 

धर्म के दस्ताने पहने हुए कुछ भी साबित नहीं होता

बहुत सारे विश्वासों में से भी फूट पड़ता है संदेह। 



 


 ख़ुदाओं की इस जंग में



दिन रात का सारा हिसाब बिगड़ा हुआ इन दिनों 

धार्मिक नफ़रत ने राजनीति से निकल कर 

क़ब्ज़ा कर लिया लोगों के दिमागों पर 

कहीं भीड़ बन कर कहीं भीड़ में शामिल हो कर

शक के आधार पर बेगुनाहों का क़त्ल 

हार पहना कर स्वागत किया जाता अब हत्यारों का 

सदियों की उपेक्षा और सियासी चालबाज़ियों का नतीजा 

पुकारा जाता ग़द्दार और देशद्रोही के नाम से 

हो रही है लगातार विचारों की हत्या

यहाँ प्रतिरोध अब बेमानी और बेअसर  

दीवारें ख़ामोश हैं निःशब्द खड़े हैं पहरेदार

जेल में बंद है अहिंसा

सबका साथ सबका विकास नहीं होता

सिर्फ़ कुछ लोगों का विकास

झूठ को झूठ कहना देशद्रोह हुआ   

शब्दों और भाषणों से फ़ैल रही नफ़रतें  

वो डराते हैं ज़िंदगी को  

वो हमारे मारे जाने का ख़्वाब देखते

भूखमरी और जंग के बीच भी बनाते नये क़ायदे

अमन के परिंदे बैठे बारूद के ढेर पर

लाशों पर राष्ट्र की बुनियाद

हर जुर्म में एक क़ौम को तलाशना लाज़मी 

मुस्लिम फ़ोबिया फ़ैलता मीडिया

इंसान से जानवर होते जाने के वक़्त में 


 

राजनीति और धर्म के बदलते मायने

किये जा रहे हैं छल 

 एक दूसरे को निगल जाने के षड्यंत्र 

भूख और हाथ के बढ़ते जाते फ़ासले के बीच 

पदक और पदोन्नतियां  

मिलते हैं जो मौत के सौदागरों को 


 

नाउम्मीदी काली रात सी

सबके अपने दांव 

कोई ऐसा कोई वैसा और कोई न जाने कैसा 

उदासीनता के इस सन्नाटे में 

मरते जाते हैं एहसास 

कब पता चलता है की न चाहते हुए भी

बन जाते हैं दर्शक इस निर्मम समय की चुप्पी के बीच।





(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क



ई मेल : shahnaz.imrani@gmail.com

 

टिप्पणियाँ

  1. शाहनाज इमरानी जी की यह सभी कविताएँ अभी पढ़ी ! अपने समय की विसंगतियों और संघर्ष को बेहतरीन ढंग से बाँचती यह कविताएँ ईमानदार अभिव्यक्ति का सशक्त उदाहरण हैं ! बधाई और शुभकामनाएँ !

    जवाब देंहटाएं
  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  3. ’ख़ुदाओं की इस जंग में’ बेहद अच्छी कविता है।

    जवाब देंहटाएं
  4. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 6.8.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    http://charchamanch.blogspot.com
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

    जवाब देंहटाएं
  5. शाश्वत सत्य को उकेरती हुईं यह सभी रचनाएँ बेहद प्रासंगिक व सामयिक हैं। सत्यता से जुड़े सभी वर्ग को अपनी आवाज बुलंद करनी होगी; क्योंकि झूठ में शोर व भय पैदा करने की थोड़ी क्षमता तो होती है लेकिन आत्मिक ताकत नहीं होती। जय हिन्द

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'