बलभद्र का संस्मरण "शम्भु बादल: जितने सहृदय उतने ही प्रतिबद्ध"


शम्भु बादल


बलभद्र युवा कवि और आलोचक हैं। लोक से इनका गहरा जुड़ाव है। इसीलिए इनके साथ जुड़ाव में वह सुगन्ध है जिसे हम गँवई सुगंध कह सकते हैं। अपनत्व से भरा हुआ संग साथ उनका स्वभाव है। कवि और प्रसंग पत्रिका के सम्पादक शम्भु बादल के साथ उनका अरसे से गहरा जुड़ाव रहा है। अपने आत्मीय संस्मरण 'शम्भु बादल : जितने सहृदय उतने ही प्रतिबद्ध' में उन्होंने अतीत के उस अध्याय को याद किया है जब प्रतिबद्धता रचनाकारों के जीवन व्यवहार में होती थी। आज पहली बार पर पढ़ते हैं बलभद्र का यह संस्मरण।



'शम्भु बादल : जितने सहृदय उतने ही प्रतिबद्ध'


बलभद्र



शम्भु बादल हिन्दी के एक वरिष्ठ जनधर्मी कवि हैं। उनकी एक काव्य पुस्तक है 'पैदल चलने वाले पूछते हैं'। कविता की यह उनकी पहली किताब है। यह अपने आप में एक लंबी कविता है। सन1970 के बाद, और कहें तो आजादी के बाद के जो प्रमुख जन-मुद्दे हैं, जो भारतीय सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिस्थितियाँ हैं, कविता के केंद्र में हैं। कविता में कई खंड-चित्र हैं। कोई चाहे तो इन खंडों को अलग-अलग कविता के रूप में भी पढ़ सकता है। इसके एक लंबे अंतराल के बाद दूसरा संकलन आया 'मौसम को हाँक चलो'। तीसरा संकलन है 'सपनों से बनते हैं सपने।' एक चौथा संग्रह भी आया है 'शम्भु बादल की चुनी हुई कविताएँ।' इसमें इन संग्रहों की चुनी हुई कविताओं के साथ कुछ और भी कविताएँ हैं। बादल जी की कविताएँ पाठकों से सीधा संवाद करती हैं। आम आदमी के जीवन-संघर्षों की अनेक छवियाँ यहाँ सहज ही देखी जा सकती हैं। कवि आम आदमी के चरित्र और व्यवहार में निहित प्रतिरोध को कई कोणों से विश्लेषित करता है। ऐसा करते हुए वो  अपने किस्म की भाषा की खोज भी करता है।

             
बादल जी की पहचान एक संपादक की भी है। 'प्रसंग' जैसी पत्रिका के संपादन के खट्टे-मीठे अनुभवों का उनके पास पूरा एक खजाना है। एकदम सीधे-सादे बादल जी, पर अपने विचारों और इरादों में प्रतिबद्ध।


बादल जी को जानने से पहले उनके सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका 'प्रसंग' को जाना। पहली बार प्रसंग को 1986 या 87 में देखा। किसी अंक में संतोष सहर की एक कविता छपी थी। दरअसल, यही वो समय था जब मैं पत्र-पत्रिकाओं से जुड़ रहा था। इसके पहले बाबू जी (बड़े बाबू जी) के चलते दिनमान, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, रविवार आदि को पढ़ने-पलटने की एक तमीज तो बन ही  रही थी। लेकिन, मुकम्मल साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़ाव इसी 86-87 से होना आरम्भ होता है। वो मेरी परेशानी के भी दिन थे। पढ़ाई-लिखाई अस्त-व्यस्त थी। पर, इसी दौर में यह चस्का लगना शुरू हुआ था। कहने में कोई संकोच नहीं कि संतोष का हमसे पहले इस तरह की पत्र-पत्रिकाओं से जुड़ाव हुआ। तो, प्रसंग से जुड़ने का जो प्रसंग है, वो संतोष और उसकी कविता का है। फिर, 1992 के आरंभ में मैं बी एच यू जाता हूँ पीएच.डी. हेतु। वर्ष 1993-94 से कविता लिखना शुरू करता हूँ और प्रकाश उदय का साथ-सहयोग और प्रोत्साहन पा कविताएँ पत्रिकाओं में प्रकाशन हेतु भेजना शुरू करता हूँ। पहली बार मैं अपनी एक कविता 'उत्तर संवाद' (हरिवंश सिलाकारी) के लिए भेजता हूँ। लिफाफा में कविता, साथ में स्वपता लिखा डाक टिकट सटा लिफाफा और एक पोस्टकार्ड। इसी के आसपास एक कविता 'प्रसंग' को भी भेजता हूँ। शम्भु बादल के साथ पत्रिका में प्रकाशित उनके गांव का वह पता आज़ तक याद है। कविता स्वीकृत होती है, स्वीकृति-पत्र भी आता है, पर पत्रिका का वह अंक नहीं आता है। पत्रिका लंबे समय तक नहीं छपती है। वह कविता आज मेरे भी पास  नहीं है। शम्भु बादल से किसी परिचय का यही आरंभ है। फिर तो उनकी कुछ कविताएँ मिलीं, पत्र-पत्रिकाओं में। मैं नहीं जानता था कि वे हिंदी के प्रोफेसर भी हैं। यह तो बहुत बाद में जाना। जन संस्कृति मंच के राँची वाले राष्ट्रीय सम्मेलन में उनसे भेंट हुई थी। हल्की -फुल्की बातचीत हुई थी। शम्भु बादल को एक संपादक के रूप में सबसे पहले जाना। फिर कवि के रूप में। वाम-जनवादी धारा के कवि -संपादक के रूप में। 'प्रसंग' में मैंने जो कविता भेजी थी, उसका शीर्षक था 'जब भी लिखता हूँ कविताएँ'। उसकी कुछ पंक्तियाँ याद आ रही है।


"पेड़ और पेड़ों पर चिड़ियों के गाँव
जब भी लिखता हूँ कविताएँ 
आ ही जाते हैं बिवाइयों वाले पाँव
बतियाने लगती हैं
पलहारी पर दुधमुँहों को सुला कर
खेतों में कटनी करती
पलट-पलट कर ताकती हुई माँएँ।' 


आज वो कविता मिल नहीं रही है। 'उत्तर संवाद' के लिए 'हराइयाँ' कविता भेजी थी। शलभ श्रीराम सिंह का स्वीकृति पत्र आया था। उन्होंने और कुछ कविताएँ मांगी थी। कविताएँ भेज दी थी। कविताएँ छपी कि नहीं, कोई जानकारी नहीं मिल पाई। शलभ जी उन कविताओं को कविता अंक में देने वाले थे। शलभ जी के कुछ पत्र हैं मेरे पास। तब बड़ी खुशी हुई थी। 'उत्तर संवाद' को भेजी वो कविताएँ मेरे काव्य-संग्रह 'समय की ठनक' में शामिल हैं। मैं गाँव और आरा से बनारस आया था, कविताएँ सुनना और पढ़ना तो हो ही रहा था, अब सुनाना और छपने के लिए भेजना भी होने लगा था।कहने का मतलब कि बादल जी से जुड़ने में उनके संपादक और उनकी पत्रिका की यह उल्लेखनीय आरंभिक भूमिका रही है।
            


बादल जी हिंदी के प्रोफेसर थे, यह बहुत बाद में जाना। सुधीर सुमन ने बताया तब जाना। मेरे जैसे बहुतों को नहीं पता होगा। पत्रिका में तो उनके गाँव सरौनी खुर्द का पता होता था। यह किसी प्रोफेसर का पता होने जैसा तो नहीं लग रहा था। बता दें कि रविभूषण जी के बारे में भी बाद में जाना कि वो भी हिंदी के प्रोफेसर हैं। कुछ इसी तरह से महेश्वर जी को भी जानता था। उनके प्रोफेसर होने से ज्यादा उनकी वैचारिकी, उनके लेखन, संपादन व सक्रियता से संवाद रहा। यह मेरा पिछड़ापन भी हो सकता है। पर, जो है सो इसी रूप में है।
            


सन 2008 के जनवरी में शायद एक फोन आता है मेरे मोबाइल पर। 'जी, बलभद्र जी बोल रहे हैं?' उत्तर दिया- 'हाँ।' फिर उधर से- 'शम्भु बादल बोल रहा हूँ।' फिर तो प्रणाम-सलाम के बाद उन्होंने विजेन्द्र अनिल पर एक आलेख लिखने को कहा। वह आलेख प्रसंग में छपा। इसके बाद तो बादल जी से बातें होने लगीं। मार्च 2008 में गिरिडीह आ गया। उसी विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में जिस विश्वविद्यालय में बादल जी थे।



गिरिडीह आने के बाद बादल जी के यहाँ जाने का मौका मिला। उनके यहाँ रहने का भी और एक बार नहीं कई बार। हजारीबाग में मुझे जहाँ कहीं भी जाना होता बादल जी खुद बाइक से पहुँचाने जाते। देर होने पर फोन करते।मुझे संकोच होता पर वे मानने वाले थोड़े थे। मना करता पर वे सुनते नहीं।साथ नाश्ता, साथ खाना। रात खाने के वक्त अपने हाथ से दूध में दो रोटियाँ बिन डाले नहीं रहते और यह आज भी करते हैं।
         


'प्रसंग' के प्रकाशन के लिए बादल जी एक बार बनारस आए। वो छुट्टियों के दिन थे, गर्मी की छुट्टियों के, 2008 में। सुबह-सुबह पहुंचती है गंगा सतलज एक्सप्रेस। मैं बनारस स्टेशन पहुँचा हुआ था बादल जी को अपने यहाँ ले आने के लिए। बादल जी आए और बहुत आराम से पाँच-छह दिन ठहरे। अंक फाइनल हुआ। पूरी सामग्री पहले से ही टाइप की हुई थी। थोड़ा-सा करेक्शन था और सेटिंग वगैरह। वो सब हुआ। शिवकुमार निगम के यहाँ।एक-एक चीज पर बादल जी का ध्यान था। उस समय हम लोग वर्मा जी (अशोक कुमार वर्मा, बिरदोपुर) के मकान के फर्स्ट फ्लोर पर रहते थे। उसी समय बादल जी ने प्रसंग के संपादन का प्रस्ताव रखा। कहा --"चाहता हूँ कि आप और प्रकाश उदय 'प्रसंग' को देखें, संभालें।" प्रकाश उदय से यहीं पर बादल जी की भेंट होती है, पहली भेंट। उदय जी से मिल कर बादल जी बहुत खुश थे। मैं ना तो नहीं कह सकता था। ना कहने का कोई कारण भी नहीं था। तो, इस अंक के बाद हम दोनों प्रसंग के संपादन से जुड़ गए। उदय जी के समक्ष भी खुद बादल जी ने ही प्रस्ताव रखा। मैंने तो उदय जी से कह ही दिया था, उनसे 'हाँ' मिल गया था। फिर भी, बादल जी ने उनसे खुद कहा। इस तरह हम दोनों यहाँ भी एक साथ हुए। पहले से तो थे ही 'समकालीन भोजपुरी साहित्य' में।
           


एक वाकया ऐसा कि उसका जिक्र जरूरी लग रहा है। बनारस से उनको जयपुर जाना था। सुबह कोई ट्रैन थी। ट्रैन तक पहुँचाने आया हुआ था मैं। मेरे घर से एक फोन आता है कि सर का कुछ सामान छूट गया है। बादल जी से मैंने कहा कि आपका कुछ छूट गया है। बादल जी मेरा हाथ पकड़ते हुए कहते हैं कि चलिए, कुछ नहीं छूटा है। मैंने राधा से कहा कि क्या है? तो राधा ने बताया कि तीन चार ठे लक्स है, दो पियर्स है, पाउडर, आँवला तेल, बिस्कुट, नमकीन--सब कुरसी पर तौलिया से ढँका है, सामान सहेजते वक्त ढँके होने के चलते दिखा नहीं होगा, इसीलिए छूट गया है। बादल जी मेरा हाथ पकड़े हुए थे और बोल रहे थे कि छूटा कुछ भी नहीं है। उस दिन सुमन कुमार भी आरा से आए हुए थे। बाद में सोचने लगा 'छूटा कुछ भी नहीं' का मतलब। तौलिए से ढँक कर जो छोड़ गए थे बादल जी, वह केवल कुछ सामान नहीं थे। 'वो क्या था' - आप सब भी समझ सकते हैं। यहाँ उसकी व्याख्या करना उसको मूलभाव से इधर-उधर करना होगा। अव्यक्त बहुत कुछ व्यक्त भी होता है।



'प्रसंग' के संपादन से हम दोनों (बलभद्र और प्रकाश उदय) जुड़ गए। वार्ड 2010 में प्रसंग का अंक-15 आता है। यह पहला अंक है जिसमें बतौर सह संपादक हम दोनों के नाम हैं। इस अंक का प्रूफ पढ़ते हुए एक बड़ी दिलचस्प बात होती है।  इस अंक की एक कहानी  'राजमहल में राजतिलक और लोकतंत्र की पैरोडी' (जावेद इस्लाम) का फर्स्ट प्रूफ पढ़ रहा था। कहानी काफी अच्छी लगी थी। जावेद का मोबाइल नम्बर था। फोन किया।बातें हुईं। जावेद इस्लाम से मैं बिल्कुल अपरिचित था। मालूम हुआ कि जावेद दूर के नहीं, बरही के ही हैं और यह भी पता चला कि वे जसम के करीब हैं। फिर तो लगातार बातचीत होने लगी। इसी अंक में प्रखर जनधर्मी आलोचक जीवन सिंह का एक साक्षात्कार भी था। कवि केशव तिवारी और महेश चन्द्र पुनेठा ने संयुक्त रूप से इन्टरव्यू लिया था। जीवन सिंह से मैं बहुत प्रभावित हुआ था। पहली बार फोन पर बात हुई। इस तरह जीवन सिंह को गंभीरता से पढ़ने की दिलचस्पी जगी। जीवन सिंह से आज जिस तरह की आत्मीयता है,  उसमें प्रसंग की अहम भूमिका है।
             


प्रसंग में प्रकाशित होने वाली रचनाओं को ले कर बादल जी बहुत सचेत रहते हैं। पत्रिका के लिए उन्होंने बहुत पहले से एक फॉर्मेट बना रखा है।उस फॉर्मेट को लेकर वे आज भी गंभीर हैं।जबकि मेरा मानना है कि आज की तारीख में उस फॉर्मेट से बाहर आने की जरूरत है। बहुत कुछ नया करने की। इसको ले कर मेरी कई बार बातें भी हुई हैं। उसमें बहुत कुछ बदलाव हुआ भी है। सच पूछिए तो बादल जी अपनी पूरी वैचारिकी और बनाव में अपनी टेक वाले आदमी हैं। उनका जो भी हासिल है वह सहसा का नहीं, एक प्रक्रिया के तहत सम्भव हुआ है। उनकी कविताएँ भी एक गहन विचारशील कवि की चिंतन-प्रकिया की निर्मिति होने को प्रमाणित करती हैं।जो तय करते हैं, खूब डूब कर। फिर, उसको बदलना भी उसी तरह डूब कर सम्भव होगा। उनके यहाँ हठात कुछ भी नहीं हो पाता। बातचीत में कहते भी हैं कि 'खूब सोच-विचार के बाद यह सब तय किया था।' हर अंक को ले कर बादल जी से मेरी खूब बहस होती है, जम कर। कभी किसी कहानी की विषय-वस्तु को ले कर तो कभी किसी आलोचनात्मक आलेख को ले कर।पर, बादल जी हैं कि अपनी जगह से जल्दी टस से मस नहीं होते। बार-बार उस रचना पर विचार करते हैं और करने का आग्रह भी करते हैं।
         


मैं महसूस करता हूँ कि वे 'प्रसंग' में स्थानीय रचनाकारों को भरपूर जगह देने के पक्षधर हैं। झारखंड की जनभाषाओं की रचनाओं को लेकर भी वे काफी गंभीर हैं। प्रसंग के कई पहले के अंकों को देखते हुए भी ऐसा कह रहा हूँ। आज की तारीख में हर अंक के लिए 20-25 हजार रुपये अपनी ओर से लगाते हैं। रचनाकारों और रचनाकार मित्रों को हर अंक की प्रति भेजते हैं। विभिन्न स्टालों को भेजते हैं। हम तो अंक निकाल भर देते हैं। वे जितने सहृदय हैं उतने ही प्रतिबद्ध।


साहित्य-संस्कृति की कौन-सी पत्रिका उनके यहाँ नहीं आती है। हर तरह की। पाठ, प्रेरणा, मुक्तांचल, वागर्थ, समकालीन जनमत, जनपथ, सर्वनाम, लोकाक्षर आदि अनेक पत्रिकाएँ। वे इन्हीं सब में खोये रहते हैं। कविता उनके जीवन का मूल आधार है। जिस हजारीबाग में रहते हैं उसी के करीब उनका अपना गाँव है। राँची, हजारीबाग से देश-विदेश घूमते हुए बादल जी आज भी अपने गाँव 'सरौनी' के हैं। गाँव उनसे छूटा नहीं है। बादल जी से जब मिला, जितनी बार मिला, लगा कि वे कुछ खोज रहे हैं, किसी को पुकार रहे हैं। उनका कुछ या कोई कहीं हेरा गया है। कमरे में उनकी पत्नी की तसवीर है और छोटे पुत्र चंदन की भी। मैं बादल जी को देखता हूँ और उन तसवीरों को, चुपचाप। मन ही मन कुछ सुनता रहता हूँ। बादल जी के चलने में, बोलने में, हँसने और बतियाने में, वह जो वे नहीं कहते हैं। अपनी कविताओं में भी वे कुछ कहते हैं, पत्नी और पुत्र के बारे में, पर, जितना कहते हैं उससे जियादा बिनकहे कहते हैं। 
               


वे लम्बे समय से जन संस्कृति मंच से जुड़े हुए हैं। हजारीबाग 1986 में उनके नेतृत्व में ऐतिहासिक कविता शिविर भी देख चुका है। उस शिविर की स्मृतियाँ कई साथियों के पास आज भी सुरक्षित हैं। 1986 के बाद हजारीबाग 2013 की काव्य-संगोष्ठी का भी साक्षी बना। वरिष्ठ आलोचक खगेन्द्र ठाकुर , रविभूषण के साथ-साथ आशुतोष कुमार, रणेंद्र, प्रणय कृष्ण, निर्मला पुतुल, प्रकाश उदय सहित हजारीबाग के अनेक कवि, लेखक इसमें शामिल थे। हम जानते हैं कि हजारीबाग में उनके विरोधी कम नहीं हैं। पर, बादल जी ने सबको यथोचित सम्मान दिया है। किसी के बारे में झट कुछ भी नहीं कह देते। कभी-कभी तो उनके इस स्वभाव से थोड़ी खीझ भी होती है। पर, वे हैं कि उन पर कोई फरक नहीं पड़ता। अपने विचार और अपने सहयोगी स्वभाव के साथ हमेशा गतिशील हैं। वे जितने सहृदय हैं उतने ही प्रतिबद्ध। यह यकीन और मजबूती पाता है कि सहृदयता और प्रतिबद्धता दोनों सहयात्री हैं।





बलभद्र



सम्पर्क

मोबाइल : 8127291103

टिप्पणियाँ

  1. संस्मरण दिल पर एक गहरी छाप छोड़ता है. इस संस्मरण में एक आत्मीयता है. अच्छा लगा.

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  2. बेहद सुन्दर और सजीव चित्रण ...

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