देवेन्द्र आर्य की दो लम्बी कविताएँ
देवेन्द्र आर्य |
इस दुनिया को सिरजने में एक बड़ा हाथ मजदूरों का है। मजदूर जो सर्वहारा होते हैं, प्रायः उन आधारभूत सुविधाओं से भी वंचित रहते हैं जिस पर उनका हक होता है। मजदूरों को अपने श्रम पर गहरा यकीन होता है। इस बात का यकीन कि चाहें जो भी हालात हों, वे मेहनत मजूरी कर अपना गुजारा कर ही लेंगे। लेकिन कोरोना काल ने जैसे हमारे सारे यकीनों को एकाएक ध्वस्त कर दिया। भारतीय इतिहास में विभाजन की त्रासदी के बाद यह मजदूरों का अब तक का सबसे बड़ा पलायन था। पलायन अपने घर की तरफ, अपनी मिट्टी की तरफ। पलायन उस विश्वास की तरफ कि मृत्यु की स्थिति में उन्हें कम से कम चार लोगों के कन्धे तो मयस्सर हो ही जाएँगे। पलायन उस विश्वास की तरफ कि चाहें जैसे भी हो उनके परिजन जैसे तैसे ही सही, उनका श्राद्ध कर देंगे। यह विश्वास भी कम बड़ी त्रासदी नहीं है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में कहें तो जो धर्म पूरे जीवन में अहम भूमिका निभाता है, वही धर्म का लावा जब साम्प्रदायिक उन्माद का रूप ले लेता है तब किसी को नहीं बख्शता। वरिष्ठ कवि देवेन्द्र आर्य ने इसी परिप्रेक्ष्य को ले कर महाकाव्यात्मक विस्तार वाली दो कविताएँ लिखी हैं, जो किसी भी संवेदनशील मन को बेचैन कर देती हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है देवेन्द्र आर्य की दो लम्बी कविताएँ।
देवेन्द्र आर्य की लम्बी कविताएँ
पैदल इंडिया
डूबती सड़कें समंदर पांवों का
उफ़ !
सड़क है या कि धारावी नदी का बांध टूटा
बह रहा सैलाब पांवों का
मुंह प जाबा
पांव-पैदल सर प गठरी
जो किसी ने साल भर में तो किसी ने उम्र आधी
बेच करके है कमाई
लग गए हैं चोर गठरी में अदृश्य
जैसे पीछा कर रही हों आग की लपटें
चल रहे बस चल रहे बस चल रहे
क्या रे गांधी क्या सिखा कर मर गया तू !
ये बेचारे आज तक लड़ते रहे चलते रहे
लड़ते रहे अंग्रेजों की औलादों से
आया था कोई बुद्ध
दु:ख है दुःख का कारण है बताते
नहीं निकला आज तक दु:ख का निवारण रे तथागत !
सुना कोई शंकराचार्य चला पैदल
समंदर से हिमालय तक
तीर्थ निर्मित कर गया था चहु दिशा में
उम्र भी क्या थी तुम्हारी ही समझ लो
निवासी से होते होते तुम प्रवासी
मर-मराते जंगलों में आदिवासी
कह गया था देश सारा एक है
एक हैं सब देशवासी
झूठा निकला
कितने तो हैं विंध्य पर्वत बीच में अनलंघे
शिवालिक श्रृंखलाएं बांटतीं हमको
यह सड़क सैलाब साबित कर रहा है
देश टुकड़े हो चुका है
हाइवे पगड़ंडियों में
एक शहरी आंकड़ों का देश
एक उजड़े गांव का परदेश
एक के हाथों में डंडा
दूसरे के हाथ में केवल चिरौरी --- बाऊ जी घर जाने दो
कुछ नहीं बस पांव रखने की जगह दे दो सड़क पर
चले जाएंगे हम अपने देश
ज़िंदगी तो भूख से पिस ही गई पर
कम से कम कंघे तो मिल जाएंगे अपने चार
घंट बंध जाएगा अपने गांव पीपल पर
स्वर्ग के रस्ते से भटकी
यह पसर कर बह रही है हाइवे पर मनुज-वैतरणी
जाने कितनों को डुबोएगी
जाने कितनी प्यासी हैं सड़कें
पसीना पी रही हैं
जाने कितनी भूखी हैं सड़कें
चाटती रहती हैं छाले पांवों के
यह सड़क है या उदासी का समंदर
या कि पैदल इंडिया
पांच ट्रिलियन वाला पैदल इंडिया
डबल इंजन वाला पैदल इंडिया
उफ़ ! ज़रा पहचानो इनको
हां यही तो हैं गए थे कुम्भ धक्कमपेल एक दिन
जब बसों की ट्रेन की लम्बी कतारें चल रही थीं बिना हाहाकार
साधारण किराए पर
पुण्य की सींकड़ बंधे ये पांव जयकारा लगाते
मां गंगा ने बुलाया था इन्हें
अपने कंठों में बसाए ताल-पोखर बह चले थे तीरे गंगा
भक्त तबके
अबके जो नामित हुए हैं श्रम-प्रवासी
हां, यही तो थे चढ़े गुम्बद पर ले के छीनी सरिया
हां, इन्हीं में से जले थे गोधरा में कई सारे
हां, यही थे अपने चूल्हे में पकाई राम मंदिर ईंटें ले कर सरयू तीरे
हां, यही थे ढोते कांवर
हर की पौडी से उठाए गंगाजल
पांव-पैदल अपने पिपराइच के मंदिर
भोले की नगरी से बाबाधाम जाते
तब फुहेरा फूलों का बरसा था इन पर हवा-रथ से
कर रहे थे वर्दी वाले लोक सेवक पांव-पट्टी
हर शहर भंडारा शिव का था सियासी
भोले भंडारी का डीजे
उस समय क्या थी ग़ज़ब इम्यूनिटी इस देश की
श्रवण-क्षमता दस गुनी
हां, यही तो थे चढ़ाने आए खिचड़ी
रात से लगती कतारों में खड़े
अपनी डेहरी में बचाए अन्न बाबा गोरखनाथ को झर-झर चढ़ाते
किसने इनको भेजा था न्यौता?
आज बोलो किसने इनको भेजा है न्यौता?
कि सबके सब चल पड़े हैं गांव-घर अपने
कि जैसे गांव अगुवानी में बैठा है इन्हीं के
आएं और रोटी में हिस्सा बांट लें !
एक नया छप्पर बगल में साट लें
हां, यही तो थे
चिल्ल-पों करते कि हम भी नागरिक हैं देश के
हां, इन्हीं को तो बुलाना था बसाना था
हां, इन्हीं जैसे तो थे
चेहरों से नहीं पहचानता हूं गठरियों से
और इनकी बोलियों से
जैसे मां सीते को पहचाना था उनके पांवों से लखन ने
मगर ये सब यहां कैसे?
ना तो कोई कुम्भ ना ही श्रावणी ना मकर संक्रांति
ये कहां टिड्डी दलों से आ गए हैं?
आ गए हैं तो चलो पालक-पनीर बनवा रहा हूं
खाए पींए रहें क्वारंटाइन कुछ दिन
अब समय तो लगता ही है
यह कोई 'मत-महोत्सव' थोड़े है पूरा हो दस दिन में
तिस पर इनकी एक ही रट
बस चिरौरी
आपसे हमको नहीं कोई शिकायत
नहीं मालिक अब हमें घर जाना है अपने
रक्खो अपने फंड-फाटे
हमको घर जाने दो बाबू
दिल हमारा फट गया है दूध सा
क्या करेंगे लेके हम पालक-पनीर
चार दिन की भूख के बदले
रो रहा था इसरो वाला
यान उसका बाल की मोटाई भर की दूरी से था राह भटका
रो रहा था एक वैज्ञानिक झार-झार
और इधर हंस रहा है डबल इंजन
चल रहा चौबीस घंटे देरी से अपनी पटरी पर ये पैदल इंडिया
ट्रेन गोरखपुर से भटकी जा लगी तट पर उड़ीसा के
बहुत मुश्किल है नियम पालन कराना बिना मीसा के
रो रहीं सड़कें
हंस रहे हैं छाले पांवों के
हम कि जैसे वायरस हों इस शहर के!
छिन न जाए सल्तनत दिल्ली की इनकी
दिल का चोखा बना डाला है हमारे
इतने भारी हो गए दो जून अपने!
अभी जब अक्षत हैं अपने हांथ!
जब अभी भी फेफड़ों में इतनी ताकत है
कि अपनी आह से 'भसम हुइ जाए सार'
पांव ही जब हैं हमारी बैलगाड़ी
था बहुत अभिमान श्रम पर
नरक में भी खा-कमा लेंगे चला कर हाथ अपने
और ठठा कर अपनी हड्डी
पेर कर जांगर
बहा कर सर से पांवों तक पसीना
हाथ काला कर के भर देंगे उजाला घर की किस्मत में
था बड़ा अभिमान
टूटा ना गुरूर!
सिर्फ़ ताक़त ही नहीं तय करती है सब कुछ
कुछ ये पृथ्वी तय करेगी
और कुछ पृथ्वी के नए मलिकार
तय करेंगे कैसा हो माहौल मौसम
कितनों को ज़िंदा है रखना और क्या हो न्यूनतम लागत
कितने जीते जी मरेंगे 'कोरना' की मौत
बिना संसद तय करेंगे सांसद
कौन संसद?
किसकी संसद?
सिर्फ़ सड़कें!
सड़कें ही हैं धर्मशाला
सड़कों पर बिखरा निवाला
यह सड़क है या कि डफरिन अस्पताल
इन्हीं सड़कों पर कभी लगती थी संसद
इन्ही सड़कों ने किए पैदा हमारे रहनुमा
इन्हीं सड़कों पर हुई जचगी
कोख से सड़कों पर सीधे आ गिरे बच्चे
लस्त पड़ जाते हैं चउए तक मगर बज्जर की मां है
चल पड़ी फिर लड़खड़ाती खून से लतपथ
अपने आंचल में समेटे सांसों जितना गर्म
महकता प्राणों सा मांस का वह लोथड़ा
प्रार्थना में रत है पैदल इंडिया
पांवों पहुंचा देना मां को
थक न जाना रुक न जाना
गोद मां की भर गयी है
सड़क शुभ साइत है मां की
गांव पहुंचा देना मां को
गांव पहुंचेगी करेगी तेल-बुकवा और दिठौना अपने बाबू का
फिर बनेगा विश्व-गुरु
पांच ट्रिलियन वाला पैदल इंडिया
लेकर अपने पांवो का छाला ये पैदल इंडिया।
दिल्ली
तब भी इतनी बुरी लगी किस को
अब भी कहते हैं सब
कि अच्छी है
या तो देखी थी 'मीर' ने दिल्ली
या तो अब 'आर्या' ने देखी है
हक़ है
पेंशन नहीं कोई इमदाद
सोच कर लिक्खा होगा 'मिर्ज़ा' ने
आंसुओं में छिपाया होगा जिसे
उसको अशआर में कहा होगा
लूटा थोड़ी न है रिआया को
दिल जलाया है
दिल्लगी की है
आर्यानामा हो
या 'दस्तम्बू'
है तो तहरीर ही ज़माने की
कौन अकबर
कहां का नादिरशाह
यादें तारीख़ हैं गिनाने की
कुछ सुनाने की कुछ भुनाने की
रोटी के साथ था कमल का फूल
और यक़ीनन नहीं थी यह कोई भूल
मर गया कोई बेकफ़न
कोई
क़ब्र भर की ज़मीन से महरूम
एक पतली सी खून की धारा
बिडला मंदिर में अब भी बहती है
एक टूटी कमानी चश्मे की
कान में सांय-सांय कहती है
क्या हुआ ?
वक़्त कुछ रुका सा है !
'संत' का नाम कुछ सुना सा है
वक़्त ठहरा न था मगर फिर भी
फ़ितरतन हम ने भी तरक़्क़ी की
आपदा को बना लिया अवसर
नीबू सा गार कर किनारे किया
जी हां
सब आप के सहारे किया
कर न पाए जो रोशनी में वे
हम ने मुमकिन वो मुंह अन्हारे किया
जी हां, सब आपके सहारे किया
ला के साबरमती से गंगा ने
भेजा था गोडसे की दिल्ली में
तुम जो 'सत्तर' में जी नहीं पाए
हम ने वो 'सात' ही में जी ली है
आन लाइन से क्या हुआ अब तक
बल्लीमारान घूम कर आएं
कैमरा थोड़ा ज़ूम कर आएं
छोलतारी में लक्ष्मी का नगर
और वो एक गली पराठों की
चल मेरी जान घूम कर आएं
उतनी ही दूर भक्तों से हैं राम
जितनी संसद से दूर
झुग्गी है
ऐसा होता रहा है पहले भी
बादलों में हमें दिखी यमुना
हमने 'आशा' समझ के खोले किवाड़
तब लगा यार
यह तो रेकी है
ये फ़क़ीराना भेष आशिक़ का
फेर में पड़ गए हैं सौदाई
एक चौथाई रह गए हैं हम
नौकरी
बीबी बच्चे
तन्हाई
तुम दरख़्तों की बात करते हो
एक जवा घास भी न जम पाई
ज़िंदगी जितनी लग रही थी हमें
उससे बढ़ कर कहीं कमीनी है
दुरदुराए गए ज़माने से
फिर बुलाए गए बहाने से
क्या कमाया है
क्या बचाया है
यार, बचता कहां है खाने से
नेहरू पैलेस से पूछ लो जा कर
होता आया है यह ज़माने से
ख़्वाब देसी भले रहे हों मगर
भूख तो सदियों से प्रवासी है
सोच कर सहमे-सहमे हैं पत्ते
गर हवा पाज़िटिव निकल आई!
होने वाला है पेड़ों का बीमा
दिल्ली में लाॅबी दावानल की है
रहने लायक़ नहीं रही दिल्ली
फिर भी दिल्ली का मोह सब को है
चाहे सरकार ही गिरानी पड़े
चाहे जम्हूरियत प पानी पड़े
कब बदल जाए संविधान का सुर
देखिए ना !
छिड़ा है देवासुर
जाने लायक़ नहीं रही दिल्ली
जो गये, खप गये
नहीं लौटे
छट्ठी बरही हो
या हो भइया दूज
अब बुलाते नहीं हैं कजरौटे
तुम सलामत रहो तो हम महफ़ूज़!
दिल्ली दिन भर की किचकिचाहट है
रात गहराए चूमा चाटी है
साफ़ दिखता है लफ़्ज़ों का अंतर
एन सी आर और तीन सौ सत्तर
ध्वज में भी अब कहां रहा खद्दर?
हिन्दू मुस्लिम का मरकज़ी तेवर
और उस पर ये दंगों का फ़्लेवर
का हो इस्लाम!
का हो बलभद्दर!
जो भी चाहे बिछाए ओढ़े तुम्हें?
यार,
इंसान हो कि हो चद्दर!
अब तलक शायरी थी दरबारी
अब सियासत ने शायरी की है
सात दशकों से थी नहीं फ़ुर्सत
आज ही कौन आ गई आफ़त?
डरते आए हैं आज तक
डरिए
अब 'दुआ' के लिए दुआ करिए
जी न पाएं तो शौक़ से मरिए
दिल्ली में दिल्ली के दलालों को
हां जी हां 'गोली मारो सालों को'
आंख पर जाले
मुंह प तालों को
एक बड़ा सा सलाम है साहब
अपने शाहीन बाग़ वालों को
गर्दनों पर चरण कमल हैं पड़े
लोग क़ानून से हैं तिरछे खड़े
सांसें घुटती हैं
सांसों से लड़िए !
आप तो पांवों के हैं पीछे पड़े
कल उन्हें भी तो बासी होना है
बिक रहे हैं बिके हुए अख़बार
लूट की हो गयी खड़ी दीवार
इस तरफ़ आप
उस तरफ़ सरकार
ओखला से ख़रीद लाएं हम
यह 'स्वदेशी' कोई कमीज़ है क्या?
जिसको फसरी बना के झूलें किसान
आत्म निर्भरता वो ही 'चीज़' है क्या?
लोन पर थोड़ी ले के आए हम
और नहीं हैं कफ़न खसोट मियां!
अपनी नीयत कि जैसे इक ढिबरी
बुझते-बुझते भी
जलती रहती है
शाम आई
तो यह ख़बर आई
अपहरण हो गया है सूरज का
रात तो काटनी ही है 'मितरों'
चांद रातों की रात काली है
नाम के हैं
हराम के बाबू
सब भरोसे है राम के बाबू!
कोई हाफ़िज़ नहीं
हफ़ीज़ नहीं
लल्लो चप्पो से बन गए शायर
आर्या को कोई तमीज़ नहीं
मैं ने इक 'श्री' ही तो लगाया है
और सब राम जी की माया है
'आर्या' आप मान बैठे मुझे
अब बताओ
ये किस की ग़लती है?
पढ़ लिया तुमने?
कर लिया लाइक?
यार यह फ़ेसबुक की दुनिया है
ठहरी रहती है
चलती दिखती है
तुम इसी के भरोसे बैठे हो
अब बताओ ये किसकी ग़लती है
तुम ने क्या सच में दिल्ली देखी है?
या तो देखी थी 'मीर' ने दिल्ली
या तो अब 'आर्या' ने देखी है
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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