विधान की कविताएँ
नाम- विधान
मूल नाम- गुँजन श्रीवास्तव
जन्म-24 मार्च 1995
निवास- समस्तीपुर (बिहार)
स्नातक- रूसी भाषा एवं साहित्य
(जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय)
स्नातकोत्तर- राजनीति विज्ञान
लोकतान्त्रिक परम्परा वाले देश में संविधान सर्वोच्च होता है। उसी के आधार पर सरकारें शासन चलाया करती हैं। जब तक उदारवादी लोग सरकार चलाते हैं, संविधान के सामने कोई दिक्कत नहीं होती। लेकिन जब कभी कोई महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति सरकार में आता है, तब वह संविधान की व्याख्या भी अपनी तरह से करने लगता है। उस व्यक्ति में तानाशाह बनने की तमाम गुंजाइशें होती हैं। ऐसे समय में लोकतन्त्र कराहने लगता है। इस समय साहित्यकार का दायित्व बढ़ जाता है। उसे उस जनता की तरफ खड़ा होना होता है, जो तानाशाह के शासन से पीड़ित होती है। वैसे यह आसान भी नहीं। क्योंकि इसमें तमाम खतरे होते हैं। उसे शासक की टेढ़ी नज़र का सामना करना पड़ सकता है। उसे राष्ट्रद्रोही घोषित कर जेल में डाला जा सकता है। इन खतरों के बावजूद रचनाकार संविधान का और जनता का पक्ष लेने से नहीं चूकता। साहित्य की यही खूबी होती है कि वह अधिकांशतया व्यक्ति को मानवता का पक्षधर बना देता है। युवा कवि विधान की कविताएँ हमें आश्वस्त करती हैं कि यह कवि उस 'कविता कर्म' का तरफदार है, जो खतरों से भरा हुआ है। विधान की कविताएँ इसकी तस्दीक करती हैं। अपनी एक कविता "मेरी मृत्यु लोकतंत्र की हत्या मानी जाए' में लिखते हैं 'मेरी आखिरी इच्छा थी कि/ मेरी मृत्यु को/ लोकतंत्र की हत्या मानी जाये"। अपनी एक और कविता 'कवियों का शपथ ग्रहण' में वे खुलेआम कहते हैं 'और जब तक कि लड़ाई/ बराबर की न हो जाये;/ मैं हर हथियारबंद के सामने खड़े/ निहत्थे का समर्थक हूँ!' आज पहली बार पर प्रस्तुत है ऐसे ही संभावनाशील कवि विधान की कविताएँ।
विधान की कविताएँ
ये बच्चा नहीं एक देश का मानचित्र है
मुझे भ्रम होता है कि एक दिन ये बच्चा
बदल जायेगा अचानक
'मेरे देश के मानचित्र में'
और सर पर कश्मीर रख ढोता फिरेगा
सड़कों - चौराहों पर
भूख भूख कहता हुआ
मुझे भ्रम है कि कल इसके
कंधे पर उभर आयेंगी
उत्तराखंड और पंजाब की आकृतियां
भुजाओं पर इसकी अचानक उग आयेंगे
गुजरात और असम
सीने में धड़कते दिल की जगह ले लेगा
मध्यप्रदेश
नितंबों को भेदते हुए निकल आएंगे
राजस्थान और उतरप्रदेश
पेट की आग से झुलसता दिखेगा
तेलंगाना
फटे चीथड़े पैजामे के घुटनों से झाँक रहे होंगे
आंध्र और कर्नाटक
और पावँ की जगह ले लेंगे केरल औऱ तमिलनाडु
जैसे राज्य।
मैं जानता हूँ ये बच्चा कोई बच्चा नहीं
इस देश का मानचित्र है
जो कभी भी अपने असली रूप में आ कर
इस मुल्क की धज्जियां उड़ा सकता है!
अखबार आया
दौड़ कर गयी काकी
खोला उसे पीछे से
और चश्मा लगा पढ़ने लगी राशिफ़ल
भविष्य जानने की ख़ातिर!
वो नही पढ़ सकीं वो खबरें
जिनमें दर्ज थीं कल की तमाम वारदातें
ना ही वो जान सकीं क़ातिलों को
और उन इलाकों को
जो इनदिनों लुटेरों और क़ातिलों का अड्डा थे!
अफसोस, काकी भविष्य में जाने से पहले ही
चली गयी उस इलाके में
जहाँ जाने को मना कर रहे थे अखबार !
अब उनकी मृत्य के पश्चात -
काका खोलते हैं
भविष्य से पहले अतीत के पन्ने
जो चेतावनी बन कर आते हैं अखबार से लिपट
उनकी दहलीज़ पर!
अच्छा है जो मैंने ये हुनर नहीं सीखा
बड़ा ताज़्ज़ुब होता है
आपको डर नहीं लगता!
बदबू नहीं आती आपकी नाकों तक
लाशों की!
दिखते नहीं अपनी चप्पलो में
आपको किसी गिद्ध के पंजे!
सुनाई नहीं पड़ते आपको
अखबार में धमाकों की गूँज
महिलाओं की बेबस चीख !!
मुझे ताज़्ज़ुब होता है
जब आप देख नहीं पाते
अपने पुलाव में फांसी के फंदे और
किसान के गले को
जब आपको दिखती नहीं
चर्मकार की टूटी चप्पलें
किसान के सूखे बर्तन
नाई की उलझी बढी दाढ़ी और बाल
और दर्जी के फटे पुराने सिलवटों भरे कपड़े!
ताज़्ज़ुब होता है देखी नहीं आपने
सड़क पर बैठे भिखारियो में
आपके निकट आने की आस
गुब्बारे में भरी एक रुपये में बिकती
गरीब की साँस!
मुझे ताज़्ज़ुब होता है!!!
एक तरफ अखबार में बिछी लाशें देख रहा होता हूं
और दूसरी तरफ आपकी शराब और
सिनेमाघरों में टिकट के लिए कशमकश
बड़ी हैरत से घूरता हूँ आपको
श्मशान छोड़ सड़कों पे बेबाक़ घूमता देख
और सोचता हूँ
अच्छा है जो मैंने ये हुनर नहीं सीखा!
मेरी मृत्यु लोकतंत्र की हत्या मानी जाये
मेरी मृत्यु,
ग़र क़ानून की लाचारी की वजह
किसी गुंडे की गोली से
न्याय के लिए भटकते कभी
अदालत के चक्कर लगाते
संसाधनों से युक्त इस देश में
एक रोटी की खातिर
या हो जाये किसी अस्पताल की चौखट पर
रकम न भर पाने की ख़ातिर
तब उसे तुम 'मृत्यु' मत कहना दोस्त!
अखबार लिखें
या दें लोकतंत्र के कुछ कीड़े गवाह
तब भी उसे तुम
हत्या ही कहना!
मेरे परिजनों से कहना कि मुझे
न लिटायें लकड़ियों की सेज पर
करवा लाना संविधान की कुछ प्रतिलिपियाँ
जिनपे मैं लेट सकूँ अपने मृत शरीर को लिए
और कहना मेरी आखिरी इच्छा थी कि
"मेरी मृत्यु को
लोकतंत्र की हत्या मानी जाये"
मंच पर खड़ा आपका प्रिय नेता
दे रहा होता है जब
अपनी उपलब्धियों का श्रेय
सवा करोड़ जनता के विश्वास
और उसके मताधिकार को तब
उसी मंच के नीचे खड़ा
गुमान से मुस्कुराता नादान गरीब
और निम्न मध्यमवर्गीय आदमी
भूल जाता है :
एक सुई के अभाव में हुई
बेटी की मृत्यु
कर्ज के तनाव से किसान पिता
की आत्महत्या
बेटे की बेरोजगारी
बहनों पर हुए बलात्कार
आखिर
और हजारों मील पैदल चलते हुए
उसके भाई, भाभी और उनके
दुधमुंहे बच्चे की मृत्यु का
गुनहगार कौन है?
और इसका श्रेय
किसको जाना चाहिए!
सबसे घातक और जानलेवा बीमारी
गरीबों की लाश से गुजरता हूँ
उनके परिजनों से बात कर
उनके अतीत की करता हूँ पड़ताल
उनके कार्यस्थल पर जा कर पूछता हूँ
उनकी खामियां और खासियतें
पढ़ता हूँ अस्पतालों में जा कर
उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट!
हर बार मैं पाता हूँ
'ईमानदारी और शराफ़त को
इक्कीसवीं सदी की सबसे
घातक और जानलेवा बीमारी'
किसान की जात
मोची को टाँकने थे
कुछ पैसों के लिये जूते
कुछ पैसों के लिये जूते
लोहार को उठाना था
चंद रुपयों का लोहा
चंद रुपयों का लोहा
नाई और ग्वाले का भी धंधा
दो जून की रोटी भर का था
दो जून की रोटी भर का था
जिसकी वजह से ढ़केल दिये गये
ये निम्न जाति की सूची में
ये निम्न जाति की सूची में
सवाल हल जोतने का था!
काम खैर यह भी कोई मखमली नहीं था
पर सामने थी बेशकीमती ज़मीन!
काम खैर यह भी कोई मखमली नहीं था
पर सामने थी बेशकीमती ज़मीन!
जिनपे फसल के साथ
उगाये जा सकते थे कंक्रीटों के पेड़,
खड़े किये जा सकते थे
बड़े बड़े कारखाने और शिक्षा के
निजीकरण हेतु बड़े - बड़े विश्वविद्यालय!
उगाये जा सकते थे कंक्रीटों के पेड़,
खड़े किये जा सकते थे
बड़े बड़े कारखाने और शिक्षा के
निजीकरण हेतु बड़े - बड़े विश्वविद्यालय!
फलस्वरूप लिया गया
किसान को किसी
जाति विशेष में न रखने का फैसला
किसान को किसी
जाति विशेष में न रखने का फैसला
मुर्गे दम लगा कर चीख़ते हैं
जब कसाई की आँखें
उन्हें चुन लेती हैं
बकरा भी में में करता है
आखिरी दम तक
बकरा भी में में करता है
आखिरी दम तक
जब तक उसमे साँसें होती हैं
पर मछलियां मूक होती हैं
वे बोल नहीं सकतीं
मगर तुम तक अपने साथ हुई
नाइंसाफ़ी का संदेश
तुम्हारी उँगलियों और
वे बोल नहीं सकतीं
मगर तुम तक अपने साथ हुई
नाइंसाफ़ी का संदेश
तुम्हारी उँगलियों और
जीभ पर
काँटों के जरिये पहुँचाती हैं
काँटों के जरिये पहुँचाती हैं
और भूलती नहीं खुद पर
हुए अत्याचारों को
हुए अत्याचारों को
जैसे भूल जाती है जनता
अपने नेता और उसकी
अपने नेता और उसकी
तानाशाही को
अगले चुनाव आने तक!
अगले चुनाव आने तक!
कवियों का शपथ ग्रहण
और जब तक कि लड़ाई
बराबर की न हो जाये;
बराबर की न हो जाये;
मैं हर हथियारबंद के सामने खड़े
निहत्थे का समर्थक हूँ!
तुम्हारें प्यार में
दरअसल मैं
इसलिए भी पड़े रहने
की कोशिश करता हूँ मेरी प्रिया,
दरअसल मैं
इसलिए भी पड़े रहने
की कोशिश करता हूँ मेरी प्रिया,
क्यों कि नहीं चाहता
इस 'इश्क' के होते हुए भी
इस 'इश्क' के होते हुए भी
मैं किसी तोप या बंदूक से मरूँ!
संभाले चला आ रहा हूँ
दशकों से मैं
तुम्हारें साथ
अपने कंधों पर
क्रूरता पर मोह्बत की फतह
का एक ध्वज!
दशकों से मैं
तुम्हारें साथ
अपने कंधों पर
क्रूरता पर मोह्बत की फतह
का एक ध्वज!
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मेल- Vidhan2403@gmail.com
Ph- 8130730527
कमाल की कविताएँ
जवाब देंहटाएंmesmerised
जवाब देंहटाएंIt's a big compliment for me..Thanks a lot 😊🙏🏻
हटाएंजबरदस्त।।।।
जवाब देंहटाएंआभार🙏🏻
हटाएंबहुत साफ़, निर्भय, ईमानदार कविताएँ।
जवाब देंहटाएं‘हर बार मैं पाता हूँ
'ईमानदारी और शराफ़त को
इक्कीसवीं सदी की सबसे
घातक और जानलेवा बीमारी'
शुभकामनाएँ!
आभार सर। आपका स्नेह और आशीर्वाद मुझे बल देगा🙏🙏
हटाएंबढ़िया कविताएं।
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीया🙏🏻
हटाएंBehtreen kavitayen
जवाब देंहटाएंआभार आपका🙏🙏
हटाएंबहुत खूबसूरत और सत्य को परिभाषित करती हुई कविताएं
जवाब देंहटाएंआभार आपका आदरणीय🙏
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