श्रद्धा मिश्रा की कविताएँ
श्रद्धा मिश्रा |
प्यार जीवन की गहनतम अनुभूति होती है। दुनिया में ऐसा कोई रचनाकार नहीं होगा जिसने प्रेम को आधार बना कर कविताएँ न लिखीं हो। अक्सर नए रचनाकार अपने लेखन की शुरुआत ही प्रेम-कविताओं से ही करते हैं। प्रेम जो एक विद्रोह होता है अपने समय और समाज से। प्रेम जो अपने मन-मस्तिष्क के मुताबिक़ की गयी बात होती है। सहज-सरल लगते हुए भी प्रेम पर कविता लिखना आसान नहीं होता। श्रद्धा मिश्रा ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए कुछ कविताएँ लिखीं हैं। बेहतरी की गुंजाईशें लिए ये कविताएँ हमें आश्वस्त करती हैं एक युवा कवि के हिन्दी कविता संसार में आगत की आहट को। श्रद्धा का कविता की दुनिया में स्वागत करते हुए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ कविताएँ।
श्रद्धा मिश्रा की
कविताएँ
बदले में
ये तो उम्र थी
उस के
गिरने
और
सम्भलने की,
इसी उम्र में
उसे
पिंजरे के हवाले कर दिया,
मैंने अक्सर
लोगो को कहते सुना
कि
माँ
प्रेम की मूरत होती है,
मगर
मैं
ये कैसे मान लूँ,
उसी ने आज
सौगंध दे कर
मुझे मेरे प्यार से
दूर कर दिया,
कैसे कह दूँ
निःस्वार्थ
होता है जग में
माँ का प्यार,
जब कि उसे
उम्मीद है मुझ से
कि
मुझे उसके त्यागों
के लिए
उस की मेरे लिए
जागी गयी रातों के लिए
मेरे लिए सहे गये
दर्द के बदले
समाज में उस की
इज्जत के लिए
छोड़ना
होगा,
मेरे प्यार को।।।
उस के
गिरने
और
सम्भलने की,
इसी उम्र में
उसे
पिंजरे के हवाले कर दिया,
मैंने अक्सर
लोगो को कहते सुना
कि
माँ
प्रेम की मूरत होती है,
मगर
मैं
ये कैसे मान लूँ,
उसी ने आज
सौगंध दे कर
मुझे मेरे प्यार से
दूर कर दिया,
कैसे कह दूँ
निःस्वार्थ
होता है जग में
माँ का प्यार,
जब कि उसे
उम्मीद है मुझ से
कि
मुझे उसके त्यागों
के लिए
उस की मेरे लिए
जागी गयी रातों के लिए
मेरे लिए सहे गये
दर्द के बदले
समाज में उस की
इज्जत के लिए
छोड़ना
होगा,
मेरे प्यार को।।।
तू और तेरा साथ...
तुम ही तुम हो हर जगह
तुम्हारी चाहत
तुम्हारी आहट
तुम्हारी खुशबू
हवाओ में बसी है,
धूप कुनकुनी सी
तुम्हारी गर्म छुअन सी,
तुम्हारे हाथ अब भी
मुझे सहारा देते है
ठीक उसी तरह
जैसे
सम्भाल लेते हो
पेड़ पथिक को
धूप से,
समझ नहीं आता
तुमसे प्रभावित हूँ या
तुम्हारे रूप से,
कारण कुछ भी हो मगर
तुम हो तो
खूबसूरत लगता है
धूप का सफर भी
तुम महसूस करते भी हो
या नहीं करते
ये सफर जो इतना कठिन
लगता था,
अब आसान सा
लगने लगा है,
तुम हो तो दर्द भी
पल दो पल
का मेहमान
लगने लगा है...
तुम्हारी चाहत
तुम्हारी आहट
तुम्हारी खुशबू
हवाओ में बसी है,
धूप कुनकुनी सी
तुम्हारी गर्म छुअन सी,
तुम्हारे हाथ अब भी
मुझे सहारा देते है
ठीक उसी तरह
जैसे
सम्भाल लेते हो
पेड़ पथिक को
धूप से,
समझ नहीं आता
तुमसे प्रभावित हूँ या
तुम्हारे रूप से,
कारण कुछ भी हो मगर
तुम हो तो
खूबसूरत लगता है
धूप का सफर भी
तुम महसूस करते भी हो
या नहीं करते
ये सफर जो इतना कठिन
लगता था,
अब आसान सा
लगने लगा है,
तुम हो तो दर्द भी
पल दो पल
का मेहमान
लगने लगा है...
मेरे ही रहना जनम-जनम
न गठबंधन हुआ न फेरे हुए,
फिर भी सनम हम तेरे हुए।
मेरी खुशिया तेरी हुईं,
और तेरे सब गम मेरे हुए।
तन के रिश्ते टूट सकते है जानम,
मन का बंधन है हमारा,
साथ चाहिए अब सांसो को भी तुम्हारा,
तुम सोच भी नहीं सकते
कितनी चाहत है तुमसे,
अब तो मेरी
हर इबादत है तुम से,
राहत की बात
तुम न ही करो
तो बेहतर है,
तुम्हारे लिए ही
हाल बद से बदत्तर है,
सुकून तुममे ही नजर आया है मुझे,
तुमने भी यु ही नहीं पाया है मुझे,
मैंने दुआए माँगी थी टूटते तारो से,
गंगा के किनारो से,
सोलह सोमवारों से,
मंदिर से गुरुद्वारों से,
तब जा के
फिर भी सनम हम तेरे हुए।
मेरी खुशिया तेरी हुईं,
और तेरे सब गम मेरे हुए।
तन के रिश्ते टूट सकते है जानम,
मन का बंधन है हमारा,
साथ चाहिए अब सांसो को भी तुम्हारा,
तुम सोच भी नहीं सकते
कितनी चाहत है तुमसे,
अब तो मेरी
हर इबादत है तुम से,
राहत की बात
तुम न ही करो
तो बेहतर है,
तुम्हारे लिए ही
हाल बद से बदत्तर है,
सुकून तुममे ही नजर आया है मुझे,
तुमने भी यु ही नहीं पाया है मुझे,
मैंने दुआए माँगी थी टूटते तारो से,
गंगा के किनारो से,
सोलह सोमवारों से,
मंदिर से गुरुद्वारों से,
तब जा के
तुम और मैं
मिले है हमसफ़र,
अब तो हर जगह
अब तो हर जगह
तुम ही आते हो नजर,
बस एक गुजारिश है
बस एक गुजारिश है
ये प्यार न करना कम,
मेरे ही रहना जनम-जनम।।।
मेरे ही रहना जनम-जनम।।।
यादों की डायरी...
वो खामोश है तो शहर में सन्नाटा छाया है,
सुबह जो गया था यहाँ से,
परिंदा अब तलक लौट कर नहीं आया है,
कई दिनों से सूरज नहीं निकला,
लगता है कोहरा घना छाया है,
आज फिर खोली एक पुरानी डायरी.....
फिर वही पेज बार-बार पढ़ा,
जिसमे तुम्हारा जिक्र आया है...
सुबह जो गया था यहाँ से,
परिंदा अब तलक लौट कर नहीं आया है,
कई दिनों से सूरज नहीं निकला,
लगता है कोहरा घना छाया है,
आज फिर खोली एक पुरानी डायरी.....
फिर वही पेज बार-बार पढ़ा,
जिसमे तुम्हारा जिक्र आया है...
प्यार ही होगा...
खाक छान के आयी हूँ
कई गलियों की
तुम्हारे साथ,
तुम्हे भी नहीं मालूम
की क्या पायी हूँ
तुम्हारे साथ,
कौन कहता है
कि कुछ नहीं कर सकी,
मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है
तुम्हारा साथ...
आसमान को भी कभी
गम होता होगा क्या
सितारों का,
फर्क ही क्या पड़ा होगा,
"केशकंबली" को
वीणा के तारों का
स्वर तो यूँ ही फ़ैल गये होंगे
जब मिला होगा,
प्यार को प्यार का
प्यारा साथ...
प्यार किसी भी हाल में
प्यार ही निकलेगा,
फिर चाहे हाथ कुछ न लगे,
बेशुमार होगा सितारों की तरह,
रस घुल ही जायेगा
कैसे भी साधो वीणा,
कुछ तो होगा ही बेहतर,
जब है
हमारे साथ तुम्हारा साथ
तुम्हारे साथ
हमारा साथ...
कई गलियों की
तुम्हारे साथ,
तुम्हे भी नहीं मालूम
की क्या पायी हूँ
तुम्हारे साथ,
कौन कहता है
कि कुछ नहीं कर सकी,
मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है
तुम्हारा साथ...
आसमान को भी कभी
गम होता होगा क्या
सितारों का,
फर्क ही क्या पड़ा होगा,
"केशकंबली" को
वीणा के तारों का
स्वर तो यूँ ही फ़ैल गये होंगे
जब मिला होगा,
प्यार को प्यार का
प्यारा साथ...
प्यार किसी भी हाल में
प्यार ही निकलेगा,
फिर चाहे हाथ कुछ न लगे,
बेशुमार होगा सितारों की तरह,
रस घुल ही जायेगा
कैसे भी साधो वीणा,
कुछ तो होगा ही बेहतर,
जब है
हमारे साथ तुम्हारा साथ
तुम्हारे साथ
हमारा साथ...
जाने दो तुम नहीं समझोगी...
कई बार जब तुम ने
मेरे हाथों से
छुड़ा लिया था
अपना हाथ,
तब भी जब तुम ने
फेर ली थीं
आँखे
और घंटो देखते रहे थे
पेड़ की
शाखों को...
याद करो
जब पहली बार
तुम्हारे दिए
ब्रेसलेट का
एक नग निकल कर
कही गिर गया
और मैं खूब रोई
तब भी...
और जानते हो
तुम जब भी
मेरे पास एक ही बैंच में
बैठते थे
और मैं धीरे-धीरे
आ जाती थी
तुम्हारे करीब
तब तो और भी ज्यादा...
दिल ही दिल में बेइंतिहा सा
मैंने बार-बार कहा
प्यार है तुम से
जब भी तुमने ये पूछा है
कि
क्या है
मैंने हर बार कहा था
जानते हो तुम
सिर्फ सताते थे मुझे
आज वही जब तुम
बात बात पे
कह देते हो,
जाने दो
तुम नहीं समझोगी,
और मैं समझ के भी
न समझ बनती हूँ,
मगर सच तो ये है मैं खूब
समझती हूँ इन
बातों का मतलब...
कई बार जब तुम ने
मेरे हाथों से
छुड़ा लिया था
अपना हाथ,
तब भी जब तुम ने
फेर ली थीं
आँखे
और घंटो देखते रहे थे
पेड़ की
शाखों को...
याद करो
जब पहली बार
तुम्हारे दिए
ब्रेसलेट का
एक नग निकल कर
कही गिर गया
और मैं खूब रोई
तब भी...
और जानते हो
तुम जब भी
मेरे पास एक ही बैंच में
बैठते थे
और मैं धीरे-धीरे
आ जाती थी
तुम्हारे करीब
तब तो और भी ज्यादा...
दिल ही दिल में बेइंतिहा सा
मैंने बार-बार कहा
प्यार है तुम से
जब भी तुमने ये पूछा है
कि
क्या है
मैंने हर बार कहा था
जानते हो तुम
सिर्फ सताते थे मुझे
आज वही जब तुम
बात बात पे
कह देते हो,
जाने दो
तुम नहीं समझोगी,
और मैं समझ के भी
न समझ बनती हूँ,
मगर सच तो ये है मैं खूब
समझती हूँ इन
बातों का मतलब...
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
beautiful and insightful poem, magically written
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखी है very nice
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
जवाब देंहटाएंbeautiful lines heart touching....awesome
जवाब देंहटाएंसुंदर भावों को सुंदर शब्दों में पिरोया है। प्रेंम और परिवार के व्दन्व्द में युवाओ की मनः स्थिति का सुन्दर चित्रण है। भारी भरकम शब्दों के वाग्जाल की अपेक्षा सहज शब्दों में अपनी बात रखना काबिले तारीफ है। प्रयास अच्छा है। तुम्हारी भावनाए विस्तॄत क्षेत्र तक पहुचें जिससे लेखनी में और निंखार आए ऐसी मेरी शुभकामना है।
जवाब देंहटाएंBeautiful lines....amazing...
जवाब देंहटाएंBeautiful lines....amazing...
जवाब देंहटाएंअच्छा लिख रही हो 👌👍
जवाब देंहटाएंआप सब का बहुत बहुत आभार। धन्यवाद
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंप्रयास जारी रखे ।
जवाब देंहटाएंप्रयास जारी रखे ।
जवाब देंहटाएंप्रयास जारी रखे ।
जवाब देंहटाएं