उमाशंकर सिंह परमार की किताब 'प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य' पर नासिर अहमद सिकन्दर की समीक्षा
उमा शंकर सिंह परमार |
युवा आलोचक उमा शंकर सिंह परमार की हाल ही में दो महत्वपूर्ण आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं. ये हैं - 'प्रतिपक्ष का पक्ष' और 'प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य'. इन पुस्तकों, विशेष तौर पर दूसरी पुस्तक को आधार बना कर कवि-आलोचक नासिर अहमद सिकन्दर ने एक समीक्षा लिखी है. इस समीक्षा को हम पहली बार के पाठकों लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. तो आइए आज पढ़ते हैं उमाशंकर सिंह परमार की किताब पर नासिर अहमद सिकन्दर की यह समीक्षा - 'प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य - अध्ययन का बयान'.
'प्रतिरोध का
वैश्विक स्थापत्य : अध्ययन
का बयान'
नासिर अहमद सिकंदर
युवा आलोचक उमाशंकर
सिंह परमार की पहली आलोचना पुस्तक 'प्रतिपक्ष का पक्ष', 2016 में प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने समकालीन कविता
के कई महत्वपूर्ण और अलक्षित कवियों की कविताओं को तो परखा ही था, साथ ही
भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी कविता के प्रतिरोध को भी रेखांकित किया था। उन्होंने साठोत्तरी हिन्दी कविता की आधुनिकता
की अवधारणा के बरक्स आई लोक कविता को भी वर्गीय दृष्टि से विवेचित किया था। कविता के नए संकट और लोक, लोक स्वरूप और चेतना,
हिन्दी भाषा का विकास और लोक की भूमिका, हिन्दी कविता- लोक और प्रतिरोध जैसे कई
लेख इस पुस्तक में संकलित हैं।
हाल ही में उनकी
दूसरी आलोचना पुस्तक 'सुधीर सक्सेना : प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य' शीर्षक से
प्रकाशित हुई है। पहली
आलोचना पुस्तक में जहाँ कई कवियों के माध्यम से काव्य परिदृश्य उपस्थित था, वहीं इस
पुस्तक में एक कवि का चयन कर उसके समूचे कवि कर्म के माध्यम से काव्य-परिदृश्य को
देखा गया है। वैसे
आलोचना परम्परा से जुड़ कर, मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि कोई आलोचक अपने
आलोचना-कर्म में किसी कवि का चयन कर या आधार
बना कर न केवल उसकी कविता को व्याख्यायित करने का प्रयास करता है, बल्कि उसकी
कविता में उपस्थित सामाजिक मूल्यों के साथ-साथ कथ्य, शिल्प, भाषा, संरचना आदि का
विश्लेषण भी प्रस्तुत करता है। साथ ही वह अपने आलोचनात्मक मूल्यों का निर्धारण भी
कविता के ही मार्फत करता है। आलोचक की इस द्विपक्षीय प्रक्रिया में कवि का व्यक्तित्व,
स्वभाव, आचरण, व्यवहार, जीवन-शैली आदि भी केन्द्र में होते हैं।
आलोचना कर्म का यह
दायित्व हमारी हिन्दी आलोचना के प्रसिद्ध आलोचक राम चंद्र शुक्ल भी, भक्तिकालीन
कवियों तुलसी-सूर-जायसी के माध्यम से निभाते हैं, तो हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर
के माध्यम से। मार्क्सवादी
आलोचक राम विलास शर्मा निराला और केदार नाथ अग्रवाल को केन्द्र में रखते हैं तो
नामवर सिंह मुक्तिबोध को। साठोत्तरी हिन्दी कविता पर दृष्टि डाली जाए तो बड़े कवि
शलभ श्रीराम सिंह को केन्द्र में रख कर कवि आलोचक शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी ने भी
यह प्रक्रिया अपनी पुस्तक 'कविता के दुर्दिन' में अपनाई। यही स्वरूप आलोचक उमाशंकर की इस नई आलोचना
पुस्तक में भी दिखलाई पड़ता है। इस पुस्तक में उन्होंने आठवें दशक के उत्तरार्ध के
महत्वपूर्ण कवि सुधीर सक्सेना को केन्द्र में रखा है। इस पुस्तक में उन्होंने सुधीर सक्सेना के
व्यक्तित्व, कृतित्व के अलावा समकालीन कविता के परिदृश्य, काव्य प्रवृत्तियों,
प्रतिरोध की कविता आदि पर भी अपने विचार प्रकट किए हैं। उन्होंने अपनी इस पुस्तक को 15 उप-शीर्षकों में विभाजित किया है। आलोचना-कृति होने के बावजूद इन अध्यायों के
नामकरण साहित्यिक अवधारणाओं या आलोचना की प्रचलित मूल्यांकन पद्धतियों के आधार पर
नहीं बल्कि सृजनात्मक वाक्यांशों के आधार पर किए गए हैं। जैसे :- ‘बचा है कविता में यकीन’, ‘जानना जो
कुछ है इर्द-गिर्द’, ‘मुलाकातों के दिलकश दौर में’, ‘हमारे दौर में आंसू जुबाँ नहीं
होते’, ‘गझिन अनुभूतियों का अंगराग’, ‘बाबर की आंखों में था समरकंद’, ‘सुखन की
शम्मा जलाओ बहुत अंधेरा है’, ‘खुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही’, ‘हर कतरे में
दरिया’, ‘यह धरती के चेहरे’, ‘फलक के नजारे आदि’। इन खंडों के ज्यादातर शीर्षक किसी शेर के मिसरे
हैं या फिर काव्य पंक्तियां। यहाँ गौर करें तो जिस पहले खण्ड का शीर्षक उन्होंने 'बचा
है कविता में यकीन' रखा है उसका शीर्षक 'युगबोध, विचारधारा और परम्परा' बड़ी आसानी
से रखा जा सकता था क्योंकि इस खण्ड की
शुरुआत ही यूं होती है "सुधीर सक्सेना के रचना-कर्म का मूल्यांकन युग-बोध और
विचारधारा के बगैर संभव नहीं है लेकिन इसका आशय यह नहीं है इससे परम्परा को
द्वितीयक बनने का खतरा है। दरअसल हम परम्परा का अन्वेषण तभी कर सकते हैं जब युग-बोध
और विचार-धारा के ऐतिहासिक सन्दर्भों को आलोचना के औजारों में सम्मिलित करें। (पृष्ठ 9)
इसी प्रकार दूसरे खण्ड
'जानना जो कुछ है इर्द-गिर्द' के स्थान पर शीर्षक 'समकालीन काव्य परिदृश्य' तथा
तीसरे खण्ड का शीर्षक 'मुलाकातों के दिलचस्प दौर में' की जगह 'व्यक्तित्व का
रचनात्मक रूपांतरण' रखा जा सकता था। ऐसा शायद इसलिए भी किया गया कि वे इस किताब को
आलोचना की सैद्धांतिकी से अलग अपने अध्ययन का बयान बनाना चाहते थे। उन्होंने अपनी इस पुस्तक की शुरुआत में ही इसे
बड़ी विनम्रता से स्वीकार भी किया है - "यह किताब मेरे अलग-अलग समय में लिखे गए
अलग-अलग नोट्स और डायरी का एकत्र मैटर है। यह अध्ययन नितांत निजी है। इस किताब को मेरे अध्ययन का बयान माना जाए न कि
सुधीर सक्सेना की कविता का पूरा मूल्यांकन समझा जाए।" (पृष्ठ-16)
बावजूद इसके इस खण्ड
में उन्होंने सुधीर सक्सेना की समस्त किताबों पर न केवल टिप्पणियां की हैं, बल्कि
काव्य परिदृश्य में कलावादी और जनवादी कविता के बीच चल रहे संघर्षों की भी पड़ताल
की है। इस काव्य दौर में पुरस्कार, सम्मान तथा
अवसरवादी प्रवृतियों का भी लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है। कामायनी, परिवर्तन, सरोज-स्मृति, असाध्य-वीणा,
समय-देवता मुक्ति-प्रसंग, अंधेरे में, पटकथा जैसी लंबी कविताओं के साथ सुधीर
सक्सेना की लंबी कविताओं 'बीसवीं सदी : इक्कीसवीं सदी' तथा 'धूसर में बिलासपुर' की
भी चर्चा इस खण्ड में है। उनकी लम्बी कविताओं पर वे लिखते हैं "निराला, मुक्तिबोध, धूमिल,
विजेंद्र की परम्परा में सबसे सशक्त लंबी कविताएं सुधीर सक्सेना ने लिखी हैं। सुधीर सक्सेना चरित्र युग-बोध के मामले में विजेंद्र
का अतिक्रमण भी कर देते हैं और नाटकीयता भाषा बिम्ब के सन्दर्भों में मुक्तिबोध के
निकट दिखते हैं। 'धूसर
में बिलासपुर' उन्हें विजेंद्र जैसा तो 'बीसवीं सदी और इक्कीसवीं सदी' धूमिल जैसा सिद्ध करती है। (पृष्ठ 15)
इस पुस्तक का दूसरा
अध्याय 'जानना जो कुछ है इर्द-गिर्द 'समकालीन कविता के लगभग चार दशकों के काव्य-परिदृश्य
का आकलन प्रस्तुत करता है। इस खण्ड में उन्होंने वरिष्ठ कवियों विजेंद्र, केदार, विष्णु खरे,कुंवर
नारायण, अशोक वाजपेयी के साथ हरीश चन्द्र पाण्डेय, एकांत श्रीवास्तव, बुद्धि लाल
पाल, सुरेश सेन निशांत आदि कई कवियों की काव्य कला का जिक्र किया है। इस खण्ड में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि "कवि
बड़ा वही होगा जो मीडियाकर नहीं होगा, जिसकी पक्षधरता स्पष्ट होगी, जो साहित्य की
अंदरुनी राजनीति से प्रभावित नहीं होगा।" लगभग चार दशकों के काव्य-परिदृश्य पर काव्य
आंदोलनों पर तथा साहित्यिक राजनीति पर उनका यह मत बिल्कुल उचित भी लगता है। उन्होंने अशोक बाजपेई, केदारनाथ सिंह, अष्टभुजा
शुक्ल जैसे कवियों के बरक्स मान बहादुर सिंह, सुधीर सक्सेना, हरीश चंद्र पांडे
जैसे कवियों को रखने का प्रयास किया है जो उनकी आलोचनात्मक दृष्टि के हिसाब से
उचित लगता है क्योंकि वे 'कविता में लोक की अवधारणा तथा उसके द्वंद्वात्मक तरीके'
के हिमायती है न कि 'नास्टेल्जिया' या 'काल्पनिक मानवेतर सौन्दर्य' के।
पुस्तक का तीसरा
अध्याय 'मुलाकातों के दिलकश दौर में' व्यक्तित्व के रचनात्मक रूपांतरण पर आधारित
है। पुस्तक का तीसरा
अध्याय 'मुलाकातों के दिलकश दौर में' व्यक्तित्व के रचनात्मक रूपांतरण पर आधारित
है। हालाँकि
यह बहस बहुत पुरानी है
लेकिन आलोचक चंचल चौहान ने 'सापेक्ष' संपादक महावीर अग्रवाल को दिए साक्षात्कार
में इसे पुनः केन्द्र में ला दिया है। वे लिखते हैं "हिन्दी आलोचना की इस बुरी आदत का
मैं कटु आलोचक रहा हूँ जिसमें रचनाकार के 'जिए गए जीवन और उनकी रचनाओं के बीच
अंतर्संबंध' की तलाश की जाती रही है। जिए गए जीवन का कविता से संबंधित तलाशने वाली हिन्दी आलोचना या बायो क्रिटिसिज्म
में नगेंद्र से ले कर प्रकाश चंद्र गुप्त, राम विलास शर्मा और आज के उनकी पद्धति
या लोक को पीटते हुए बहुत से दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों तरह के प्राध्यापकीय आलोचक
शामिल हैं।" इस पुस्तक का तीसरा खण्ड इसी जिए गए जीवन
और उनकी रचनाओं के बीच अंतर्संबंध से ताल्लुक रखता है। आलोचक उमाशंकर कवि के व्यक्तित्व को भी
महत्वपूर्ण मानते हैं। वे लिखते हैं "यदि किसी कवि की पहचान करनी
है तो उसके व्यक्तित्व की पहचान भी जरूरी है। कविता केवल भाषा की सरंचना नहीं है बल्कि एक
प्रतिबद्धता और मनुष्यता का तकाजा भी है। यदि कवि के पास एक अदद व्यक्तित्व नहीं है तो वह लंबे
समय तक कवि नहीं रह सकता।"
(पृष्ठ 29)
इस पुस्तक का 'हमारे
दौर में आंसू जबां नहीं होता' शीर्षक अध्याय पूर्व अध्यायों से अलग है। पूर्व अध्यायों में जहाँ कवि का समय है,
समकालीन काव्य परिदृश्य है, काव्य प्रवृत्तियां हैं तो इस अध्याय में वे सुधीर
सक्सेना की कविताओं को विश्लेषित भी करते हैं और उनकी कविताओं के माध्यम से अपने
आलोचनात्मक मूल्यों की स्थापना भी करते हैं। उनके आलोचनात्मक मूल्य एक तरह से राम विलास शर्मा के
आलोचनात्मक मूल्यों की तरह होते हैं जिसका सीधा रिश्ता मार्क्सवादी आलोचना से भी
है जहाँ जनपक्षीय चेतना या वर्गीय दृष्टि पर आधारित सामाजिक
राजनैतिक चिन्तन शामिल रहता है। जैसे :-
1. आज आवश्यकता है
कि हम विमर्शों को जनवादी तरीके से देखें। नए हाशिये की
पहचान करें। अस्मिताओं के सवालों को कविता और कथा में स्थान
दे। जरूरी नहीं कि हम विचारधारा को ही हाशिए पर ढकेल
दें। विचारधारा बेहद जरूरी औजार है। (पृष्ठ-46)
2. मानव समुदाय की
मूल प्रवृत्ति उत्पादनपरक है। इसी के लिए वह श्रम का आधार ग्रहण करता है। इन्हीं तत्वों की भूमि पर वह साहित्य और कला का सृजन
करता है। (पृष्ठ-47)
3. भूमंडलीकरण के
परिवर्तनकारी सामाजिक दबावों ने सबसे अधिक वर्गीय चेतना का नुकसान किया है। (पृष्ठ 52) इस खण्ड में वे अपने आलोचनात्मक मानों के साथ सुधीर
सक्सेना की कविता को भी विश्लेषित करते चलते हैं और उन्हें लोकधर्मी कवि के रुप
में स्थापित करते हैं। आगे 'गझिन अनुभूतियों का अंगराग' अध्याय में वे सुधीर
सक्सेना की लोकधर्मी छवि को हिन्दी कविता की वैश्विक पृष्ठभूमि तथा वर्गीय दृष्टि
पर ले जाते हैं। वे लिखते हैं:- "सुधीर
सक्सेना अपनी पीढ़ी के इकलौते कवि हैं, जिन्होंने वैश्विक चरित्र ले कर, वैश्विक सन्दर्भों
व घटनाओं पर सबसे अधिक कविताएं लिखी हैं। "(पृष्ठ-59)
सुधीर सक्सेना के
अब तक 10 कविता
संग्रह ‘बहुत दिनों के बाद’, ‘काल को भी नहीं पता’, ‘समरकंद में बाबर’, ‘किरच किरच
यकीन’, ‘किताबें दीवार नहीं होती’, ‘ईश्वर हां नहीं तो’, ‘रात जब चंद्रमा बजाता है
बांसुरी’, ‘कुछ भी नहीं है अंतिम’, ‘बीसवीं सदी और इक्कीसवीं सदी’ (लम्बी कविता), ‘धूसर
में बिलासपुर’ (लम्बी कविता) शीर्षक से प्रकाशित हुए हैं। इस पुस्तक के आगे के अध्यायों में प्रत्येक
काव्य संग्रह की कविताओं का विश्लेषण किया गया है। जैसे 'बाबर की आंखों में था समरकंद' नामक खण्ड में
कविता संग्रह 'समरकंद में बाबर' 'सुखन की शम्मा जलाओ' में 'किरच किरच यकीन' 'प्रेम
को पंथ कराल महा' में काव्य-संग्रह 'रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी' 'खुदा नहीं
न सही आदमी का ख्वाब सही' खण्ड में कविता संग्रह "इश्वर हाँ नहीं तो', 'मैं
तो ख़ुद से अभी मिला नहीं' शीर्षक खण्ड में
'कुछ भी नहीं अंतिम' की कविताओं को केन्द्र में रखा गया है। कवि के काव्य संग्रहों पर केन्द्रित यह अध्याय
पुस्तक समीक्षा की तरह नहीं लिखे गए हैं बल्कि यहाँ भी भूमंडलीकरण, बाजारवाद,
उत्तर आधुनिकता, लोक-चेतना आदि से जुड़ कर समय को रेखांकित करते हुए कविताओं की
व्याख्या की गई है। उनकी आलोचना-दृष्टि भक्ति काल से ले कर आज तक की कविता पर टिकती है। उनकी आलोचना का विचार पक्ष सामाजिकता और यथार्थ
परखता का पक्षधर है। आलोचना के भीतर आंदोलनों और सौंदर्यात्मक अवधारणाओं को भी वे आम फहम भाषा
में ही संप्रेषित करते हैं। मैंने प्रारंभ में ही उल्लेख किया था कि कोई आलोचक किसी कवि का चयन कर न
केवल उसकी कविता को व्याख्यायित करता है बल्कि अपने आलोचनात्मक मानों को भी कविता
के मार्फत व्यक्त करना उसका ध्येय होता है। उमाशंकर सिंह परमार इस रूप में अपनी आलोचना पुस्तक 'सुधीर
सक्सेना प्रतिरोध का स्थापत्य' में सफल हुए हैं।
आलोचना पुस्तक :
"सुधीर सक्सेना - प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य "
आलोचक : उमा शंकर सिंह
परमार
प्रकाशक : 'लोकमित्र',
शाहदरा, दिल्ली -110032
मूल्य: रूपये 395/('लहक' से साभार)
नासिर अहमद सिकंदर
क्वार्टर न 3 /सी
,सड़क 45
सेक्टर 10 , भिलाई
नगर
जिला दुर्ग , ( छ
ग)
490006
मोबाईल - 9827489585
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