हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएँ.
हरीश चन्द्र पाण्डे |
हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएँ प्रायः ही ऐसी
साधारण बातों को ले कर शुरू होती हैं जो हमें एकबारगी अत्यन्त साधारण लग सकती हैं.
लेकिन ज्यों-ज्यों हम पंक्ति दर पंक्ति उनकी कविताओं में आगे बढ़ते हैं त्यों-त्यों
जैसे जीवन में आश्चर्य-लोक की सैर करते चलते हैं. यह आश्चर्य-लोक भी ऐसा जो
बिल्कुल हमारे समय और समाज का होता है. इन कविताओं में विडंबनाओं को उभारने का
हरीश जी का बिल्कुल अपना व्यंग्य-बोध होता है जो अन्दर तक हिला डालता है. आज जब
देश अपना 68 वाँ गणतन्त्र-दिवस मना रहा है ऐसे में उनकी एक कविता ‘लाउडस्पीकर
सुनना नहीं जानते’ हमारे देश ही नहीं समाज की एक ऐसी विकृति को खोल कर हमारे सामने
रख देता है, जो यथार्थ है और जिसे हम अपने सामने ही रोजाना घटित होते देखते हैं. बल्कि
कह लें कि हम खुद को ही उस पात्र के रूप में पाते हैं जो इस घटना के लिए उत्तरदायी
है.इस कविता की ये पंक्तियाँ पढ़िए – ‘श्रम कानून कहते हैं एक बच्चे से काम नहीं
कराया जा सकता है/ पर कौन रोक लेगा उसे चौराहे पर तिरंगे बेचने से/ एक उस रंग के
लिए जिसका उसके जीवन में अभाव है/ वह अभी एक रुपये में तीन रंग बेच रहा है/ चीख-चीख
कर बेच रहा है.’ ये कविताएँ इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका ‘समकालीन जनमत’ के
हालिया अंक में प्रकाशित हुईं हैं और हमें वरिष्ठ साथी कामरेड के. के. पाण्डेय ने
पहली बार के लिए उपलब्ध कराई हैं.तो आज प्रस्तुत है वरिष्ठ कवि हरीश चन्द्र पाण्डे
की दो तारो-ताज़ी कविताएँ.
हरीश चंद्र
पांडेय की कविताएं
मछुआरे
मछुआरे
मछलियां ही नहीं खाते
जैसे
आलू की खेती वाले केवल आलू नहीं खाते
मछलियों
को पहले रुपयों में बदलना होता है
इस
पुल से होकर ही भूख के उस पार जाया जा सकता है
यह
पुल टूटता है तो कोई नहीं कहता कि एक पुल टूट गया है
यही
सुनाई देता है
एक
मछुआरा डूब गया गहरे समुद्र में
नौका
और जाल का ऋण पानी में रहकर ही चुकाना है
जो
भागा मछुआरा तो जल-सीमा पार धर लिया जाएगा उधर
मछुआरे
के कर्ज के लिए कोई बट्टा खाता नहीं होता किसी बैलेंस शीट में
कोई
एयरपोर्ट मछुआरे के भागने के लिए नहीं होता...
लाउडस्पीकर
सुनना नहीं जानते
लाउडस्पीकर
सुनना नहीं जानते
वरना
एक लड़का कब से कहे जा रहा है- झंडे ले लो, झंडे
ले लो
पूर्व-संध्या
पर ले आया था झंडों को उधारी पर
कि
बच्चे खरीदेंगे या उन के लिए उनके मां-बाप
कोई
ड्राइवर भी ले सकता है स्टेयरिंग के पास फहराने
किसी
मेज या छत पर फहर सकते हैं
पर
साइकिल के हैंडिल पर फहरते झंडे का जवाब नहीं
आगे
जो बैठा हो नन्हा बच्चा
और
नीचे गतिशील युगल-चक्रों की संगत हो
लड़के
के गले में उभर आई नसें जताती हैं
कि
सुबह-सुबह उसने अपने गले से कितना काम लिया है
अपने
आजू-बाजू उसने दो झंडे फहरा रखे हैं
दूर
से ये खुले हुए डैने लगते हैं
श्रम
कानून कहते हैं एक बच्चे से काम नहीं कराया जा सकता है
पर
कौन रोक लेगा उसे चौराहे पर तिरंगे बेचने से
एक
उस रंग के लिए जिसका उसके जीवन में अभाव है
वह
अभी एक रुपये में तीन रंग बेच रहा है
चीख-चीख
कर बेच रहा है
सब
सुनते हैं पर लाउडस्पीकर नहीं सुनते
पता
नहीं कैसे हैं ये लाउड स्पीकर
जो
बोलते तो हैं पार्षद से प्रधानमंत्री तक के लिए
पर
सुनते नहीं किसी के लिए भी।
सम्पर्क
हरीश
चन्द्र पाण्डे
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की है.)
सुन्दर रचनाएं
जवाब देंहटाएंऐसी कवितायें जो मन में गहरे उत्तर जाएं और शोर करें। न भूलने वाली। कवि को बधाई।
जवाब देंहटाएंहरीश चन्द्र पाण्डे की कविताओं का स्वर 'लाउड स्पीकर' जैसा नहीं है। उनकी कविता अनुभव के मद्धिम आँच में सीझ कर तैयार होती है। इसलिए उनकी कविताओं का स्वर मधुर संगीत-सा प्रतीत होता है, जो उसी की भाँति देर तक जेहन में रहता है। वह किसी भड़कीले संगीत-सा उबाऊ नहीं होता। यही पाण्डे जी को अपने समकालीनों में विशेष बनाता है।
जवाब देंहटाएं