गोपी कृष्ण गोपेश की किताब 'विदेशों के महाकाव्य की शम्सुर्रहमान फारूकी द्वारा लिखी गयी भूमिका
गोपी कृष्ण गोपेश का जन्म 11 नवम्बर 1925 को हुआ था। इन्होने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से
एम. ए. करने के पश्चात शोध कार्य किया। ‘किरण’, ‘धूप की लहरें’ (गीत-संग्रह);
‘तुम्हारे लिए’ (कविता संग्रह); ‘अर्वाचीन और प्राचीन से परे’ (रेडियो नाटक);
‘सोने की पत्तियां’ (विविध रचना संग्रह)
शोलोखोव के विश्व-प्रसिद्द उपन्यास ‘तीखी दोन’
के 4 खंडों के हिन्दी अनुवाद ‘धीरे बहो दोन रे’ पर 1973 में सोवियत लैंड नेहरू
अवार्ड से सम्मानित।
4 सितम्बर 1974 को निधन।
अनुवाद का काम हमेशा से एक चुनौती का काम रहा है। शब्दों के साथ-साथ भावों को जस का तस
रख देने का काम भी एक रचनाकार के ही वश की बात होती है। क्योंकि हर भाषा के
अपने-अपने संस्कार और संस्कृति होती है। गोपी कृष्ण गोपेश की लोकभारती प्रकाशन,
इलाहाबाद से हाल ही में एक महत्वपूर्ण किताब ‘विदेशों के महाकाव्य’ नाम से
प्रकाशित हुई है। दरअसल यह पुस्तक अंग्रेजी लेखिका एच. ए. गुएरकर की मूल किताब ‘द
बुक ऑफ़ एपिक’ के चुनिन्दा महाकाव्यों में से आठ कथाओं का हिन्दी अनुवाद है।
प्रोफ़ेसर राजेन्द्र कुमार के अनुसार ‘किसी भी भाषा की रचनात्मक समृद्धि का पता
सिर्फ इतने से नहीं चलता कि उसमें मौलिक रचनाएँ कितनी हुईं। देश-विदेश की अन्यान्य
भाषाओँ की कृतियों के अनुवाद से भी भाषा-विशेष समृद्ध होती है। अनुवाद से हमारी
भाषा की ग्रहणशीलता का प्रमाण भी मिलता है और उसकी अभिव्यक्ति क्षमता की व्यापाकता
का भी। इस दृष्टि से हिन्दी के सामर्थ्य को उजागर करने में अनुवादक के रूप में जो
महत्वपूर्ण भूमिका गोपी कृष्ण गोपेश ने निभाई, वह अविस्मरणीय है। उन्होंने कई
भाषाओँ की क्लासिक कृतियों का हिन्दी में अनुवाद कर के हिन्दी के प्रबुद्ध पाठकों
और साहित्यानुरागियों को यह अवसर उपलब्ध कराया है कि जिन भाषाओँ में उनकी गति नहीं
है, उन भाषाओं की भी कालजयी कृतियों का आस्वादन वे कर सकें।’ आज पहली बार पर हम
प्रस्तुत कर रहे हैं गोपी कृष्ण गोपेश की इस उम्दा कृति की भूमिका, जिसे लिखा है
उर्दू के प्रख्यात रचनाकार शम्सुर्रहमान फारूकी ने।
गोपी कृष्ण गोपेश |
गोपी कृष्ण गोपेश की किताब ‘विदेशों के महाकाव्य’
शम्सुर्रहमान फारूकी
1960 के दशक में हिन्दी साहित्य में बहुतेरी विभूतियाँ मौजूद थीं जो
हिन्दी में साहित्य को समृद्ध कर रही थीं।
छायावाद, छायावादोत्तर और प्रगतिवाद-यथार्थवाद जैसी वैचारिक प्रवृत्तियाँ अपने-अपने
मत-मतान्तर और कुनबे को ध्यान में रखते हुए लिख पढ़ और बोल रही थीं। कुल मिला कर यह हिन्दी साहित्य की
सक्रियता का बेहद अहम् दौर था। वैचारिकी पर जोर कुछ ऐसा था कि साहित्य के लिए नए
और ख़ास तरह के प्रतिमान गढ़े-बनाए जा रहे थे। जो कुछ भी उससे इतर था वह ग्राह्य न
था। प्रेम, भावनाएं, मानवीय मूल्य, कामनाएँ, ऋतुएं और प्रकृति साहित्य की विषय
वस्तु बनने की जगह प्रतीकों तक सीमित रह गए थे। पहले की, और नवागंतुक साहित्यिक
प्रवृत्तियों के बीच चल रहे इस शीत युद्ध में गोपी कृष्ण गोपेश शायद अपनी तटस्थता
या यों कहें कि निष्पक्षता के सहारे एक नए तरह की अनुभूतियों का साहित्य रचने का
मार्ग तलाश रहे थे। भविष्य में इसे ही उनकी ताकत और कमजोरी दोनों ही बनना था।
संजीदगी, बेबाकी और अपनों के लिए सदैव सुलभ रहने वाले गोपेश के बारे में
परिचयात्मक तो कुछ भी कहना उचित नहीं लगता लेकिन उनकी सहजता, सज्जनता और खुलेपन की
चर्चाएँ जहां-तहां सुनने को मिल ही जातीं थीं। जिस समय वैचारिक प्रतिबद्धता पर
विशेष जोर था उस समय गोपेश नवागत विचारों, रचनाओं और रचनाकारों के प्रति ज्यादा
उदार और सरल हृदय से उन्हें प्रोत्साहित करने वाले बने रहे। चाहें उनका रचना जगत
हो या आन्तरिक जीवन, दोनों ही जगह खुलापन और ग्राह्यता सामान भाव से दिखती थी।
मानों उनके व्यक्तित्व में गोपन के लिए कोई जगह ही न हो। हाँ, नापसंदगी का इजहार
उनके व्यक्तित्व के कुछ प्रधान गुणों में से एक जरुर बना रहा।
‘द बुक ऑफ एपिक’ की के प्रति अनुवाद के सुझाव
के साथ फ़िराक गोरखपुरी ने उन्हें सौंपा था जिसे युवा गोपेश ने पूरी तन्मयता और लगन
के साथ पूरा ही नहीं किया बल्कि भाषा के प्रति अपनी जवाबदेही और संजीदगी का भी
भरपूर एहसास कराया। बाद के दिनों में अनुवाद का उनका यह मिशन सतत जारी रहा और
उन्होंने बहुत सी विश्व-प्रसिद्ध कहानियों-उपन्यासों सहित अन्य रचनाओं से हिन्दी
के पाठकों को परिचित कराया। जहाँ उन्होंने दोस्तोव्यस्की, विक्टर ह्यूगो, अन्द्रेयस
उपित्स, अनातोली कुत्झनेतत्सेव, गिसिंग और शोलोखोव आदि की प्रसिद्ध रचनाओं को
हिन्दी में अनुदित किया, वहीँ निराला, पन्त और बच्चन की कविताओं का भी अंग्रेजी
अनुवाद किया। शोलोखोव के अनुदित उपन्यास ‘धीरे बहो दोन रे’ को विशेष ख्याति मिली
और सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार भी।
साहित्य में गोपेश कवि और गीतकार के रूप में
जाने जाते थे, उन पर रोमानियत का प्रभाव स्पष्ट था। रचना-कर्म के साथ-साथ उन्होंने
साहित्यिक गोष्ठियों के संयोजन में भी महत्वपूर्ण और सफल भूमिका निभाई। जिस मानवीय
गरिमा से वे स्वयं परिपूर्ण थे उसे सहज ही दूसरों में भी जहाँ-तहाँ ढूँढा। रचना और
रचनाकार दोनों में समग्रता तलाशते हुए उन्होंने बेखटके अपनी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त
कीं जो किसी को अंकुश सी तो किसी को स्नेहमयी छाँह सी लगी। व्यक्तित्व की निश्छलता
और बेबाकी ने साहित्य जगत में उन्हें सम्मान और अलगाव दोनों का बोध कराया। कभी
निराशा की घटाटोप छाया तो कभी उम्मीद के सप्त-रंग भी चमके, परन्तु उनका व्यक्तित्व
ही कुछ ऐसा था कि राह के रोड़े उनको पथ से डिगा नहीं सकते थे। भाषा, साहित्य और समाज
के प्रति उनकी चिंताएं हमेशा घनीभूत हो कर संप्रेषित होती रहीं। उनके प्रशंसकों
में निराला, बच्चन, पन्त, लक्ष्मीकांत वर्मा, विजय देव नारायण साही, रामस्वरूप
चतुर्वेदी, रघुवंश, दूध नाथ सिंह से ले कर राजेन्द्र कुमार जैसे हिन्दी जगत के कुछ
बड़े नाम आते हैं। गोपेश ने ‘द बुक ऑफ़ एपिक’ की आठ कथाओं का ‘विदेशों के महाकाव्य’
नाम से अनुवाद किया जिसमें यूनानी महाकाव्य ‘इलियड’, ‘ऑडिसी’, लैटिन का ‘इनीड’,
स्कैंडेनेवियन ‘वाल्संगा सागा’, इटैलियन ‘डिवाईना कामेडिया’, जर्मन
‘निबेलउंगेनलीद’, फारसी का ‘शाहनामा’ और अंग्रेजी का ‘पैराडाईज लास्ट’ शामिल थे।
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महाकाव्य को समझने और चाहने के बहुत से तरीके
हैं। एक तरीका जो आजकल हमारे मुल्क में लोगों ने अपनाना चाहा है वह यह है कि
महाकाव्य में लिखी हुई हर बात को ऐतिहासिक सच बल्कि उससे भी बढ़ कर विज्ञान की
सच्चाईयों की तरह माना जाए। लेकिन यह महाकाव्य को मानने का सबसे कमजोर तरीका है।
पहली बात तो यह कि अगर हम अपने देश के महाकाव्य को सच मानें तो दूसरे देशों को हम
यह दावा करने से किस तरह रोक सकते हैं कि उनके महाकाव्य भी सच हैं। बल्कि वे भी यह
कह सकते हैं कि केवल हमारा महाकाव्य ही सच है बाकी सब झूठ है।
पहली बात तो यह कि महाकाव्य के साथ झूठ-सच
जोड़ना ही नहीं चाहिए। अपने चारों तरफ फैली हुई और पूर्वाग्रहों से भरी दुनिया को
समझने और बयान करने के लिए मनुष्य ने सबसे पहले मिथक बनाए और कल्पित किये। इतिहास
के बदलने और दुनिया का अनुभव बढ़ने के साथ मिथकों ने महाकाव्य का रूप धारण कर लिया।
आज की दुनिया में महाकाव्य के दो सबसे बड़े लाभ यह हैं कि हम यह देख सकते हैं कि
पुराना इंसान जीव-जगत को किस तरह समझता-देखता था? उसकी आकांक्षाएँ क्या थीं? और वह
किस प्रकार अपने वातावरण को अनुकूल बनाने के बारे में सोचता था। दूसरा सब से बड़ा
लाभ यह हुआ कि महाकाव्य में शब्द और साहित्य के ऐसे दृश्य और भाव मिलते हैं
जिन्हें अब बनाना मुश्किल हो गया है।
यही कारण है कि आज की दुनिया पुराने महाकाव्यों
की कल्पित दुनिया में अपने लिए आकर्षण महसूस करती है। गोपेश के इन अनुवादों का एक
बड़ा महत्व यह भी है कि हम दूसरे देशों और राष्ट्रों की प्राचीन कल्पनाओं से किसी न
किसी हद तक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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अनीता गोपेश को मैं बहुत दिनों से जानता हूँ
लेकिन कभी यह पूछने का ख़याल न आया कि आप हमारे प्रिय मित्र गोपी कृष्ण गोपेश की
पुत्री या भतीजी तो नहीं हैं। अब जब वे गोपेश जी की इस किताब की छाया-प्रति ले कर
आयीं तो कुछ आश्चर्य और प्रसन्नता का अनुभव हुआ। 1960 के दशक में जब मैं यहाँ डाक
विभाग में कार्यरत था तो गोपेश से कभी रेडियो स्टेशन पर, कभी किसी गोष्ठी में, तो
कभी राह चलते भेंट हो जाया करती थी। मैंने उन्हें हमेशा सरल तबियत और दोस्तों से
प्रेम करने वाला पाया। इलाहाबाद से स्थानान्तरण के पश्चात मेरा उनसे सम्पर्क न रहा।
मुझे अपार हर्ष है कि उनकी बेटी अनीता इस किताब को पुनः साहित्य जगत में ला रही
हैं।
बहुत सुन्दर !अनीता जी को बहुत -बहुत बधाई ।
जवाब देंहटाएंअनीताजी बधाई की पात्र हैं
जवाब देंहटाएंगोपीकृष्ण गोपेश बेहद अच्छे अनुवादक और कवि थे। ’विदेशों के महाकाव्य’ किस प्रकाशन से आ रही है, अगर यह जानकारी भी होती तो अच्छा रहता। एक छुटभैये अनुवादक हुए हैं -- मदनलाल मधु। उन्होंने अपने एक संस्मरण में जिस तरह से यह दिखाने की कोशिश की है कि गोपेश जी को भाषा नहीं आती थी और वे हज़ारों ग़लतियाँ करते थे, वह बेहद निन्दाजनक है। उसी संस्मरण के कारण मैं मधु जी को यहाँ ’छुटभैया’ बता रहा हूँ। ख़ुद उनके अनुवादों में दर्जनों ग़लतियाँ निकल आती हैं।
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