अनुपम मिश्र की (ब्रज रतन जोशी की किताब 'जल और समाज' पर) भूमिका
अनुपम मिश्र |
अभी हाल ही में युवा रचनाकार ब्रज रतन जोशी की एक महत्वपूर्ण किताब प्रकाशित हुई है। 'जल और समाज' नाम से छपी इस महत्वपूर्ण पुस्तक की भूमिका लिखी है अनुपम मिश्र जी ने। दुर्भाग्यवश अनुपम जी अब हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन जल- संरक्षण के लिए उन्होंने जो काम किया है उससे वे हमारे स्मृतियों में हमेशा जगह बनाए रहेंगे। इस महत्वपूर्ण किताब की उपादेयता इसी बात से समझी जा सकती है कि अनुपम जी ने इसे 'एक बीज की तरह सुरक्षित रखने लायक काम' कहा है। अनुपम जी की तारीफ़ के कारण आप इस किताब को पढ़ कर तलाश सकते हैं। इस किताब के लिए मित्र ब्रज रतन जोशी को बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं अनुपम जी द्वारा लिखी गयी इस किताब की भूमिका। यह अवसर अनुपम जी को नमन करने का भी है। पहली बार की तरफ से अनुपम जी को श्रद्धांजलि देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनके द्वारा लिखी गयी यह भूमिका।
ब्रज रतन जोशी |
एक बीज की तरह सुरक्षित रखने लायक काम
श्रद्धा के बिना
शोध का काम कितने ही परिश्रम से किया जाए, वह आंकड़ों का एक ढेर बन जाता है। वह कुतूहल को शांत कर सकता
है, अपने सुनहरे अतीत
का गौरवगान बन सकता है, पर प्रायः वह
भविष्य की कोई दिशा नहीं दे पाता।
ब्रज रतन जोशी ने
बड़े ही जतन से जल और समाज में ढ़ेर-सारी बातें एकत्र की हैं और उन्हें श्रद्धा से
भी देखने का, दिखाने का
प्रयत्न किया है, जिस श्रद्धा से
समाज ने पानी का यह जीवनदायी खेल खेला था।
प्रसंग है
रेगिस्तान के बीच बसा शहर बीकानेर। देश में सब से कम वर्षा के हिस्से में बसा है यह
सुन्दर शहर। नीचे खारा पानी। वर्षा जल की नपी-तुली, गिनी-गिनाई बूंदें। आज की दुनिया जिस वर्षा को
मिली-मीटर/सेंटी-मीटर से जानती हैं उस वर्षा की बूंदों को यहां का समाज रजत बूंदों
में गिनता रहा है। ब्रज रतन जी उसी समाज और राज के स्वभाव से यहां बने तालाबों का वर्णन करते हैं। और पाठकों को ले जाते हैं एक ऐसी दुनिया, काल-खण्ड में जो
यों बहुत पुराना नहीं है पर आज हमारा समाज उस से बिलकुल कट गया है।
ब्रज रतन इस नए
समाज को उस काल-खण्ड में ले जाते हैं जहां पानी को एक अधिकार की तरह नहीं एक कर्तव्य की तरह देखा जाता था। उस दौर में बीकानेर में कोई 100 छोटे-बड़े तालाब
बने हैं। उन में से दस भी ऐसे नहीं थे, जिन पर राज ने अपना पूरा पैसा लगाया हो। नरेगा, मनरेगा के इस दौर
में कल्पना भी नहीं कर सकते कि आर्थिक रूप से संचित, कमजोर माने गए, बताए गए समाज के लोगों ने भी अपनी मेहनत से तालाब
बनाए थे। ये तालाब उस समाज की उसी समय प्यास तो बुझाते ही थे। यह भू-जल एक पीढ़ी, एक मोहल्ले, एक समाज तक सीमित
नहीं रहता था। ऐसी असीमित योजना बनाने वाले आज भुला दिए गए हैं।
ब्रज रतन इन्हीं
लोगों से हमें दुबारा जोड़ते हैं। वे हमें इस रेगिस्तानी रियासत में संवत् १५७२ में
बने संसोलाव से यात्रा कराना शुरू करते हैं और ले आते है सन् १९३७ में बने कुखसागर
तक। इस यात्रा में वे हमें बताते चलते हैं कि इसमें बनाना भी शामिल है और बड़े जतन
से इनका रख-रखाव भी। उसके बड़े कठोर नियम थे और पूरी श्रद्धा से उनके पालन का
वातावरण था जो संस्कारों के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी चलता जाता था।
लेकिन फिर समय
बदला। बाहर से पानी आया, आसानी से मिलने
लगा तो फिर कौन करता उतना परिश्रम उन तालाबों को रखने का। फिर जमीन की कीमत आसमान
छूने लगी। देखते ही देखते शहर के और गांवों तक के तालाब नई सभ्यता के कचरे से पाट
दिए गए हैं। पर आसानी से मिलने वाला यह पानी आसानी से छूट भी सकता है। उसके
विस्तार में यहां जाना जरूरी नहीं।
इसलिए ब्रज रतन
जोशी का यह काम एक बीज की तरह सुरक्षित रखने लायक है। यह शहर का इतिहास नहीं है।
यह उसका भविष्य भी बन सकता है।
सम्पर्क -
ब्रज रतन जोशी
मोबाईल - 09414020840
नमन
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी भूमिका
http://savanxxx.blogspot.in
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 05-01-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2576 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद