नरेन्द्र कुमार की कविताएँ
नरेन्द्र कुमार |
परिचय―
जन्म - 06. 06. 1980
शिक्षा - एम0 ए0 (हिन्दी)
प्रकाशन - कुछ रचनाएँ विभिन्न दैनिकों एवं
पत्रिकाओं में प्रकाशित।
सम्प्रति - सरकारी सेवा
आम जनता का दुःख-दर्द वही जान-समझ सकता है जो उससे किसी न किसी रूप में जुड़ा हुआ हो। पञ्च-सितारा होटलों में बैठ कर इस दुःख-दर्द के बारे में नहीं जाना जा सकता। इस दुःख-दर्द को जानने के लिए सब कुछ छोड़ कर गौतम या फिर गाँधी बनना पड़ता है। अपने आभिजात्यपने से जूझते हुए उसे यह सब कुछ छोड़ना पड़ता है। सीधे शब्दों में कहें तो उसे अपने को 'डिक्लास' करना पड़ता है। सिद्धान्त रूप में नहीं एकदम व्यवहारिक धरातल पर। वैसे 'डिक्लास' होना इतना आसान भी तो नहीं। खुशी की बात है कि आज का युवा रचनाकार अधिकांशतया इस आम जनता की समस्याओं से वाकिफ है और वह कोई पुराना बिम्ब उठा कर भी अपने समय की बात को पुरजोर तरीके से अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त कर लेता है। वह 'डिक्लास' होने के धरातल तक जाने के लिए प्रयासरत है और इसी क्रम में अपनी रचनाएँ रच रहा है। वे रचनाएँ जो उसके समय की महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। युवा कवि नरेन्द्र कुमार की 'ग्लेडिएटर' कविता कुछ इसी तरह की कविता है। आज 'पहली बार' ब्लॉग पर हम इस संभावनाशील युवा कवि की नवीनतम कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं।
नरेन्द्र कुमार की कविताएँ
ग्लेडिएटर
एक झटके में
होता सीना चाक ग्लेडिएटरों का
टप–टप गिरता खून
रेत में जा सूखता
लगते थे ठहाके
पवित्र रोम के अभिजातों के
साक्षी है कोलोसियम
एक आश्चर्य!
सभ्यता का
एक शरीर के चूकते ही
आ जाता दूसरा शरीर
गुलामों का...
मजदूरों का...
सीधे–सीधे कहें तो
मजबूरों का
उनकी नजर में
वे ग्लेडिएटर थे
एम्फीथिएटर के खिलौने थे
जिनके खातिर न ताबूत था
न कफन
पर दरअसल वे
हमारी दुनिया के शहीद थे
भूल चुके हम उन्हें
भूल चुके उनके विद्रोह को
उनके नेता स्पार्टकस को
रोम से कापूआ के बीच खड़े
हजारों सलीबों को
उन पर टंगे गुलामों को
बस याद रह गया है
भव्य कोलोसियम!
आज रोम का सीनेट
इसी स्मृति-लोप का फायदा उठा रहा है
पूरे ग्लोब पर छा रहा है
उनके एम्फीथिएटर बड़े होते जा रहे हैं
उसी अनुपात में ग्लेडिएटर बढते जा रहे हैं
जोड़ियाँ तय की जा रही हैं
अभिजात आज भी इन अखाड़ों में
पैसे लगा रहे हैं
पैसा बना रहे हैं
सीरिया, ईराक, अफगानिस्तान जैसे
विशाल एम्फीथिएटरों में
किसान–मजदूर एवं गुलामों के बेटे
लहूलुहान हो रहे हैं
यथार्थ जानने से पहले ही
चूक जा रहे हैं
हालात वही है
बस...
औजार बदल गए हैं
हम राष्ट्रवाद के नारों के बीच
ग्लेडिएटरों को गिरता देख रहे हैं
रेत पर, मिट्टी पर
कहाँ देख पा रहे हैं ?
...कि हर मुकाबले के बाद
हमारे बीच के लोग
कम होते जा रहे हैं
डीजे की धुन
डीजे की धुन पर
गंवई लड़के नाच रहे हैं
अबीर उड़ा रहे हैं
रंग मल रहे हैं
अपने हिस्से के दुख से बेखबर
उधार के शराब-सिगरेट की
खुमारी में डूब रहे हैं
इस घड़ी में
बर्बाद होती फसल नहीं है
पिता के फटे जूते
नहीं है
मां की पैबंद लगी साड़ी नहीं है
अभी वे बेरोजगार नहीं है
अभी वे लाचार नहीं हैं
कुछ घड़ी बाद
डीजे की धुन धीमी पड़ती है
अंत में आखिरी सांस की तरह
टूट जाती है
रंग-बिरंगी लाईटों के बुझते ही
लड़के पसीना पोंछ रहे हैं
फिर से वे बेरोजगार हैं
फिर से वे लाचार हैं
तू-तू मैं-मैं
तू-तू मैं-मैं में
न तुम थे न मैं था
बस...
दोनों की जिद थी
दोनों का भय था
भूख
उनकी भूख बढ गई है
पंजे और भी तेज हुए हैं
दाँते और नुकीली
आँखों की चमक
गहरी हो गई है
हल्के पदचाप
कान खड़े
लार टपकाते
हवाओं में
शिकार की
गंध के पीछे
बढते आ रहे हैं वे
ये लोग
ये कौन लोग हैं जो
बलात्कार की घटना को
हत्या से दबाना जानते हैं
हत्या की घटना को लूट से
फिर लूट की घटना को
हड़ताल से... घोटाले से..!
...और इसी क्रम
में
सूखे की समस्या को
अपने शोर से
दबाना जान गए हैं !
शंकित मन
उनके तिरुपति और अजमेर की
त्वरित यात्राओं को देख कर
होने लगा है विश्वास
...कि वहीं मिलते होंगे आज्ञा-पत्र
हत्या, अपहरण
और घोटालों के
तभी तो
हर आरोप-मुक्ति के बाद
पुर्नदर्शनार्थ जाते हैं
...कि काले धन के चढ़ावों के बदले
होते होंगे नवीनीकरण
उन आज्ञा-पत्रों के
तभी तो
उनकी वापसी पर
लोग और आशंकित होते हैं
तुम्हारा ईश्वर
तुम्हारे शपथ में
वह कौन ईश्वर होता है?
वह..!
जो षड्यंत्रों, घोटालों में
तुम्हारा साथ देता है
या वह..!
जो गरीबी, ज़हालत में
हमारे साथ होता है
हम डगमगाते हैं
हमारी आस्था भी
तुम डगमगाते नहीं
तुम्हारी आस्था भी..!
जरा हमें भी बताओ
तुम्हारा ईश्वर कहाँ रहता है ?
सड़ांध
शहर के
रिहायशी इलाके से
अलग-थलग
पड़ी थी वह कब्रगाह
समस्या बन कर
जन-जीवन
की
शहर की तरफ
हवा के झोंको के साथ
आती रहती सड़ांध
उन कब्रों से
अनेकों बार डाली गयी मिट्टी
पर, आती
ही रहती
वह तीखी सड़ांध
फिर से खोदी जाती कब्रें
मुर्दे जागे मिलते हर बार
देने लगते बयान
क्षत विक्षत कर
डाल दिए जाते
और भी गहरे...
कभी आये नहीं हाकिम
लिए नहीं गए उनके बयान
और वह तीखी सड़ांध
आज भी
वहां से आती है
अंधापन
उसने देखा...
शहर अंधा हो चुका था
और
तेजी से बढा आ रहा था
वह कभी भी
उसकी जद में आ सकता था
शहर..!
शरीर बढा रहा था
नेह-नाते निगल रहा
था
धुंध पैदा कर
खुद को छुपा रहा था
तभी उसने देखा
वे सारे उपकरण
उसके इर्द-गिर्द मौजूद
थे
जिनका उपयोग कर
शहर अंधा हो कर भी
तेजी से
बढता आ रहा था
उसने भी उन्हें संभाला
और,
ठीक-ठीक इस्तेमाल किया
उन्मुक्त
सोचता हूँ
तोड़ दूं
सारे धागे
हो लूं
उन्मुक्त
डर है
कहीं...
पा न लूं
अबाध गति
अनियंत्रित
राजनीति
उसे पलायन करने से रोको
खाली दिमाग मत रहने दो
कुछ मुद्दे दो, कुछ वादे दो
वापस बुलाओ
जातिवाद तक जाने दो
अधिक खुले तो
क्षेत्रवाद पर रोको
आगे बढ न पाये
धर्म को सामने रख दो
इतने पर भी उदार बने
देश-भक्ति में आकंठ डूबा दो
उसके बाद भी अगर..?
क्या बेतुका सवाल है !
फिर हम हैं
हमारा कानून है
बीहड़
इन दिनों...
मेरे अंदर भी
एक बीहड़ पल रहा है
घुप्प अंधेरा
घुस सको तो आ जाओ
कीचड़ सनी झाड़ियों के पार
पेड़ों के झुरमुटों में
चहचहाती चिड़ियों के पास
कल-कल करती
नदियां मिलेंगी
हरे-भरे पहाड़
भी
प्यार और उसकी स्मृतियाँ
सभी मिलेंगी
पर आना होगा
उन्हीं रास्तों से
जिन्हें खोल रखा है
सम्पर्क :
नरेन्द्र कुमार
द्वारा- ललन कुमार सिंह
2/10, शिवपुरम, गली
नं.–2
विजयनगर, रुकनपुरा
पटना–800014
बिहार
मो0 - 9334834308
ई-मेल – narendrapatna@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
बहुत बढ़िया बेलोस और शानदार अभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंसभी कविताये मुखर हो आयी है...नरेन्द्र कुमार को अशेष शुभकामनाएँ ।
जी बहुत आभार !
हटाएंवाह्ह्ह्ह् बहुत ही सुंदर रचनाएँ
जवाब देंहटाएंवाह्ह्ह्ह् बहुत ही सुंदर रचनाएँ
जवाब देंहटाएंआपका बहुत आभार !
हटाएंबहुत अच्छी कविताएँ
जवाब देंहटाएंशुक्रिया भाई !
हटाएंअति उत्तम एवं प्रेरणा दायक
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मित्र !
हटाएंइस कवि को पढ़ा जाना चाहिए, इस कवि पर बात की जानी चाहिए।
जवाब देंहटाएं