रमाशंकर सिंह का आलेख 'उत्तर प्रदेश के घुमन्तू समुदायों की भाषा और उसकी विश्व-दृष्टि'
रमाशंकर सिंह |
उत्तर प्रदेश के घुमन्तू
समुदायों की भाषा और उसकी विश्व-दृष्टि
रमाशंकर सिंह
भाषा एक आवाज में नहीं
होती है। विभिन्न आवाजें मिल कर भाषा का निर्माण करती हैं। इन आवाजों को विभिन्न
समयों में सुनने का प्रयास किया जाता रहा है लेकिन यह श्रवण चयनात्मक रहा है।
आधुनिक समय में मुद्रण, संसाधन और वितरण
की तकनीक की सुलभता के कारण उन समुदायों का ही साहित्य और इतिहास प्रकाश में आ
पाया है जिन तक औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक बौद्धिक समुदाय पहुँचे हैं। घुमन्तू
समुदाय इस पहुँच से दूर रहे हैं। उत्तर भारत के साहित्य में स्त्री साहित्य, दलित साहित्य और
आदिवासियों के साहित्य की बात की जाती रही है लेकिन इस सबके बीच घुमन्तू समुदायों
के बारे में लगभग न के बराबर लिखा गया है। इसका एक कारण अकादमिक उपेक्षा तो है ही
इन समुदायों की ‘लिखित ज्ञान' से दूरी भी है।
इसलिए सुविधाजनक तरीके से मान भी लिया गया है कि इन समुदायों की अपनी कोई संख्या
पद्धति, संसार के प्रति
नजरिया, भाषा और साहित्य
नहीं है।
उत्तर
प्रदेश के घुमन्तू समुदायों की भाषा
उत्तर प्रदेश में कई ऐसे
समुदाय हैं जो सदियों से घुमन्तू जीवन जीते हैं। ये समुदाय हैं- नट, चमरमंगता, पथरकट और महावत।
इसमें नट, चमरमंगता और
महावत में एक समानता है कि वे भैंस-भैंसों का व्यापार करते हैं और जड़ी-बूटी का काम
करते हैं। चमरमंगता बारहों महीने भिक्षावृत्ति करते हैं। पथरकट पत्थर का सिल लोढ़ा
बना कर बेचते हैं और वे जंगलों आदि से शहद निकाल कर बेचते हैं। नट और महावत कुश्ती
भी सिखाते रहे हैं। महावत औरतें दाँत झाड़ने का काम और कान साफ करने का काम करती
हैं। वे भैंस और भैंसो के व्यापार और उनके गर्भाधान का काम अभी भी करते हैं। पिछले
कुछ वर्षां में गाँवों के अंदरूनी इलाकों में भी सरकारी पशु अस्पतालों और बाएफ के
प्रवेश ने उनके इस रोजगार को प्रभावित किया है। जिम, शक्तिवर्द्धक दवाओं तथा फिल्मी सितारों से
प्रभावित युवा कुश्ती में कोई रूचि नहीं रखते हैं और लाठी को पिस्तौल या बन्दूक ने
निष्प्रयोज्य बना दिया है।
घुमन्तू
समुदायों की भाषा का आंतरिक परिसर
प्रत्येक समुदाय अपनी
अंदरूनी दुनिया में एक भाषाई परिसर में जीवित होता है। पढे लिखे और स्थायी जीवन
जीने वाले समुदाय प्रिंट-कल्चर में मुद्रित ज्ञान और भाषा को न केवल अपना ज्ञान और
भाषा बना लेते हैं बल्कि इसके द्वारा एक संरचनात्मक श्रेष्ठता बोध भी स्थापित करने
का प्रयास करते हैं। दूसरी ओर घुमन्तू समुदाय अपना ज्ञान और अपनी भाषा अपने गीतों, कथाओं और
किंवदंतियों में सुरक्षित और परिवर्धित करता चलता है। इसमें समुदाय की महिलाएँ और
वृद्ध एक सांस्कृतिक क्यूरेटर की भूमिका निभाते हैं। महावत समुदाय में महिलाएँ कथा
कहती हैं। प्रायः वे दस के समूह में गोल घेरा बना कर बैठती हैं। सबसे सयानी महिला
कथा शुरू करती है। कथा के मध्य में अन्य महिलाएँ भी इसमें कथा-सूत्रों को जोड़ती
रहती हैं। इसके लिए वे अपने आपको तैयार करती हैं। एक दूसरे को न्यौता भेजा जाता
है। आपस में गुड़ या मिठाई बँटती हैं। इन कथाओं को एक विशेष अवसर पर सबको सुनना
होता है तो बिना अवसर के इन्हें सुनना या सुनाना गुनाह माना जाता है। प्रिंट कल्चर
आने के बाद कुछ कथाएँ छोटी-छोटी पुस्तिकाओं में भी छपने लगी हैं। उत्तर प्रदेश में
महावत इस्लाम धर्म को मानते हैं। इसलिए इनकी कथाओं में मोहम्मद साहब और उनसे जुड़े
पवित्र कथानकों के अंदर महावत कथा-वाचक स्थानीय कथाओं को पिरो देते हैं। इसलिए यह कथाएँ
रस्सी की एक लट के ऊपर दूसरी लट के लिपट जाने जाने जैसी प्रतीत होती है। यह कथाएँ
एक ही समय में दो कथाएँ कहती हैं- एक मोहम्मद साहब की तो दूसरी इस समुदाय की।
उत्तर प्रदेश के नटों में
कथा कहने और सुनने की दूसरी व्यवस्था है। समुदाय का पुरोहित, सोखा या कोई
बड़ा-बूढ़ा कथा कहता है। महिलाएँ भी कथा कहती हैं। बहेलिया समुदाय और पारधी समुदाय
में भी लगभग ऐसी ही व्यवस्था होती है। यह दुनिया कैसे बनी? इस दुनिया को कौन
लोग चलाते हैं? समुदाय का नामकरण
कैसे हुआ या जिस स्थान पर इस समय बसे हुए हैं, वहाँ पर कैसे आये? इस बात पर कथाएँ
सुनायी जाती हैं। इन कथाओं में एक विश्व-दृष्टि होती है जिसमें परिवार, समुदाय या दुनिया
को बचाने, उसे अधिक
समतापूर्ण बनाने, संपत्ति के
न्यायपूर्ण वितरण, मित्रता और आपसी
भाईचारे की अविभाज्यता के संकेत छिपे होते हैं। इन कथाओं के अंदर इन घुमन्तू
समुदाय के अस्तित्व में बने रहने की जुगत भी छिपी होती है। यह कथाएँ समूह में सुनी
और सुनाई जाती हैं इसलिए एक ही समुदाय के अंदर इसके कई वर्जन होते हैं। एक ही कथा
अलग-अलग समुदायों में पायी जा सकती है विशेषकर उन घुमन्तू समुदायों में जो दूसरे
समुदायों से आर्थिक क्रिया कलापों से जुड़े होते हैं। जैसे उत्तर प्रदेश में
अनुसूचित जाति में शामिल किये गये बहेलिये और मध्य प्रदेश के मोघिया आपस में जुड़े
हैं, विशेषकर दोनों
प्रदेशों के सीमावर्ती जिलों में। उत्तर प्रदेश के बहेलिया समुदाय के लोग कंजर
समुदाय के लोगों से पशुओं और पक्षियों का व्यापार करते हैं। इस प्रकार एक ही कथा
मोघिया, बहेलिया और कंजर
समुदाय में थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ पायी जा सकती है।
मित्रता और आपसी
सौहार्द्र के लिए सुनाई जाने वाली इन कथाओं में पंचतन्त्र के कथा-शिल्प की झलक मिल
सकती है जो जो इन कथाओं की एक लंबी श्रुति परम्परा की ओर इशारा करती हैं। उत्तर
प्रदेश के नट समुदाय में एक कथा मिलती है। कथा कुछ यों सुनाई जाती है कि एक मोर
था। एक तीतर था। दोनों हमेशा साथ रहते थे। एक बार दोनों में इस बात पर झगड़ा हो गया
कि किसके पंख सबसे सुंदर हैं। जब कोई निपटारा नहीं हुआ तो वे अलग हो गये। अलग होकर
दोनों दुःखी रहने लगे। इसी बीच एक दिन कुछ महिलाएँ जा रही थीं। एक महिला ने दूसरी
से कह कि देखो वह मोर है। दूसरी महिला ने कहा कि नहीं वह मोर नहीं है। यदि वह मोर
होता तो उसके पास में तीतर भी होता। मोर को बहुत दुःख हुआ। उसने महिलाओं से कहा कि
उसने अपने मित्र को रूष्ट करके ठीक नहीं किया। उसके बिना मोर का मन नहीं लगता।
उसने महिलाओं से कहा कि यदि उसे कहीं तीतर दिखाई पड़े तो यह बात उसे बता दें।
महिलाओं को कुछ दूर आगे जाने पर तीतर दिखाई पड़ा। एक महिला ने दूसरी से कह कि देखो
वह तीतर है। दूसरी महिला ने कहा कि नहीं वह तीतर नहीं है। यदि वह तीतर होता तो
उसके पास में मोर भी होता। अब तीतर को बहुत दुःख हुआ। तीतर ने महिलाओं से कहा कि
उसने अपने मित्र को रूष्ट करके ठीक नहीं किया। उसके बिना तीतर का मन नहीं लगता। जब
महिलाओं ने बताया कि मोर के साथ भी ऐसा ही है तो तीतर मोर के पास चला गया। दोनों
ने एक दूसरे से माफी मांगी। वे साथ-साथ रहने लगे। इस सामान्य सी कथा को कह कर
समुदाय के बड़े-बूढ़े समुदाय के आपसी संबंधों और दोस्तियों को बचाने की जुगत खोजते
हैं। वास्तव में आदिवासी और घुमन्तू समुदाय अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए न
केवल कथा-कहानी और गीतों की रचना करते हैं बल्कि अपने सामुदायिक जीवन में एक दूसरे
को स्वीकारने की विधियां भी ईजाद कर लेते हैं।
घुमन्तू
समुदायों के भाषाई परिसर का विस्तार
उत्तर प्रदेश में घुमन्तू
समुदाय स्थायी रूप से बस रहे हैं। महावत, नट, पथरकट और कंकाली
कहे जाने वाले समुदाय ऐसे समुदाय हैं जिन्हें स्थानीय प्रभुत्वशाली जातियों ने
बागों, खाली पड़ी जगहों, ग्राम-समाज की
जमीनों और चकबंदी से निकली जमीनों पर बसाया है। 1992 के बाद पंचायती राज व्यवस्था के आने के बाद वे
ग्रामीण उत्तर प्रदेश की राजनीति में महत्वपूर्ण हो गये हैं। उत्तर फैजाबाद जिले
में एक जगह है बड़ागाँव। यहाँ महावतों का एक बड़ा डेरा है। यहाँ से वे समीपवर्ती
जिलों में आते जाते रहते हैं। उनका एक जत्था आज से कोई 80 वर्ष पहले
गोण्डा जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर
आदमपुर गाँव में बस गया। वहाँ के एक जमींदार ने उन्हें माफी के रूप में कुछ बीघे
जमीन दी थी। जब यहाँ इनकी जनसंख्या बढ़ने लगी तो घुमन्तू स्वभाव के होने के कारण वे
वहाँ से लगभग 14 किलोमीटर दूर
सिसई ग्राम सभा में एक बाग में बसना प्रारम्भ हो गये। यह लगभग 40 साल पहले की बात
है। सन् 2005 में जब उत्तर
प्रदेश में पंचायतों के चुनाव हो रहे थे तो उनका मतदाता पहचान पत्र सिसई ग्राम सभा
के निवासी के रूप में बना। वे ग्राम सभा की बंजर जमीन पर बसे हैं। पानी पीने के
लिए एक इण्डिया मार्का पंप लगा है। अभी उनको इन्दिरा आवास योजना, जिसे सामान्य
बोल-चाल की भाषा में कालोनी कहा जाता है, की सरकारी स्वीकृति के इन्तजार में है। उनके टोले में 20 से अधिक वोट
होने के कारण उन्हें लगता है कि देर-सवेर गाँव का कोई न कोई प्रधान उनकी बात
सुनेगा और उनके लिए कुछ न कुछ करेगा। उनकी बस्ती में ही दो सरकरी स्कूल हैं। एक
प्राथमिक विद्यालय और दूसरा लघु माध्यमिक विद्यालय, फिर भी महावतों के कुछ बच्चों का स्कूल में
नामांकन होने के बावजूद वे स्कूल नहीं जाते हैं। अध्यापक कहते हैं कि वे आना नहीं
चाहते और महावत कहते हैं कि अध्यापक उनके बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते। बच्चे कहते
हैं कि उन्हें स्कूल अच्छा नहीं लगता। आखिर उन्हें स्कूल की दुनिया अपने डेरे से
अच्छी क्यों नहीं लगती? स्कूल के अन्य
बच्चों की तुलना में वे बहुत गरीब हैं और उनके माता-पिता अभी समझ को हासिल करने
में सक्षम नहीं हो पाए हैं कि शिक्षा से ही उनकी आर्थिक और सामाजिक अपवंचना को
न्यूनतम किया जा सकता है। इस के अतिरिक्त एक कारण यह है कि इन बच्चों की दुनिया उस
दुनिया से बहुत अलग है जहाँ से स्कूल के अन्य बच्चे सम्बन्ध रखते हैं। इनकी दुनिया
में मुर्गे, कुत्ते, भैंस-भैंसा और
इससे सम्बन्धित चीजें हैं जिन से वे अपनी बोली के द्वारा बहुत गहरे तक जुड़े हैं।
प्रसिद्ध नृतत्वशास्त्री और प्रशासक के. एस. सिंह के सम्पादन में प्रकाशित इण्डिया‘ज कम्युनिटीज तो
कहती है कि वे हिन्दी बोलते हैं और देवनागरी लिपि का प्रयोग करते हैं लेकिन अधिकांश महावत पढ़े लिखे नहीं हैं और वे
हिन्दी से भिन्न एक अलग प्रकार की भाषा का अपने दैनिक जीवन में बरताव करते हैं।
भाषा जीविका का हथियार
है। उपेक्षित और परिधीय समुदाय अपनी जीविका के लिए विशिष्ट कूट भाषाओं की भी रचना
करते हैं। इलाहाबाद और बनारस के निषादों तथा पंडों ने अपनी एक कूट भाषा विकसित कर
ली है। इस बात पर विवाद हो सकता है कि यह भाषा है कि नहीं लेकिन इतना स्पष्ट है कि
अपने दैनिक जीवन में वे इसका प्रयोग अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए करते हैं। यदि
कभी आप इलाहाबाद में गंगा-यमुना के संगम पर जाएं और थोड़ा ध्यान से सुनें तो पाएँगे
कि पंडे और नाव चलाने वाले अपने समुदाय के अंदर बहुत ही मद स्वर में कुछ वाक्यों
या वाक्य खंडों में बातचीत करते हैं। इस बातचीत में दो समानांतर धाराएँ होती हैं।
एक धारा वह होती है जब वे समझ में आ सकने वाली स्थानीय हिन्दी भाषा में बात करते
हैं- बाबू जी....संगम-संगम..... पूरी नाव किराये पर लेंगे कि अन्य सवारियों के साथ
चलिएगा....आने जाने का 200 रूपया.....
बिल्कुल संगम तक चलेगें...... त्रिमुहानी तक..... अरे आप कम दे दीजिएगा.... जो समझ
में आएगा वही दीजिएगा। यह भाषा हमें समझ में आती है। बिल्कुल इसी समय वे एक दूसरी
भाषा में आपस में बातचीत करते हैं। इसका स्वर धीमा होता है। इस बातचीत में निषाद
सवारियों के बारे में आपस में बात करते हैं। जो निषाद पहले किसी सवारी के पास
पहुँचता है, वह सवारी से मोल-भाव
करता है। यदि सवारियों का कोई बड़ा समूह आ पहुँचता है तो कई लोग एक पूर्वनिश्चित
पेशेवराना समझ के अनुसार बात करने लगते हैं। इस बातचीत को यदि सुनें तो कुछ इस
प्रकार की वाक्य संरचना सामने आती हैः- चौकड़ मांजी.... चौकड़ मांजी... फुलान
पखियारी.... हातो सुनरैया कछान कर। बहुत ही ठीक ठाक सवारी है.... ठीक सवारी ......
समृद्ध महिला है...... इस से पाँच सौ रूपया तक का भाड़ा तो मिल ही जाएगा)। लच्चड़
हय...... धानी मांजी...... तोय बोसाय ले (लाचार किस्म की सवारी है...... ठीक सवारी
नहीं है (उसकी ठीक से किराया देने की क्षमता नहीं है..... तुम्हीं सौदा पटा लो)।
सवारियों से कितना किराया लेना है, कितना कमीशन आपस में तय करना है, इस के लिए उन्होंने अपने हिसाब से संख्याओं का निर्माण किया है। कहते हैं कि
भाषा और लिपि के विकास के आरम्भिक चरण में संख्याओं का निर्माण सबसे पहले होता है।
उन्हों ने भी संख्याओं से शुरूआत की होगी क्योंकि घाट पर संख्याएँ उनकी जीविका से
जुड़ी हैं। संख्याओं के नाम के पीछे उनके अपने व्यवहारिक और अनुभवसिद्ध तर्क हैं।
संख्या एक (1) के लिए वे
सांग/सान का प्रयोग करते हैं तो सौ (100) के लिए सुं/सुन का प्रयोग करते हैं। निषादों के बीच सौ के
लिए सुन या सुं का प्रयोग सम्भवतः इसलिए प्रचलित हुआ होगा कि सौ के अन्त में दो
शून्य होते हैं। इसके अतिरिक्त एक से लेकर दस तक की संख्यायें परम्परागत 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11,
...का पालन नहीं करती हैं। उन्होंने इसे अपनी सुविधा के अनुसार बनाया है। रूपया
के लिए वे रैया शब्द प्रयुक्त करते हैं।
शब्द संख्या
सांग/सां एक 1
जो छो 2
रख /सिंघाड़ा तीन 3
फोक चार 4
हातो पाँच 5
हातो सान छह 6 पाँच में एक जोड़ कर
= छह
हातो जो सात 7 पाँच में दो जोड़ कर=
सात
हातो रख आठ 8 पाँच में तीन जोड़
कर = आठ
हातो फोक नौ 9 पाँच में चार जोड़
कर = नौ
सलाय दस 10
रख पंजा पन्द्रह 15
कोरी बीस 20
मासा पच्चीस 25
रख सलाय तीस 30 तीन को दस से
गुणा कर के
रख सलाय हातू पैंतीस 35 तीन को दस से
गुणा करके और उसमें पाँच जोड़ कर
फोक सलाय चालीस 40 चार को दस से गुणा
फोक सलाय हातू पैंतालीस 45 चार को दस से
गुणा करके और उसमें पाँच जोड़ कर
टाली पचास 50
टाली सलाय साठ 60 पचास धन दस = साठ
टाली मोरी सत्तर 70 पचास धन बीस = सत्तर
टाली रख सलाय अस्सी 80 पचास धन तीस (तीन को दस
से गुणा करके) = अस्सी
टाली फोक सलाय नब्बे 90 पचास धन चालीस (चार
को दस से गुणा कर के) = नब्बे
सुनरैया सौ 100
सलाय सुनरैया एक हजार 1000
इसी प्रकार महावतों और
नटों में भी है। आपसी बातचीत में महावत या नट विशेष वाक्यों या वाक्य खंडों का
प्रयोग करते हैं जिसे उनका ग्राहक समझ नहीं पाता है या इस बातचीत से उसका कोई सीधा
जुड़ाव नहीं दीख पड़ता है। जब उन्हें ग्राहकों से ज्यादा पैसा लेना होता है तो इस
प्रक्रिया को खोभना यानी ऐंठना कहते हैं।
‘सुआब देमा आवा है रे बपई, पक्की खम्मिस
खुभाड़ ल्य तोय’
यानी ओ पिता, मनमाफिक ग्राहक
आया है, इससे पाँच सौ
रूपये ऐंठ लो।
महावतों के पास पक्के घर
या तिजोरी तो होती नहीं इसलिए वे धन को बहुत ही सुरक्षित रखने के लिए प्रयत्नशील
रहते हैं। प्रायः वे इसे कथरी में या अपने वस्त्रों के आंतरिक भागों में बनी जेबों
में रखते हैं। धन को छुपा कर रखने को ‘नसिया रखा हय’ कहा जाता है। जिस प्रकार
निषाद और पंडे रूपये और संख्याओं को विशिष्ट नामों से जानते हैं, उसी प्रकार महावत
भी रूपयों को गिनने की एक प्रणाली विकसित करने में सफल रहे हैं।
रूपए का हिन्दी में नाम महावतों और नटों की भाषा में नाम
रूपया कहीला
एक रूपया - एक कहीला
दो रूपया - दो कहीला
तीन रूपया - तीन कहीला
चार रूपया - चार कहीला
पाँच रूपया- पाँच कहीला
छह रूपया - छह कहीला
सात रूपया - सत्ता
आठ रूपया - आठ कहीला
नौ रूपया - नौ कहीला
दस रूपया - टसिल
बीस रूपया - दुइ लांग
तीस रूपया - टेढ़वा
चालीस रूपया - रावा
पचास रूपया - खम्मिस
सौ रूपया - लांग कहीला
पाँच सौ रूपया - पक्की खम्मिस
एक हजार रूपया - पक्की
पाँच हजार रूपया - पाँच पक्की
दस हजार रूपया - असिल पक्की
दुनिया के सभी घुमन्तू
समुदायों में कुत्ते का महत्वपूर्ण स्थान है। महावतों के डेरे में और उससे बाहर
कुत्ता सदैव साथ में रहता है। लड़के को ‘बटरो’ और लड़की को ‘बटरी’ कहा जाता है।
पत्नी को ‘गिहारी’ कहा जाता है। बटरो कुकुर बांधसी हय यानी - लड़का कुत्ता बाँध रहा
है। सम्बोधन सूचक उच्चारणों में पुल्लिंग के लिए ‘रे‘ और स्त्रीलिंग के लिए ‘री‘ का प्रयोग किया
जाता है-
बुआ हियाँ आरी। आव चली रे
बजार- बुआ यहाँ आइए। आओ बाजार चलते हैं।
क्रियासूचक शब्दों के लिए
महावत डरिमा, करिमा, चलिजाई का प्रयोग
करते हैं-
खाई लीमा? भोजन कर लिया है?
चलि जाई घाय छीलन को? घास छीलने को
चलोगी?
अब्बै तोंहके मारि डरिमा-
मैं अभी तुम्हें मार डालूँगा।
कहीं-कहीं उनकी बोली में
भोजपुरी का पुट भी देखने को मिलता है-
दुकान खुलल है आटा ली
अउबे? दुकान खुली है
आटा ले आओगे?
महावतों के आपसी
सामुदायिक सम्बन्ध बहुत ही प्रगाढ़ होते हैं लेकिन वे बात-बात में लड़ भी सकते हैं
क्योंकि हर व्यक्ति कुछ न कुछ काम करता है और कोई किसी की धौंस-पट्टी नहीं सुनता।
रूपए-पैसे के लेन देन में अगर विवाद हो गया तो वे आपस में इस प्रकार झगड़ भी सकते
हैं-तोर हमरे ऊपर लइमी लगाय दिहिस? (तुमने मुझ पर चोरी का इल्जाम लगा दिया?) अथवा किसी
ग्रामीण किसान, जमींदार या पुलिस
ने उन पर चोरी का इल्जाम लगा दिया तो वे कह सकते हैं- हमरे ऊपर लइमी न लगाऊ। वास्तव में अभी भी भारतीय समाज का प्रभुत्वशाली
वर्ग और पुलिस इस औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त है कि गरीब और घुमन्तू जातियाँ
पेशेवर तौर पर चोर होती हैं। इस निर्मिति ने इन वर्गों के खिलाफ
सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण तैयार किया और उन्हें हाशियाकृत कर देने का एक छद्म
नैतिक आधार तैयार किया।
इस प्रकार प्रकार हम पाते
हें कि जब हम भाषाओं या बोलियों के बारे में बात कर रहे होते हैं तो हम केवल उन
भाषाओं या बोलियों के बारे में बात कर रहे होते हैं जो दृश्यमान हैं या जो
दृश्यमान समूहों द्वारा बोली जाती हैं। इसे हमारी भाषाई चेतना की अल्प दृष्टि कहें
या असहिष्णुता कि हमारा मानस यह मानने को प्रस्तुत नहीं हो पाता कि ठीक हमारे
इर्द-गिर्द एक बोली या भाषा सांस ले रही है। उसे सुनने की जरूरत है। उस दुनिया के
नागरिकों से परिचय की जरूरत है। हम अपने देश को प्यार करने का दावा करते रहते हैं।
जब तक हम उसकी सभी भाषाओं को प्यार नहीं कर पाएँगे तब तक उसे पूरा का पूरा कैसे
प्यार करेंगे?
(आभार : इस लेख के कुछ हिस्से बद्री नारायण(2016), संपादक, उत्तर प्रदेश की भाषाएं, ओरिएंट ब्लैकस्वान, नई दिल्ली में छपे थे जबकि एक हिस्सा गणेश नारायण देवी द्वारा सितंबर 2015 में इंडिया इंटरनेशनल सेटर के एक तीन दिवसीय सेमिनार में पढ़ा गया था।)
सम्पर्क –
मोबाईल - 08953479828
मेरे पिता श्री जगन्नाथ त्रिपाठी शारदेय जो भाषाविद् थे ,कहते थे जब एक भाषा मरती है तब सिर्फ एक भाषा नहीं पूरी की पूरी संस्कृति मरती है । बहुत खोजी दृष्टि से लिखा गया सार्थक लेख । लेखक को बधाई ।
जवाब देंहटाएंआपका धन्यवाद
जवाब देंहटाएंमुझे ये लेख बहुत ही महत्वपूर्ण लगा क्योंकि २१वीं शताब्दी में महिला विमर्शों के प्रभाव के साथ साथ नए आंदोलन से उपजा दलित विमर्श तो बहुत हद तक अपनी एक अहम् भूमिका में आया लेकिन आदिवासी विमर्श अभी भी बहुत हाशिये पर है और उसमें भी घुमन्तु समुदायों की बात आज तक न तो प्रखर रूप से आयी और न ही किसी बहस का मुद्दा बनी। भाषा और सांस्कृतिक पहलुओं को संजीदगी से छूते हुए आपने इस लेख में घुमन्तु समुदायों के रोज़मर्रा के जीवन को बहुत सजीवता से उभारा है। आपका आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन
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